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________________ (१७५) तू भव सागर सुखावेगा, निजातम भाव भावेगा । 'सुखोदधि' में समावेगा, सदा समता सहित प्यारे ॥करम.॥ ४ ॥ कवि न्यामत (४७५) परदा पड़ा है मोह का आता नजर नहीं । चेतन तेरा स्वरूप है, तुझको खबर नहीं ॥ टेक ॥ चारों गती मारा फिरे ना ख्वार' रात दिन । आपे में अपने आप को लखता' मगर नही । परदा. ॥१॥ तन मन विकार धारले अनुभव सचेत हो । निजपर विचार देख जगत तेरा स्वघर नही ॥ परदा. ॥२॥ तू निज स्वरूप शिवरूप, ब्रह्म रूप है । विषयों के संग से तेरी होनी कदर नहीं ॥ परदा. ॥ ३ ॥ चाहे तो कर्म काट तू, परमात्मा बने । अफसोस कि इसपै भी तू करता नजर नहीं ॥ परदा. ॥ ४ ॥ निजशक्ति को पहचान समझ, अब तो ले 'न्यामत' । आलस में पड़े रहने से, होती गुजर नहीं ॥ परदा. ॥ ५ ॥ १२. बधाई गीत महाकवि बुधजन (४७६) बधाई राजै हो, आज राजै, बधाई राजै, नाभिराय के द्वार । इन्द्र सची सुर सब मिलि आये, सजि ल्यायै गजराजै ॥ बधाई. ॥ १ ॥ जन्म सदन” सची ऋषभ ले, सोपि दये सुरराजै ।। गजपै२ धरि गये सुरगिरि१३ पै, न्हौंन करन के काजै ॥ बधाई. ॥ २ ॥ आठ५ सहस सिर कलश जु ढारे, पुनि सिंगार समाजै । ल्याय धर्यो मरुदेवी कर मैं हरि नाच्यो सुख साजै ॥ बधाई. ॥ ३ ॥ लच्छन व्यंजन सहित सुभगतन, कंचन दुति रवि लाजै । या छवि 'बुधजन' के उर निश दिन तीन ज्ञानजुत राजै ॥ बधाई. ॥४॥ १.दिखाई नहीं देता २.नष्ट .देखता ४.अपना घर ५.इज्जत ६.निर्वाह ७. सुशोभित होता है ८. आदिनाथ के पिता ९. इन्द्राणी १०. ऐरावत, हाथी ११. इन्द्र १२. हाथी पर १३. सुमेरु पर्वत १४. स्नान १५.१००८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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