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________________ .. (४) मानव बाह्य से विमुख होकर जब अन्तस् की ओर मुड़ता है, तब उसका मन सन्तुष्ट हो जाता है, उसकी निरर्थक भ्रमणशीलता समाप्त हो जाती है और वह आत्मोन्मुखी हो उठता है। उसके अन्तस् का रस उमड़ पड़ता है, वह अपनी सुध-बुध, खोकर अपनी आत्मा का साक्षात्कार करने लगता है। कवि दौलत अपनी कोमल कमनीय भाषा में कह उठते हैं "आतम रूप अनूपम। " (पद० ४२५) तथा द्यानतराय भी अपनी आत्मा में रमण करके प्रसन्नता का अनुभव करते हैं "हम लागे आतम राम सौ" (पद० ४०४) एक अन्य पद में कवि ज्योति ने अपनी अमरता का कितना दुर्लभ मनौवैज्ञानिक वर्णन किया है, __ "अब हम अमर भये न मरेंगे। (पद० ४४०) उनकी यह अभिव्यक्ति आत्माभिव्यक्ति न होकर सार्वजनिक है। सभी कवियों ने अपने पदों में आत्मानुभूति की गहनता का परिचय दिया है और आत्मनिष्ठा-परक अनूठे पद प्रस्तुत किए हैं। इन पदों में आत्मनिष्ठा के साथ-साथ आत्मनिवेदन की भावना भी व्यञ्जित हुई है और उसमें गम्भीरता, प्रबलवेग और तीव्रता विद्यमान है। अपने आराध्य की भक्ति में वह इतना तल्लीन हो जाता है कि भक्ति रूपी जल उसके समस्त कालुष्य का प्रक्षालन कर देता है और वह अपने प्रभु का सानिध्य पाकर शान्ति प्राप्त करता है। कवि की यह अनुभूति इन्द्रियातीत है, अलौकिक हैं हमारी वीर हरो भव पीर। (पद० ८७) गुरु के उपदेश में अपने भ्रम का निवारण कर वह अपने अन्तस् में उज्ज्वल वैराग्य धारण करता है और संसार से ममत्व छोड देने पर भी यदि उसमें स्व-पर का ज्ञान जागृत न हो तो उसके समस्त कार्य निरर्थक रहते हैं। इसलिए कवि बार-बार अपनी आत्मा को सम्बोधित करता हुआ कहता है कि गुरु के भेद-विज्ञान को समझो और अपनी आत्मा से प्रेम करो "गुरु कहत सीख इमि बार-बार।। (दौल० ५२७) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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