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(१५८)
जो सुखोदधि में रहे लौलीन' उन्हें बेकार कह दीजै परखना ऐसे पुरुषों का, जगत में है कठिन सुनले
कविवर ज्योति
(४३७)
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अरे मन आतम को पहचान जो चाहत निज कल्यान ॥ टेक मिल जुल संग रहत पुद्गल के ज्यों तिल तेल मिलान । पर है आतम भिन्न पुद्गल से निश्चय नय परमान ॥ १ ॥ इन्द्रिन रहित अमूरत' आतम, ज्ञान मयी गुणखान अजर अमर अरु अलख लखै नहि, आंख नाक मुँह कान तन सम्बन्धी सुख दुख जाको करत लाभ नहि हान रोग शोक नहिं व्यापत जाको, हर्ष विषाद न आन अन्तरात्मा भाव धार कर जो पावे निर्वान 1 ज्ञान दीप की 'ज्योति' जगा लख, आतम अमर सुजान ॥ ४ ॥
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(४३८) चेतन अखियाँ खोलो ना, तेरे पीछे लागे चोर ॥ मोह रूप मद पान करे रे, पड़े हुए वे नयना' मीचे सो रहे रे, हित कि खोई बुद्धि ॥ याहि दशा लखि तेरी चेतन, लीनों इन्द्रिन लूटी गठरी ज्ञान की रे, अब क्यों" कीनी देर फांसी कर्मन डाल गले रे, नरक मांहि दे गेर" पड़े वहाँ दुख भोगने रे कहा ? करोगे फेर ॥ चेतन. ॥ ३ ॥ जागो चेतन चतुरा तुम, दीजो निद्रा त्याग ज्ञान खड्ग लो हाथ में रे, इन्द्रिय ठग जाय भाग उत्तम अवसर आ मिलो रे, छोड़ो विषयन १३ 'ज्योति' आतम हित करो रे, जाय न अवसर बीत ॥ चेतन.
॥ चेतन. ॥ ४ ॥
प्रीत
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टेक ॥
शुद्ध । चेतन. ॥ १ ॥ घेर ।
चेतन ॥ २ ॥
१. लवलीन २. अपनी भलाई ३. जैसे तिल में तेल ४. अलग ५. अमूर्त ६. मोक्ष ७. बेसुध ८. आंखें बन्द किये ९. इन्द्रियों ने घेर लिया १०. देर क्यों की ११. गिरा देता है १२. विषयों से प्रेम ।
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