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________________ (६६) (१९३) शीत रितु-जोरै अंग सबही सकोरे तहाँ, तन को न मौर, नदी धौरे धीर जे खरे। जेठ की झको जहाँ अंडा चील छोरै पशु, पंछी छोह लौर गिरि कोरै तप वे धरे ॥ घोर घन घोरै घटा चहुँ ओर डोरै ज्यों ज्यों चलत हिलोरै, ल्यों त्यों फोरै बल ये अरे । देह नेह तोरे परमारथ सौ प्रीति जौरे, ऐसे गुरु ओरैं हम हाथ अंजुलि करे । कविवर द्याननतराय (पद १९४-१९९) (१९४) परम गुरु वरसत ज्ञान झरी ॥ टेक ॥ हरषि हरषि बहु गरजि गरजि कै, मिथ्यातपन हरी ॥ परम. ॥ १ ॥ सरधा भूमि सुहावन लागै, संशय बेलिहरी । भविजन मन सर" वर भरि उमड़े, समुझि पवन सियरी २॥ परम. ॥ २ ॥ स्याद्वाद बिजली चमकै, पर३-मत-शिखर परी चातक मोर साधु श्रावक के, हृदय सुभक्ति भरी ॥ परम. ॥ ३ ॥ जप तप परमानन्द बढ्यो है सुसमय" नीव धरी । 'द्यानत' पावन ६ पावस आयो थिरता शुद्ध करी ॥ परम. ॥ ४ ॥ (१९५) गुरु समान दाता नंहि कोई॥ टेक ॥ भानु प्रकाश १७ न नाशत जाको, सो अंधियारा डारै८ खोई ॥ १ ॥ मेघ समान सबन पै बरसै, कछु इच्छा जाकै नहि होई । नरक पशूगति आग माहितै, सुरग मुकत सुख थापै९ सोई ॥ २ ॥ तीन लोक मंदिर में जानो, दीपक मम पर काश कलोई । दीप तले अंधियार भरयौ है अंतर बहिर विमल है जोई ॥ ३ ॥ तारन तरन जिहाज सुगुरु है, सब कुटुम्ब डोवै जग तोई । 'द्यानत' निशिदिन निरमल मन में राखो गुरुपद पंकज १ दोई ॥ ४ ॥ १. सिकोड़े हुए २. मोड़ना ३. नदी के पास ४. छोड़ते हैं ५. लौटना ६. पर्वत के कोने में ७. झड़ी ८. प्रसन्न हो होकर ९. मिथ्यात्व रूपी जलन १०. संशय रूपी ११. तालाब १२. शीतल १३. अन्य मल रूपी शिखर पर गिरी १४. बढ़ा है १५. अच्छे समय में १६ पवित्र वर्षा १७. सूर्य का प्रकाश १८. नष्ट कर देते हैं १९ स्थापित करना २०. लो, शिखा २१. कमल । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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