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________________ (९५) इकसे तन' आतम मति आनैं यो जड़ है तू ज्ञान रे 1 मोह उदयवश भरम परत है, गुरु सिखवत सरधान रे ॥ २ ॥ बादल रंग सम्पदा जग की दिन में जात बिलान रे तमाशबीन बनि यातैं बुधजन, सबतै ममता हान रे ॥ ३ ॥ 1 (२७१) बजार । कर लै हौ सुकृत का सौदा, करले परमारथ कारज करलै हो ॥ टेक ॥ उत्तम कुलकौं पामकैं, ' जिनमत रतन लहाय 1 भोग भोगवे कारनैं क्यों शठ देत गमाय ॥ सौदा. ॥ १ ॥ व्यापारी बनि आइयो नरभव हाट फलदायक व्यापार कर नातर विपति तयार ॥ सौदा. ॥ २ ॥ भव अनन्त धरतौ' फिर्यौ चौरासी वन मांहि अंब नरदेही पायकैं अघ खोवै क्यों नाहिं ॥ सौदा. ॥ ३ ॥ जिन मुनि आगम परख कै, पूजौ करि सरधान कुगुरु कुदेव के मानवै फिरयो चतुर्गति थान ॥ सौदा. ॥ ४ ॥ मोह" नीदमां सोवतां वौ काल अटूट 'बुधजन' क्यों जागौ नेहीं कर्म" करत है लूट ||सौदा. ॥ ५ ॥ (२७२) राग - सोरठ १२ ॥ कीं. ॥ १ ॥ । कीपर" करौ जी गुमान थे तौ कै दिन का मिजवान ॥ टेक ॥ आये कहाँ तै कहाँ जावोगे ये उर राखो ज्ञान नारायण बलभद्र चक्रवर्ति नना १५ रिद्धि निधान अपनी बारी भुगतिर पहुँचे पर भव थार झूठ बोलि मायाचारी तैं, मति पीड़ौ पर प्रान । तेन धन दे अपने वश 'बुधजन' करि उपगार " जहान ॥की. ॥ ३ ॥ ॥ कीं. ॥ २ ॥ .१७ (२७३) अजी हो जीवा जी थानै श्री गुरु कहै छै, सीख मानौ जी ॥ टेक ॥ बिन मतलब की ये मति" मानौ मतलब की उर आनौजी ॥ १ ॥ १. शरीर को अपना मत मानौं २. सिखाते हैं ३. बिला जाते हैं ४. ममता तोड़ो ५. पाकर ६. जैन धर्म रूपी रत्न ७. अन्यथा ८. धारण करता फिरा ९. क्यों नहीं खोता १०. मोह नीद में ११. कर्म लूट रहे हैं १२. किस पर १३. घमण्ड १४. मेहमान १५. अनेक १६. संसार की भलाई १७. आपको १८. कहता है १९. मत मानो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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