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( १३७ )
नाहिं
इस भव वन के माहिं', काल अनादि भ्रमत चहूंगति माहि सुख नहि दुख कर्म महारिपु जोर, एक न. कान मनमान्या ३ दुख देहिं, काहू सों कबहूं इतर निगोद, कबहूं सुरनर पशुगति मांहि, प्रभु इनके परसंग, जे दुख देखे देव!
नर्क बहुविधि नाच
नचावैं
बुरे
भव भव मांहि तुमसों नाहिं दुरो
एक जन्म की बात कहि न सकों सुनि
गमायो 1
बहुपायो ॥ २ ॥ करै जी ।
डरैं जी ॥ ३ ॥
दिखावैं ।
जी ।
जी ॥ ५ ॥ स्वामी ।
परजाय, जानत अंतर जामी ॥ ६ ॥ अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे "
साहिब मेरे ॥७॥
सुनियो निबल करि डाय जिन ! अंतर पांयनि बेरी
तुम अनन्त मैं तो एक कियो बहुत बेहाल ज्ञान महानिधि लुटि रंक इनही तुम मुझ मांहि हे पाप पुन्य मिलि दोई, तन कारागृह माहिं मोहि दियो दुख इनको नेक विगार", मैं कछु नाहिं कियो जी । बिनकारन जगवंद्य ! बहुविधि बैर लियो अब आयो तुम पास सुनि जिन, सुजस तिहारो नीतनिपुन जगराय ! क न्याव ११ दुष्टन देहु निकास १२, साधुन १३ कों रखि १४ विनवे १५ भूधरदास हे प्रभु ढील
दुख भारी
जी
हमारो
न
कीजै
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118 11
पार्यो ॥ ८ ॥
डारी '
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11 8 11
॥ १० ॥
।
लीजै ।
॥ ११ ॥
१. व्यर्थ २. सुनना ३. मनमाना ४. प्रसंग ५. बहुत से ६. अंतर पाड़ दिया ७. बेडी ८. डाली ९. जेल १०. नुकसान ११. न्याय, फैसला १२. निकाल १३. सज्जनों को १४. रख लीजिए १५. विनय करता हूं ।
॥ १२ ॥
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