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________________ (५) भेद-विज्ञान हो जाने पर आत्मा अपने शुद्धात्म-स्वरूप के साथ विचरण करने लगता है, चेतन हर्ष के झूले में झूलने लगता है और आत्मशक्ति का प्रादुर्भाव होने लगता है मैं देखा आतम रामा।। (पद०-३८९) "अब मेरे समकित सावन आयो।" (पद०२१७) "देखो भाई आतम देव............. (पद० ४४५) अनुभूति की तीव्रता__अनुभूति की तीव्रता गीतिकाव्य की तीसरी विशेषता है। तीव्र अनुभूति से जब संवेदनशीलता और ऊर्जस्विता आती है, सभी गेय-पद अभिव्यक्तिपूर्ण और सरस बन पाते हैं। अनुभूति की अभिव्यञ्जना में सतर्कता अत्यावश्यक है अन्यथा पदों में विकृति आने का संशय बना रहता है। संसारिक उलझनों में डूबे हुए मानव-जीवन में ऐसे क्षण कम ही आते हैं, जब उनकी वृत्तियाँ अन्तस् की ओर उन्मुखी हो पाती हैं। अत: कवि उन्हीं क्षणों को समेटकर अपनी प्रतिक्रिया सामाजिक आधार पर गतिशील बनाता है। जैन-पद इसके उच्छे उदाहरण हैं। कवि भागचन्द्र का मन सांसारिक -स्वार्थों से उदास हो चुका है। इसलिए अनुभूति की तीव्रता से अन्तस् में आत्मबुद्धि जागृत करते हुए वे कह उठते हैं "जे दिन तुम विवेक बिन खोये।।" (पद० २७७) इसी प्रकार अन्य कवियों ने भी मनुष्य-पर्याय को आत्मकल्याण में सहायक मान कर उसे श्रेष्ठ माना है और सांसारिक सम्बन्धों की नश्वरता से परिचित कराया है। यथा "छाँड़ दे अभिमान जिय रे"।।(पद० ३३९) " जीव तू भ्रमत सदैव अकेला।। "संग साथी कोई नहीं तेरा।।''(पद० २७६) रागात्मक-अनुभूति रागात्मक अनुभूति गीतिकाव्य की चौथी विशेषता है। काव्य के भावपक्ष में बुद्धि, राग और कल्पना-तत्त्व की प्रधानता रहती है। बुद्धि-तत्त्व में कवि के विचारों का, कल्पना-तत्त्व में वस्तु का चित्रांकन एवं निर्माण तथा रागात्मक-तत्त्व में कवि की हृदयस्पर्शिता एवं तन्मयता की प्रधानता रहती है। इन तीनों के उचित समञ्जन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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