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________________ चाहे वह राजस्थानी हो या हरयाणवी, ब्रजमण्डल, मध्यदेशीय या पूर्वी बोलियाँ हो, सभी को हिन्दी माना गया है। इसका आदिकाल पं० राहुल सांकृत्यायन तथा मिश्रबन्धुओं ने महाकवि स्वयम्भू (आठवीं सदी) के काल से माना है। किन्तु अन्य हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों के अनुसार १०वी ११वीं सदी से हिन्दी का आदिकाल माना गया है। इस काल में जैन कवियों ने चतुर्विध अनुयोगों पर सैकड़ों ग्रन्थों की रचनाएँ कर हिन्दी को पूर्ण सामर्थ्य प्रदान करने का प्रयत्न किया। सुविधा की दृष्टि से इन रचनाओं का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया जा सकता है (१) पुराण, चरित, आख्यान एवं लघु तथा बृहत् कथा-ग्रन्थ । (२) सैद्धान्तिक-ग्रन्थ। (३) पूजा-विधान, स्तुति, स्तोत्र, सुभाषित, आदि। तथा, (४) भक्ति एवं अध्यात्मपरक पद-साहित्य। इन विधाओं में से अन्तिम चतुर्थ विद्या के भक्ति एवं अध्यात्मपरक कुछ प्रमुख पदों का संकलन प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है। इन पदों के लेखक वे कवि हैं, जिन्होंने पूर्ववर्ती प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत के मूल जैन साहित्य का गहन अध्ययन कर उनका दीर्घकाल तक मनन एवं चिन्तन किया, तत्पश्चात् युग की माँग के अनुसार अपने चिन्तन को विविध संगीतात्मक स्वर-लहरी में उनका चित्रण किया है। इन पदों की गेयता, शब्द-गठन, आरोह-अवरोह तथा वह इतना सामान्य जनानुकूल, सुव्यवस्थित एवं माधुर्य-रस समन्वित है कि उन्हें भौगोलिक सीमाएँ बाँध सकने में असमर्थ रहीं। राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, दक्षिणभारत एवं आसाम, बंगाल, आदि में उन्हें समान स्वरलहरी तथा आरोह-अवरोह के साथ गाया-पढ़ा जाता है। वर्तमान में तो विदेशों में भी ये पद लोकप्रिय हो रहे हैं। प्रस्तुत गन्थ के प्रायः समस्त पद गीतिकाव्य की शैली पर चित्रित है। इन पदों में संगीत एवं अध्यात्म का अभूतपूर्व संयोजन मिलता है और उनमें अहिंसा, अपरिग्रह एवं अनेकान्त के साथ-साथ समताभाव एवं संसार के प्रति असारता सम्बन्धी गूढ़ से गूढ़तर विषयों को भी सरलतम भाषा एवं रोचक शैली में दैनिक व्यवहार में आने वाले उदाहरणों के साथ व्यक्त करने का प्रयास किया गया है। पद-साहित्य की मानव जीवन के लिए आवश्यकता, उनका महत्त्व, उनके भेद तथा प्रस्तुत ग्रन्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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