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________________ (१४९) इन्द्रिय सुख दुख में नित' पाग राग रूख' मे चित, दायक भव विपतिवृन्द बन्ध को बढ़ायौ ॥ अपनी. ॥२॥ चाह दाह' दाहै, त्यागौ न ताह चाहै समता सुधा न गाहै जिन, निकट जो बतायौ ॥ अपनी. ॥३॥ मानुज भव सुकुल पाय, जिनवर शासन लहाय 'दौल' निज स्वभाव भज, अनादि जो न ध्यायौ ॥ अपनी. ॥४॥ कविवर भागचंद (४१८) राग-गौरी आतम अनुभव आवै जब निज आतम अनुभव आवै । और कछु न सुहावै जब निज आतम अनुभव आवै ॥टे॥ जिन आज्ञा अनुसार प्रथम ही तत्व प्रतीति अनाव । वरनादिक रागादिकतै निज चिन्न भिन्न फिर ध्यावै ॥१॥ मतिज्ञान फरसादि विषय तजि, आतम सन्मुख ध्यावै । नय प्रमान निक्षेप सकल श्रुत-ज्ञान विकल्प नसादै ॥ २ ॥ चिदहं° शुद्धोऽहं इत्यादिक आपमाहि बुध आवै । तनपै बज्रपात गिरतें हूं नेकु न चित्त डुलावै ॥३॥ स्व संवेद' आनंद बढे अति वचन कह्यौ नहि जावै देखन२ जानन चरन तीन विच, इक स्वरूप ठहरावै ॥४॥ चितकर्ता चित कर्मभावचित परनति क्रिया कहावै । साधक साध्य ध्यान ध्येयादिक भेद कछु न दिखावै ॥५॥ आत्म प्रदेश अदृष्ट तदपि रसास्वाद१३ प्रगट दरसावै । ज्यों मिश्री दीसत न अंध को सपरस५ मिष्ट चखावै॥६॥ जिन जीवन के संसृत६ पारावार पार निकटावै 'भागचन्द' ते सार अमोलक, परम रतन वर पावै ॥७॥ १.लीन होना २.देष ३.इच्छा रूपी आग ४.उसको छोड़ता नहीं ५.ग्रहण नहीं करता, आवगाहता नही ६.अच्छा लगना ७.लाना ८.भिन्न आत्मा ९.स्पर्श आदि १०.में आत्मस्वरूपहूं ११.आत्मज्ञान १२.सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र १३.रसास्वादरस का स्वाद १४.दिखाई देता है १५.स्पर्श १६.संसार समुद्र १७.अमूल्य । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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