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________________ (१५) "काल अचानक ही ले जायगा, गाफिल, होकर रहना क्या रे ? छिनको तोडूं नाहीं बचावै, तो सुभटन का रखना क्या रे।।" (पद० ४४६) भैया भगवतीदास ने शरीर को परदेशी का रूपक देकर अपने भावों को जो व्यञ्जना की है, वह अद्भुत है उसमें एक कवि कलाकार की सूक्ष्म आन्तरिक दृष्टि और कुशल सूझ-बूझ विद्यमान है"कहा परदेशी को पतियारो। मनमाने तब चलै पंन्थ को साझ गिने ना सकारो। (पद० ४५९) दार्शनिक-सैद्धान्तिक-पद दार्शनिक और सैद्धान्तिक पदो में दर्शन और सिद्धान्त के तत्त्वों को प्रमुखता दी गई है। जैन-दर्शन में आत्मा को अनादि अनन्त माना गया है। उसे कर्मों के कारण संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। यदि इससे छुटकारा मिल जाये तो शरीर धारण का क्रम समाप्त हो जाता है। इन सन्दर्भो में कवियों द्वारा जीव-पुद्गल, तत्त्व, मोह, राग-द्वेष, अनेकान्त-स्यावाद आदि का निरूपण किया गया है। यद्यपि दार्शनिक-तत्त्वों के निरूपण में विचार और चिन्तन की प्रधानता रहती है, जिससे उक्त विषयक वर्णनों में शुष्कता एवं दुरूहता आ जाती है, किन्तु ये पद कवि-कौशल के कारण शुष्क न रहकर माधुर्य से ओत-प्रोत है। रूपक और उत्प्रेक्षा अंलकारों के सहयोग ने उन्हें रस से सराबोर कर दिया गया है मैं देखा आतम रामा। रूप फरस रस गन्ध तै न्यारा दरसन ज्ञान गुन धामा।। (पद० ३८९) और जब आत्मा को अच्छी तरह से जान लिया जाता है, तब समरसता प्राप्त होती जाती है "हम बैठे अपनी मौन सौ। दिन दस के महिमान जगत जन बोल बिगारै कौन-सौ।" (पद० ४१९) कवि के अन्य पद से जीव के विभिन्न रूपों के सम्बन्धों का वर्णन किया है। यह जीव जिस समय जिस रूप का होता है, उसी रस में लिप्त हो जाता। एक और अनेक, “अस्ति" और "नास्ति' रूप बनने में इसे क्षण भर की देर नहीं लगती, लेकिन इतना सब होते हुए भी इसके वास्तविक स्वरूप में काई अन्तर नहीं आता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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