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________________ (२४) "बालपने में खेला खाया यौवन व्याह रचाया। अर्द्धमृतक सम जरा अवस्था यों ही जनम गँवाया।।" (पद० सं० ४५३) मिलान किजिएबालपने में ज्ञान न लहो तरुण समय तरुणीरत रहो। अद्धमृतक सम बूढापनो कैसे रूप लखे आपनों ? ।। (छहढाला १/१४) कवि के चिन्तन के अनुसार यह शरीर धोखे की टाटी है और दर्पण की छाया मात्र है, जिसका पोषण करने हेतु पाँचों इन्द्रियाँ निरन्तर लगी रहती हैं, फिर भी, इनका अन्त मृत्यु ही है, उससे कोई उसे बचा नही सकता। कवि मंगल १८वीं सदी के कवि थे। पद-साहित्य के अतिरिक्त इनकी "कर्मविपाक" नामक हिन्दी रचना भी उपलब्ध है। कवि भागचन्द्र "भाईजी' के नाम से विख्यात कवि भागचन्द्र २०वीं सदी के लब्धप्रतिष्ठ विद्धान् साहित्यकार थे। इनका संस्कृत और हिन्दी भाषा पर समानाधिकार था। साथ ही ये प्राकृत-भाषा के मर्मज्ञ भी थे। इनके अतिरिक्त वे एक छन्दशास्त्री थे। इन्होंने (१) उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला (२) प्रमाण-परीक्षा, (३) अमितगति-श्रावकाचार, (४) नेमिनाथपुराण और (५) ज्ञानसूर्योदय-नाटक पर वचनिकाएँ लिखी तथा संस्कृत-भाषा में शिखरिणी छन्दबद्ध “महावीराष्टक-स्तोत्र' की रचना की, जो राष्ट्रिय भावात्मक एकता तथा अखण्डता का प्रतीक है तथा देश एवं विदेश के जैन-समाज का कण्ठहार बना हुआ है। कवि भागचन्द्र ने हिन्दी पद-साहित्य की रचना भी की। वे एक सहृदय कवि के रूप में ख्याति प्राप्त हैं, और यावज्जीवन आत्मचिन्तन में लीन रहे। इनके पदों में रसमग्न बना देने की अद्भुत क्षमता-शक्ति है। साथ ही, है उनमें भौतिकवाद की विगर्हणा और दार्शनिक, सैद्धान्तिक-चिन्तन की प्रधानता। इनकी सभी कृतियाँ वि०सं० १९०७ से वि० सं० १९१३ (सन् १८५०-१८७६) तक लिखी गईं। ये ईसागढ़ (गुना, मध्यप्रदेश ) के रहनेवाले थे। उनकी कर्मभूमियाँ ग्वालियर, मन्दसौर एवं जयपुर रही। कवि भागचन्द्र जीवन भर अर्थसंकटों से जूझते रहे, किन्तु उनसे हार न मानकर वे अपनी साहित्य-साधना एकरस होकर करते रहे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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