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जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति में लीन उनके रूप व सौन्दर्य का वर्णन बड़े भाव-विभोर होकर करता है।
कवि जिनेश्वर का समय सम्भवत: २०वीं सदी का मध्यकाल है। कविवर कुंजीलाल
मुनि तपस्या से प्रभावित होकर कवि कुंजीलाल अपना रूपक प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि महामुनि वन में अपनी तपस्या में इस प्रकार लीन हैं, कि उन्हें इस तथ्य का भी भान न रहा कि अब फाग का वातावरण उपस्थित हो गया है और "चेतन आत्मा किशोरी रूप में सुमति के साथ होली का खेल खेल रही है।"
कवि कुन्जीलाल २०वीं शदी के मध्यकाल में अपनी साहित्य-साधना करते रहे। कवि कुन्दनलाल
उक्त कविवर ने प्रस्तुत ग्रन्थ में संग्रहीत अपने पद सं० ५५४ में मानव को शरीर की नश्वरता दर्शाते हुए आत्म-ज्ञान की ओर उन्मुख करने का प्रयास किया है___तन नहीं छूता कोई चेतन निकल जाने के बाद।" इस तथ्य को कवि ने अनेक दृष्टान्तों के द्वारा स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। यथा-" जिस प्रकार निर्जल सरोवर को देखकर हंस वहाँ से पलायन कर जाता है और वृक्ष के पत्ते झड़ जाने पर जिस प्रकार पक्षीगण उसे छोड़कर चले जाते हैं, ठीक उसी प्रकार आत्मा के निकल जाने पर इस शरीर की भी वही दशा होती है।
कवि-परिचय अज्ञात है किन्तु वे वर्तमान सदी के मध्यकालीन कवि प्रतीत होते हैं। कवि मक्खनलाल
ललितपुर (उत्तरप्रदेश) निवासी पं० मक्खनलाल २०वीं सदी के मध्यवर्ती एक कुशल उपदेशक-कवि एवं संगीतकार के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। उनके द्वारा रचित पद अत्यन्त मार्मिक एवं भक्ति-प्रसूत हैं। कवि के अनुसार मानव-जीवन की इच्छाएँ अनन्त हैं और इन्हीं इच्छाओं को आत्म-सन्तोष के द्वारा सीमित करना
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