SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२८) रायचन्द्र भाई गुजरात के निवासी थे। अत: उनकी समस्त रचनाएँ गुजराती में लिखी गईं। उनका “आत्म-सिद्धि” नामक आध्यात्मिक ग्रन्थ लोक-प्रसिद्ध है तथा वह जनसामान्य का कण्ठहार बना हुआ है। उनकी डायरी तथा भक्तजनों के लिखे गए शताधिक पत्र भी अध्यात्म-चिन्तकों के लिए अमृत-कलश के समान सिद्ध हुए हैं। रायचन्द्र भाई का कुल जीवन काल ३२ वर्ष (सन् १८६६-१८९८) का रहा किन्तु इस अल्पकाल में भी उन्होंने एक ओर भौतिक जगत की आकाशीय श्रेष्ठता का स्पर्श किया, तो दूसरी ओर अध्यात्म-साधना एवं आत्म-चिन्तन के सुमेरु-शिखर का भी स्पर्श किया। इस विषय में उनके समकालीन “बम्बई समाचार" (दैनिक, ९दिस० १८८६ ई०), "टाइम्स आफ इण्डिया' (दैनिक, २४ जन० १८८७ ई०) तथा "इण्डियन स्पैक्टेटर" (दैनिक, १८ नव० १९०९) के विशेष अग्रलेख पठनीय हैं जिनमें उनके अल्पकाल में ही विकसित विराट व्यक्तितत्व की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की गई। . प्रस्तुत ग्रन्थ में उनके एक पद (सं० ५०३) को संग्रहीत किया गया है, जो आत्मतत्त्व के विषय-विवेचन से सम्बन्धित है और जो उनकी गम्भीर आत्मानुभूति तथा आत्मचिन्तन का प्रभावक उदाहरण है। कवि सुखसागर कवि सुखसागर ने प्रमुखत: जैनदर्शन को अपनी लेखनी का विषय बनाया है। इस प्रसंग में कवि ने कर्म तत्त्व को जड़ मानते हुए कहा है कि - "हे चेतन, तुझे कर्मों से भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि ये तो जड़ है और तुम चैतन्य हो, यदि इसे भली-भाँति समझ लिया जाय, तो तुझे कर्म-बन्धन से शीघ्र ही छुटकारा मिल सकता है।" कवि का जन्म स्थान एवं समय अज्ञात है किन्तु अनुमानत: वह २०वीं सदी के मध्यकाल का रहा होगा। कवि जिनेश्वर कवि के अनुसार अष्ट-कर्म जड़ होते हुए भी आत्मा के साथ लगकर उसे चारों गतियों में भटकाने वाले हैं। उनकी चंचलता से मानव बच नहीं सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy