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________________ (१८६) तौ आगम' अनुसार देवगुरू तत्व पर सुखदाई जी॥ मति. ॥ २ ॥ खान पान अरु विषय भोग के सेवन की चतुराई । कूकर' शूकर पशु भी करते यामें कहा बड़ाई जी ॥ मति. ॥ ३ ॥ क्षण भंगुर विषयनि के काजै निर्भय पाप कमावै । हे नर करत कहा अनरथ यह शुभ शिक्षा न सुहावै जी ॥ मति. ॥ ४ ॥ बहुविधि पाप करत हरखावै सब कुटुंब मिल खावै । दुख पावै जप नरक धारा में कोईय न काम जु आवैजी ॥ मति. ॥ ५ ॥ मानुज देह रतन समपाकर जो निजहित करवावै । कहत 'जिनेश्वर' सो नरभव के, धारन को फल पावै जी ॥मति. ॥ ६ ॥ श्रीमद् राजचंद्र (५०४) राग-यमन कल्याण अमूल्य तत्त्व विचार ! वह पुण्य-पुंज'-प्रसंग से शुभ देह मानव का मिला । तो भी अरे ! भवचक्र'' का फेरा न एक भी टला २ । सुख प्राप्ति हेतु प्रयत्न करते सुक्ख जाता दूर है । तू क्यों भयंकर-भाव मरण-प्रवाह में चकचूर है ॥ लक्ष्मी ३ बढ़ी अधिकार भी, पर बढ़ गया क्या बोलिए। परिवार और कुटुम्ब है क्या बुद्धि? कुछ नहि मानिये ॥ १ ॥ संसार का बढ़ना अरे ! नरदेह की यह हार है । नही एक क्षण तुझको अरे ! इसका विवेक विचार है । निर्दोष सुख निर्दोष आनंद लो जहां भी प्राप्त हो । यह दिव्य अन्तस्तत्व' जिससे बंधनों से मुक्त हो ॥२॥ परवस्तु में मूर्च्छित न हो, इसकी रहे मुझको दया । वह सुख सदा ही त्याज्य रे ! पश्चात् जिसके दुख भरा ॥ मैं कौन हूं आया कहाँ से और मेरो रूप क्या ? सम्बन्ध दुखमय कौन है ? स्वीकृत करूं परिहार" क्या ? ॥३॥ १.शास्त्रों के अनुसार २.कुत्ता ३.सूअर ४.अनर्थ ५.अच्छा लगना ६.प्रसन्न होता है ७.पृथ्वी पर ८.करवाता है ९.मनुष्य भव धारण करने का फल पाता है १०.पुण्योदय से ११.संसार चक्र १२.दूर होना १३.धन बढ़ा १४.पराजय १५.आत्मा १६.बाद में १७.स्वरूप १८.त्याज्य । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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