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________________ (११९) अब जिन' वैन सने श्रवनन' हैं मिटै विभाव करूं विधि तैसें ॥ ४ ॥ ऐसे अवसर कठिन पाय अब, निज हित हेत विलंब करें से । पछतायौ बहु होय सयाने, चेतन 'दौल' छुटो भव भयसें ॥५॥ (३३६) राग-जोगीरासा छांड़त क्यों नहिं रे हे नर ! रीति अयानी । बार बार सिख देत सुगुरू यह तू दे आनाकानी ॥टेक ॥ बिषय न तजत न भजत बोध व्रत, दुख सुख जात न जानी । शर्म चहै न लहै शठ ज्यों, घृत हेत विलोवत° पानी ॥१॥ तन धन सदन स्वजन जन तुझसौं ये परजाय विरानी। इन परिरमन विनश उपजत सौ, ते दुख सुख करमानी ॥ २ ॥ इस अज्ञान तैं चिर दुख पाये, तिनकी अकथ३ कहानी । ताको तज दृग ज्ञान चरन भज, निज परिणति शिवदानी ॥ ३ ॥ यह दुर्लभ नर भव सुसंग लहि, तत्व लखावन वानी । 'दौल' न कर अब पर में ममता, धर समता सुखदानी ॥ ४ ॥ __राग-तिलक कामोद मोही जीव भरमतम'७ ते नहि वस्तु स्वरूप लखै८ है जैसे ॥ टेक ॥ जे जे जड़ चेतन की परनति, ते अनिवार९ परिनवे° वैसे । वृथा दुखी शठ कर विकलप यों नहिं परिनवै परिनवै ऐसे ॥ १ ॥ अशुचि२२ सरोग२२ समूल जड़मूरत, लखत विलात गगन घन जैसे । सो तन ताहि निहार अपुनपों२४ चाहत अबाध रहे थिर कैसे ॥ २ ॥ सुत तिथ बंधु वियोग योग यों ज्यो सराय५ जन निकसे२६ पैसे । विलखत२८ हरखत२९ शठ अपने लखि रोवत हंसत मत्तजन जैसे ॥ ३ ॥ जिन रवि बैन किरण लहि निज निज रूप३१ सभिन्न कियो पर मेंसैं । १. जिनवाणी २. कान ३. संसार के भय से ४. अज्ञानी ५. शिक्षा ६. इधर उधर करना ७. ज्ञान चारित्र ८. सुख ९. मूर्ख ग्रहण नहीं करता १०. पानी बिलोता है ११. दूसरी १२. हे मानी ! तू उनको सुख दुख मानता है १३. अवर्णनीय १४. उसको छोड़ १५. ग्रहण कर १६. दर्शाने वाली वाणी १७. प्रम रूपी अंधकार १८. देखता है १९. अनिवार्य रूप से २०. परिणमन करते है २१. परिणमन करता २२. अपवित्र २३. रोग सहित २४. स्वरूप २५. जैसे सराय से २६. निकलते हैं २७. घुसते हैं २८. रोते हैं २९. प्रसन्न होते हैं ३०. मतवाले की तरह ३१. आत्म-स्वरूप । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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