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________________ (११५) (३२५) चेतन कौन अनीति गही रे, न मानै सुगुरु कही रे ॥ टेक ॥ जिन बिषयन वश बहु दुख पायो, तिन सौ प्रीति ठही रे ॥ १ ॥ चिन्मय है देहादि जड़न को तो मति पागि रही रे ॥ २ ॥ जिनबृष पाय विहाय राग' रुष निज हित हेत यही रे ॥३॥ 'दौलत' जिन यह सीख धरी उर तिन शिव सहज लही रे ॥४॥ (३२६) चेतन यह बुधि कौन सयानी, कही सुगुरु हित सीखन मानी ॥ टेक ॥ कठिन काकताल ज्यौं पायौ, नरभव सुकुल श्रवण जिनवानी ॥चेतन. ॥१॥ भूमि न होत चांदनी की ज्यौं, त्यौं नहिं धनी होय को ज्ञानी । वस्तु रूप यौं तू यौँ ही शठ हटकर पकरत सोंज विरानी ॥चेतन. ॥ २ ॥ ज्ञानी होय अज्ञान राग रुषकर, निज सहज स्वच्छता हानी । इन्द्रिय जड़ तिन विषय अचेतन, तहाँ अनिष्ट इष्टता ठानी ॥चेतन. ॥ ३ ॥ चाहै सुख दुख ही अवगा है, अब सुनि विधि° जो है सुखदानी । 'दौल' आप करि आप आप में, ध्याय लाय समरस रस सानी ॥चेतन. ॥ ४ ॥ (३२७) चेतन तैं या ही भ्रम ठान्यो ज्यों१ मृग मृगतृष्णा जल जान्यो ॥ टेक ॥ ज्यों निशितम में निरख जेबरी २ भुजगमान २ नर भय उर आन्यो ॥चेतन. ॥ १ ॥ ज्यौं कुध्यान वश महिष मान निज फंसि नर उरमांही अकुलान्यो । त्यों चिर मोह अविद्या परयो तेरो तैही रूप भुलान्यो ॥चेतन. ॥ २ ॥ तोमतेल ज्यौं मेल न तन को, उपजल खपज में सुख दुख मान्यो । पुनि पर भावन के करता है तै तिनको निज कर्म पिछान्यौ ॥चेतन. ॥ ३ ॥ नरभव सुफल सुकुल जिनवानी काल लब्धि बल योग मिलान्यो 'दौल' सहज भज उदासीनता योष-रोष दुखकोष ६ जु मान्यो ॥चेतन. ॥ ४ ॥ (३२८) जम८ आन अचानक दावैगा९ ॥ जम आन. ॥टेक ॥ १. उनसे प्रीति की २. देहादि जड़ पदार्थों को ३. राग-द्वेष ४. बुद्धि ५. समझदारी ६. काकतालीय न्याय से (संयोग से) ७. दूसरी सामग्री को पकड़ता है ८. उसमें अनिष्ट इष्टता मानली ९. अवगाहन करता है १०. तरीका ११. जैसे हिरण १२. रस्सी १३. सर्प मानकर १४. तेल पानी की तरह १५. स्त्री १६. दुख का खजाना १७. समझा १८. मृत्यु १९. दबायेगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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