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________________ प्रधान सम्पादकीय प्राच्य विद्याजगत को जैन साहित्य की विपुलता, विविधता तथा उसके भाषागत एवं अन्य अनेकविध वैशिष्ट्य की जबसे जानकारी प्राप्त हुई है, तभी से उसने देश-विदेश के प्राच्य विद्याविदों का अपनी ओर ध्यान आकर्षित किया है। इतिहासकारों को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस प्राच्य एवं मध्यकालीन जैन साहित्य में नन्द, मौर्य, एल, गुप्त, राष्ट्रकूट एवं चालुक्य, यहाँ तक कि मुगलकालीन सम्राटों एवं अन्य अनेक स्थानीय राजाओं के प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध है और भारतीय इतिहास, एवं संस्कृति के निर्माण में जिनकी अहं भूमिका रही है, उस विशिष्ट कोटि के साहित्य को सम्प्रदायवादी साहित्य की श्रेणी में डालकर उसे उपेक्षित कैसे कर दिया गया? जिसने अपने भाषा-सौष्ठव और समता एवं समन्वय के आदर्शों को प्रचारित किया, जात-पाँत तथा गरीब-अमीर की भेद-भावना से दूर रहकर, जिसने उन सभी को समान रूप से सामाजिक विकास की प्रक्रिया का मूल आधार माना, ऐसे राष्ट्रिय महत्त्व के साहित्य की उपेक्षा कैसे कर दी गई? आधुनिक भारतीय भाषाओं की जननी, पार्श्व तथा महावीरकालीन लोकप्रिय जनभाषा को जिस साहित्य ने भारतीय संस्कृति एवं इतिहास-दर्शन को मुखर करने का माध्यम बनाया, उसी जनभाषा में लिखित वह महत्त्वपूर्ण साहित्य उपेक्षा का शिकार कैसे हो गया? आदि अनेक प्रश्न उठ खड़े हो गए। किन्तु धन्यवादाह है प्राच्य विद्याविदों में डॉ० हर्मन याकोवी, डॉ० बेवर, प्रो० हटेंल, प्रो० आल्सडोर्फ, डॉ० के०पी० जायसवाल, पं० हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ० भण्डारकर, पं० गौ०हि० ओझा, डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी, पं० बलदेव उपाध्याय प्रभृति विद्वान्, जिन्होंने जैन साहित्य में प्रयुक्त विविध भाषाओं का विधिवत अध्ययन कर तथा उनमें ऐतिहासिक तथ्यों को खोजकर उसका निर्भीक तथा निष्पक्ष होकर मूल्यांकन किया और पूर्व में व्याप्त सन्देहों के धुन्ध से उसे मुक्त किया। यही कारण है कि पिछले लगभग ७-८ दशकों से जैन साहित्य के विविध पक्षों पर पर्याप्त शोध-खोज के कार्य हुए हैं और आगे भी होते रहने की पूर्ण सम्भावना है। प्राच्य जैन विद्या का भाषा की दृष्टि से परवर्ती विकसित प्रमुख भेद ही “हिन्दी जैन-साहित्य' है। यहाँ “हिन्दी' शब्द बृहद् अर्थ में प्रयुक्त किया जा रहा है अर्थात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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