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________________ (५६) या जगमांहि मुझे तारन को, कारन नाव बखानी । 'द्यानत' सो गहिये निहचै सो, हूजे ज्यो शिवथानी ॥समझत. ॥ ४ ॥ (१६५) सुमति हितकरनी सुखदाय, जरा उर अंतर' वस ज्याय ॥ अंतर वस ज्याये हिरदै वस ज्याये हित करनी सुखदाय जरा उर अंतर वस ज्याये ॥ टेर ॥ दया छिमा तेरी बहन कहीजै सत्यशील थारा भाई ये ॥ सुमति. ॥ १ ॥ समकित तो थारो तात जी भवि जीवन को प्यारी ये ॥ सुमति. ॥ २ ॥ श्री जिनदेव चरन अनुरागी, शिवकामिन की प्यारी ये ॥ सुमति. ॥ ३ ॥ संत सुषीजन तोहि अराधे मान जिनेश्वर वानी ये ॥ सुमति. ॥ ४ ॥ (१६६) त्रिदश" पंथ उरधार चतुर नर यो वरनो जिनवानी जी ॥ टेर ॥ तीर्थंकर की भक्ति हृदय धरि परिगह विन गुरुज्ञानी जी ॥ जिनमल गुरु जिनचारिसंघ की, भक्ति करो सुखदानी जी ॥१॥ पंच पाप निजबल समत्यागो, चार कषाय दवानी जी । सज्जनता गुणवान जीव की, संगति सहित वखानी जी ॥२॥ इन्द्रिय दमन शक्ति सम की जो, दान चार वरदानी जी । यथाशक्ति सम्यक् तप करना, द्वादश भाव सुध्यानी जी ॥ ३ ॥ भवन तन भोग विराग भाव यों तेरह पंथ प्रमानी जी । मुक्तावली शास्त्र में शशि प्रभु, कही जिनेश्वर वानी जी ॥ ४ ॥ महाकवि दौलतराम (पद १६७-१७४) (१६७) जय-जय जग भरम तिमर हरन जिन धुनि ॥ टेक ॥ या विन समुझै अजो न सौंज निज मुनि । यह लखि हम निजपर अविवेकता लुनी ॥जय जय. ॥१॥ १.हृदय २.क्षमा ३.आपका ४.सुखी लोग ५. तेरहपंथ–(१. तीर्थकर की भक्ति, २.गुरू भक्ति, ३.चार संघ की भक्ति, ४.पांच पापों का त्याग, ५.कषायों का दमन, ६. गुणवान की संगाते, ७. इन्द्रिय दमन ८. चार प्रकार का दान ९. तप, १०. बारह भवना, ११. संसार, १२. शरीर, १३. भोगों का त्याग) ६.ध्वनि, वाणी ७.सजाना ८.काटी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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