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________________ (१६२) फल पुण्य पाप के उदय, पाता नये नये ॥ आत्मा. ॥ ४ ॥ 'मक्खन' इसी प्रकार भेष लाख चौरासी । धारे विगार' बार-बार फिर नये नये ॥ आत्मा. ॥ ५ ॥ कविवर भूधरदास (४४५) राग गोरी देखो भाई आतम देव विराजै ॥ टेक ॥ इसही हूठ हाथ देवल' में, केवल रूपी राजै॥ देखो भाई. ॥ अमल उदास जोतिमय जाकी, मुद्रा मंजुल छाजै । मुनिजन पूज अचल अविनाशी, गुठा' वरनत बुधि लाजै ॥देखो. ॥ १ ॥ पर संजोग अमल प्रतिभासत, निजगुण मूल न त्याजे । जैसे फटिक पाखान हेत सो, श्याम२ अरुन ३ दुति साजै ॥ देखो. ॥ २ ॥ सोऽहं पद ममता सो ध्यावत घटा ही में प्रभु पाजै । 'भूधर' निकट निवास जासु को, गुरु बिना भरम" न भाजै ॥ देखो. ॥ ३ ॥ १०. बारह-भावनाएँ महाकवि बुधजन (४४६) राग-तिताला काल ६ अचानक ही लें जायेगा, गाफिल होकर रहना क्या रे ॥ टेक ॥ छिन हूं तोकू नाहि बचावै, तो सुभटन' का रखना क्या रे ॥ काल. ॥ १॥ रंच° सवाद करिन कै काजै, नरकन में दुख भरना क्या रे ॥ काल. ॥ २ ॥ इन्द्रादिक कोउ नाहिं बचैया, और लोक का शरना क्या रे ॥ काल. ॥ ३ ॥ अपना ध्यान करत सिरर जावैं तो करमनि का हरना क्या रे ॥ काल. ॥ ४ ॥ अब हितकरि आरत तजि 'बुधजन' जन्म जन्म में जरना२३ क्या रे ॥ काल. ॥ ५ ॥ १. बार-बार बिगड़कर २. साढ़े तीन हाथ के ३. मंदिर, देवालय ४. सुन्दर ५. गुणों का वर्णन करते हुए ६. बुद्धि लजाती है ७. निर्मल ८. प्रतिभासित होता है ९. छोड़ता है १०. स्फटिक ११. पत्थर १२. काला १३. लाल १४. पाये १५. प्रम नहीं भागता १६.मृत्यु १७.वे परवाह १८.तुझको १९.योद्धा वीर २०.थोड़ा २१.स्वाद २२.खिर जाते हैं २३.जलना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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