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(३२)
वर्ण विगत' जाकी धुनि को सुनि भवि भवसिंधु तरे ॥ उरग ॥ २ ॥ साढ़े बारह कोड जाति के बाजत तूर्य' स्वरे । भामंडल की दुति अखंड ने रवि शशि मंद करे ॥उरग. ॥ ३ ॥ ज्ञान अनंत अनंत दर्शबल, शर्म अनंत भरे । करुणामृत पूरित पद जाके, दौलत हृदय धरे ॥उरग. ॥४॥
(९५) अरि रज हंस हनन प्रभु अरहन्न' जैवंतो जग में देव। अदेव सेवकरि जाकी, धरहिं मौलि पगमें ॥ अरि रज. ॥टेक ॥ जो तन अष्टोत्तर सहस्र लक्खन लखि कलिल शमें । जो बच दीप शिखा तैं मुनि विचरें शिवमारग में ॥ अरि रज. ॥१॥ जास पास तैं शाक हरन गुन, प्रगट भयो भग में । व्याल मराल कुरंग सिंघ को, जाति विरोध गमे ॥ अरि रज. ॥ २ ॥ जाजस-गगन उलंघन कोऊ, क्षम न मुनि खग में । दौल नाम तसु सुरतरु है या भव मरुथल में ॥अरि रज. ॥ ३ ॥
(९६) भज ऋषि पति वृषभेश वाहि नित, नमत अमर असुरा। मनमथ २-मथ दरसावत शिवपथ बृज रथ चक्रधुरा ॥भज. ॥ टेक ॥ जा प्रभु गर्भ छमास पूर्व सुर करी सुवर्ण धरा । जन्मत सुर गिर धर सुर गन युत हरि पय न्हवन करा ॥ १ ॥ नटत नर्तकी विलय देख प्रभु, लहि विराग सु थिरा । तबहिं देवऋषि आय नाम शिर, जिन पर पुष्प धरा ॥२॥ केवल समय जास बच रवि ने, जग भ्रम-तिमिर हरा । सुदृग-बोध-चारित्र पोत५ लहि, भवि भवसिन्धु तरा ॥ ३ ॥ योग संहार निवार शेषविधि - निवैस वसुम'६ धरा । दौलत जे याको जस गावै, ते हैं अज अमरा ॥ ४ ॥
१. शब्द रहित २. उच्च स्वर ३. कर्म धूलि ४. नष्ट करने ५. अरहन्त ६. पाप ७. शान्त होना ८. नष्ट होना १०. देव ११. राक्षस १२. कामदेव १३. नाचनेवाली (नीलांजना) १४. वचन १५. जहाज १६. सिद्धशिला ।
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