SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( १३५ ) 'भागचन्द' करुणाकर सुखकर, हरना यह भव संतति लामी ॥ ४ ॥ कवि दौलतराम राग- उझाज जोगीरासा (३८३) मोहि भवदुख दुखिया जानके ॥ टेक ॥ तुम, त्रिभुवन के दुखहारी । लख, लीनी शरण तिहारी ॥ १ ॥ सुधि' लीज्यो जी म्हारी, तीनलोक स्वामी नामी गणधरादि तुम शरण लइ जो विधि अरी करी हमरी गति, सो तुम जानत सारी । ॥ २ ॥ याद किये दुख होत हिये ज्यों, लागत कोट लब्धि अपर्याप्त निगोद में एक उसांस' कटारी मंहारी जनम मरन नव' दुगुन विथा की, कथा न जात उचारी ॥ २ ॥ भू जल ज्वलन १२ पवन प्रत्येक विकलत्रय तनधारी पंचेन्द्री पशु नारक नर सुर, विपति भरी भयकारी मोह महारिपु नेक न सुखभय होन ३ दई सुधि थारी सो दुठि१४ बंध भयौ भागनतै १५, पाये तुम जगतारी ॥ ५ ॥ यदपि विराग तदपि तुम शिवमग सहज प्रगट करतारी । ज्यों रवि किरण सहज मग दर्शक यह निमित्त अनिवारी ॥ ६॥ नाग १६ छाग १७ गज १८ बाघ भी दुष्ट, तारे अधम उधारी । शीश नमाय पुकारत कब कैं 'दौल' अधम की बारी ॥ ७ ॥ कवियित्री चम्पा (३८४) प्रभु तुम आतम १९ ध्येय करो, सब ध्येय करो, सब विकलप तज निजसुख सहज वरो ॥ हम तुम एक देश के वासी इतनो २० भेदज्ञान" बल तुम निज साधो, हम विवेक विसरो तुम २२ निज राच लगे चेतन में, देह से नेह हम सम्बन्ध कियो तन धन से भव वन विपति भरो ॥ प्रभु. ॥ २ ॥ टरो 1 Jain Education International गजाल तनो प्रभु ॥ भेद 118 11 ॥ प्रभु. टेक ॥ परो । For Personal & Private Use Only १. खबर २. मेरी ३. शरण ली है ४. बहार ५. आपकी ६. कर्म शत्रु ७. करोड़ो कटारी ८. एक सांस में ९. अट्ठारह बार मरना जीना १०. कही नही जाती ११. पृथ्वी १२. आग १३. आपका स्मरण होने दिया १४. दुष्ट १५. सौभाग्य से १६. सर्प १७. बकरा बकरी १८. हाथी १९. आत्म ध्यान किया २०. इतना अंतर हो गया २१. भेद ज्ञान के बल पर २२. आत्मस्वरूप में लीन । ॥ १ ॥ www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy