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________________ (१७४) क्रम क्रम करके नरभव पायो तऊ न तजत लराई ॥ जिया. ॥१॥ मात, तात, सुत बांधव, बनिता, अरु परिवार बड़ाई । तिनसौ प्रीति करै निशि वासर जानत सब ठकुराई । जिया. ॥ २ ॥ चहुँगति जनम भरन के बहुदुख, अरू बहु कष्ट सहाई । संकट सहत तऊं नहिं चेतत भ्रम मदिरा अति पाई ॥ जिया. ॥३॥ इह बिन तजे परम पद नाहीं यो जिन देव बताई । ताः मोह त्याग लैं भैया ज्यो प्रगटे ठकुराई ॥ जिया. ॥४॥ राग-मारू (४७३) जो जो देखी वीतराग ने सो-सो होसी वीरा रे । अनहोनी होसी नहिं जग में काहे होत अधीरा रे ॥ जो. ॥टेक ॥ समयो एक बाडै नहि घटसी, जो सुख दुख की पीरा रे। तू क्यों सोच करै मन मूरख होय वज्र ज्यों हीरा रे ॥ जो. ॥१॥ लगै न तीर कमान वान कहुं मार सके नहि मोरा रे। तू सम्हारि पौरूष बल अपनो सुख अनंत तो तोरा रे ॥ जो. ॥ २ ॥ निश्चय ध्यान धरहु वा प्रभु को जो टारे भव' भीरा रे। 'भैया' चेत धरम निज अपनो, जो तारै भव २ नीरा रे ॥ जो. ॥ ३ ॥ कवि सुखसागर (४७४) करम जड़ है न इनसे डर परम पुरुषार्थ कर प्यारे । कि जिन भावों से बांधे हैं, उन्हीं को अब उलट प्यारे ॥ टेक ॥ शुभाशुभ पाप पुण्यों को, सदा ही बांधते जिय में । शुभाशुभ टालकर चेतन, तू शुध उपयोग धर प्यारे ॥ करम. ॥१॥ तू जैसा शाश्वता५ निर्मल, परम दीपक परम ज्योती । तू आपापरको जाने रहं, न राग द्वेष कर प्यारे ॥ करम. ॥२॥ जहां आतम अकेला है, वहीं उपयोग निर्मल है । उसी में निज चरण धरना, यही अभ्यास रख प्यारे ॥करम. ॥ ३॥ १.लड़ाई २.रात दिन ३.बडप्पन ४.सावधान होता ५.होगा ६.अधीर ७.समय बढ़ेगा घटेगा नहीं ८.पीर ९.बल पौरुष को सम्भालो १०.तेरा ११.भवदुख १२.भवसागर १३.चेतन १४.शुद्धोपयोग १५.शाश्वत, निर्मल १६.स्वपर १७.राग और द्वेष । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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