________________
(८९) जो चिन्ता है वही दुख है जो इच्छा है वही दुख है । है जिसने अपनी निधि देखी नहीं फिकरों में जाता है । है तन से गरचे व्यवहारी मगर मन से रहे निश्चल । वही सत ध्यान का कन है, जो कर्मों को जलाता है । सुधा की बूंद लेकर वह, इक सागर बनाता है । इसी का नाम सुखोदधि है, उसी में डूब जाता है।
(२५४) मुझे ज्ञान शुचिता सुहाई हुई है । परम शान्त तो दिल में भाई हुई है ॥टेक ॥ जहाँ ज्ञान सम्यक नहीं खेद कोई । निजानंद परता जमाई हुई है ॥ नही राग द्वेषी, नहीं मोह कोई । परम ब्रह्म रुचिता बढ़ाई हुई है ॥ जगत नाट्यशाला नटन जो कि करता । वही शुद्धता नित्य छाई हुई है ॥ करूं ध्यान हरदम उसी का खुशी हो। स्व सुखसिन्धु में प्रीति लाई हुई है ॥
.(२५५) ज्ञान स्वरूप तेरा तू अज्ञान हो रहा । जड़ कर्म के मिलाप से विभाव को गहा ॥ पन१ अक्ष के विषय अनिष्ट इष्ट जानके । करके विरोध राग आग को जला रहा ॥ यह व्याधि२ गेह देह अस्थि, चाम से बना । निज ज्ञान के सिंगार ठान मूढ़ हो रहा • ॥ सुत तात-मात मित्र आदि मान आपके'। करके अकृत पाप आत्म बोध खो रहा । कर भेद ज्ञान राग आदि दोष जानके । चिद्रूप-ज्ञान चन्द्रिका निहार जिन कहा ॥
१. चिन्ताओं में २. यदि ३. पवित्रता ४. अच्छी लगती है ५. दुख ६. आत्मलीनता ७. नृत्य ८. मूर्ख ९. पर परणति १०. ग्रहण किया ११. पाँचों इन्द्रियों की १२. रोगों का घर १३. अपना मानकर १४. न करने योग्य
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org