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ज्ञान दर्श सुख वीर्य को पाया नाहीं अंत ॥ म्हेतो. ॥२॥ जिनकी वानी सुखमई, सब जग आनंद कंद । सहित 'जिनेश्वर' देव को सेवत लहै आनंद || म्हेतो. ॥ ३ ॥
_(१२८) कैसी छवि तोहे मानो सांचे में ढारी, कैसी छवि सो है मानो सांचे में ढारी। सांचे में ढारी स्वामी सांचे में ढारी. कैसी छवि सोहै मानो सांचे में ढारी ॥ टेक ॥ महिमा कहूं क्या आसन अचल की,
आंखों की दृष्टि स्वामी नासा पै डारी ॥ कैसी. ॥ १ ॥ जिनका स्वभाव बीतरागी कहावै, करुणा निधान और पर उपकारी ॥ २ ॥ तजके श्रृंगार वनवासी भये हैं, तो भी रूप आगे लुभावै पदधारी । कैसी. ॥ ३ ॥ दोउ कर जोड्यां 'जिनेश्वर' खड़ा है, ऐसी योगमुद्रा मुझे दीज्यो जगतारी ॥ कैसी. ॥ ४ ॥
(१२९) श्री जी तो आज देखो भाई, जाकी सुन्दरताई ॥ श्री जी. ॥ टेर ॥ कंचन मणिमय अंग तन राजै, पद्मासन छवि अधिकाई ॥ १ ॥ तीन छत्र सिर ऊपर जिनके, चौसठ चमर दुरै भाई ॥ २ ॥ वृक्ष अशोक शोक सब नाशै, भामंडल छवि अधिकाई ॥३॥ धुनि जिनवर की अतिशय गाजै, सुर नर पशु के मन भाई ॥ ४ ॥ पुष्प वृष्टि सुर दुंदुभि बाजै, देख 'जिनेश्वर' रुचि आई ॥ ५ ॥
महाकवि दौलतराम (पद १३०-१४०)
(१३०) जिनवर आनन-भान निहारत, भ्रमतम धान नसाया ॥ जि. ॥ टेक ॥ १.प्राप्त करते हैं २.नाक पर ३.दोनों हाथ जोड़कर ४.सोना ५.मणियों से युक्त ६.गरजता हे ७.मुख-सूर्य ८.देखते ही ९.प्रमरूपी अन्धकार।
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