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________________ (१६८) कोऊ प्रीति करो किन कोटिन अन्त होयगा न्यारो ॥ कहा. ॥ २ ॥ धन सों राचि धरम सो भूलत झूलत' मोह मंझारो ॥ कहा. ॥ ३ ॥ इह विधि काल अनन्त गमायो, पायो नहि भव पारो॥ कहा. ॥ ४ ॥ साँचे सुखसो विमुख होत है, भ्रम मदिरा मतवारो॥ कहा. ॥ ५ ॥ चेतहु चेत सुनहु रे 'भैया', आपाहि आप संभारो ॥ कहा. ॥ ६ ॥ ११. कर्मफल महाकवि बुधजन (४६०) राग-आसावरी जगत मैं होनहार सा' होवै, सुर नृप नाहि मिटावै ॥ जगत ॥ टेक ॥ आदिनाथ से कौं भोजन में अन्तराय उपजावै । पारस प्रभुकौं ध्यान लीन लखि कमठ मेघ वरसावै ॥ जगत. ॥ १॥ लखमण से संग भ्राता जाकै सीता राम गमावै । प्रतिनारायण रावण से की हनुमत लंक जरावै ॥ जगत. ॥ २ ॥ जैसो कमावै तैसो ही पावै यों 'बुधजन' समझावै । आप आपको आप कमावौ, क्यों पर द्रव्य कमावै ॥ जगत. ॥ ३ ॥ (४६१) ___ राग-ईमन तेतालो हो विधिना १ की मोपै कही तौ न जाय ॥ हो ॥ टेक ॥ सुलट उलट उलटी३ सुलटा दे अदरस पुनि दरसाय । हो. ॥१॥ उर्वशि नृत्य करत ही सनमुख अमर परत है पाँय ।। ताही छिन मैं फूल बनायौ धूप परै कुम्हलाय॥ हो. ॥ २ ॥ नागा" पाँय फिरत घर घर जब सो कर दीनौं राय। ताही को नरकन मैं कूकर तोरि" तोरि तन खाय ॥ हो. ॥ ३ ॥ करम उदय भूलै मति आपा", पुरषारथ को ल्याय । 'बुधजन' ध्यान धरै जब मुहुरत , तब सब ही नसि जाय ॥ हो. ॥४॥ १.मोह में झूलता है २.वह ३.सरीखे को ४.बाधा उत्पन्न हुई ५.देखकर ६.पानी बरसना ७.लक्ष्मण ८.जिसके ९.खो दिया १०.हनुमानजी ने लंका जला दी ११.कर्म १२.सीधे को उल्टा १३.उल्टे को सीधा १४.अदृश्य को दृश्य करना १५.नंगे पैर १६.राजा १७.कुते १८.तोड़-तोड़ कर १९.आत्मस्वरूप २०.मुहूर्त २१.सब नष्ट हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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