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(२३३) कुमति को छाड़ो' भाई हो॥ कुमति. ॥टेर ॥ कुमति रची इक चारुदत्त ने वेश्या संग रमाई । सब धन खोय होय अति फीके गुंथ' ग्रह लटकाई ।।कु॥ १ ॥ कुमति रची इक रावण नृपः सीता को हर ल्याई ।। तीन खण्ड को राज खोयके दुरगति वास कराई। कु. ॥ २ ॥ कुमति रची कीचक ने ऐसी द्रोपदि रूप रिझाई। भीम हस्त” थंभ तले गड़ि दुक्ख सहे अधिकाई ॥कु. ॥ ३ ॥ कुमति रची एक धवल सेठ ने मदन मजूसा ताई । श्रीपाल की महिमा देखि के डील' फाटि मरि जाई । कु. ॥४॥ कुमति रची इक ग्राम कूटने रक्त कुरंगी माई । सुन्दर सुन्दर भोजन तजके गोबर भश्त कराई ॥कु. ॥ ५ ॥ राय अनेक लुटे इस मारग वरनत कौन बड़ाई । बुध महाचन्द्र जानिये दुखकों कुमती द्यो छिटकाई ॥कु.॥ ६ ॥
कवि नंदब्रह्म
(२३४) जान-जान अब रे, हे नर आतमज्ञानी ॥ टेक ॥ राग द्वेष पुद्गल की परिणति तूं तो सिद्ध समानी । चार गनी पुद्गल की रचना ताते कही विरानी । सिद्ध स्वरूपी जगत विलोकी, विरले के मन आनी । आपरूप आपहि परमाने गुरु शिष कथा कहानी । जनम मरण किसका है भाई, कीच रहित है पानी। सार वस्तु तिहु काल जगत में नहि क्रोधी नहि मानी । 'नन्दब्रह्म' घट माहि विलोके सिद्ध रूप शिवरानी ॥
महाकवि दौलतराम
(२३५) मत कीज्यो जी यारी, घिन गेह देह जड़ जानके ॥ टेक ॥
१.छोड़ो २.गांठ ३.चुरा लाया ४.मोहित हो गया ५.शरीर ६.फटकार ७.हिरणी ८.खिलाया ९.राजा १०.इसलिये ११.दूसरे की १२.देखा १३.तीनो काल, लोक १४.दोस्ती १५.घृणास्पद ।
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