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________________ (२०) प्रस्तुत संग्रह ग्रन्थ में जिन कवियों की रचनाएँ संग्रहीत हैं, उनका संक्षिप्त परिचय आवश्यक समझकर काल क्रमानुसार यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा हैमहाकवि बनारसी दास महाकवि बनारसीदास हिन्दी जैन-साहित्य में विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न कवि माने जाते हैं। साहित्यिक गुण इन्हें अपने पितामह से विरासत में प्राप्त हुए थे। प्रारम्भ में इनकी अभिरुचि शृङ्गार-प्रधान रचनाओं के प्रणयन की ओर रही, किन्तु बाद में उन्होंने अपनी नवरस सम्बन्धी रचना गोमती नदी में प्रवाहित कर दी और वे अध्यात्मवादी कवि बन गए। उनके पदों में कल्पना, अनुभूति भाव एवं भाषा का समुचित समाहार है और वे माधुर्य-रस से ओत-प्रोत हैं। इनकी रचनाएँ इनके समय में ही प्रसिद्धि को प्राप्त हो गई थीं। इनकी प्रमुख रचनाओं में नाममाला, नाटक-समयसार, बनारसी-विलास और अर्द्धकथानक प्रमुख है। नाममाला कवि का १७५ दोहों का सुन्दर शब्दाकोष (Dictionary) है। ___ नाटक-समयसार इनकी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक रचना हैं जो आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार-प्राभृत का हिन्दी पद्य-शैली का भावानुवाद है। बनारसी-विलास में कवि की ५७ फुटकर रचनाएँ संग्रहीत हैं और अर्द्धकथानक में कवि की आत्मकथा वर्णित है, जो कि हिन्दी का आद्य जीवन-चरित माना गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में संग्रहीत कवि कृत पद्यों में अध्यात्म-रस की पिच्छलधारा मन्त्रमुग्ध कर देनेवाली है। हिन्दी-साहित्य में ये सभी रचनाएँ अपना अनूठा स्थान रखती हैं। संस्कृति, इतिहास एवं भाषा शास्त्रीय दृष्टि से इनका अपना विशेष महत्त्व है। जैन-साहित्य में हिन्दी-भाषा का इतना बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न महाकवि दूसरा नहीं हुआ। इनके विषय में सम्पादकाचार्य पं० बनारसी दास चतुर्वेदी का यह कथन मननीय है कविवर बनारसी के आत्म-चरित “अर्ध-कथानक" को आद्योपान्त पढ़ने के बाद हम इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि हिन्दी-साहित्य के इतिहास में इस ग्रन्थ का एक विशेष स्थान तो होगा ही साथ ही इसमें वह संजीवनी शक्ति विद्यमान है, जो इसे अभी कई सौ वर्ष जीवित रखने में सर्वथा समर्थ होगी। सत्यप्रियता, स्पष्टवादिता, निरभिमानता और स्वाभाविकता का ऐसा जबर्दस्त पुट इसमें विद्यमान है, भाषा इस पुस्तक की इतनी सरल है और साथ ही यह इतनी संक्षिप्त भी है, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003995
Book TitleAdhyatma Pad Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanchedilal Jain, Tarachand Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1996
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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