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________________ (८७) (२४८) महाकवि बुधजन राग - सोरठ ज्ञानी थारी' रीतिरौ२ अचमौः मोर्ने आवै छै॥ ज्ञानी. ॥ टेक ॥ भूलि सकति निज, परवश है क्यौं, जनम जनम दुख पावे छै ।। ज्ञानी. ॥ १ ॥ क्रोध लोभ मद माया करि कर आपो आप फँसावै छै । फल भोगन की बेर होय तव भोगन क्यों पिछतावै छै । ज्ञानी. ॥ २ ॥ पाप काज करि धन कौं चाहै, धर्म विषै मैं बतावै छै । 'बुधजन' नीति अनीति बनाई, सांचो सो बतरावै छै ॥ ज्ञानी. ॥ ३ ॥ (२४९) महाकवि द्यानत भ्रम्यो जी भ्रम्यो संसार महावन, सुख तो कबहुं न पायोजी ॥ टेक ॥ पुद्गल जीव एक करि जान्यो, भेद ज्ञान न सुहायो जी ॥धम्यो. ॥ १ ॥ मन बच काय जीव संहारो, झूठो बचन बनायो जी ।। चोरी करके हरष बढ़ायो विषय भोग गरवायो जी ॥ध्रम्यो. ॥ २ ॥ नरक मांहि छेदन भेदन बहु, साधारण वसि आयो जी । गरभ जनम नरभव दुख देखे देव मरत' विललायो जी२॥ध्रम्यो. ॥ ३ ॥ 'द्यानत' अब जिन बचन सुनै मैं भवमल २ पाप वहायो जी। आदिनाथ अरहन्त आदि गुरु, चरनकमल चित्त लायो जी ॥धम्यो. ॥ ४ ॥ (२५०) भाई ज्ञान की राह सुहेला४ रे॥ भाई. टेक ॥ दरब न चहिये देह न दहिये, जोग भोग न नवेला५ रे ॥१॥ लड़ना नाहीं, मरना नाही, करना बेला६ तेला रे । पढ़ना नाहीं गढ़ना नाही नाच न गावन मेला रे॥ भाई. ॥ २ ॥ न्हांनां नाही खाना नाही, नाहिं कमाना धेला८ रे । चलना नाही जलना नाही गलना नाही देला रे॥ भाई. ॥ ३ ॥ जो चित चाहै सो नित दाहै, चाह दूर करि खेला रे । 'द्यानत' यामै९ कौन कठिनता, बे परवाह अकेला रे ॥ भाई. ॥ ४ ।। १.आपकी २. रीति का ३. आश्चर्य ४. मुझे ५. लाचार होकर ६. फल भोगने के समय ७. बताते हैं ८. मटका ९. जाना १०. गर्वित हुआ ११. मरते समय १२. रोया १३. संसार का मैल १४. सरल १५. नया १६. दो उपवास १७. तीन उपवास १८. आधा पैसा १९. इसमें।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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