SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१८) (५४) सवैया (मात्रा ३१) रहौ दूर अंतर की महिमा, बाहिज' गुनवरनन बल कापै । एक हजार आठ लच्छन तन, तेज कोटि रवि-किरनि उथापै२ ॥ सुरपति सहस आंख अंजुलिसौं, रूपामृत पीवत नहिं धापै । तुम बिन कौन समर्थ वीरजिन जगसौं काढ़ि मोख में छापै ॥ महाकवि द्यानतराय (पद ५५-८२) राग - विहागड़ो अब हम नेमिजी की शरन ॥ टेक ॥ और ठौर न मन लगत है, छांड़ि प्रभु के चरन ॥ अब. ॥ १ ॥ सकल' भवि-अघ-दहन वारिद, विरद तारन तरन । इन्द चंद फनिंद ध्यावे, पाय सुख दुख हरन ॥ अब. ॥ २ ॥ भरम -तम-हर-तरनि दीपति, करम गन खयकरन । गनधरादि सुरादि जाके, गुन सकत नहिं वरन ॥ अब. ॥ ३ ॥ जा समान त्रिलोक में हम, सुन्यौ औरन करन । दास 'द्यानत' दयानिधि प्रभु, क्यों तर्जेंगे परन ॥अब. ॥ ४ ॥ राग बिलावल जिन नाम सुमर मन ! बावरे," कहा इत उत भटकै ॥ जिन. ॥ टेक ॥ . विषय प्रगट बिषवेल हैं, इनमें जिन अटकै । जिन नाम. ॥ १ ॥ दुर्लभ नरभव पायकै, नगसों१२ मत पटकै। फिर पीछे पछतायगो, औसर३ जब सटकै ॥ जिन नाम. ॥ २ ॥ एक घरी है सफल जो, प्रभु-गुन-रस गटकै"। कोटि वरण जीयो वृथा, जो थोथा फटकै ॥ जिन नाम. ॥ ३ ॥ 'द्यानत' उत्तम भजन है, लीजै मन रटकै ॥ भव भव के पातक सबै, जै हैं तो कटकै ६ ॥ जिन नाम. ॥ ४ ॥ १. बाहरी २. पराजित को ३. संतुष्ट हो ४. छोड़कर ५. समस्त ६. पाप की जलन ७. बादल ८. भ्रमरूपी अंधकार को दूर करने के लिए सूर्य ९. क्षय करने वाला १०. प्रण ११. बावळा १२. पहाड़ से १३. मौका, अवसर १४. निकल गयेगा १५. पीना १३. कटना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy