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(१८५)
सुभग' जिनदेव का पाना, सुरुचि जिनधर्म की आना । स्वपर विज्ञान मनमाना मिलै यह मुसकिल से बाना ॥ रत्नत्रय. ॥ २ ॥ अरे नर दाव यह पाया, कहा विषयनि मैं ललचाया । सुधारस छोड विष खाया, रतन तजि कांच' मनभाया । गमाओ वक्त मत प्यारे, तजो ये भोग अहितकारे । जिनेश्वर वचन ये धारे, जिन्हों को मिलते सुख सारे ॥ रत्नत्रय. ॥ ४ ॥
(५०२)
पद-ख्याल श्रावक कुल पायो, अपने क्यों इष्ट गमायो' धर्म को ॥ टेर ॥ श्रावक धर्म पंचं परमेष्ठी इष्ट कह्यो भगवान । जिनको नाम धाम बिन जाने, मूरख करन गुमान जी ॥ श्रावक. ॥ १॥ अपने अपने इष्ट देव को सबही पूजै ध्यावै । इष्ट तज्यौ सो नर या जग में, पापी ही कहलावैं जी ॥ श्रावक. ॥२॥ परम सुगुरू उपदेश शास्त्र को, हिरदै मैं नहि आयो । बाल ख्याल मदमोह जाल में, यो ही जन्म गुमायो जी ॥ श्रावक. ॥ ३ ॥ मूल बिना फल फूल लगै ना, यो सतगुरू समझावे । जो वेश्या का पूत होय सो, बाप किसे बतलावै जी ॥ श्रावक. ॥ ४ ॥ शीलवती पतिवरता१ नारी, निज पति ही को चावै२ । कैसो ही दुख क्यों न परै वह व्रत अपनो न गमावै जी ॥ श्रावक. ॥ ५ ॥ ये दृष्टांत जानकर अपने मन में आप विचारो। राग द्वेष को त्याग 'जिनेश्वर' आज्ञा उर में धारो जी ॥श्रावक. ॥ ६॥
(५०३)
पद-राग ख्याल मति वृथा गमावै, सहसा नहि पावै, मानुज जन्म को ॥ टेर ॥ मानुज जन्म निरोगी काया, उर विवेक चतुराई । धर्म अधर्म पिछान किये विन काम कछू नहि आई जी ॥ मति. ॥ १ ॥ जिनवर धर्म दिंगवरता को, यदि उर धरनो भाई ।
१.सुन्दर २.कांच मन को अच्छा लगा ३.हानि कारक ४.बहुत से सुख ५.खोता है ६.घमंड ७.आराध्य ८.अज्ञानतावश ९.इस प्रकार १०.पुत्र ११.पतिव्रता १२.चाहती है १३.पहचान १४.दिगंबरत्व ।
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