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________________ .(४७) चकवी कुमति विधुर अति विलखै आलम सुधा सवायो' शिथिल भये सब विधिगन फन्द ॥ निरखत. ॥ २ ॥ विकट भवोदधि को तट निकट्यौ अघतरु मूल नसायो 'दौल' लह्यो अब स्वपद स्वच्छन्द ॥ निरखत. ॥ ३ ॥ (१३८) जिन छवि लखत' यह बुधि भयी॥ जिन. ॥टेक॥ मैं न देह चिंदकमय, तन, जड़ फरस रसमयी ॥जिन. ॥१॥ अशुभ शुभ फल कर्म दुख सुख, पृथकता सब गयी। राग दोष विभाव चालित ज्ञानता थिर थयी ॥ जिन. ॥ २ ॥ परि गहन आकुलता दहन विनसि समता लयी । 'दौल' पूरव अलभ आनंद लह्यो भवथिति 'जयी । जिन. ॥ ३ ॥ (१३९) जिन छवि तेरी यह, धनजग तारन ॥ जिन छवि ॥टेक ॥ मूल न फूल दुकूल त्रिशूल न शम दम कार भ्रमतम वारन ॥१॥ जाकी प्रभुता की महिमा नै सुरनधी शिता लागत सारन । अवलोकत भविथोक मोख मग चरत करत निजनिधि उरधारन ॥ २ ॥ जजत भजत अघ तौ को अचरज समकित पावन भावनकारन । तासु सेव फल एव चहत नित, 'दौलत' जाके सुगुन उचारक ॥३॥ (१४०) सम्मेद शिखर आज गिरिराज निहारा, धनभाग हमारा । श्री सम्मेद नाम है जाको, भूपर तीरथ भारा ॥ आज. ॥ टेक ॥ वहाँ बीस जिन मुक्ति पधारे, अखर९ मुनीश अपारा । आरज° भूमि शिखानि सोहै, सुरनर मुनि मन प्यारा ॥आज. ॥ १ ॥ तंह थिर योग धार योगिसुर निज पर तत्व विचारा । निज स्वभाव में लीन होयकर सकल विभाव निवारा आज. ॥ २ ॥ जाहि जजत भवि भावन तें, जब भव भव पातक टारा ।। १. बिछुड़ा २. बढ़ गया ३. कर्म ४. पाप रूपी वृच्छ की जड़ ५. देखकर ६. बुद्धि ७. आनन्दमय ८. स्पर्श ९. स्थिर १०. समता (शान्ति) लीन ११. संसार की स्थिति १२. धन्य १३. इन्द्र का स्वामित्व १४. देखना १५. स्थिति १६. मोक्ष १७. पूजा करना १८. महान १९. अन्य २०. आर्य २१. चोटियाँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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