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________________ ( ११२ ) (३१७) अधिकाई ॥ श्री ॥ १॥ दुखदाई श्री गुरु यों समझाई जिया राग बड़ो दुखदाई ॥ टेक ॥ राग उदय पर वस्तु ग्रहण कर जानो नित हितदाई । अधिर पदारथ को धिर माने, मोह गहल हिंसादिक बहु पाप आरंभे जनम जनम जिनपद तीने लोक के स्वामी सो दीनो विसराई राग सचिक्कन सों चित लागे, कर्म धूल अधिकाई । राग ै अरित निज गुण उपवन को, छिन में देत जराई ॥ श्री ॥ ३ ॥ वीतराग जिनने क्या कीनो, समझो हिरदै भाई तज संकल्प विकल्प जिनेश्वर, वीतराग पद ध्याई यातै" ज्ञानानंद 'दौल' अब पियो पियूष मिटै भव व्याधि कठोरी १७ ॥ मान लो. (३१८) मान लो या सिख मोरी झुकै मत भोगन ́ ओरी ॥ टेक ॥ भोग भुजंग' भोग समजानों, जिन इनसे रतिजोरी । ते अनन्त भव भीम" भरे दुख, परे अधोगति पोरी", बंधे दृढ़ पातक डोरी ॥मान लो. इनको त्याग विरागी जे जन, भये ज्ञान वृष? धोरी । तिन सुख लह्यो अचल अविनाशी, भव फांसी दई तौरी रंगे तिन संग शिवगोरी १४ ॥ मान लो. ॥ २ ॥ भोगन की अभिलाष हरन को, त्रिजग संपदा ॥ १ ॥ थोरी । कयेरी । Jain Education International । ॥ श्री ॥ २ ॥ || 3 || 1 ॥ श्री. ॥ ४ ॥ (३१९) हमतो कबहु न निज घर आये । पर घर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये ॥ हम तो ॥ टेक ॥ परपद निजपद मानि मगन है, पर परनति लपटाये । शुद्ध बुद्ध सुख कन्द मनोहर, चेतन भाव न भाये ॥ हम. ॥ १ ॥ नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये । १. हित दायक २. गूढ ३. भुला दिया ४. राग रूपी चिकनाहट ५. राग रूपी अग्नि ६. ध्यान करो ७. शिक्षा ८. मोमों की तरफ ९. सर्प १०. भयंकर ११. ड्योढ़ी १२. धर्म १३. तोड़ दी १४. मोक्ष लक्ष्मी १५. इसलिए १६. अमल १७. कठोर व्याधि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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