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________________ (९७) (२७६) जीव ! तू भ्रमत सदीव' अकेला संग साथी कोई नहि तेरा ॥ टेक ॥ अपना सुखदुख आपहि भुगतै होत कुटुंब न भेला । स्वार्थ भयै सब विछरि जात हैं विघट' जात ज्यों मेला ॥ जीव. ॥ १ ॥ रक्षक कोई न पूरन है जब, आयु अंत की बेला । फूटत पारि बंधत नहीं जैसे दुद्धर जलको ढेला ॥ जीव. ॥ २ ॥ तन धन जीवन विनशि' जात ज्यों इन्द्र' जाल का खेला | 'भागचन्द' इमि" लख" करि भाई हो सतगुरु का चेला ॥ जीव. ॥ ३ ॥ (२७७) राग - सोरठ बिन खोये ..१४ पी अनादितैं परपद में चिर सोये . १३ जोये १७ . १८ बोये ..१९ जे दिन तुम विवेक १२ मोह वारुणी' सुख करंड १५ चितपिंड १६ आप पद गुन अनंत नहि होय बहिर्मुख ठानि रागरुख, कर्म बीज बहु तसु फल सुख दुख सामग्री लखि, चितमें हरषे रोये धवल ध्यान शुचि सलिल पूरतें, आस्रव मल नहि धोये । परद्रव्यन की अब निज में निज जान नियत वहां निज परिनाम यह शिवमारग समरस सागर 'भागचन्द ' हित ॥ २॥ चाह२१ न रोकी विविध परिग्रह ढोये ॥ ३॥ समोये । तोये ॥ ४ ॥ (२७८) महाकवि भूघरदास राग - नट राज चरन मन विसारै ॥टेक॥ मति २२ काल की, २५ धार अचानक आनि जिन को २३ जानै किहिवार २४ देखत दुख मजि २६ जाहिं दशौ दिश पूजत पातक पुंज इस संसार क्षीर सागर में और न कोई पार Jain Education International टेक ॥ For Personal & Private Use Only १ ॥ परै ॥ १ ॥ गिरै करै ॥ २ ॥ 1 १. हमेशा २. इकट्ठे ३. काम सिद्ध हो जाने पर ४ बिछुड़ना ५. मेला जैसे समाप्त हो जाता है ६. पूरा (पक्का) ७. किनारा ८. नष्ट होना ९. जादू १०. इस प्रकार ११. देखकर १२. ज्ञान १३. शराब १४. पर स्वरूप १५. पिटारा १६. आत्म स्वरूप (चेतन) १७. देखा १८. द्वेष १९ उसका फल २०. जल २१. इच्छा २२. मत भुलाओ २३. कौन जानता है २४. कब २५. यमराज की २६. भाग जायेंगे । www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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