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(१५७) परमेश्वर की मूरत में ही, ज्ञान सिन्धुमय देख लियो । मरमी होय परख सो जानें, औरन को है सुन्न' हियो ॥ २ ॥ याहि जान मुनिज्ञान ध्यान वल छिन में शिवपद सिद्ध कियो । अरहत सिद्ध सूरि गुरु मुनि पद, एक आत्म उपदेश कियो ॥३॥ जो निगोद में सो अपने में, शिवथानक सोई लखियो । 'नन्द ब्रह्म' यह रंच फेर नहिं, ‘बुधजन' योग्य जो गहियो ॥४॥
काववर सुखसागर
(४३५) जो आनंद निज घट में, नहीं पर में प्रगट होता । जो ज्ञानी निजानंद का, नहीं दुख सुख उसे होता ॥ टेक ॥ करोड़ों रोग अर व्याधि अगर तन मन में आता है । निराश होकर चली जाती असर घट पै नहीं होता ॥१॥ कहाँ सुवरण कहाँ लोहा, रतन अर कांच का अन्तर। कहाँ है चेतना सुखमय कहाँ जड़रूप है थोता ॥२॥ जो जड़ में मोह करते हैं वही भव में विचरते हैं। उन्हीं को राग द्वेषों में क्षणिक सुख दुख निकट होता ॥ ३ ॥ जो अपनी निधि का स्वामी है उसे क्या और धन चहिये । यह ‘सुख सागर' मगन रहके, सुज्ञानानन्द-भय होता ॥४॥
(४३६) परम रस हे मेरे घट२ में, उसे पीना कठिन सुन ले । जगत रस में जो भीगे हैं, उन्हें समरस कठिन सुन ले ॥ टेक ॥ है भव आतम दुखदाई, किसी ने चैन न पाई । जो इनके संग में उलझे उन्हें शिवसुख कठिन सुन ले ॥१॥ प्रथम पद में जो कांटे हैं, उन्हीं से छिद रहा यह तन । जो भेद ज्ञान का शस्तर,१३ उसे पाना कठिन सुन ले ॥२॥ बचाकर रखना आपे को, है सूराई१४ परम अद्भुत । जो भव छिति' नाश लेते, न निज सुख कुछ कठिन सुन ले ॥३॥ १. देख लिया २. शून्य हृदय ३, देखिये ४. थोड़ा भी ५. ग्रहण कीजिये ६. आत्मा ७. आत्मा ८. स्वर्ण ९. थोथा, व्यर्थ १०. शरीर, जड़ पदार्थ ११. संसार में भटकते हैं १२. मेरी आत्मा में १३. शस्त्र १४. वीरता १५. संसार का नाश करते हैं।
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