SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (८) भक्ति का निखरा हुआ रूप निम्न पदों में दिखलाई पड़ता है। ज्यों-ज्यों भक्त जिनेन्द्र देव की महत्ता और अपनी स्थिति पर विचार करता है, त्यों-त्यों उसे अपनी लघुता का बोध होने लगता है। वह अपने समस्त दोषों को जिनेन्द्र देव के सम्मुख खोलकर रख देता है। इस आशय के अनेक पद उक्त रचना में उपलब्ध है "भजन बिन यों ही जनम गंवायो।" (पद०३) "भला होगा तेरा यों ही जिनगुन पालक।।" (पद० ११) "अब नित नेमिनाथ भज्यों।।" (पद० ४१) आध्यात्मिक पद प्रस्तुत कोटि के पदों में अध्यात्म-तत्त्व की सुन्दर अभिव्यञ्जना हुई है। कवि अपने अन्तस् में आत्मतत्त्व की महत्ता का वर्णन करता है। वह अनुभव करता है कि आत्मा तो अजर, अमर है किन्तु रागद्वेष, मोह, और अज्ञानता अनन्तकाल तक आत्मा को आवागमन के चक्कर में उलझाए रखती है। अत: इस जन्म-मरण के चक्कर से बचने का एकमात्र उपाय है- भेदानुभूति। भेदानुभूति होते ही यह अनुभव हो जाता है कि शरीर और आत्मा अलग-अलग है और उसकी दृष्टि बाह्य-सौन्दर्य की अपेक्षा आन्तरिक-सौन्दर्य पर केन्द्रित हो जाती है। इसी आत्म-भाव का चित्रांकन बड़ी यथार्थता के साथ हिन्दी जैन कवियों ने किया है। सभी कवि आत्म-रसिक थे। उन्होंने आत्मा का विश्लेषण बड़ी भावुकता एवं सरसता के साथ किया है। आत्मा से परिचय हो जाने के पश्चात् कवि बुधजन कह उठते हैं "मैं देखा आतम रामा। रूप फरस रस गन्ध तै न्यारा दरस ज्ञान गुन धामा।" (पद०-३८९) उक्त पद में आत्मिक अनुभूति की अभिव्यक्ति अत्यन्त मार्मिकता के साथ हुई है। कवियों ने रूपकों के माध्यम से अपनी जिस विराट कल्पना का दर्शन कराया, वह भी श्लाघनीय है। "अन्तर उज्ज्वल करना रे भाई। कपट कृपान तजे नहिं तब लौ करती काज न सरना रे।।" (पद० २९४) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy