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________________ (५२) विधिना' मोहि अनादितै, पहुंगति भरमाया । ता' हरिवै की विधि सबै मुझ मांहि बताया ॥ सारद. ॥ ३ ॥ गुन अनन्त मतिर अलपते, मौपै जात न गाया । प्रचुर कृपा लखि रावरी, बुधजन हरषाया ॥ सारद. ॥४॥ (१५३) जिनवाणी के सुनै से मिथ्यात मिटै । मिथ्यात मिटै समकित प्रगटै ॥ टेक ॥ जैसे प्रात होत रवि उगत रैन तिमिर सब तुरत फटै ॥ जिन. ॥१॥ अनादि काल की भूलि मिटावै, अपनी निधि घट घट में उघटै। त्याग विभाव सुभाव सुधारै, अनुभव करता करम कटै ॥ जिन. ॥ २ ॥ और काम तजि सेवे, वाको या बिन नाहिं अज्ञान घटै । 'बुधजन' बाभव, भरभव मांही, बाकी हुंडी तुरत पटै ॥ जिन. ॥ ३ ॥ कवि भागचन्द (पद १५४-१६०) (१५४) सांची तो गंगा यह वीतराग वानी, अविच्छन्नधारा धर्म की कहानी ॥ सांची. ॥टेक ॥ जामें अति ही विमल अगाध ज्ञान पानी, जहां नहीं संशयादि पंककी निशानी ॥ सांची. ॥१॥ सप्तभंग° अँह तरंग उछलत सुखदानी, संतचित मरालवृंद रमैं नित्य ज्ञानी ॥ सांची. ॥ २ ॥ जाके अवगाहनतें शुद्ध होय पानी, 'भागचंद्र' निहचै घरमाहिं या प्रमानी ॥ सांची. ॥३॥ (१५५) राग-ईमन (यमन) महिमा है अगम जिनागम की ॥टेक ॥ जाहि सुनत जड़ भिन्न पिछानी, हम चिन्मूरत आतम की॥ महिमा. ॥१॥ रागादिक दुखकारन जाने, त्याग बुद्धि दीनी भ्रमकी, ज्ञान ज्योति जागी घर अंतर, रुचि बाढ़ी पुनि शामदम की ॥ महिमा. ॥ २ ॥ बंधकी भई निर्जरा कारण परंपराक्रम की। 'भागचंद' शिवलालच' लागी, पहुंच नहीं है जंह जम की ॥ महिमा. ॥ ३ ॥ १.कर्म २.उस को दूर करने ३.अल्पबुद्धि से ४.आपकी ५.रात्रि का अंधकार ६.प्रगट होती है ७.उसको ८.अत्यन्त स्वच्छ ९.कीचड़ की १०.स्याद्वाद११.मोक्ष का लालच । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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