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________________ (४६) सो दुख भान' स्वपर पिछानन', तुम विन आनन कारन हेरो ॥ २ ॥ चाह भई शिवराह' लाह की गयो उछाह ' असं रो । 'दौलत' हित विराग चित आन्यौ, जान्यौ रूप ज्ञान दृग मेरो. ॥ मैं. ॥ ३ ॥ (१३४) जनपाला, मोह नशाने वाला ॥ दीठा. ॥ टेक ॥ १ ॥ .११ .१२ ठा भाग सुभग निशंक राग बिन यातै वसन' न आयुध'' वाला ॥ मोह. ॥ जास" ज्ञान में युगपत भासत, सकल पदारथ माला ॥ मोह ॥ २ ॥ निज में लीन हीन इच्छा पर हित-मित वचन रसाला ' १३ ॥ मोह. ॥ ३ ॥ लखि जाकी छवि आतमनिधि निज पावत होत निहाला ४ || मोह ॥ ४ ॥ 'दौल' जास गुन" चिंतत रत है निकट विकट भव नाला || मोह. ।। ५ ।। .१५ (१३५) आज मैं परम पदारथ पायौ, प्रभु चरनन चित लायौ ॥ टेक ॥ अशुभ गये शुभ प्रगट भये हैं, सहज कल्पतरु छायौ ॥ आज. ॥ १ ॥ ज्ञानशक्ति तप ऐसी जाकी, चेतन पद दरसायो ॥ आज. ॥ २ ॥ अष्ट कर्म रिपु योधा जीते, शिव७ अंकुर जमायौ ॥आज. ॥ ३ ॥ (१३६) प्यारी लागै म्हाने १८. जिन छवि थारी १९ ॥ टेक ॥ परम निराकुल पद दरसावत, वर विरागताकारी । o पट भूषन २१ बिन पै सुन्दरता सुर नर मुनि मनहारी ॥ प्यारी. ॥ १ ॥ जाहि विलोकत भवि निज निधि लहि, चिर विभावती २२ टारी । निर२३ निमेषतैं देख सची पति, सुरता सफल विचारी ॥ प्यारी. ॥ २ ॥ महिमा अकथ होत लख ताकी, पशु सम समकित धारी । 'दौलत' रहो ताहि, २५ निरखनकी २६ भव भव टेव २७. हमारी ॥ प्यारी. ॥ ३ ॥ नि. ॥टेक॥ (१३७) निरखत सुख पायौ जिनमुखचन्द ॥ मोह महातम नाश भयौ है, उर अम्बुज २८ प्रफुलायौ २९ ॥ ताप नस्यौ बढ़ि उदधि अनंद ॥ निरखत. ॥ १ ॥ १. नष्ट करने वाला २. पहचानना ३.इच्छा ४. मोक्ष मार्ग ५. उत्साह ६. देखा ७. भाग्य से ८. इसलिए ९. वस्त्र १०. हथियार ११. जिसके १२. प्रकाशित होता है १३. मीठे १४. धन्य १५. जिसके गुनों से १६. संसार सागर १७. मोक्ष का बीज १८. मुझे १९. आपकी २० कपड़ा २१. आभूषण २२. पर परिणति २३. टकटकी लगाकर २४. देवत्व २५. उसको २६. देखने की २७. टेक २८. कमल २९. खिला ३०. समुद्र । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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