SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१२९) पर देवाधिदेव पायो दिक', दोष क्षुधाधिज' अंत ॥ २॥ भूषन' वसन शास्त्र कामादिक, करन विकार अनंत । तिन तुम परमौदारिक तन मुद्रा सम शोभंत ॥ ३ ॥ तुम वानीनै धर्मतीर्थ जग मांहि त्रिकाल चलंत । निज कल्यान हेतु इन्द्रादिक, तुम पद सेव करंत ॥४॥ तुम गुन अनुभवतै निज पर गुन, दरसत अगम अचिंत । भागचंद निजरूप प्राप्ति अब, पावै हम भगवंत ॥ मै. ॥ ५ ॥ (३६६) राग-दीपचन्दी कीजिये कृपा मोह दीजिये स्वपद मैं तो तेरी शरन लीनो है नाथ जी ॥ टेक ॥ दूर करने यह मोह शत्रु को, फिरत सदाजी मेरे साथ जी ॥ १ ॥ तुमरे वचन कर्मगत-मोचन संजीवन औषधि क्वाथजी ॥ २ ॥ तुमरे कमल बुध ध्यावत, नावत हैं पुनि निज माथ जी ॥ ३ ॥ 'भागचन्द' मैं दास तिहारो ठाडे जोरौ जुगल हाथ जी ॥४॥ महाकवि द्यानतराय (पद ३६७-३७२) (३६७) रुल्यो चिरकाल, जगजाल चहुँगति विर्षे आज जिनराज-तुम शरन आयो ॥ टेक ॥ सह्यो दुख घोर, नहि छोर आवै कहत तुमसौ कछु छिप्यो' नहि तुम बतायो ॥१॥ तु ही संसार तारक नहीं दूसरो, ऐसो मुंहर भेद न किन्ही सुनायो ॥२॥ सकल सुर असुर नरनाथ बंदत३ चरन, नाभिनंदन निपुन मुनिन ध्यायो ॥३॥ तु ही अरहन्त भगवन्त गुणवन्त प्रभु, खुले मुझ५ भाग अब दरश पायो ॥४॥ १.कष्ट २.भूख आदि ३.आभूषण एवं वस्त्र ४.परम औदारिक शरीर ५.आपकी वाणी से ६.तुम्हारे चरणों की सेवा करते हैं ७.अपना पद ८.काढ़ा ९.अटका १०.चारों गतियों में ११.छिपा हुआ नही है १२.इस प्रकार का भेद किसी ने नही बताया १३.चरणों की वंदना करते हैं १४.अच्छी तरह १५.मेरे भाग्य खुल गये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy