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________________ (७४) वाय पित्त कफ खांसी तन दृग', दीसत नाहिं उजारौ । करजदार अह वेरुजगारी, कोऊ नाहिं सहारौ ॥ अब. ॥ २ ॥ इत्यादिक दुख सहज जानियो, सुनियौ अब विस्तारौ । लख चौरासी अनंत भवनलौं', जनम मरन दुख भारौं ॥ अब. ॥ ३ ॥ दोषरहित जिनवर पद पूजौ गुरु निरग्रंथ विचारौ । 'बुधजन' धर्म दया उर धारौ, ह-ह जैकारो॥ अब. ॥४॥ कवि भागचंद (२१५) यही एक धर्ममूल है मीता ! निज समकित सारसहीता ॥ टेक ॥ समकित सहित नरक पदवासा, खासा बुधजनगीता । तहत निकसि होय तीर्थंकर सुरगन जजत "सप्रीता ॥१॥ स्वर्गवास हूं नीको २ नाही बिन समकित अविनीता । तहतें चय३ एकेन्द्री उपजत, भ्रमत सदा भयभीता ॥ २ ॥ खेत बहुत जोतेहु बीज बिन, रहत धान्य सों रीता। सिद्धि न लहत कोटि तपहूंते, वृथा कलेश सहीता६ ॥ ३ ॥ समकित अतुल अखण्ड सुधारस, जिन पुरूषजन ने पीता७ । भागचंद ते अजरअमर भये, तिनहीं ने जगजीता ॥४॥ (२१६) राग-दादरा धनि ते प्रानि जिनके तत्वारथ ८ श्रद्धान ॥ धरि. ॥टेक ॥ रहित सप्तभय तत्वारथ में चित्त न संशय आन । कर्म कर्ममल की नहिं इच्छा, परमें धरत न ग्लानि ॥१॥ सकल भाव में मूढदृष्टि तजि, करत साम्य रसपान । आतमधर्म बढावै वा, पर दोष न२° उचरै वान ॥ धरि. ॥२॥ निज स्वभाव वा जैन धर्म में, निजपर थिरता दान, रत्नमय महिमा प्रगटावेर प्रीति स्वरूप महान ॥३॥ ये वसु२२ अंग सहित निर्मल यह समकित निज गुन जान । १.आँख २.दिखाई देना ३.बेगारी ४.अन्य ५.भवों तक ६.होगा ७.मित्र ८.अच्छा ९.वहां से १०.निकलकर ११.पूजता है १२.अच्छा १३.निकलकर १४.धान से खाली रहता है १५.करोड़ो तपों से भी १६.सहित१७.पिया १८.तत्वार्थ १९.समता रस २०.दूसरे के अवगुण न कहें २१.महिमा प्रगट करे २२.सम्यक्त्व के आठ अंग। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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