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________________ (७) (४) उपदेशप्रद पद (५) संसार की असारता सम्बन्धी पद (६) दार्शनिक एवं सैद्धान्तिक पद, और (७) विरहात्मक पद भक्तिपरक पद जैन कवियों ने भक्तिपरक पदों की रचना विशेष रूप से की है। जिनेन्द्र प्रभु की भक्ति का अवलम्बन पाकर मानव-मन क्षण भर को स्थिर हो जाता है। वह अपने आराध्य के गुणों में कुछ इस तरह मस्त हो जाता है कि अपनी सुध-बुध भूल जाता है। किन्तु यह भक्ति नैराश्य जनक नहीं अपितु इससे भक्त की आत्मा निर्मल हो जाती है। वह जानता है कि कर्मों का कर्ता या भोक्ता स्वयं वही है। अपने उत्थान या पतन का दायित्व उसी पर है इसलिए जैन कवि इसी भक्ति-भावना से. उन जिनेन्द्र प्रभु की आराधना करते हैं, जिन्होंने आत्म-संयम, तप और ध्यान के द्वारा कर्म-बन्धन को नष्ट कर सिद्धावस्था प्राप्त कर ली है। इसी भावना से अनुप्राणित कुछ पदों की झाँकी द्रष्टव्य है। कवि दौलत कहते हैं कि मानव अपने आत्मस्वरूप की विस्मृति के कारण ही संसार में अनेक कष्टों को सहन कर रहा है "अपनी सुधि भूलि आप आप दुख पायो।''( पद० ४१७) जब भक्त अपने उपास्य में अनन्तशक्ति और सामर्थ्य देखता है, तब उसे अपनी असमर्थता का भान होता है, तभी उसका अहंभाव दूर हो जाता है और वह आत्मसमर्पण कर देता है। वह अपने समस्त दोषों को जिनेन्द्र देव के सम्मुख खोल-खोलकर गिनाता है। इस आशय के अनेक पद उक्त रचना में उपलब्ध है। कवि दौलत कहते हैं कि भक्तों के एकमात्र शरण जिनेन्द्र-प्रभु ही है। "जाऊँ कहाँ तजि शरण तिहारे।।" (पद० ३७५) कविवर बुधजन अपने आराध्य के प्रति यह भावना व्यक्त करते हैं कि आप भवोदधि से पार उतारनेवाली नौका है।" "भवोदधि तारक नवका जग माँही।।" (पद० १५०) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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