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________________ (९६) राग दोष की परिनति त्यागौ, निज सुभाव थिर ठानौ जी ।। अलख अभेदरु नित्य निरंजन थे बुधजन पहिचानौ जी ॥ २ ॥ कवि भागचंद (पद २७४-२७७) (२७४) अरे हो जियरा धर्म में चिन्त लगाय रे ॥ अरे हो. ॥टेक ॥ विषय विष सम जान भौंदू वृथा क्यों लुभाय रे ॥ अरे. ॥ १ ॥ संग भार विषाद तोकौं, करत क्या नहिं भाय रे । रोग उरग निवास वामी, कहा नहिं यह काय रे ॥अरे. ॥ २ ॥ काल हरि की गर्जना क्या तेहि सुनि न पराय रे ॥ आपदा भर नित्य तोकौं कहा नहीं दुख दाय रे ॥ अरे. ॥ ३ ॥ यदि तोहि कहा नहिं दुख नरक के असहाय रे । नदी वैतरनी जहां जिय परै अति विललाय रे ॥अरे. ॥ ४ ॥ तन धनादिक घन पटल सम छिनक' मांहि विलाय२रे । भागचंद सुजान इमि जन्दु कुल तिलक गुन गाय रे ॥अरे. ॥ ५ ॥ (२७५) राग काफी अहो यह उपदेश मांहि खूब चित्त लगावना । होयगा कल्यान तेरा, सुख अनंत बढोवना ॥ टेक ॥ रहित दूषन विश्व भूषन, देव जिनपति ध्यावना । गगनवत निर्मल अचल मुनि, तिनहि शीस नवावना ॥अहो. ॥ १ ॥ धर्म अनुकंपा प्रधान, न जीव कोई सतावना । सप्त तत्व परीक्षना हरि, हृदय श्रद्धा लावना२° ॥अहो. ॥ २ ॥ पुद्गलादिक तैं पृथक चैतन्य ब्रह्म लखावना । या विधि विमल सम्यक धरि, शंकादि पंक' बहावना ॥ अहो. ॥ ३ ॥ रुचैं भव्यन को वचन जे, शठन को न सुहावना । चन्द्र लखि ज्यों कुमुद विकसै उपल२२ नहि विकसावना ॥ अहो. ॥ ४ ॥ 'भागचंद' विभाव तजि अनुभव स्वभावित भावना । या शरण न अन्य जगतारन्य२३ में कहुं पावना ॥ अहो. ॥ ५ ॥ १. विषय को विष के समान २. मूर्ख ३. व्यर्थ ४. लुब्ध होता है ५. सर्प ६. सांप का घर ७. शरीर ८. सिंह की ९. भागना १०. रोता है ११. क्षण भर में १२. गायब हो जाता है १३. इस प्रकार १४. भलाई १५. दोष रहित १६. संसार के भूषण १७.उन्हीं को १८. दया १९. परीक्षण करना २०. लाना २१. कीचड़ २२. पत्थर २३. जगत रूपी जंगल। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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