Book Title: Aagam 40 Aavashyak Malaygiri Vrutti Mool Sootra 1 Part 02
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४०/२] श्री आवश्यक [मूलसूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: “आवश्यक" नियुक्ति: एवं वृत्ति: नियुक्ति: १३७ से १४२ [भद्रबाहुसूरि सूत्रिता नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि रचिता वृत्तिः] [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: MOA Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं -1, नियुक्ति: -, THI भाष्यं [-], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक - श्रीआगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे, ग्रन्थाङ्कः ५६. चार्यकृतविवरणयुतं, श्रुतकेवलिश्रीमद्भद्रबाहुखामिसूत्रितनियुक्तियुत श्रीआवश्यकसूत्रम्। दीप अनुक्रम - (पूर्वभागः). प्रकाशक:-श्रीआगमोदयसमितेः कार्यवाहक:-जीवनचन्द-साकरचन्दः जह्वेरी। इदं पुस्तकं मोहमय्या निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभाटवीच्या २६-२८ तमे गृहे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् । वीरसम्बत् २४५४. विक्रमसंवत् १९८४. सन १९२८. प्रतयः १२५.] वेतनं रू. -. [Rs.4-0-0 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आवश्यक- नियुक्ति: एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा श्री भद्रभाहुस्वामिजी की नियुक्ति पर मलयगिरिसूरिजी रचिता वृत्ति की प्रत सबसे पहले "श्री आवश्यकसूत्र" के नामसे सन १९२८ (विक्रम संवत १९८४) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | पूज्यपाद श्री हरिभद्रसूरिजीने भी आवश्यक-सूत्र पर एक विशाल वृत्ति की रचना कि है, जो हमारी “आगम सुत्ताणि सटीकं" एवं “सवृत्तिक आगम सूत्राणि" मे मुद्रित हुइ है । * हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन-नियुक्ति-भाष्य-मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, नियुक्ति, भाष्य, सूत्र-आदि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम दिया है, उसके साथ इसी प्रत का सूत्रक्रम और 'दीप अनुक्रम' देने की हमारी पद्धत्ति है मगर यहां तो मुख्य-तौर पे नियुक्ति और भाष्य पर हि मलयगिरिजी रचिता वृत्ति है क्यों की ये वृत्ति सिर्फ १- अध्ययन तक ही प्राप्त हो रही है इसिलिए बायी तरफ़ सूत्रांक और दीप-अनुक्रमवाले विभाग कि कोई उपयोगिता नहि रही| यहां मूल संपादक कि बनायी हुइ एक अनुक्रमणिका भी पायी गई है, जो की तिनो [चारो] विभागो की एक साथ हि है, जिसमे नियुक्ति, भाष्य आदि के क्रम, (प्रत के) पृष्ठांक सहित लिख दिये है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते नियुक्ति एवं भाष्य तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है। अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ..मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं - नियुक्ति: 1-1, भाष्यं - मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: आवश्यकस्य मलयगिरीयाया वृत्ते गत्रयस्य विषयानुक्रमः । प्रत सत्रांक दीप अनुक्रम विषयः पत्राः विषयः पत्रा प्रयोजनाणुपन्याससाफल्यम्-(वचनप्रामाण्यम्) ... १ज्ञानपञ्चकक्रमसिद्धिः, एकेन्द्रिये श्रुत्तसिद्धिः, लक्षणादिमजलचर्चा, नामादिलक्षणानि, द्रव्यमङ्गले नयचर्चा,मालो- | भेदैर्मतिभुतयोर्भेदः। ... पयोगे मालवा, नामादीनां भिन्नता,नामाकान्तनिरासः। २ अवप्रहादयो मतिभेदाः ( गा.२)। (संशयादीहाया भेदः) २२ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकविचारः । (महवादिसिद्धसेनमते) । १२ अवप्रहादीनां स्वरूपम् । (गा. ३) व्यञ्जनावमहे ज्ञान, नन्दिनिक्षेपाः। ... .... .. ... १२ चक्षुर्मनसोरप्राप्यकारिता । ... ... . मानपत्रकलरूपं ( गा.१) प्रत्यक्षपरोशविभागः, आत्मनो शवमहादीनां कालमानम् । (गा. ४)। ... ... २४ मातृत्व, इन्द्रियाणां करणत्वेऽपि व्यवधायकता, केवले ! शब्दादीनां प्राप्ताप्राप्तबद्धपष्टवादि (गा.५)।(शब्दस्या शेषशानामावसिद्धि। ... . ... ... १३/ प्राप्यकारितानिरासः) ... ... ... २ मानपकपाक्यसिद्धिः। .... ... ... १७/ शब्दस्थाकाशगुणत्वमपास्तम् । ... . अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: brary.orm Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं -, नियुक्ति: [-], भाष्यं [-], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: बोलाव मठयगि ...पत्रात म नुक्र प्रत सत्राक MARACTRONC40C400446 दीप अनुक्रम विषयः पत्राहः । विषयः इन्द्रियविषयाणामात्माकुलमेयता, प्रकाश्यप्रकाशकविषय- | अष्टाविंशतिर्भेदाः । (द्रव्य क्षेत्रकालभावविचारा)। सुख| मानभेदः। ... ... ... ... २९ . ज्ञानकथनप्रतिज्ञा । (गा. १६)। ... ... ४४/४ मिनपराघातशब्दश्रवणम् (गा.६)। ... ... ३१ | यावदक्षरं प्रकृतिः, अशक्तिर्भणने। (गा,.१७-१८) ४५ शब्दपुद्गलानां ग्रहणनिसर्गों, (गा. ७)। ... अक्षराधा भेदाः, (गा. १९) (अक्षरभेदाः)। अनात्रिविधेन शरीरेण महणं भाषा च, (गा. ८)। भाषाया रसुतम् (गा. २०) अङ्गानगप्रविष्टविचारः। ... ४६ । प्रहणमोक्षी, भेदाम (गा. ९)। ... ... ३४ शास्त्रलाभरीतिः (गा. २१)। बुद्धिगुणाः (गा. २२)। भाषाया लोकन्याप्तिः, पूरणरीतिश्च, (गा. १०-११)। श्रवणविधिः (गा.२३) । अनुयोगविधिः, (३गा-२४)। ४९ (जैनसमुद्घातरीत्या न व्याप्तिः)। ... ... ३५/ अवधेः प्रकृतया, (गा. २५)।( यावत्प्रकृतिभणनेऽशआभिनिवोधिकस्यकार्थिकानि (गा. १२)... ... ३८ क्तिः (गा. २६)। ... ... ... ५० सत्पदादीनि द्वाराणि ( गा. १३-१४) । (सम्यक्त्वे अवघ्यादीनि द्वाराणि (गा. २७-२८) । अवनिव्यवहार निश्चयो)। (क्रियानिष्ठयोर्भेदाभेदौ )। (अब क्षेपाः, (गा. २९)। ... ... ... ५१ गाहस्पर्शनयोगः)। ...' ... ... ३९ | अवषेर्जघन्य क्षेत्रम् (गा. ३०)। ... ... ५२ अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं -, नियुक्ति: [-], भाष्यं [-], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक विषयः विषयः *अवघेरुत्कृष्ट क्षेत्रम्, (या. ३२) । पोढाऽग्मिजीवावस्था-- उत्कृष्टाद्यवधीनां गतिषु सत्ता, संस्थानं च (गा.५३-५५)। ६७ । नम्, सूचिश्रेणिस्त्वादेशः । ... ... ... ५३ आनुगामिकेतराववधी, (अन्तगवादिभेदाः), (-गा. ५६)1 ६८ अवधेः क्षेत्रकालप्रतिबन्धः (गा. ३२-३५)। कालादि- क्षेत्रकाळद्रव्यपर्यवेष्ववस्थानम् , (गा. ५७-५८) ... ७. | वृद्धिनियमः ( गा. ३६ )। क्षेत्रस्य सूक्ष्मता, क्षेत्रकालद्रव्यपर्यायाणां वृद्धिहानी, (गा. ५९)। ... १ (गा. ३७)।... | स्पर्धकावधिः, (प्रतिपात्यप्रतिपातिनौ) (गा. ६०-६१)। ७२ अवधेः प्रस्थापकनिष्ठापको ( गा. ३८) । द्रव्यक्षेत्रवर्गणाः बाथान्तरावभ्योः प्रतिपावोत्पाती, (गा. ६२-६३) (गा. ३९-४०)। ... ... ... द्रव्यपर्यायप्रतिबन्धः (गा. ६४)। ... ... ७३ गुरुलवादीनि द्रव्याणि (गा. ४१) । अवघे व्यझे- साकारादीनि (गा. ६५)। अवघेरवायाः (गा.६६)। | त्रादिप्रतिबन्धः, (गा. ४२-४३)। ... ... सम्बद्धासम्बद्धाः (गा. ६७) । गत्याद्यतिदेशः। (गा.६८) परमावषेर्द्वब्यादि (गा. ४४-४५) ... ... आमीषच्याद्याः (६९-७०)। ... ... ति येनरकयोरवधिः, (गा. ४६-४७) ... | वासुदेवचयईता बलम्, (गा. ७१-५)। (श्रीय* देवानामस्तिर्यगूर्ध्वमवधिः, (गा. ४०-५१ ।) आयु- । | बायाः)। ... ... ... ... ७९] मानेनावधिः, (गा. ५२)। ... ... .६५ | मनःपर्यायस्वरूपम् , (गा. ७६)। ... अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: st+% ARCAR दीप अनुक्रम Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं -, नियुक्ति: [-], भाष्यं [-], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीमाव. अनुक्र० प्रत मलयगि. *** HEIG विषयः केवळझानस्वरूपम्, (गा. ७७)। ... गणघरववंशवाचकवंशप्रवचनानां नमस्कारः, (गा. ८२)। प्रज्ञापनीयभाषणं द्रव्यभुक्ता च, (गा. ७८)। (सि नियुक्तिकयनप्रतिज्ञा, (गा. ८३) । नियुक्तिविषयाणि द्वानां १५ भेदाः)। ... ... - ८३ | | सामाणि । (८४-८६)। ... ...१०० अतेनाधिकारः, प्रदीपददृष्टान्तोऽनुयोगे, ( पीठिका.), गुरुपरम्परागता सामायिकनियुक्तिः, (गा. ८७) । (गा. ७९)। बावश्यक निझेपाः (अगीवासिंवि (द्रव्यपरम्परायां दृष्टान्तः)। ... ... १०१ प्रस्य रनवणिजो ज्ञाती, एकार्थिकानि, श्रुवनिक्षेपाः, नियुक्तत्वेऽप्यर्थानां विभाषणम् , (गा.८८)। तपोनियपनघा सूत्राणि, स्कन्धनिक्षेपाः, अर्याधिकाराः, उपकमादीनां भेदप्रभेदाः, पाहाण्यादीनां दृष्टान्ताः, गङ्गाप्र महानवृक्षः कुसुमवृष्टिर्मन्थनं च (गा.८९-९०)। १०४ बाइदर्शिकथा, पूर्वानुपूर्व्यायाः, प्रमाणागमलोकोत्तरा सूत्रकृती हेतवः, (गा. ९१)। अर्थभाषका अईन्वः XT दिभेदाः, अध्ययनादीनां निक्षेपाः, मध्यमङ्गलचर्चा | ८६ सूत्रकतो गणधराः, (गा. ९२) । श्रुतपरपसारः उपोद्घावमङ्गलम्, (मा. ८०)। द्रव्यमावतीर्थे, सुखा- (गा. ९६)।... ... ... ... १०६ बवारादिभेदाः ।... ... ... ... ९७ अचरणस्य न मोक्षः, पोतदृष्टान्तः, सापेक्ष ज्ञानक्रिये । श्रीवीरनमस्कारः, (गा. ८१)।। ... ... ९९ (गा. ९४-१०३)। ... ... ..२०७ दीप अनुक्रम H अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: orary.orm Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं -, नियुक्ति: [-], भाष्यं [-], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक विषयः क्षये केवलं, उत्कृष्टकर्मस्थितौ नैकमपि, कोटाकोट्यन्तामः। केवलस्याशेषविषयदा, (गा. १२४)। जिनप्रवचनादीनि, (गा. १०४-१०६)। ... ... ... १११ (गा. १२५) एकाधिकानि, (गा. १२६-१२८)। १२८ पल्यादयो दृष्टान्ताः, (गा.१०७)। (अस्पबहुबन्धचर्चा)। ११३ अनुयोगनिक्षेपाः, ७ (गा. १२९)।. ... ... १३० | अनन्तानुबन्ध्यादयः, (गा. १०८-१११) । अतिचारे कामादिदृष्टान्तैर्भाषकाद्याः, (गा. १३२)। ... १३८ 2 मूलच्छेदे च हेतवः, । (गा. ११२)... ... ११६ व्याख्यानविधौ गवादिदृष्टान्ताः, (मा. १३३) ... १३९ शिष्यगुणदोषाः, शैलपनाद्या दृष्टान्ताः, (गा. १३४-६) । १४१/8 चारित्रपत्रकम् , (गा. ११३-१५)। (परिहारे २० | उद्देशादीनि उपोद्घानद्वाराणि २६ । (गा. १३-१३८)। १४६12 द्वाराणि)। ... ... ... ... ११८ उद्देशनिक्षेपाः ८ (गा. १३९)। निर्देशनिझेपाः (गा. उपशमश्रेणिः, (गा. ११६) । सूक्ष्मसम्परायः । (गा. १४०)। निर्देशे नयाः, (गा. १४१)। ... १४८ का ११७)। ... ... .. .. १२३ निर्गमनिक्षेपाः ६, (गा. १४२)। ... ... १५१ कषायसामर्थ्यम्, (गा. ११८-२०)। ... ... १२५ | नयसारभवः, (गा. १४३-४४ । १- २ ० भा)। १५२।। क्षपकश्रेणिः, (गा. १२१-२३)। (गाथात्रयस्थासमी- कुलकरवक्तव्यता, हस्तिनो नीवया (गा. १४५-१६६)। चीनता)। ... ... ... ... १२६ , . ३ ० भा०)। ... ... ... १५३ दीप अनुक्रम E । अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: ry.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] श्रीभव० मलयगि० Jan Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ - ], भाष्यं [-], मूल [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ... पत्र ... विषयः ऋषभनिर्वाणं, अष्टापदतीर्थ भरतके वलं दुर्भाषणं श्रीवीरभवाः । (गा. ३५० - ४५७ ) । स्वप्ना अपहारः निश्चलता अभिप्रह: जन्म नाम भीषणं लेख-शाला विवाहः प्रियदर्शना दानं लोकान्तिकाः, दीक्षाम-" हः सिद्धनमस्कारपूर्व पापाकरणनियमः कुमारमामे गोपोपसर्ग: कोडाके दिव्यानि ( लोहार्यः ), शूलपाणि: स्वप्रदशकं अच्छन्दकः चण्डकौशिकः प्रदेशिमहिमा कम्बलशम्बली पुष्यः, गोशालः, नियतिग्रहः, पाटकदाद्दः, उपहासः मुनिचन्द्रः, सोमाजयन्यौ मनुष्यमांसं पथिकामिः मुखत्रासः, मण्डपदाहः मेषः अनायटनं नन्दिषेणः, विजयाप्रगल्भे, वाहनं अयस्कारः यक्षः तामली लोकावधिः पराङ्मुखस्थानं कटपूर्वना वग्गूरः तिलस्तम्बः, वैश्यायनः शङ्खगणराजः आनन्दः अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्यः विषय: पत्राः श्री ऋषभभवाः, २० स्थानकानि, श्रीऋषभवक्तव्यता, अभिषेक, १५७ वंशस्थापना (गा. १८५-१८६) वृद्धिः विवाहः, नृपत्वं दमायाः, आहाराद्याः (गा. १८७-२३० ). १९२ सम्बोधनादीनि २१, लोकान्तिकाः सांवत्सरिकदानं राजानः कुमाराय तपःकर्म ज्ञानक्षणि साधुसाध्वीमानं गणधरा. गणः पर्यायः सर्वायुः । (गा. २३१-२३५) । ...२०१ ऋषभदीक्षा नमिविनमी, विद्याधरनिकायाः १६, तापसाः पारणं श्रेयांसवृत्तं पारणकानां स्थानानि दातारः, आदि-" त्यमण्डलं, धर्मचक्रं चक्रेोत्पातः, मरुदेवीमोक्षः, मरीचिदीक्षा पट्खण्डसाधनं, सुन्दरीदीक्षा, ९९ भ्रातृदीक्षा, बाहुबलिदीक्षा, (गा. ३३६-३४९३७ मा.) । २१५ परिव्राजकता, अवग्रहाः ५, माहनाः तीर्थकृष क्रिदशाई त्वानि चक्रिणो वासुदेवाः, जिनान्तराणि, मरीचिमानः, ~9~ ... २३३ अनुक्र● rary.org Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Educato “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - २ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-], मूल [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विषय: प्रतिमाः पेढालः सङ्गमकः सुखसातप्रभः कौशाम्बी च मरोत्पातः मेण्टिकः अमिग्रहः स्वातिदत्तः ऋजुवालुका तप महासेनवनं महिमा (गा. ४५८-५४२ । ४६-११४ भा. विषयः ... ३४० एकादशघा कालः, चेतनाचेतनस्थितिः, अद्धाकालभेदाः, यथायुष्ककाल:, (गा. ६६४ ) । उपक्रमाले इच्छाकारायाः सामाचार्य:, इच्छाकारः, (गा. ६८१) । मिथ्याकारः (६८७) तयाकारः, ( गा. ६९० ) । आवश्यकी (६९४) नैषेधिकी ( ६९६) ( १३५ - १३६भा.), आपृच्छायाः (गा. ६९७) । उपसम्पत् (गा. ७०२ ) । ... ... ३४१ प्रमार्जननिषद्याक्षकृतिकर्मादीनि (गा. ७१७ । १३७ भा.) .... ३११ | ( हा. १२३ ) । चारित्रोपसम्पत्, (गा. ७२३ ) । ३५१ अध्यवसानाचा आयुष्कोपक्रमाः, भये सोमिलकथा, दण्डादयो निमित्ते, प्रशस्ताप्रशस्त देशकालौ, प्रमाणकालः, भावे भङ्गाः । (गा. ७३५) । ... अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: ... ३१२ ... ३३७ ... ३५५ *** पत्राः - ... २५२ समवसरणादीनि द्वाराणि, करणनियमानियमो देवविधिः देशनाकाल: प्रतिविम्बानि पर्षदः सामायिकप्रतिपत्तिः तीर्थप्रणामः परमरूपादि संशयच्छेदः वृत्तिदानं बलिः गणधर देशना (गा. ५४३ - ५९० ) । ... ... ३०१ गणधराणां नामानि संशयाः परिवारः इन्द्रभूत्युक्तिः, ( १२१-१२६ भा. ) संशयाः तदपगमाः, (६४१ । १३२ मा. ) । गणधराणां जन्मभूमिनक्षत्रगोत्रपर्यायायुर्ज्ञानमोक्षतपांसि (गा. ६५९ ) । 140 ~10~ ... ... ... पत्रा rary.org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं -, नियुक्ति: [-], भाष्यं [-], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: - पहा अनुक्र० - प्रत - सत्राक धीआवा विषयः मलयगि पुरुपनिझेपाः १०, कारणनिक्षेपाः ४, तद्रव्यान्यद्रव्ये नि. आर्यरक्षितवृत्ते स्वर्णनन्दी पञ्चशैलः इङ्गिनी जीवस्स्वामी मिचनिमित्तिनौ, समवाय्यसमवायिनी कादि, भावे- प्रभावती गान्धारः गुटिकाशतं युद्धं पर्युषणोपवासः क्षाउसंयमादि, प्रवृत्तितोऽशरीरत्वान्तं,प्रत्ययेऽवध्यादि लक्षणं । मणं, रक्षितस्य विद्यार्थ पाटलीपुत्रे गमनं, दीक्षा, भद्रगुप्त१२ सहशसामान्यादि श्रद्धानादि वा, (गा. ७५३)1३६३ , निर्यापणा वनस्वामिपाश्र्वेऽध्ययनं फल्गुरक्षितदीक्षा | मूलनयाः, स्यात्पदं,अवधारणविधिः, दिगम्बरीयमतसमीक्षा। ३६९ रथावतः कुटुम्बदीक्षा वृद्धानुवर्तनं पुष्पमित्रत्रयं नयानु*नगमलक्षणं, ( भिन्नसामान्यनिरासः), सहव्यवहारर्जुसूशब्दसममिरूदैवम्भूतलक्षणानि, प्रस्थकवसतिप्रदेश योगानां पार्थक्यं, (गा. १२४ मू. मा.) । मथुरायां रष्टान्ताः , प्रमेदवत्त्वं। ... ... ... ३७१ शकागमः, गोष्ठामाहिलवृत्तं, (गा. ७७७)। ... ३९१ वनखामिवृत्ते शालमहाशाली कौण्डिन्यादयस्तापसाः पुण्ड निवाधिकारः, १ (१२५-१२६ भा.) २ (१२४-१२८) रीककण्हरीको दीक्षा साध्युपाश्रयावस्थितिः, सत्सार ३(१२९-१३०) ४ (१३१-१३२)५(१३३कल्पः, दृष्टिवादानुसा इक्मिणीदीक्षा विद्याद्वयम् , उत्त १३४) ६ (१३५-१४०) (१४१-१४४)। ४०१ रापये सानिस्तारा पुर्यामुत्सवः पुष्पावचयः रामः नोटिकनिरासः (सबिखरं) (१४५-१४८ भा.)। श्रावकता, (गा. ७७२)। ... ... ... ३८३ | दोषद्वयादि ७८८। ... ... ..४१८ 1964-%20-% दीप अनुक्रम अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं -, नियुक्ति: [-], भाष्यं [-], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक विषयः पत्रा पत्रात 51 अनुमते तपःसंयमादि, सामायिकस्मात्मावि लक्षणं, (गा. दृष्टानुभवादौ सम्यक्त्वं, ( आनन्दादिभावकचरित्राणि ) १४९-१५५)। ... ... ... ४२८ (गा. ८४४)। ... ... ... ४५६ I वतानां द्रव्येष्ववतारा, द्रव्यपर्यायापेक्षया सामायिक। ... ४३१ वल्कलचीरिवृत्तम् । ... ... ... ... ४५018 सामायिकस्य भेदाः सम्यक्त्वादीनां भेदाः (१५० भा.) अनुकम्पाद्या हेतवः, वदृष्टान्ताश्च वैद्यादयः, अभ्युत्थानागा. ७९५। ... ... ... ... ४३३ दयः, (गा.८४९)। ... ... ...४६० सन्निहितास्मादेः सामायिकम् , (गा. ८०३)। ... ४३५ कालमान, प्रतिपद्यमानादयः, अन्तरं, अविरहविरही आकसामायिकप्राप्तिहेतुक्षेत्रदिकालगत्यादीनि द्वाराणि अलङ्का धोः स्पर्शना भागः पर्यायाः, दमदन्ताद्या दृष्टान्ताः | रादिद्वारान्तानि, दिग्निक्षेपः, ( गा. ८२९)। ... ४३६ | (गा. ८७९)। ... ... ...४६९/ इत्युपोद्घातनियुक्तिः । द्रव्यपर्यायव्यापिताविचारः, (गा. ८३०)। ... ४५१ सूत्रस्य दोषा गुणाः, सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिनवानां सममनुमनुजत्वादीनां दौल ये चोल्लकादयो दृष्टान्ताः, (गा.८४०) ४५१ गमः, (गा. ८८६)। ... ... आलस्याद्या धर्मविनइतवः, यानावरणादिरूपकम् , | हत्पत्यादिफलान्तं नमस्कारे, समुत्थानवाचनालन्धितः भा.सू.१५२|81 (गा. ८४३)। ... ... ...४५५ खामी निक्षेपास्तेगु नयाः किमादिषट्पया सत्सदादि CCCCCC दीप अनुक्रम H । अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: ~12~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं -, नियुक्ति: [-], भाष्यं [-], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक श्रीआवा विषयः समार पवार अनुक मलयगि नवपद्या व निरूपणं वस्तूनि आरोपणाचाः प्रकृयाद्याः, कर्मजाया लक्षणं तदृष्टान्तान, (गा. ९४६)। ... ५२६ मार्गाद्या हेतवः, (गा. ९०३)। ... ... ४८५ पारिणामिक्या लक्षणं ठष्टान्ताच, (गा. ९५१)।... ५२ देशकनिर्यामकमहागोपत्वानि, (गा. ९२७)। ... ४९४ तपःकर्मक्षयसिद्धौ सिद्धस्वरूपं समुद्घात:शैलेशी रागद्वेषकषायेन्द्रियाणां भेदाः स्वरूपं दृष्टान्ताच, (गा.९२८)।४९७ शाटीदृष्टान्तः पूर्वप्रयोगादयः लोकामप्रतिष्ठितत्वादि ईकपरीषहस्वरूपं, उपसर्गाणां स्वरूपं दृष्टान्ताश्च । ... ५०८ वाग्मारा अवगाहना संस्खानं देशप्रदेशमना सिद्धानां अनेकथाऽई निरुत्त यः, नमस्कारफलं च, (गा. ९२६) । ५१० लक्षणं सुखं च पर्यायाः, नमस्कारफळम् , (गा.९९२) । ५३४ कर्मशिल्पादिसिद्धाः, कर्मसिद्धः, (गा. ९२९)। शिल्प- आचार्यनिक्षेपादि, (ग. ९९९) ... ... ५४९ सिद्धः । (गा. ९३०)। विद्यासिद्धः, (गा. ९३१- उपाध्यायनिक्षेपादि, (गा. १००७॥ मा.१५१) माधुनिझे-' २)। मने (३३) योगे. (३४) आगमार्ययोः, पादि, (गा.१०१७) उपसंहारा, संक्षेपविचारचर्चा, (गा. ३५) यात्रावा (३६) ... ... ५११ (गा. १०२०)। ... ... ... ५५० दबुद्धिसिद्धस्वरूपं, बुद्धभेदाः, औत्पत्तिक्या लक्षणं दृष्टान्ताव्य, क्रमद्वारं प्रयोजनफले त्रिदंख्यादयो दृष्टान्ताः, (गा.१०२५)। ५५३ (गा. ९४४)। ... ... ... ५१६ । सम्बन्धः सामाषिकसूत्रं च सन्याख्यान, निक्षेप्यपदानि, वन विक्या लक्षणं तदृदृष्टान्ताच (गा. ९४५)। ... ५२३ (गा. १०२९)। ... अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शित:, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: 4XRAccc SCIECESARSUCCECORRESSERIES दीप अनुक्रम H ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Educate “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग - २ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-], मूल [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विषयः नामादिकरणानि, ( भा. १५२-१७४) । क्षेत्रकालकरणानि, भावेऽत्र सुतबद्धानिशीथाख्यानि, (गा. १०३६) । नोकरणम् (गा. १०३१ ) । २. ५५८ कृताकृतादिद्वारसप्तकम्, ( उद्दिष्टोपदेशादिषु )। आलोचनाया नयाः, (गा. १०४० । १७५-१८३ भा. ) । ५६५ देशसर्वधाविघाते सामायिकं (गा. १०४१) । ... ५७२ भयनिक्षेपाः, अन्तं षोढा, ( १८४ - १८५ मा.) 1 ... ५७२ सामायिकसूत्रस्यार्थः, सामायिकै कार्याः निक्षेपा एषाम्, ... ५७८ विषयः सावधार्य:, (गा. १०५१) । द्रव्यभावयोगाः (गा. १०५३) । प्रत्याख्याने द्रव्यादिभेदाः, (गा. १०५४ ) । यावच्छदार्थ, (गा. १०५५ ) । .... ५७९ जीवितनिक्षेपाः, (गा. १०५६ । १८९ - १९० मा.) । ५८० प्रत्याख्याने १४७ मङ्गाः (गा. १०५७) । त्रिकालमह णम्, (गा. १०५८ ) । .... ... ५७४ ... १८१ त्रिविधादेरपुनरुकता, (गा. १०५९) । .... द्रव्यभावप्रतिक्रमणोदाहरणे, (गा. १०६०) । निन्दा गयो, (१०६१ - १०६२ ) । ... ९७६ ... १८३ ... १८४ अत्र मूल संपादकेन रचित निर्युक्ति-आदि-अनुक्रमः दर्शितः, उक्त पत्रांकः मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: (गा. १०४५) सामायिकस्य पर्यायाः कर्तृकर्मकरणविचारः, आत्मा कारक:, (गा. १०४९ ) सर्वस्य निक्षेपाः, (गा. १०५०) । देशसर्वादि, (गा. १८६-१८९ मा. ) । ... ... पत्राहः ... ... ५७५ ~14~ ... ... पत्राह २८२५ orary.org Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं -, नियुक्ति: [-], भाष्यं [-], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: विषयः विषयः ' पत्राता अनुक्र० श्रीआव. मलयगि प्रत 4 HEIG CAKACANCHAL % 2 - ज्ञानक्रियानयवक्तव्यता, (गा. १०६५-१०६७)।... ५८६ / लोकपर्यायाः, उद्योतानेझेपाः ४, (गा. २०७४ )। ... ५९४ | धर्मनिक्षेपः, ४ (गा.१०७५-६)। तीर्थनिगः ४, इति सामायिकाध्यनम् त्रिस्थध्याद्याः पर्यायाः ( गा. १०८१)। ... ५९५ | कर नेक्षेपाः ६, द्रव्यारा: १८ प्रशस्तभावकरः, (गा. १०८२-७) ... ... ... ... ५९६ अध्ययनसम्बन्धः, चतुर्विशत्यादेनिक्षेपाः, (गा. १०६८)। अर्हत्कीर्तनचतुर्विंशतिकेच लिपदानि (गा, १०८९-९१) । चतुर्विशतेः, (गा. १९२ मा.) स्तवस्त्र, (गा. चालनासमाधी । ... ... ... ... ५९७ १९३) । भावस्तवमहता, (गा. १९४-१९५)। ऋषभादिगाथात्रयार्थः, (गा. १०९२-९९ ) ... ५९९ कृपदृष्टान्तो द्वये, (गा. १९६ भा.)। ... ५८८ लोगस्स' सूत्रव्याख्या। ... ... ... ५९१ , लोकनिक्षेपाः ८ (गा. १०६९) जीवाजीवनित्यत्त्वादि, इति चतुर्विंशतिस्तवाध्ययनम् । कालभवभावपर्यवलोकाः, (गा. १९७-२०५ ) । ५९२ दीप अनुक्रम -07-2 20 अत्र मूल संपादकेन रचित नियुक्ति-आदि-अनुक्रम: दर्शितः, उक्त पत्रांक: मुद्रित प्रतानुसार ज्ञातव्य: ~150 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं -], नियुक्ति: [१३७,१३८], विभा गाथा -1, भाष्यं -, मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: भद्रबाहस्वामी रचिता निर्यक्ति युक्त श्रीमद आवश्यकसूत्र (मलयगिरिजी कृत) विवरणम् भाग-२ उद्देसे १ निदेसे २ य निग्गमे ३ खेत्त ४ काल ५ पुरिसे ६ य । कारण ७ पचय ८ लक्खण ९ नए १० समोधारणा ११ शमए १२॥ १३७॥ प्रत दीप अनुक्रम उपोडातकिं १३ काविहं १४ कस्स १५ कर्हि १५ केसु १७ कई १८ केचिरं हवा काल १९। शादीनियुक्ति कई २० संतर २१ मविरहियं २२ भवा २३ गरिस २४ फासण २५ निरुत्ती २६ ॥ १३८ ॥ INने २६ द्वाउद्देशो वक्तव्या, एवं सर्वत्र क्रिया योजनीया, चद्देशनमुद्देशः, सामान्याभिधानमित्यर्थः, यथाऽध्ययनमिति, तथा राणि गा. ॥१४६॥ सानिर्देशन निर्देशः, विशेषाभिधानमिति भावो, यथा सामायिकमिति, तथा निर्गमनं निर्गमो वक्तव्यो, यथा कुतोऽस्य सामा-11१३७-८ दूषिकाध्ययनस्य निर्गमनमिति, तथा क्षेत्रं वक्तव्यं, कस्मिन् क्षेत्रे इदं मादुरभूत्, कालो वक्तव्यो, यथा कस्मिन् काले इति, तथा पुरुषो वक्तव्यो, यथा कुतः पुरुषादिदं प्रवृत्तमिति, तथा कारण बक्तव्यं-किं कारणं गौतमादयः शृण्वन्ति !, तथा ४ा प्रत्याययतीति प्रत्ययः, अन्तर्भूतण्योंदलूप्रत्यया, प्रत्ययो वक्तव्यो, यथा केन प्रत्ययेन भगवतेदमुपदिष्टं, को वा गणप-1 राणां श्रतणे प्रत्ययः इति, तथा लक्षणं वक्तव्यं श्रद्धानादि, तथा नया-नैगमादयो वक्तव्याः, तथा तेषामेव नयानां । +समवतरणं वकन्यं, यथा क नयाः समवतरन्तीति, तथा च वक्ष्यति 'मूढनइयं सुर्य कालियं तु न नया समोयरतिर इह इत्यादि, तथाऽनुमतमिति कस्य व्यवहारादेः किमनुमतं सामायिकमिति वक्तव्यं, तथा च तवसंजमो अणुमतो द इत्यादि, तथा किं सामायिकमिति वकव्यं, वक्ष्यति च-'जीवो गुणपडिवन्नो' इत्यादि च, तथा कतिविध सामायिक इति वाच्यं, तथा चात्र वक्ष्यति-'सामाइयं च तिविहं सम्मच सुयं तहा चरितं चेत्यादि, तथा कस्य सामायिकमिति ४ वक्तव्य, तथा च वक्ष्यति–'जस्स सामाणितो अप्पा, संजमे नियमे त' इत्यादि, तथा कक्षेत्रादौ सामायिकमित्य मिषेयं, तथा च वक्ष्यति-खिचदिसकाळगइभवि' इत्यादि, तथा केषु सामायिकमिति वाच्यं, तत्र सर्वत्र व्रव्ये, वक्ष्यति...हरिभद्रसूरिजी वृत्ते: संपादने अत्र नियुक्ति गाथा १२४-१२६ अतिरिक्त दृश्यते अथवा मलयगिरिजी रचिता वृत्ते: संपादने अत्र त्रया: गाथा: न दृश्यते| [.. इसिलिए यहां से आगे-आगे हरिभद्रसूरि-वृत्ति से मलयगिरि-वृत्तिमे नियुक्ति के तीन क्रमांक कम दिखाई देते है। ... अत्र आरभ्य मलयगिरिजी-वृते: एवं हरिभद्रसूरिजी-वृते: नियुक्ति-क्रमांक्ने समानता न प्रवर्तते | ... [मलयगिरिजी रचिता वृत्ति के संपादनमे यहां नियुक्ति का क्रम १३७ से आरंभ होता है जब की हरिभद्रसूरिजी रचिता वृत्ति के सम्पादनमे नियुक्ति का क्रम १४० लिखा गया है।] ~16~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं -], नियुक्ति: [१३७,१३८], विभा गाथा -1, भाष्यं -, मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: S HP प्रत सत्रांक 44 AKS सव्वगर्य सम्मत् सुए परिचे यं पजवा सर्वे इत्यादिना, तथा क-केन प्रकारेण सामायिकमवाप्क्ते इति वाय, व वक्ष्यति-'माणुस्सखेसजाई' इत्यादि, तथा कियच्चिरं कालं यावद् भवति सामायिकमिति वकन्य, तत्र वक्ष्यति'सम्मसस्स सुयस्स य छावट्ठी सागरोवमाइ ठिई' इत्यादि, तथा कतीति कियन्तः प्रतिपद्यमानकाः कियन्तो वा पूर्वप्रतिपना इति वक्तव्यं, तथा च वक्ष्यति-सम्मत्तदेसविरया पलियस्स असंखभागमित्ता' इत्यादि, 'संतर'न्ति सहान्तरेण वचते इति सान्तरं वक्तव्यं, किमुक्तं भवति ?-किं सामायिकं सान्तरं निरन्तरं वा!, यदि सान्तरं ततः किंप्रमाणमन्तरमिति वक्तव्यं, वक्ष्यति च-कालमणतं च सुए, अद्धापरियट्टतो य देसूणों' इत्यादि, 'अविरहित मिति अविरहितं कियन्तं कालं प्रतिपद्यन्ते इति वक्तव्यं, तत्र वक्ष्यति-'सुयसम्मअगारीणं आवलियासंखभागमेचा उ' इत्यादि, तथा भवा इति कियतो भवान् यावत् खल्ववाप्यते सामायिकमिति प्रतिपाद्यं, तत्र वक्ष्यति-सम्मत्तदेसविरया, पलियस्सासंखभागमे दाचाओ । अदभवा उ चरित्ते' इत्यादि, आकर्षणमाकर्षः, ग्रहणमिति भावः, तत्र कियन्त आकर्षा एकस्मिन् भवे ?, कियन्तो र वाऽनेकभवेष्विति वक्तव्यं, तत्र वक्ष्यति-तिण्ह सहसपुहुत्तं सयप्पुहुत्तं च होइ विरईए । एगभवे आगरिसा' इत्यादि, द्र तथा स्पर्शना वक्तव्या, यथा कियत् क्षेत्र सामायिकवन्तः स्पृशन्तीति, तत्र वक्ष्यति-सम्मत्तचरणसहिया सर्व लोग[5 फुसे निरघसेस' इत्यादि, तथा निश्चिता उक्तिनिरुक्तिः वक्तव्या, साच-सम्मदिही अमोहो सोही सम्भावदसणा बोही जा इत्यादिना वक्ष्यते, एषद्धारगाथावयसमासार्थः ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं प्रपश्येन नियुक्तिकृदेव वक्ष्यति, अत्र कश्चि दाह-मनु प्रथममधयनं सामायिक तस्यानुयोगद्वारचतुष्टयमिति प्रतिपादयता उद्देशानिर्देशाइकावेब, तथा ओपनि । दीप अनुक्रम Jan Education ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं -], नियुक्ति: [१३७,१३८], विभा गाथा -1, भाष्यं -, मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उद्देशादि पूनरुपण तानिरास: प्रत HEIG ६ -% उगेद्धात-बापननिक्षेपेऽध्ययनमिति निक्षिप्तं, नामनिष्पन्ननिक्षेपे सामायिकमिति, तत एवमपि तावभिहितावेव, किमर्थमनयोः पुनर- नियुक्तिमाभिधानमिति !, उच्यते, एतद्द्वारद्वयोक्तयोरेव प्रागनागतग्रहणं कृतं द्रष्टव्यं, तद्ग्रहणमन्तरेण द्वार चतुष्टयाधुपन्यासस्यैवा- ॥१४७॥ * सम्भवाद्, विषयाभावात् , अथवा प्रागभिधानमात्रमुक्तमिह त्वर्थानुगमद्वाराधिकारे विधानतो लक्षणतश्च व्याख्या क्रियते ४) इत्यदोषः। आह-यद्येवं निर्गमो न वक्तव्यः, तस्यानुगमद्वार एव प्रतिपादितत्वात्, तथाहि-आत्मागम इति प्रागभिहित, ततस्तीर्थकरगणधरेभ्यो निर्गतमित्यवगतमेव, सत्यमेतत्, केवलमिह तीर्थकरगणधराणामेव निर्गमोऽभिधीयते, यथा कोसी तीर्थकरः के वा गणधरा ! इति, तत्र वक्ष्यते-भगवान् वर्द्धमानस्वामी तीर्थकरो, गौतमादयो गणधराः, यथा |चतेभ्यो विनिर्गतं तथा क्षेत्रकालपुरुषकारणप्रत्ययविशिष्टं वक्ष्यते इति फलवान् निर्गमादिद्वारकलापोपन्यासः । आह-यद्येवं लक्षणं न वक्तव्यं, यत उपक्रमद्वार एव नामद्वारे क्षायोपशमिके भावेऽवतारितं, प्रमाणद्वारे च जीवगुणप्रमाणे आगमे इति, सत्यमेतत् , केवलं तत्र निर्देशमात्रं कृतमिह तु प्रपश्चन व्याख्यानमित्यदोषः, अथवा तत्र श्रुतसामायिकस्यैव लक्षणमुक्तम् , इह चतुर्णामपि सामायिकानां लक्षणाभिधानमिति महान् विशेषः । अथ नयाः प्रमाणद्वार एवाभिहिताः स्वस्थाने च मूलद्वारे वक्ष्यमाणास्ततः किमिहोच्यन्ते ?, उच्यते, इह प्रमाणद्वारोक्ता एवं व्याख्यायन्ते, यदिवा प्रमाणद्वाराधिकारात् तत्र प्रमाणभावमात्रमभिहितमिह तु स्वरूपावधारणमवतारो वा चिन्त्यते इत्यदोषः, एते | |च सर्वे एव सामायिकसमुदायार्थयात्रविषयाः, न सूत्रविनियोगिनः, मूलद्वारोपन्यस्तास्तु नयास्तत्र व्याख्यानोपयोगिन एवेति मूलद्धारवक्ष्यमाणेभ्यो भेदः । ननु प्रमाणद्वारे जीवगुणः सामायिक ज्ञानं चेति प्रतिपादितं ततः 'किं सामायिक' दीप अनुक्रम - -- - - JanEducation. I N il iwsaneliterary.com ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं [-], नियुक्ति: [१३९], वि०भा गाथा -1, भाष्यं [-], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक % मित्याशङ्काया अनुपपत्तिः, सत्यमेतत्, केवलं जीवगुणत्वे ज्ञानत्वे च सत्यपि किं तज्जीव एव आहोश्चिजीवादन्यदिति यः संशयस्तदपनोदार्थ इहोपन्यास इत्यदोषः । आह-नामद्वारे क्षायोपशमिक सामायिकमुक्तं, ततस्तदावरणक्षयोपशमादवाप्यते इति गम्यत एवं, ततः किमर्थं 'कथं लभ्यते' इति द्वारमुपन्यस्तम् 1, उच्यते, स एव क्षयोपशमः कथमवाप्यते इति क्षयोपशमगतशेषाङ्गलाभचिन्तनाददोषः, एवं यत् यदुपक्रमनिक्षेपद्वारद्वयाभिहितमपि पुनरभिधत्ते तत्तदनुगमद्वारावसरात् प्रपञ्चव्याख्यार्थमिति परिभावनीयम् । अपरस्त्वाह-ननूपक्रमः प्रायः शाखसमुत्थापनार्थ उक्त उपोद्घातोऽप्येष शास्त्रसमुद्घातप्रयोजन एवेति कोऽनयोर्भेदः ?, उच्यते, उपक्रमो हुद्देशमात्रनियतव्यापार उपोद्घातस्तु प्रायेण| तदुद्दिष्टवस्तुप्रबोधनफलः, अर्थानुगमत्वात् इत्यलं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तुमः ॥ तत्रोद्देशद्वारावयवार्थप्रतिपादनार्थमाह[ नाम ठवणा दविए खित्ते काले समासउद्देसे । उद्देसुद्देसम्मि य भावम्मि य होह अट्टमओ ॥ १३९ ।। । म यस्य जीवादेरद्देश इति नाम क्रियते स नाम्ना उद्देशो नामोद्देशो, यदिवा नामनामवतोरभेदोपचारात् नाम चासौ उद्देशश्च हानामोइशः, अथवा नाम्ना उद्दिश्यते-अभिधीयते इति नामोद्देशः, यदिवा नाम्न उद्देश:-अभिधानं नामोदेशः, तथा उद्देशः स्थाप्यमानः स्थापनोदेशः, स्थापनाया वा उद्देशा-अभिधानं स्थापनोद्देशः, 'दविए' इति द्रव्यविषय उद्देशः द्रव्योद्देशः18 सच द्विधा-आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तमेदार त्रिधा, तत्र शारीरभव्यशरीरं प्रतीते, तद्व्यतिरिक्तस्त्रिविधस्तद्यथा-द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्ये वा उद्देशो द्रव्योद्देशः, तत्र भाद्रव्यस्योद्देशो यथा द्रव्यमिदमिति, द्रव्येण हेतुभूतनो शो यथा द्रव्यपतिरयमिति, तथा द्रव्ये उद्देशो यथा वर्तते राजा +6+% दीप अनुक्रम E 0 Kaviewsanelibrary.orm ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घात निर्युतिः ॥ १४८ ॥ Jan Education Inte “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१४० ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [-] मूलं [- /गाथा -] मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ४ सम्मति सिंहासने, चूते कोकिलो बने मयूर इत्यादि, एवं क्षेत्रस्य क्षेत्रेण क्षेत्रे वा उद्देशः क्षेत्रोद्देशों वक्तव्यः, तत्र क्षेत्रस्योद्देशो यथा इदं क्षेत्रमिति, क्षेत्रेणोदेशो यथा क्षेत्री क्षेत्रपतिः, क्षेत्रे उद्देशो यथा क्षेत्रे जातं क्षेत्रजमित्यादि, तथा कालत्प कालेन काले वा उद्देशः कालोद्देशः, तत्र कालस्योद्देशो यथा अयं काल इति, कालेनोद्देशो यथा इदं कालातिक्रान्तम्, अथवा इदं कालप्रासमिति, काले उद्देशो यथा काले जातं काले आगतमित्यादि, समासः -- सङ्क्षेपः तद्विषय उद्देशः समासोद्देशः, स च त्रिविधः - अङ्गश्रुतस्कन्धाध्ययनभेदात्, तद्यथा - अङ्गसमासोद्देशः श्रुतस्कन्धसमासोद्देशः अध्ययनसमासोद्देशश्च तत्राङ्गसमासोद्देशो द्विधा- अङ्गसमासस्योद्देशो अङ्गसमासेन वोद्देशः, तत्राङ्गसमासस्योदेशो यथा इदमङ्गमिति, अङ्गसमासेनोद्देशो यथा तदध्येता तदर्थज्ञो वा अङ्गीति, एवं श्रुतस्कन्धाध्ययनसमासोद्देशावपि वक्तव्यौ, तत्र श्रुतस्कन्धस्योद्देशो यथा अयं श्रुतस्कन्ध इति श्रुतस्कन्धेन समासोद्देशो यथा अयं तदध्ययनात् तदर्थवेदनाच्च श्रुतस्कन्धीति, एवमध्ययनसमा - सोद्देशोऽप्युदाहर्त्तव्यः तथा उद्देशः - अध्ययनविशेषः तस्योद्देश उद्देशोद्देशः, यथा अयमुद्देश इति, उद्देशेन वा उद्देश उद्दे शोद्देशः, यथा उद्देशाध्ययनादुद्देशार्थ परिज्ञानाद्वाऽयमुद्देशवानिति तथा भात्रे - भावविषयश्च भवत्युद्देशोऽष्टमकः, एषोऽपि द्विधा-भावस्योदेशो यथा अयं भाव इति, भावेनोद्देशो यथा भावीत्यादि । अथोद्देशय्याख्यानेन निर्देशमप्यतिदिशन्नाह--- एमेव य निद्देसो अट्ठविहो सोऽवि होइ नायो । अविसेसियमुद्देसो विसेसिओ होइ निहेसो ॥ १४० ॥ अष्टविध उद्देशः पवमेव तथा निर्देशोऽपि स द्वारगाथासूचितोऽष्टविधो भवति ज्ञातव्यः, सर्वथा साम्यप्रतिषेधार्थमाह-किन्तु अविशेषितः सामान्यनामस्थापनादिविषय उद्देशो, विशेषितः नामस्थापनादिगोचरस्तु भवति निर्देश Far Pevate & Personal Use Ony ~20~ उद्देशे मेदाः (८) निर्देशेऽपि गा. ११९ ४० ॥१४८॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Educaton Inte “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ १४०], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [-] मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित . आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः इति विशेषः, तत्र नामनिर्देशो यस्य निर्देश इति नाम क्रियते, नाम्नो वा निर्देशो यथाऽयं जिनभद्र इत्याद्यमिधानविशेषभणनं, निर्देशः स्थाप्यमानः स्थापनानिर्देशः, स्थापनाया विशेषाभिधानं वा स्थापनानिर्देशो, यथेयं कामदेवस्य स्थापनेति, यत्तु सामान्येन देवताया इयं स्थापनेत्यभिधानं स स्थापनोद्देश इति, द्रव्यस्यापि त्रिविधस्य सचित्तादेर्यद्विशिष्टमभिधानं स द्रव्यनिर्देशः, तत्र सचित्तद्रव्यविशेषस्य निर्देशो यथा गौरित्यादि, अचित्तद्रव्य विशेषस्य यथा अयं दण्ड इत्यादि, मिश्रद्रव्यविशेषस्य यथाऽयं रथोऽश्वयुक्त इत्यादि, तेन सचिचादिद्रव्यविशेषेण निर्देशो यथा गोमानित्यादि, क्षेत्रस्य निर्देशो यथा इदं भरतक्षेत्रम्, अयं मगधाजनपद इत्यादि, क्षेत्रेण निर्देशो यथाऽयं भारतः मागधः सौराष्ट्रक इत्यादि, कालस्य निर्देशो यथा अयं हेमन्तोऽयं वसन्त इत्यादि, कालेन निर्देशो यथाऽयं शारदः सांवत्सरिकः प्रावृषेण्य इत्यादि, समासनिर्देशोऽङ्गश्रुतस्कन्धाध्ययनविषयभेदात् त्रिधा, तत्राङ्गरूपसमासस्य निर्देशोऽयमाचारः इदं सूत्रकृताङ्गमित्यादि, अङ्गसमासेन निर्देशो यथा तदध्ययनात् तदर्थवेदनाद्वा अयमाचारवानाचारघर इत्यादि, श्रुतस्कन्धसमासस्य निर्देशो यथाऽयमावश्यक श्रुतस्कन्धः, श्रुतस्कन्धसमासेन निर्देशो यथाऽयमाव श्यकसूत्रार्थधर इति, अध्ययनसमासस्य निर्देशो यथा-इदं सामायिकाध्यनमाचाराने प्रथममध्ययनं शस्त्रपरिज्ञा इत्यादि, अध्ययनसमासेन निर्देशो यथाऽयं सामायिकसूत्रार्थधर इत्यादि, उद्देशस्य निर्देशो यथा भगवत्यां पुनलोद्देशक इत्यादि, उद्देशेन निर्देशो यथाऽयं प्रथमोदेशकसूत्रार्थपरो द्वितीयोदेशकसूत्रार्थघर इति, भावस्य निर्देशो-भावव्यक्त्यभिधानं, यथाऽयमौदयिको भाव इति, भावेन निर्देशो यथाऽयमौदयिक भाववान् क्रोधी मानीत्यादि, इह तु समासोद्देशनिर्दे For Pevote & Personal Use Ony ~21~ wsanelibrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोयातनिर्युतिः ॥ १४९ ॥ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१४१], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [-] मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः निर्देशे न शाभ्यामयमधिकारः, तथाहि - अध्ययनमिति समासोद्देशः, सामायिकमिति समासनिर्देश इति । इदं च सामायिकं नपुंसकं, सावद्ययोगविरमणस्य नपुंसकतया रूढत्वात्, अस्य च निर्देष्टा - उच्चारयितेति भावः त्रिविधस्तद्यथा - स्त्री पुमान् १ यविचारः नपुंसकं च तत्र को नयो नैगमादिः कं निर्देशमिच्छतीति प्रतिपिपादयिषुराह गा. १४१ विपि नेगमनओ निट्ठि संगहो य ववहारो । निद्देसयमुज्जुसुओ उभयसरिच्छं व सहस्स ॥ १४१ ॥ द्विविधमपि — निर्देश्यवशान्निर्देशकवशाश्च द्विप्रकारमपि नैगमनयो निर्देशमिच्छति, नैगमो ह्यनेकगमो लोकसंव्यवहारप्रवणश्च, लोके च निर्देश्यवशान्निर्देशकवशाच्च निर्देशप्रवृत्तिरुपलब्धा, तत्र निर्देश्यवशाद्यथा - वासवदत्ता प्रियदर्शना इत्यादि, निर्देशकवशाद्यथा- मनुना प्रोतो मनुः अक्षपादप्रोक्तोऽक्षपाद इत्यादि, लोकोत्तरेऽपि निर्देश्यवशाद् यथा षड्जीवनिका, तत्र हि पट् जीवनिकाया निर्देश्याः, एवमाचार क्रियाभिधानादाचारः तरङ्गवतीवक्तव्यताभिधानात्तरङ्गवतीत्यादि, निर्देशकवशाज्जिनवचनं कापिलीयं नन्दसहितेत्येवमादि, एवं सावद्ययोगविरमणरूपं सामायिकं रूढितो नपुंसकमिति निर्देश्यवशान्नैगमो नपुंसकनिर्देशमेवास्य मम्यते, यथा सामायिकं नपुंसकमिति, तथा सामायिक निर्देष्टुः स्त्रीपुन्नपुंसकलिङ्गत्वात् तत्परिणामानन्यत्वाश्च सामायिकस्यार्थरूपस्य त्रिलिङ्गताऽप्येतन्मतेनाविरुद्धा, यथा सामायिक स्त्री सामायिकं पुरुषः सामायिकं नपुंसकमिति, उक्तं च- "तह निद्दिव्वसाओ नपुंसकं नेगमस्स सामइयं । श्रीपुंनपुंसगं वा तं चिय निद्देसगवसातो ॥१॥" ( वि. १५०९ ) अन्यच्च - एप नैगमनय एवमभिधत्ते - यदि स्त्री स्त्रियमभिधत्ते तदा निर्देश्यस्व निर्देशकस्य च स्त्रीत्वान्निर्देशः खीलिङ्ग एव, अथ स्त्री पुरुषं निर्दिशति तदा यथाविवक्षितं निर्देशः, तथाहि - देवदत्तेन घटशब्दे ... अत्र 'नय' विचार प्रदर्शयते Far Pavoce & Personal Use Ony ~22~ ॥ १४९ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [१४१], वि०भा०गाथा [१५११], भाष्यं , मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: % प्रत सत्रांक -% उच्चारित निर्देशस्याभिषेयानन्यत्वविवक्षायामयं घट इति व्यपदेशःप्रवर्तते, निर्देशकानन्यत्वविवक्षायामयं देवदत्त इति, तथा च देवदत्ते कथश्चित्पथः परिभ्रष्टे इतस्ततो निभाल्यमाने तच्छब्दं श्रुत्वा लोको वदति-अचं देवदत्त इति, अभिधेयानन्यत्वविवंक्षायां पुरुषनिर्देशा, निर्देशकानन्यत्वविवक्षायां स्त्रीनिर्देशः, अथ स्त्री नपुंसकं निर्दिशति तदाऽत्रापि यथाविवक्षितं निर्देश [इति नपुंसकनिर्देशः स्त्रीनिर्देशो वा, एवं पुरुष नपुंसके च निद्देष्टरि भावनीयम्, आह च चूर्णिकृत-"इत्थी इत्थिं निद्दिसइ इत्विनि इसो, इत्थी पुरिसं निहिसइ इस्थिनिद्देसो य पुरिसनिद्देसो य, इत्थी नपुंसगं निहिसइ इस्थिनिदेसोअनपुंसगनिद्देसो अ, एवमेव पुरिसनपुंसगाणपि संजोगो" इति, एवमिहापि निर्देष्टुः त्रिलिङ्गस्यापि सम्भवादनन्यत्वविवक्षायां त्रिलिङ्गताऽपि सामायिकस्य प्रतिपत्तव्येति, आह-द्विविधमपि नैगमनय इत्येतावत्युके निर्देश्यवशानिर्देशकवशाच्च Bा द्विविधं निर्देशमिच्छतीति कुतोऽवसीयते ?, उच्यते, वक्ष्यति-'निदिई संगहो य ववहारों' इति, ततोऽर्थादत्रावसीयते निर्देश्यवशान्निद्देशकवशाच्च निर्देशस्य द्वैविध्यमिति, 'निद्दिढं संगहो य ववहारों' इति निर्दिष्टं वस्त्वङ्गीकृत्य सङ्ग्रहो त व्यवहारश्च, पशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, निर्देशमिच्छतीति वाक्यशेषः, इयमत्र भावना-इह वचनमर्थप्रकाशकमेवो पजायते, यथा प्रदीपः, ततो यथा प्रदीपः प्रकाश्यं प्रकाशयन्नेवात्मरूपं प्रतिपद्यमानः प्रकाश्यादात्मलाभ लभते इति दिव्यपदिश्यते, तथा वचनमप्यर्थ प्रतिपादयदेवात्मरूपं प्रतिपद्यमानमर्यादात्मलाभ लभते इति व्यवहियते, अर्धश्च सावद्य योगविरमणरूपो नपुंसकतया प्रसिद्ध इति सामायिकस्य नपुंसकलिङ्गतामेव सङ्ग्रहव्यवहारावभ्युपगच्छतः, उक्तंच-"अत्थावोधिय वयणं ठहा सरुवं जहा पदीयोब। वो संगहववहाराभणंति निहिवसर्गतं ॥१॥"(वि.१५११)चूर्णिकारोऽप्याह दीप अनुक्रम andrea ForFive Persanamory wiewsanelibrary.orm ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [१४१], वि०भा०गाथा [१५१५], भाष्यं न, मूलं F /गाथा] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक उपोद्धात-II"संगहववहारनयवत्तक्या इत्थी इत्थं निहिसइ इस्थिनिर्देसो, इत्थी पुरिसं निहिसइ पुरिसनिसो, इत्थी नपुंसर्ग निदि-18 निर्देशे नियुक्तिः सइ नपुंसगनिदेसो, एवं पुरिसनपुंसगाणंपि भाणियवं," अथवा सामायिकं नाम सावद्ययोगविरमणरूपं, तब सामायिक-दि नयाः वतां सत्त्वानां स्त्रीलिङ्गानां पुंलिङ्गानां नपुंसकलिङ्गानां च परिणामानन्यदिति तस्य ख्यादिरूपतेति वाच्यवशेन त्रिलि॥१५० ताऽपि सामायिकस्य सहन्यवहारनयमतेन द्रष्टव्या, तथा 'निर्देसगमुणुसुतो' इति, निर्देशको-वका तमङ्गीकृत्य सामायिकनिर्देशमृजुसूत्रो मन्यते, तथाहि-स एवमभिधत्ते-वचनं वरधीनं, तद्भावभावित्वात् , ततो यदेव वक्तुलिङ्गं तदेव वचनस्यापीति, यदा पुरुषो निर्देष्टा तदा सामायिकस्य पुंलिङ्गता यदा स्त्री तदा स्त्रीलिङ्गता, एवं नपुंसकेऽपि द्रष्ट-12 व्यम् , उक्तं च-"उजुसुतो निदेसगवसेण सामाइयं विणिद्दिसइ । वयणं वत्तुरहीण मित्यादि, 'उभयसरिच्छं च 8 सहस्स॥१॥"(वि.१५१५) इति, उभयमिह निर्देश्य निर्देशकं च वस्त्वभिधीयते, 'सदृश मिति समानलिङ्गम् , उभयं च तत्सदर्श च उभयसदृशं तदङ्गीकृत्य शब्दस्य निर्देशप्रवृत्तिरिति वाक्यशेषः, किमुक्तं भवति ?-निर्देश्यं निर्देशकं च वस्तु परस्परं 2 समानलिङ्गमेवाङ्गीकृत्य शब्दनयो निर्देशमभिमन्यते, नान्यथेति, इयमत्र भावना-उपयुक्तो हि निर्देश्यादभिन्न एव भवति, तदुपयोगानन्यत्वात्, यथा युपयोगादनन्यो माणवकोऽग्निः, ततो यदा पुमान् पुमांसमभिधचे तदा ॥१५० पुंनिर्देश एव, एवं स्त्रियाः स्त्रियं प्रतिपादयन्त्याः स्त्रीनिर्देश एव, नपुंसकस्य नपुंसकमभिदधानस्य नपुंसकनिर्देश एव, यदा तु पुमान नियमभिघत्ते तदा सख्युपयोगानन्यत्वात् स्त्रीरूप एवेति निर्देश्यनिर्देशकयोः समानलिङ्गतैव, एवं सर्वत्र संयोज्यम् , असमानलिङ्गनिर्देशस्त्ववस्त्वेव, यथा पुमान नपुंसकं स्त्रियं चाहेति, कुत इति चेत्, उच्यते, इह दीप अनुक्रम ForFive Persanamory sanelibrary.orm ~240 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [१४२], विभा गाथा [१५२३], भाष्यं H, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक SHORORSCCC लापुंसो नपुंसकं खियं वा प्रतिपादयतो नपुंसकोपयोगः रुयुपयोगो वा ततो भिन्नो वा स्यादमिनो वा!, यदि भिन्नतहि । तस्यासाविति सम्बन्धानुपपत्तिः, तदनुपपत्तौ चोपयोगशून्यत्वात्पाषाणस्येव तस्य वचनप्रवृत्त्यसम्भवः, तथा च प्रत्यक्षविरोधः, अथाभिन्नः स तर्हि तदात्मक एव, तथाहि-यद्यस्माभिन्नं तत्तन्मयमेव, यथा जीवश्चेतनामयः, पुमानपि च दानपुंसकमभिदधानो नपुंसकोपयोगानन्या, स्त्रियमभिदधानः स्युपयोगानन्य इति तन्मयः, ततः समानलिङ्गस्यैव निर्देशो न साविसदृशलिङ्गस्य, उतच-"सहोसमाणलिंग निद्देसं भणरि विसरिसमवत्थु । उवउत्तो निदिहा निद्देसातो जतोऽनन्नो॥१॥ (वि. १५२३) एवमिहापि सामायिकस्यार्थरूपस्य रूढितो नपुंसकत्वात् स्त्रियाः पुरुषस्य नपुंसकस्य वा सामायिक प्रति& पादयतस्तदुपयोगानन्यत्वानपुंसकरूपतैवेति सामायिकमिति नपुंसकनिर्देश एवेति गाथासक्षेपार्थो, व्यासार्थस्तु भाष्या दवसातव्यः, सर्वनयमतान्यपि चामूनि पृथक् पृथग्विपरीतविषयत्वान्न प्रमाणं, समुदितानि तु समस्तान्तवाद्यनिमित्तसामग्रीसापेक्षत्वात्प्रमाणमित्यलं विस्तरेण, मन्दावबोधमात्रफलत्वात् प्रस्तुतप्रयासस्य ॥ सम्प्रति निर्गमद्वारप्रतिपादनार्थमाहनाम ठवणा दविए खेत्ते काले तहेव भावे य । एसो उ निग्गमस्सा निक्खेवो रविहो होइ ॥ १४२ ॥ नामस्थापने सुप्रतीते, द्रव्यनिर्गमोऽपि द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतः पूर्ववत्, नोआगमतस्विविधोशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात् , तत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरे प्राग्वत् , तद्व्यतिरिकोऽनेकधा, तद्यथा-द्रव्याद् द्रव्यस्य वा विनिर्गमो द्रव्यविनिर्गमः, तत्र द्रव्यात् सचित्तादचित्तान्मिश्राद्वा, द्रव्यस्य च ततः सचित्तादेः प्रत्येकं सचित्तस्याचित्तस्य मिश्रस्य वा, तत्र सचित्तात्सचित्तस्य यथ' पृथिव्या अङ्करस्य, सचित्तान्मिश्नस्य यथा भूमेः पतङ्गस्य, सचिवादचित्तस्य दीप अनुक्रम H कर-CHAK-4 मा.सू.२६ Jan Education Farvey H owsannlinrary.orm ... अत्र 'निर्गम' द्वार प्रदर्शयते ~25~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१४२], विभा गाथा [१५३५], भाष्यं H, मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक उपोद्घात-पायथा भूमेर्याप्पस्य, तथा मिश्रात् सचित्तस्य यथा देहात्कृमेर, देहस्य मिश्रता तद्गतकेशनखाद्यवयवानामचिचत्वात् शेषखा निर्गमनियुक्ति सचित्तत्वात् , मिश्रान्मिश्रस्य यथा खीदेहादूगर्भस्य, मिश्रादचित्तस्य यथा देहाद्विष्ठाया, उकंच-"पभको सचित्तातो स्वरूपं भूमेरंकुरपयंगवफाई। किमिगन्भसोणियाई मीसातो थीसरीरातो ॥१॥" (वि.१५३५) अचिचात्सचिचस्व यथा काष्ठा- गा. १४२ ॥१५॥ स्कृमिकस्य, अचित्तान्मिश्रस्य यथा काष्ठाद् घुणकस्य, तस्य मिश्रता पक्षाघवयवानामचित्तत्वाद्, अचिचादचित्तस्य यथा काष्ठात् धुणचूर्णस्य, अथवाऽत्र चतुभङ्गिका, तद्यथा-द्रव्यात् द्रव्यस्य द्रव्याणां वा द्रव्येभ्यो वा द्रव्यस्थ द्रव्याणामिति, तत्र द्रव्यात् द्रव्यस्य यथा एकस्माद्रूपकात् कलान्तरप्रयुक्तादेकस्य रूपकस्य विनिर्गमः, आह च पूर्णिकृत-"दबतो दवस्सा जहा रूवातो पउत्तातो रूवतो चेव जातो" इति, द्रव्यात् द्रव्याणां वा यथा एकस्मादेव रूपकात् कलान्तरप्रयुक्तात प्रभूत-II कालातिक्रमेण प्रभूतानां रूपकाणां सम्भवः, द्रव्येभ्यो द्रव्यस्य यथा प्रभूतेभ्यो रूपकेभ्यः कलान्तरप्रयुक्तेम्यः स्वल्पदिनमध्ये एकस्य रूपकस्य सम्भवः, द्रव्येभ्यो द्रव्याणां यथा प्रभूतेभ्यो रूपकेभ्यः कलान्तरप्रयुक्तभ्यः प्रभूतकालातिक्रमेण प्रभूतानां 5 रूपकाणां सम्भवः, तथा क्षेत्रात् क्षेत्रस्य वा निर्गमः क्षेत्रनिर्गमः, तत्र क्षेत्राद्विनिर्गमो यथा अधोलोकक्षेत्राद्विनिर्गत्य जीवस्तिनायग्लोके समागत इत्यादि, क्षेत्रस्य विनिर्गमो यथा राजकुलालब्धममुकं क्षेत्रमिति, कालात्कालस्य वा निर्गमः कालनिर्गमः, तत्र कालान्निर्गमो यथा दुर्भिक्षानिस्तरणं, यदिवा बालकालाद्विनिर्गतो देवदत्त इति, कालस्य विनिर्गमो यथा वसन्तस्य ॥१५१॥ सम्पति निर्गम इति, निर्गमो नाम उत्पादः, अथवा कालो द्रव्यधों वर्चनारूपत्वाचस्व निर्गमो द्रव्यात् । तथा भावाझावस्य वा निम्मो भावनिर्गमः, तत्र भावादिनिर्गमो यथा पुनलस्य वर्णादिविशेषात् जीवख वा क्रोधादिपरिणामा दीप अनुक्रम JanEdication income ForFive Persanamory iwsansliterary.com ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [१४३], वि०भा गाथा [१५४५,१५४६], भाष्यं H. मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ++% प्रत सत्रांक % CTest दीप अनुक्रम द्विनिर्गम इति, मावस्य निर्गमो यथा पुद्गलाद्वर्णादिविशेषस्थ, जीवात्कोधादिपरिणामस्योत्पत्तिरिति, एष एव तुशब्द एककारार्थः निर्गमस्य निक्षेपः पड़िधो भवतीति । एवं शिष्यमतिप्रकाशार्थ प्रसङ्गतोऽनेकधा निर्गम उत्कोऽत्र तु प्रशस्तमावनिर्गममात्रेणाप्रशस्तभावापगममात्रेण चाधिकारः, यदिवा शेरैरपि द्रव्यादिभिस्तदङ्गत्वादधिकारः, तत्र द्रव्यं भगवान वर्द्धमानस्वामी क्षेत्रं महासेनवनं कालः प्रमाणकालो भावश्च पुरुषो वर्द्धमानस्वामिरूपः, एतानि सामायिकरूपप्रशस्त|भावनिर्गमाङ्गानि, उक्तं च-"वीरो दयं खेत्तं महसेणवणं पमाणकालो य । भावो य भावपुरिसो समासतो निम्गमगाई ॥१॥ सामइयं वीरातो महसेणवणे पमाणकाले य । भावपुरिसा हि भावे विणिग्गमो वक्खमाणोऽयं ॥२॥ (वि.१५४५-६) अत्र वक्ष्यमाणो भावः-सामायिकलक्षणः । एतच्च सर्व भगवन्महावीरलक्षणद्रव्याधीनमतस्तस्यैव प्रथमतो मिथ्यात्वादिभ्यो निर्गममभिषित्सुराह- (ग्रन्थानं ६०००) पंथं किर देसित्ता साहूणं अडवि विप्पणहाणं । सम्मसपटमलंभो बोयो बदमाणस्स ॥१३॥ | पन्थानं 'किले त्याप्तवादे देशयित्वा-कथयित्वा साधुभ्यः, सूत्रे षष्ठी प्राकृतत्वात् , 'अडवित्ति प्राकृतत्वादेवात्र *सप्तम्या लोपः, अटव्यां पथो विप्रनष्टेभ्यः-परिचष्टेभ्यः, पुनस्तेभ्य एव देशनां श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्राप्तः, एवं सम्यक्त्वप्रथ मलाभो बोद्धव्यो वर्द्धमानस्वेति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-अवरविदेहे एगम्मि गामे बला|हितो, सो व रायाएसेण सगहाणि गहाय दारुनिमित्तं महाडविं पविट्ठो, इतो य साहुणो मग्गं पवना सत्थेष समं वचंति, सत्ये मावासिए भिक्खं पविद्वा, सत्थो गतो, ते मग्गतो पहाविया, अयाणंता मुला, मूढदिसा पंच बबाणता तेण अत्र श्री वीर परमात्मान: सम्यक्त्व प्राप्तिरुप प्रथम-भव वर्णयते ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं न, नियुक्ति: [१४४], विभा गाथा H, भाष्यं [१-२], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: निर्यक्तिः प्रत सत्राक ॥१५२॥ CONT अडविपंथैण मज्झण्हदिवसकाले तण्हाए छुहाए य पारद्धा तं. देसं गया जत्य सो सगडसंनिवेसो, सो य बलाहिोते पासित्ता महंत संवेगमावश्नो भणइ-अहो इमे साहुणो अदेसिया तवस्सिणो अडविमणुपविट्ठा, तेर्सि सो परमभत्तीए विउलं असणपाणं दाऊण आह-एह भगवं! जेण पंथे समवतारेमि, पुरतो संपत्थितो, ताहे तेऽवि साहुणो तस्सेव मग्गेण अणुग- देवत्वं च च्छन्ति, ततो गुरू तस्स धम्मं कहेउमारद्धो, सो तस्सुवगतो, ततो पंथं समोयारित्ता नियत्तो, ते पत्ता सदेसं, सो पुणगा .१४३. अविरयसम्मदिट्टी कालं काऊण सोहम्मे कप्पे पलितोवमहिइतो देवो जातो॥ एतदेवोपदर्शयन् गाथाद्वयमन्तर्भाष्यकृदाह- १४४ अवरविदेहे गामस्स चिंतगो रायदारुवणगमणं साहू भिक्खनिमित्तं सत्था हीणे तहिं पासे।मू-भाष्यं ॥ भा.१-२ दाणऽन्न पंथ नयणं, अणुकंप गुरूण कहण सम्मत्तं। सोहम्मे उववन्नो पलियाउ सुरो महिड्डीतो॥मू.भा.२॥ अपरविदेहे प्रामस्य चिन्तको 'रायदारुवणगमण'मिति अत्र निमित्तशब्दलोपो द्रष्टव्यो राजदारुनिमित्तं तस्य वनगमन, सुसाधून मिक्षानिमित्तं सार्थाद्भष्टान् तत्र दृष्टवान्, ततोऽनुकम्पया-परमभक्त्या दानं अन्नपानस्य, नयनंप्रापणं पथि, तदनन्तरं गुरोः कथनं, ततः सम्यक्त्वप्राप्तिः, तत्प्रभावान्मृत्वाऽसौ सौधर्मदेवलोके उत्पन्नः पल्योपमायुः सुरो महर्द्धिक इति ॥ लढूण य सम्मत्तं अणुकंपाऍ सो सुविहियाणं । भासुरवरबोंदिधरो देवो बेमाणितो जातो ।। १४४॥ ॥१५२॥ | स ग्रामचिन्तकः सुविहितानामनुकम्पया-परमभक्या तेभ्यः सम्यक्त्वं लब्ध्वा च भाखरां-दीप्तिमतीं वरां-प्रधानां बोन्दी-तनुं धारयतीति भास्वरवरबोन्दिधरः देवो वैमानिको जात इति नियुक्तिगाथार्थः॥ दीप अनुक्रम ॐॐॐ ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ १४५-१४८], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१-२], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ऊण देवलोगा इह चैव य भारहंमि वासंमि । इक्खागकुले जातो उसमसुयसुतो मरीइति ॥ १४५ ॥ ततो देवलोकात् स्वायुःक्षये च्युत्वा इहैव भारतवर्षे इक्ष्वाकुकुले जातः - उत्पन्न ऋषभसुतसुतो मरीचिः, ऋषभपौत्र इत्यर्थः ॥ यतश्चैवमतः- इक्खाकुले जातो इक्खागुकुलस्स होइ उप्पत्ती । कुलगरवंसे तीए भरहस्स सुओ मरीइति ॥ १४६ ॥ इक्ष्वाकूणां कुलं इक्ष्वाकुकुलं तस्मिन् जातः- उत्पन्नो भरतस्य सुतो, मरीचिरिति योगः, तत्र सामान्येन ऋषभपौत्रत्वाभिधाने सतीदं विशेषाभिधानमदुष्टमेव, सामान्याभिधाने सति सर्वत्रापि विशेषाभिधानस्य दर्शनात् स च इक्ष्वाकुकुले | जातः कुलकरा वक्ष्यमाणलक्षणास्तेषां वंशः प्रवाहस्तस्मिन्नतिक्रान्ते यतश्चैवमत ईक्ष्वाकुकुलस्य भवति उत्पत्तिः, वाच्येति शेषः, तत्र कुलकरवंशेऽतीते इत्युक्तमतः प्रथमं कुलकराणामेवोत्पत्तिं प्रतिपिपादयिषुर्यस्मिन् काले क्षेत्रे च तत्प्रभवस्तदुपदर्शनार्थमिदमाह - ओसपिणी इमीसे तयाऍ समाऍ पच्छिमे भागे । पलितोवमद्वभागे सेसंमि य कुलगरुप्पत्ती ॥ १४७॥ ॥ अद्धमरहम ज्झिल्लुतिभागे गंगसिंधुमज्झमि । एत्थ बहुमज्झदेसे उत्पन्ना कुलगरा सत्त ॥ १४८ ॥ अस्यामवसर्पिण्यां वर्त्तमानायां या तृतीया समा- सुषमदुष्पमाभिधाना तस्या यः पश्चिमो भागः तस्मिन् कियन्मात्रे इत्याह- पल्योपमाष्टभागप्रमाणे शेषे तिष्ठति सति कुलकरोत्पत्तिः, अभूदिति वाक्यशेषः, कुत्रेत्यत आह- अर्द्धभरतमध्यत्रिभागे, किंविशिष्टे इत्याह-- गड़ासिन्धुमध्येऽत्र, एतस्मिन्नर्द्धभरतमध्यमत्रिभागे बहुमध्यदेशे, न तु पर्यन्तेषु, For Peace & Personal Use Ony ~29~ janelibrary.org Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घात निर्युतिः ॥१५३॥ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ १४९- १५१], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [२] मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उत्पन्नाः कुलकराः सप्त, इहार्द्धमरतं विद्याधरालय बैताव्यपर्वतादारतः परिप्रानं, न तु परतो, व्याख्यानात् ॥ सम्प्रति | कुलकरवतव्यतामिधायिकां द्वारगायां प्रतिपादयति पुचभव १ जम्म २ नामं ३ पमाण ४ संघयणमेव ५ संठाणं ६ । नि ७ त्थिया ८ ऽऽउ ९ भागा १० भवणोवातो ११ प नीई १२ य ॥ १४९ ॥ कुलकराणां पूर्वभवा वक्तव्याः, ततो जन्म, तदनन्तरं नामानि ततः प्रमाणानि, तदनन्तरं संहननं वक्तव्यम्, एवशब्दः पूरणार्थः, तथा संस्थानं, ततो वर्णाः प्रतिपादयितव्याः, तदनन्तरं स्त्रियः, ततः आयुर्वक्तव्यं, ततो भागा वाच्या:- कस्मिन् वयोभागे कुलकराः संवृत्ता इति, भवनेषूपपातो वक्तव्यः, भवनग्रहणं भवनपतिनिकायेषु तेषामुपपातो नान्यत्रेति प्रदर्शनार्थ, तथा नीतिश्च या यस्य हक्कारादिलक्षणा सा तस्य वक्तव्येति गाथावरार्थः ॥ अवयवार्थे तु प्रतिद्वारं भाष्यकारः | स्वयमेव वक्ष्यति, तत्र प्रथमद्वारावयवार्थाभिधित्सयेदमाह अवरविदेहे दो वणियवयंसा माइ उज्जुगे चेव । कालगया इह भरहे हत्थी मणुओ य आपाया ॥ १५० ॥ दहुं सिणेहकरणं गयमारुहणं च नामनिष्पत्ती । परिहाणि गेहि कलहो सामत्थणं विनवणहत्ति ॥ १५१ ॥ अपरविदेहे द्वौ वणिग्वयस्यावभूतां, तद्यथा-एको मायी अपरश्च ऋजुः, तौ च कालगताविह भरते आयाती, मायी हस्ती इतरो मनुष्य इति, ततो द्दृष्ट्वा परस्परं स्नेहकरणं, ततो गजारोहणं, तदनन्तरं नामनिर्वृत्तिः, गच्छता च कालेन कस्पद्रुमाणां परिहानिः, ततः प्रभूता प्रभूततरा गृद्धिस्तदनन्तरं कलहस्ततः 'सामत्थणं' ति देशीवचनमेतत्पर्यालोचनमित्यर्थः, ••• अत्र 'कुलकर' वक्तव्यता दर्शयते For Peace & Personal Use Only ~30~ मरीचि कुलकराधिकारः गा. १४५१५१ ॥ १५३॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [९४९-१५१], विभा गाथा ], भाष्यं [२...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक ततो विज्ञापना, तदनन्तरं 'हो' इति हाकारलक्षणाया नीतेः प्रवृत्तिा, भावार्थः कथानकादवसेया, तवेदम्-अवरविदेहे । दो मित्ता वणिया, तत्थेगो माई, इयरो उजुगो, ते पुण एगो चेव ववहरंति, तत्व जो माई सो तं सज्जुग अइसंह, इयरो सबमगूढतो सम्म ववहर, दोवि पुण दाणरुई, ततो सो उज्जुगो कालं काऊण इहेब दाहिणहे मिहुणगो जातो,HI |वको पुण मि चेव पएसे हत्थिरयणं, सो य सेतो वण्णेणं चउदंतो व, जाहे ते दोऽवि पडुप्पण्णसरीरगा जाया ताहे दात हिंडिउमारद्धा, तेण य हत्थिणा हिंडंतेण सो मिहुणगो दिवो, दद्दण य से परमा पीई उप्पना, तंच से अभियोग-15 निवत्तियं कर्म उदिन्न, ततो तेण मिहुणगं खंधे विलइयं, ततो सवेण लोगेण तं मिहुणगं वहारूवं दहण अम्हेहिंतो| अन्भहिओ मणूसो एसो इमं च से विमलं वाहणंति से विमलवाहणत्ति नाम कर्य, वेसि च जाईसरणं जायं, ताहे। कालदोसेण इमे सत्त कप्परुक्खा परिहायंति,-'मत्तंगया य भिंगा चिचंगा चेव तहय चिचरसा । गेहागार अणिगणा सत्तमया कप्परुक्खत्ति ॥१॥ तेसु परिहार्यतेसु कसाया उप्पण्णा, अयं मम मा इत्थ कोइ अल्लियउ इति भणि पवचा, जो ममीकयमलियइ तेण इयरो कसाइज्जइ, ततो परोप्परमसंखडं, ताहे चिंतंति-कंचि अहिवई उवेमो, जो ववत्थाए साठवेइ, ताहे तेहिं सो विमलवाहणो एस अम्हेहिंतो अहितो इति अहिवई ठवितो, ताहे तेण तेसिं रुक्खा विरिका, भणिया य-जो तुम्भ एवं मेरं आइकमइ तं मम कहेज्जह जेणाहं से दंड वचेमि, सोवि कहं जाणइ 1, भण्णइ-सो ४ जाइस्सरो तं वणियचं सरेइ तेण जाणई, ताहे तेसिं जो कोऽवि अवरझाइ सो सस्स कहिजह, ताहे सो तेसिं दंड बबईको पुण दंडो, हकारो, हा तुमे दुहु कयति, ताहे सो जाणा-अहं सबस्सहरणो कतो, बरं हतो होतो सीसे वा दीप अनुक्रम and remona ForFive Persanamory wiewsanelibrary.orm ~31~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥१५४॥ Jan Educaton Iren “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१५२-१५४], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [२] मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मे वरं छिनं होतं, न य एरिसं विडंबणं पाविन्तोति, एवं बहुकालं हक्कारदंडो अणुवत्तितो, तस्स व चंदजसा भज्जा, तीए समं भोगे भुञ्जंतस्स अवरं मिहुणं जायं, तस्सवि कालंतरेण अवरं, एवं ते एगवंसंमि सत्त कुलगरा उप्पन्ना, पूर्वभवाः खल्वमीषां प्रथमानुयोगतोऽवसेयाः, जन्म पुनरिव सर्वेषां द्रष्टव्यम् ॥ व्याख्यातं पूर्वभवजन्मरूपं द्वारद्वयं, सम्प्रति कुलकरनामप्रतिपादनार्थमाह पढमेत्थ विमलवाहण चक्रतुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो य पसेणइए मरुदेवे चैव नाभी य ॥ १५२ ॥ प्रथमोऽत्र विमलवाहनो द्वितीयश्चक्षुष्मान् तृतीयो यशस्वी चतुर्थोऽभिचन्द्रः पञ्चमः प्रसेनजित् षष्ठो मरुदेवः सप्तमो नाभिरिति ॥ गतं नामद्वारम् अधुना प्रमाणद्वारावयवार्थमभिधित्सुराह वाई पढो अट्ठ य सत्तद्धसत्तमाई च । छच्चेव अदछट्ठा, पंचसया पण्णवीसाओ ॥ १५३ ॥ प्रथमो विमलवाहन उच्चैस्त्वेन नव धनुःशतानि द्वितीयश्चक्षुष्मान् अष्टौ ८०० तृतीयो यशस्वी सप्त ७०० चतुर्थोऽभिचन्द्रोऽर्द्धसप्तमानि धनुःशतानि ६५० पञ्चमः प्रसेनजित् षट् ६०० षष्ठो मरुदेवोऽर्द्धषष्ठानि धनुःशतानि ५५० सप्तमो नाभिः पञ्चविंशत्यधिकानि पञ्चधनुःशतानि ५२५ ॥ गतं प्रमाणद्वारम् अधुना संहननसंस्थानप्रतिपादनार्थमाह| वज्ररिसभसंघयणा समचउरंसा य होंति संठाणे । वण्णंपि य वोच्छामि पत्तेयं जस्स जो आसी ॥ १५४ ॥ सर्व एव विमलवाहनादयो वज्रर्षभसंहननाः संस्थाने च चिन्त्यमाने समचतुरत्राश्च भवन्ति, वर्णद्वारसम्बन्धाभिधानार्थमाह- 'वण्णंपी' त्यादि, वर्णमपि च वक्ष्ये प्रत्येकं च यस्य य आसीत् इति ॥ प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति - For Peace & Personal Use Only ~32~ कुलकराधिकारः गा. १५२ १५४ ॥१५४॥ janelibrary Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [९५५-१५८], विभा गाथा ], भाष्यं [२...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक चक्खुम जसमं च पसेणई य एए पियंगुवण्णाभा। अमिचंदो ससिगोरो निम्मलकणगप्पमा सेसा ॥१५॥ चक्षुष्मान यशस्वी प्रसेनजित्, एते द्वितीयतृतीयपञ्चमाः 'प्रियङ्गवर्णाभा' प्रियङ्गवर्ण इवाभा-छाया येषां ते तथाप्रियकुश्यामाः, अभिचन्द्रश्चतुर्थः कुलकरः शशिवद् गौरः, निर्मलकनकवत् प्रभा छाया येषां ते तथा शेषा-विमलवाहनमरुदेवनाभयः ।। गत वर्णद्वारं, स्त्रीद्वारप्रतिपादनार्थमाह चंदजस चंदकंता सुरूव पडिरूव चक्खुकता य । सिरिकता मरुदेवी कुलगरपत्तीण नामाइं ॥१५६ ॥ | विमलवाहनस्य पत्नी चन्द्रयशाश्चक्षुष्मतश्च चन्द्रकान्ता, यशस्विनः मुरूपा, अभिचन्द्रस्य प्रतिरूपा, प्रसेनजितश्चक्षु: कान्ता मरुदेवस्य श्रीकान्ता, नाभेर्मरुदेवी, इमानि यथाक्रम कुलकरपसीनां नामानि ॥ एताच संहननादिभिः कुलकर. दतुल्या एव द्रष्टव्याः, यत आह संघयणं संठाणं उच्चत्तं चेव कुलगरेहि समं । वण्णेण एगवण्णा सबाओ पियंगुवण्णातो ॥१५७ ॥ संहननं संस्थानमुच्चैस्त्वं चैव कुलकरैरात्मीयरात्मीयैः समं-अनुरूपमासामधिकृतस्त्रीणां, नवरं प्रमाणेन ईपन्यूना इति सम्पदायः, तथा वर्णेन सर्वा अप्येकवर्णाः प्रियङ्गुवर्णा इति । गतं खीद्वारम् , इदानीमायुरिमाह पलितोवमदसभागो पढमस्साउं ततो असंखेजा । ते याणुपुविहीणा पुवा नाभिस्स संखिजा ॥ १५८॥ प्रथमस्य-विमलवाहनस्यायुः पस्योपमदशभागः, तदनन्तरमन्येषां चक्षुष्मदादीनामसोयानि पूर्वाणीति सम्बध्यते, तान्यपि चानुपूया-क्रमेण हीनानि, नामेस्तु साधेयानि पूर्वाण्यायुष्कमिति, अन्ये तु व्याचक्षते-प्रथमस्य पल्योपमदन दीप अनुक्रम ForFive Persanamory ~33. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घात निर्युक्तिः ॥ १५५ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ १५९ ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [२...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः कुलकरा गा. १५५० १५९ | भाग एवायुः, ततो द्वितीयस्यासङ्ख्येयाः पत्योपमासयेवभागा इति वाक्यशेषः एवं चानुपूर्व्या हीनं शेषाणामायुष्कं द्रष्टव्यं तावद्यावत्सज्ञेयानि पूर्वाणि नाभेरायुष्कमित्यविरुद्धेयं व्याख्या, अपरे व्याचक्षते - प्रथमस्यायुः पल्योपमदश- धिकारः भागः ततोऽसश्या इति शेषाणां समुदितानां पस्योपमासमेयभागाः किमुक्तं भवति । - द्वितीयस्य पल्योपमासोयभाग आयुः शेषाणां तत एवासत्येय भागोऽसङ्ख्येयभागः पात्यते तावद्यावन्नाभेरसङ्ख्येयानि पूर्वाणि तदेतदपण्याख्यानं, कथमिति चेत्, उच्यते, इह पस्योपमाष्टभागे अशेषकुलकराणामुत्पत्तिः, 'पछितोवमट्ठभागे सेमि य कुलगरुप्पत्ती' इति वचनात्, तत्र पल्योपमं किलासत्कल्पनया चत्वारिंशद्भागं परिकल्प्यते, तस्याष्टमो भागः पञ्च चत्वारिंशद्भागाः, तत्रापि प्रथमस्य विमलवाहनस्यायुः पत्योपमदशभागः, ततश्चत्वारश्चत्वारिंशद्भागास्तदायुषि गताः, शेष एकः पल्योपमस्य चत्वा - रिंशत्तमः सङ्ख्यो भागोऽवतिष्ठते, स च चक्षुष्मदादिगतैः पञ्चभिरसङ्ख्येयभागैर्न पूर्यते इत्यपव्याख्या, अथ अत एव नाभेरसज्ञेयानि पूर्वाण्यायुष्कमुक्तमिति, इदमयुक्तं तूक्तं, यतो महदेव्याः समेयानि वर्षाण्यायुः, असङ्ख्येयवर्षायुषां केवलज्ञानाभावात्, ततो नाभेः सङ्ख्येयवर्षायुष्कत्वमेव, कुलकराणां कुलकरपलीनां च समानायुष्कत्वात् ॥ तथा चाह जं चैव आउयं कुलगराण तं चेद होइ तासिंपि । जं पढमगस्स आउं तावइयं होइ हस्थिस्स ॥ १५९ ॥ यदेवायुष्कं कुलकराणां प्रागुक्तं तदेव भवति तासामपि -कुलगराङ्गनानां, सङ्ख्यासाम्याच्च तदेवेत्यभिधीयते, यावता प्रत्येकं भिनमेव प्राणिनामायुः । तथा यत्प्रथमस्य कुलकरस्य - विमलवाहनाख्यस्यायुस्तावदेव भवति हस्तिनः एवं शेषकुलकरहस्तिनामपि कुलकरतुल्यं द्रष्टव्यम् ॥ सम्प्रति भागद्वारं वक्तव्यं, यथा कः कस्य सर्वायुष्के कुलकर काल इति, तत्रेदमाह For Peace & Personal Use Only ~34~ ॥ १५५ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१६०-१६३], विभा गाथा ], भाष्यं [२...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक skcrickorykatkhter जं जस्स आउयं खलुतं वसभागे समं विभइऊणं । मझिल्लट्ठतिभागे कुलगरकालं वियाणाहि ॥१६॥ ययस्व कुलकरस्वायुखत् खलु दशभागान् समं विभज्य मध्यमेऽष्टभागात्मके विभागे कुलकरकालं विजानीहि ॥ अमुमेवार्थ प्रकटयन्नाह पदमो य कुमारत्ते भागो चरिमो य बुहभावम्मि । ते पयणुपेजदोसा सचे देवेसु उववना ॥ ११ ॥ तेषां दशानां भागानां मध्ये प्रथमो भागः कुमारत्वे भवति, चरमो वृद्धभावे, शेषा मध्यमा अष्टौ भागाः कुलकरकाल इति । गतं भागद्वारम् , उपपातद्वारमुच्यते-ते प्रतनुप्रेमद्वेषाः, प्रेम-रागो द्वेषः प्रसिद्धः। सर्वे विमलवाहनादयो देवेषपपनाः ॥ तत्र न ज्ञायते केषु देवेषपपन्ना इत्यत आह दो चेव सुवणेसुं उयहिकुमारेसु होंति दो चेव । दो दीवकुमारेसुं एगो नागेसु उववण्णो ॥ १६२ ॥ HI द्वौ आयौ विमलवाहनचक्षुष्मदभिधानी सुपर्णेषु देवेषूत्पन्नौ, दावेव च यशस्वि-अभिचन्द्राख्यावुदधिकुमारेषु भवतः, भदौ प्रसेनजिन्मरुदेवाख्यौ दीपकुमारेषु, एको नाभिनामा सप्तमकुळकरो नागेपुपपन्नः ॥ सम्पति कुलकरस्त्रीणां हस्तिनां चोपपातमभिषित्सुराह इत्थी छवित्थीतो नागकुमारेसु होति उवषमा । एगा सिदि पत्ता मरुदेवी नामिणो पत्ती ॥ १६३ ।। हस्तिनः सप्तापि षट् च खियः पन्द्रयशम्मभृतयो नागकुमारेखूपपनाः, अन्ये तु प्रतिपादयन्ति-एक एव हस्ती । दीप अनुक्रम Jan E ros ForFive Persanamory ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्ति: [१६४-१६६], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [२...], मूलं [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः रपोद्वातनिर्युक्तिः ॥ १५६ ॥ Jan Education पट् च खियो नागेषूपपन्नाः, शेषाणामिहानभिधानमेवेति, एका सक्षमी मरूदेवी नामेः पत्नी सिद्धिं प्राप्ताः ॥ उक्तमुपपातद्वारम् अधुना नीतिद्वारप्रतिपादनार्थमाह हमारे मकारे घिकारे चैव दंडनीतीओ। वोच्छं तासि विसेसं जहकमं आनुपुची ॥ १६४ ॥ हकारो मक्कारो विकारश्चेति कुलकराणां दण्डनीतयः, ततो वक्ष्ये 'तासां' दण्डनीतीनां विशेषं यथाक्रमं या यस्य तां तस्य वक्ष्य इति भावः, तामपि तथा वक्ष्ये आनुपूर्व्या परिपाठ्या, विमलवाहनादारभ्य क्रमेणेति यावत् ॥ प्रतिज्ञातमेव करोतिप्रढमबियाण पढमा तइयचउत्थाण अहिणवा बिइया । पंचम छट्ठस्स य सत्तमस्स तझ्या अहिणवाओ ॥ १३५ ॥ प्रथमद्वितीययोः सूत्रे द्वित्त्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् कुलकरयोः प्रथमा हकारलक्षणा दण्डनीतिः, तृतीयचतुर्थयो:- यशस्व्यभिचन्द्राख्ययोः कुलकरयोरभिनवा द्वितीया - मकारलक्षणा दण्डनीतिः किमुक्तं भवति ? - स्वल्पापराधे प्रथमया दण्डः क्रियते, महापराधे द्वितीययेति, तथा पञ्चमषष्ठयोः सप्तमस्य च तृतीया - धिक्काराख्या अभिनवा, एषा उत्कृष्टा द्वितीया मध्यमा प्रथमा जघन्या ॥ एताश्च तिस्रोऽपि लघुमध्यमोत्कृष्टापराधेषु यथाक्रमं प्रवर्त्तिता इति ॥ साड दंडनीती माणवगनिहीउ होइ भरइस्स । उसभस्स गिहावासे असकतो आसि आहारो ॥ १६६ ॥ शेषा तु चारकच्छविच्छेदलक्षणा दण्डनीतिर्भरतस्य माणवकनिधेः सकाशाद्भवति, इयमत्र भावना-कोपाविष्कररणे नरे इतः स्थानान्मा यासीरित्येवं यत्परिभाषणं यक्ष मण्डलिबन्धो यथा नोऽस्मात्प्रदेशाद् गन्तव्यमित्येवंरूपे द्वे दण्डनीती भगवता ऋषभस्वामिना प्रवर्त्तिते चारकच्छविच्छेदाख्ये च द्वे दण्डनीती भरतेन माणवकनिधेरिति इदं च नीत्यु For Pete & Personal Use Only ~36~ कुलकरा * धिकारः गा. १६११६६ ।। १५६ ।। sanelibrary.org Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१६७], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [3], मूलं । गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत PRESEARCPट सत्राक त्पादाभिधानमन्यास्वप्यतीतासु एण्यासु चावसर्पिणीषु अयमेव न्याय इति स्थापनार्थ, तस्य च भरतस्य पिता ऋषभ नाथः तस्य च ऋषभनाथस्य गृहवासे आहार आसीद् असंस्कृत:-स्वभावसम्पदा, भगवतो हि ऋषभस्वामिनो यावद् गृह वासस्तावद्देवेन्द्रादेशाद्देवा देवकुरूत्तरकुरुक्षेत्रयोः स्वादूनि फलानि क्षीरोदसमुद्राच उदकमुपनीतवन्त इति ॥ अथ भरतचक्रवर्त्तिकाले कियत्यो दण्डनीतयः प्रावर्तिपन्तेत्यत आह परिहासणा उ पढमा, मंडलियंधो उ होइ पीया उचारगछविछेयाई भरहस्स चउबिहा नीती।मू.भा.३ भरतस्य साखाज्यानुभवनकाले चतुर्विधा दण्डनीतिरभूत् , तद्यथा-प्रथमा स्वल्पापराधविषया परिभाषणा-प्रागुक्तस्वरूपा भगवता आदिनाथेन प्रवर्त्तिता आसीत्, द्वितीया मण्डलिबन्धो-मण्डलिबन्धाख्या आदिनाथेनैव प्रवर्त्तिता, साऽपि किचिन्महापराधविषया, तृतीया चारकलक्षणा भरतेन माणवकनिधि परिभाव्य प्रवर्चिता, सा गुरुतरापराधविषया. चतुर्थी छविच्छेदादिका, आदिशब्दाच्छिर कर्चनादिपरिग्रहा, सा महापराधविषया भरतेनैव माणवकनिधेः प्रवर्तितेति अन्ये तु चतस्रोऽप्येता दण्डनीतयो भरतेनैवोत्पादिता इति व्याचक्षते ॥अथ कोऽसौ भरतः, उच्यते-ऋषभनाथपुत्रः, अर्थ ऋषभनाथ एव कोऽसाविति तद्वक्तव्यतामाह, अथवा प्रतिपादितः कुलकरवंशः, इदानी प्रासूचित इक्ष्वाकुवंसः प्रतिपाद्यते, सच ऋषभनाथप्रभव इति वक्तव्यतामाइ भाभी विणीपमूमी मरदेवी उत्तरा असाहाय। राया य वयरनामो विमाण सबढसिद्धातो ॥१७॥ इयं नियुक्रिगाथा प्रभूतार्थप्रतिपादिका अस्यां च प्रतिपदं कियाध्याहारः कार्यः, सचेत्वं नाभिरिति-नाभिवाम | दीप अनुक्रम E कर मा. २७ ForPivate Permaneumony vavevsanelibrary.com ... अत्र 'ऋषभदेव' अधिकार एवं तस्य पूर्वभवा: वर्णयन्ते । ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [१६७], वि०मा गाथा H], भाष्यं [३...]. मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पोदात- नियुक्तिः प्रत +-SECONOT - दीप अनुक्रम सक्षमः कुलकरो बभूव, विणीयभूमी' इति तस्य विनीताम्मी प्राय मासीत्, मरुदेवी च तस्य भार्या, राजा प्राग्भवेत नीतयः बरनाभः सन् प्रव्रज्यां गृहीत्वा तीर्थकरनामगोत्रं कर्म बढ़ा मृत्वा सर्वार्थसिद्धिमवाप्य ततश्युत्वा तस्या मरुदेव्याः श्रीऋषभकुक्षौ तस्यां विनीतभूमौ ऋषभनाथः सञ्जातः, तस्य गर्भावतारसमये उत्तराषाढा नक्षत्रमासीत् ॥ सम्पति यथा भगवता 51 पूर्वभवाः सम्यक्त्वमवाझं, यावतो वा भवानवाप्तसम्यक्त्वः संसारं पर्यटितवान् , यथा च तेन तीर्थकरनामगोत्रं कर्म बद्धं, तदेव- गा. १७० सर्वमभिषित्सुः प्रथमतो भवद्वारगाधामाह|घण मिहुण सुर महव्यल ललियंग य वारजंघ मिहुणे या सोहम्म विज अनुय चक्कीसवट्ठ उसमे य॥(अन्या.हा.)181 प्रथमभवे धनसार्थवाह आसीत् , द्वितीयभवे उत्तरकुरुषु मिथुनकः तृतीयभवे सौधर्मदेवलोके सुरः चतुर्थभवे गन्धि| लावतीविजये-गन्धारविषये गन्धसमृद्धे महाबलो राजा पञ्चमे भवे ईशानदेवलोके ललिताङ्गनामा देवः षष्ठभवे महा विदेहे वज्रजाः सप्तमभवे भूयोऽप्युत्तरकुरुषु मिथुनका अष्टमभवे सौधर्मदेवलोके देवः नवमभवे विदेहेषु वैद्यः दशमभवे अच्युतदेवलोके देवः एकादशभवे वज्रनाभश्चक्रवती द्वादशभवे सर्वार्थसिद्धिमहाविमाने देवः त्रयोदशभवे ऋषभनामा आदितीर्थकर इति ॥ एतानेव भवान् क्रमेण विवरीपुराहधणसत्यवाह घोसण जहगमणं अडवि वासठाणं च । बहु वोलीणे वासे चिंता घयदाणमासि तया ॥१६॥ ॥१५७॥ प्रथमभवे धननामा सार्थवाह आसीत् , स च वसन्तपुरं प्रति प्रस्थितो घोषणां कृतवान्, तेन सह यतीनां गमनमभूद, अटव्यां च वर्षासु स्थानं, ततो बहुव्युत्क्रान्ते वर्षाकाले धनस्य चिन्ताऽभवत्, ततो घृतदानमासीत् तदेति गाथाक्षरार्थः। CASSAEX Jan E rmahan ... एषा भवद्वार-गाथा हरिभद्रसूरिवृत्ते: न दृश्यते । ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१६८], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक C24 भावार्थः कथानकादवसेयः, तञ्चदम्-तेणं कालेणं तेणं समपणं अवरविदेहे वासे घणो नाम सत्यवाहो होत्था, सो खितिपइद्वियातो नगरातो वाणिजेण वसंतपुरं पट्टितो घोसणं करेइ, जहा-जो मए सद्धिं जाइ तस्साहमुदंतं वहामि, तैजहा-'खाणेण वा पाणेण वा वत्येण वा पत्तेण वा ओसहेण वा भेसज्जेण वा अण्णेण वा जो जेण विणा विसूरइ तेण'ति, |तं च सोऊण बहवे तडियकप्पडियादयो पयट्टा, विभासा जहा नायाधम्मकहासु दाबद्दवनाए, नवरं इहं तेण समं गच्छो | साहूणं संपडितो, को पुण कालो, चरमनिदाघो, सो य सत्यो जाहे अडविमझ संपत्तो ताहे वासारत्तो जातो, वाहे सो सत्यवाहो अतिदुग्गामा पंथत्तिकाऊण तत्थेव सत्थनिवेसं काउं वासावासं ठितो, तमि ठिए सवो सत्यो ठिओ, जाहे या तेसिं तत्थडियाणं भोयणं निट्ठियं ताहे ते कंदमूलफलाणि समुद्दिसिउमारद्धा, साहुणो दुहिआ जाया, जह कहवि अहा-5 दूपबत्ताणि लहंति ताहे गिण्हंति, एवं काले वञ्चति थोवावसेसे वासारत्ते धणस्स चिंता जाया को एत्व सत्ये दुक्ति तोत्ति 2. ताहे सरियं जहा मए समं साहुणो आगया तेसिं कंदाई न कम्पतित्ति ते दुक्खिया महातवस्सिणो, तो तेसिंY कल्लं देमि, ततो पभाए ते निमंतिया, ते भणंति-जं अम्हं कप्पियं होज्जा तं गेण्हेजामो, तेण पुच्छियं-भय । किं पुण तुदर्भ कप्पर !, साहहिं भणियं-जं अम्ह निमित्तमकयमकारियमसंकप्पियमहापवत्तातो पाकातो भिक्खामिन, जइ वा घर्ष |वा गुलं वा एवमाइतं कप्पइ, ततो तेण साडूण फासुयं विउलं घयदाणं दिन्नं, सो य अहाउयं पालित्ता कालमासे कालं किच्चा तेण दाणफळेण उत्तरकुराए मणूसो जातो, ततो आउक्खए सोहम्मे कप्पे देवो उववन्नो, तत्तोऽपि चविऊणं इहेव जंबुद्दीवे अवरविदेहे गंधिलावइविजए वेयपथए गंधारजणवए गंधसमिद्धे विजाहरनगरे अइबलरण्णो णचा, सयबलराइणो दीप अनुक्रम + सम Kaviewsanelibrary.orm ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१६८], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सपोवा- पुत्तो महावलो नाम राया जातो, तस्स दुवे मंती, तंजहा-संभिन्नसोतो सर्यघुद्धो य, संभिन्नसोयो नस्वियवादी सयंबुडो साधुचिनिर्यजिताय सहो, तत्थ सयंबुद्धण अमण सावगेण पियवयंसगेण नाडगपेक्खाअक्खित्तमाणसं संभिन्नमोचं वाए पराजिणिक्षण। कित्सया संयोहितो मासायसेसाऊ बावीसदिवसे भत्तपञ्चक्खाण कार्ड मरिऊण ईसाणे कप्पे सिरिप्पभविमाणे रलियंगतो नाम देवो स्वामिनम् ॥१५॥ जातो, ततो आउक्सए चइऊण इहेब जंबुद्दीवे दीवे पुक्तलाइबिजए लोहग्गलनगरसामी वह जंघो नाम राया जातो, तत्थ सभारियातो पच्छिने वए पछयामिति चिंतयंतो पुत्तेण रजखिणा वासघरे जोगधुवप्पयोगेण भारितो, मरिऊण उत्तर-11 कुराए सभारिचो मिहुणगो जातो, ततो सोहम्मे कप्पे देवो उबाउन्नो, ततो आउक्खए चइऊण महाविदेहवासे खितिपइ-18 हिते नगरे विजपुत्तो आयातो, जदिवसं तु जातो तदिवसमेगाहजाया से इमे चचारि वयंसया अणुरता अविरत्ता तंजहारायपुत्तो सेट्टिपुत्तो अमञ्चपुत्तो सत्यवाहपुत्तोत्ति, ते सह संयहिता सह पंसुकीलिया, धणसत्यवाहजीवोऽवि महाविजो जातो, ते वयंसया अन्नया कयाइ तस्स विजस्स घरे एगतो सहिया संनिसन्ना अच्छंति, तत्थ साहू महपा किमिकुडेण | गहितो भिक्खानिमित्तमइगतो, तेहिं सप्पणयं सहासं सो विजो भण्णइ-तुन्भेहिं नाम सबो लोगो खाइयो, न तुम्भेहिं तवस्सिस्स वा अणाहस्स वा किरिया कायद्या, सो भणइ-करेमि, किं पुण मम ओसहाणि काईवि नस्थि, ते भणति-अम्हे मोल्लं देमो, किं ओसह', जाइजउ, सो भणइ-कंवलरयणं गोसीसचंदणं, तइयं पुण जं सयसहस्सपाग-121॥१५८॥ तेल्लं तं ममवि अस्थि, ताहे मग्गि पवसा, आगमियं च णेहिं जहा अमुगस वाणियगस्स अत्यि दोऽवि एयाणि, वे[8] गया तस्स सगासं दो लक्खाणि घे, ततो वाणियगो ससंभंतो भणति-किं देमि,ते भणंति-कंबलरवर्ण गोसीसचंदणं| । दीप अनुक्रम R + ForFive Persanamory iwsanelibrary.com C ~40~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१६९-१७१], विभा गाथा ], भाष्यं [३...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक च, तेण भण्णा-किं एएहिं कर्ज, ते भणति-साहुस्स किरिया कायबा, तेण भण्णइ-एवं तो अलाहि मम मोलेणं, इहरहा चेव गेहह, करेह साहुणो किरियं, ममवि धम्मो होउत्ति, सो वाणियतो चिंतेइ-जइ बाब एएसिं वालाणं परिमा दासद्धा धम्मस्स उवरि तो किं मम मंदपुण्णस्स इहलोगपडिबद्धस्स नस्थिति संवेगमावतो वहारूवार्ष धेराम अंतिए पाहतो सिद्धो य । अमुमेवार्यमुपसंहरन गाथाचतुष्टयेनाह* उत्सरकुरु सोहम्मे महाविदेहे महब्बलो राया। ईसाणे ललियंगो महाविदेहे वहरजंघो ॥ पु.१॥ उत्तरकुरु सोहम्मे विदेह तेगिच्छियस्स तत्थ सुत्तो। रायसुयसेहिमच्चासत्याहसुया वयंसा से ॥१६९।। वेजसुयस्स य गेहे किमिकुट्टोवहुयं जई दहं । ति य ते विजसुयं करेहि पयस्स तेगिच्छं ॥१७॥ तेल्लं तेगिच्छितो कंबलगं चंदणं च वाणियतो। दाङ अभिनिक्खतो तेणेव भवेण अंतगडो॥ १७१ ॥ धनभवक्षयानन्तरं उत्तरकुरुषु मिथुनको जातः, ततोऽपि मृत्वा सौधर्मदेवलोके देवः, तत आयुक्षये च्युवा महाविदेहे महाबलो राजाऽभवत्, ततोऽपि मृत्वा ईशाने देवलोके ललिताको नाम देवस्ततोऽपि च्युत्वा महाविदेहे वज्रजङ्घः। ततोऽप्युडत्योत्तरकुरुषु मिथुनको जातस्तत आयुक्षिये सौधर्मदेवलोके देवस्वतः च्युत्वा विदेहे चिकित्सकस्य मुनो जातः, तत्र 'से' तस्य राजसुतश्रेष्ठयमात्यसार्थवाहसुता वयस्या अभवन् , तस्य च वैद्यसुतस्य गेहे कृमिकुष्ठोपद्रुतं यति हतार ते वैद्यसुतं वदन्ति-यथा कुरु अस्य चिकित्सामिति, तत्र तैलं चिकित्सकसुतोऽदात्, कम्बलकं चन्दनं च वणिग्दत्वा अभिनिष्क्रान्तो-दीक्षा प्रतिपक्षवान्, नैव च भवेन अन्तकृत-सिद्धो जावः ॥ कथानकोषमुच्यते-ते विसुक्ष दीप अनुक्रम landinu . ForPivate Permaneumony *एषा प्रक्षेपा गाथा वर्तते ~41~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१६९-१७१], विभा गाथा H, भाष्यं [३...J, मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोदात- नियुक्ति भवा: गा. १६९-१ चिकित्सा प्रत ॥१५॥ सत्राक भिइणो सर्व घनण ताणि ओसहाणि गया साहुणो पास जत्थ सो उजाणे पडिम ठितो, पासंति पडिमागवं साहुं, दहणं पडिमाठियं ते वंदिऊण अणुण्णवंति-अणुजाणाह भयवं! अम्हे तुम्हं धम्मविग्धं का नवटिया, ताहे तेल्लेण सो साहू पढम अभिगितो, ते चेय नेलं रोमकूवेहिं सपं अइगयं, तंमि य अइगए किमिया सबे संखुद्धा, तेहिं पलतेहिं तस्स साहुणो अतीव उज्जला विरला वेयणा पाउन्भूया, ताहे ते निग्गए दटूण कंबलरयणेण सो साहू पाउतो, तं सीयलं | तल्लं च उण्डबीरिय, ते किमिया तत्थ लग्गा, ताहे पुवाणियगोकडेवरे पप्फोडियं, ते सधे पडिया, ततो सो साहू चंदणेण लिचो, जातो समासत्यो, एवं तिन्नि बारे अभंगिऊण सो साहू तेहिं नीरोगो कतो, तंजहा-पढम मक्खिजइ, ततो पाउणिज्जा, पच्छा गोसीसचंदण लिंपइ, पुणो मक्खिजइ, एवमेयाए परिवाडीए पढममन्भंगे तयागता किमिया | निग्गया बिइअभंगे मंसगया तईयअभंगे अडिगया, ततो संरोहणीए ओसहीए कणगवन्नो जातो, ततो खमावेऊण ते पडिगया, पच्छा ते सहा जाया, पच्छा समणा, ततो अहाउयं पालइत्ता सामण्णं तमूलागं पंचवि जणा अञ्जुए कप्पे देवा उबवज्ञा । ततो देवलोगातो आउक्खए चइऊण इहेव जंबुद्दीवे दीवे पुषविदेहे पुक्खलावइविजए पुंडरिगिणीए नयरीए वाइरसेणरन्नो धारिणीए देवीए उदरे पढमो वइरनाभो नाम पुत्तो जातो, जो पुषभवे विज्जो आसि, अवसेसा कमेण बाहुसुबाहुपीढमहापीढा, रायसुतो बाहू सेद्विसुतो सुबाहू अमञ्चसुतो पीढो सत्यवाहसुतो महापीढो, वयरसेणो पचइतो तित्थयरो जानो, इयरे संवद्धिया पंचलक्खणे भोगे भुंजंति, जदिवसं वइरसेणस्स केवलनाणमुप्पन्नं तंमि दिवसे वयरनाभस्स चारवर्ष समुप्पन, वयरनाभो चकवट्टी जातो, इयरे चत्वारि मंडलिया रायाणो, एवं सो वयरनाभो दीप अनुक्रम १५९॥ action ~42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१७२-१७३], विभा गाथा ], भाष्यं [३...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत 44 सत्रांक साहुज्यावधप्पमावेच दचे पावडिभोगे मुंजड, वयरनाभचक्वहिस्स चउरासीइ पुषसयसहस्साई सघाउँ, तत्थ तीस पुश्चसयसहस्साई कुमारवासो सोलस पुबसयसहस्साई मंडलिओ चउवीसं पुषसयसहस्साई चकवट्टी चउद्दस पुवसयसहस्साई सामनपरियायो इति, एवं चकवडिभोए भुंजतो विहरइ, इतोय तित्थयरवयरसेणस्स समोसरणं, सो पिउपायमूलं चरहिंवि सहोबरेहि समं पहइतो, तत्थ वइरनाभेण चोद्दस पुवा अहिजिया, सेसावि चउरो एक्कारसंगविऊ जाया, तत्य बाहू तेर्सि बन्नेसिं च साहूणं वेयावच्चं करेइ, जो सुबाहू सो साहुणो विस्सामेइ, एवं ते करेंते भयवं क्यरनाभो अणुव्हइ-अहो सुलद्धं जम्मं सहलीकयं जीवियं साहूण वेयावचं कीरइ, परिस्संते वा साहुणो विस्सामेइ, एवं पसंसिर्जतेसु तेसु तमि पच्छिमाणं दोण्हवि पीढमहापीढाणं अप्पत्तियं भवइ, अम्हे सज्झायंता न पसंसिजामो, जो करेइ सो पसंसिज्जइ सन्चो लोगवहारोत्ति, एवं ताभ्यां गुरुपु मात्सर्यमुद्वहनयां तथाविधतीव्रामर्षवशान्मिथ्यात्वमुपगम्य स्त्रीत्वमुपचितं, स्वल्पोऽपि दोपोनालोचिताप्रतिक्रान्तो महानर्थफलो भवति, महानप्यपराधः आलोचितप्रतिक्रान्तो पाकिश्चित्करो गुणाय वा प्रभवति, तथा चात्र विषदृष्टान्तः, तथाहि-स्वल्पमपि विष मन्त्रादिना अप्रतिहत शक्ति प्राणो-17 ४परमाय प्रभवति, प्रभूतमपि मन्त्रादिना प्रतिहत शक्तिक निदोपं कुष्टाद्यपगमनादिगुणाय वा जायते, एवमिहापीति, बयरनाभेण विसद्धपरिणामणं बीसहि टाणहिं तित्थयरनामगोतं कम्मं बद्धं ।। अमुमेवाथेमुपसंहरन् गाथाचतुष्टयमाह साहुं तिगिच्छिकणं सामन्नं देवलोगगमणं च । पुंडरिगिणिए य चुया ततो सुया वयरसेणस्स ॥१७२॥ | हा पढमोऽत्य वयरनाहो याहु मुवाहू य पीढ महपीदे । तसि पिया तित्थयरो निक्खंता तेवि तत्थेव ॥१७॥ दीप अनुक्रम E and remona wiewsanelibrary.orm ~43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१७४-१७८], विभा गाथा ], भाष्यं [३...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्धात. नियुक्तिः ॥१६॥ प्रत - - - पढमो चउदसपुरी सेसा एक्कारसंगवी चडरो। बीयो वेयावच्चं किइकम्मं सइयो कासी ॥ १४॥ लाभवा:गा. भोगफलं बाहुबलं पसंसणा जेट इयर अचियत्तं । पढमो तित्थयरत्तं वीसहि ठाणेहिं कासीय ॥ १७॥ १७२-५ साधु चिकित्सित्वा श्रामण्यं परिपाल्य पश्चानामपि देवलोकगमनम् , अच्युतकल्ये गमनमिति भावः, ततः ब्युताः। पीठादः पुण्डरीकियां नगर्या वज्रसेनस्य सुता अभवन् , तत्र प्रथमो वैद्यसुतजीवोऽत्र वज्रनाभोऽभूत्, शेषास्तु राजश्रेष्ठ-य-12 स्वी मात्यसार्थवाहसुताः क्रमेण बाहुसुबाहुपीठमहापीठा बभूवुः, तेषां च पिता वनसेननामा तीर्थकरो जाता, तेऽपि वज्रनाभादयः पश्चापि तत्रैव तीर्थकरस्य पितुः समीपे निष्क्रान्ताः, तत्र प्रथमो वज्रनाभनामा चतुर्दशपूर्वी जातः, शेषाश्चत्वारोऽप्येकादशाङ्गविदः, तेषां पञ्चानां मध्ये द्वितीयो बाहुनामा वैयावृत्त्य-भक्तपानादिनोपष्टन्भलक्षणं भोगफलं चक्रवर्तिभोगफलमकार्षीत् , तृतीयः सुबाहुनामा कृतिकर्म-साधुविश्रामणारूपं बहुफळं बाहुवलमकार्षीत् , ततस्तयोहिसुबाहोज्येष्ठयोर्वज्रनाभेन प्रशंसनम्, इतरयोः कनिष्ठयोः पीठमहापीठयोरचियत्-गुरुषु प्रशंसां कुर्वत्सु मात्सर्य, तत्र प्रथमो वज्रनाभनामा तीर्थकरत्वं विंशत्या स्थानैरकार्षीत् ॥ कानि पुनस्तानि विंशतिस्थानानीति तत्प्रतिपादकं| गाथात्रयमाह अरहंतसिद्धपवयणगुरुयेरबहुस्सुएतवस्सीसुं। वच्छल्लया य एसिं अमिक्खनाणोषयोगे य॥ १७६ ॥ दसणविणए आवस्सए य सीलबए निरइयारो। खणलवतवचियाए वेयावचे समाही य॥ १७ ॥ ॥१६॥ अपुषनाणगहणे सुपमती पवयणे पहावणया। एएहिं कारणेहिं तित्यपरसंहार जीवो ॥१८॥ दीप अनुक्रम JanEducatonireema ForPivate Permaneumony ... भगवन्त 'ऋषभस्य पूर्वभवे तीर्थकरनामकर्म उपार्जनं एवं विंशतिस्थानक्स्य वर्णनं ~44~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education Inter “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ १७४-१७८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [३] मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अत्र प्रथमगाथया अष्टौं कारणान्युक्तानि द्वितीयगाथया नव तृतीयगाथया त्रीणि, तत्र प्रथमगाथान्याख्या - अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यादिरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः - तीर्थकराः १ अपगतसकलकर्माशाः परमसुखिन एकान्तकृतकृत्याः सिद्धाः २ प्रवचनं - द्वादशाङ्गं तदुपयोगानन्यत्वात् सङ्घो वा प्रवचनं ३ गृणन्ति यथावस्थितं शास्त्रार्थमिति गुरवो - धर्मोपदेशादिदातारः ४ स्थविरा जातिश्रुतपर्यायभेदभिन्नाः, तत्र जातिस्थविरा: षष्टिवर्षप्रमाणाः श्रुतस्थविराः समवायधराः पर्यायस्थविरा विंशतिवर्षत्रतपर्यायाः ५ बहु श्रुतं येषां ते बहुश्रुताः, तच्च बहुश्रुतमापेक्षिकं प्रतिपत्तव्यं श्रुतं च त्रिधासूत्रतोऽर्थत उभयतश्च तत्र सूत्रधरेभ्योऽर्थधराः प्रधानास्तेभ्योऽप्युभयधराः प्रधाना इति ६ तथा विचित्रमनशनादिभेदभिन्नं तपो विद्यते येषां ते तपस्विनः - सामान्यसाधवः, अर्हन्तश्च सिद्धाश्च प्रवचनं च गुरवश्च स्थविराश्च बहुश्रुताश्च तपस्विनश्च अर्हत्सिद्धप्रवचनगुरुस्थविरबहुश्रुततपस्विनः सूत्रे 'बहुरमुए' इत्यत्र एकारः प्राकृतत्वादलाक्षणिकस्तेषु, 'एसिं'ति प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे षष्ठी, भवति च प्राकृतत्वाद्विभक्तिव्यत्ययो, यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे- “व्यत्ययो ऽप्यासा" मिति, एतेषु सप्तसु स्थानेषु वत्सलभावो वत्सलता - अनुरागः यथावस्थितगुणोत्कीर्त्तनं तदनुरूपोपचारलक्षणः तीर्थकर नामकर्म्मबन्धकारणमिति योगः, तथा अभीक्ष्णम्-अनवरतं ज्ञानोपयोगो-ज्ञाने व्याप्रियमाणता, इदमष्टमं कारणं । द्वितीयगाथा व्याख्या- 'दंसणे'त्यादि, दर्शनं सम्यक्त्वं विनयो- ज्ञानादिविनयः, स च दशवैकालिकनिर्युकेरवसेयो वक्ष्यमाणो वा, दर्शनं च विनयश्च दर्शनविनयं समाहारो द्वन्द्वः तस्मिन् ९-१० आवश्यक - अवश्यकर्त्तव्यं प्रतिक्रमणादि तस्मिन् ११ शीखानि च शतानि च शीतं अत्रापि समाहारद्वन्द्रः तस्मिन् वत्र व्रतानि मूलगुणाः शीलानि - उत्तर For Pavoce & Personal Use Oy ~45~ janelibrary.org Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ १६१ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ १७४-१७८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [३] मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः गा. १७६१७८ गुणाः, एतेषु निरतिचारः सन् तीर्थकरनामकर्म बनातीति क्रियायोगः १२-१३ एतावता पश्च कारणान्युक्तानि तथा विंशतिः क्षणलवे १४ तपसि १५ त्यागे १६ वैयावृत्त्ये १७ च समाधिस्तीर्थकरनामकर्मबन्धकारणं, तत्र क्षणलवग्रहणमशेषकाल- ४ स्थानकानि विशेषोपलक्षणं, क्षणलवादिषु कालविशेषेषु निरन्तरं संवेगभावनातो ध्यानासेवनतश्च समाधिः क्षणलवसमाधिः, तथा तपसि बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्ने यथाशक्ति निरन्तरं प्रवृत्तिः तपः समाधिः, त्यागो द्विधा द्रव्यत्यागो भावत्यागश्च, द्रव्यत्यागो नाम आहारोपधिशय्यादीनामप्रायोग्याणां परित्यागः, प्रायोग्याणां यतिजनेभ्यो दानं, भावत्यागः क्रोधादीनां | विवेको ज्ञानादीनां यतिजनेभ्यो वितरणं, एतस्मिन् द्विविधेऽपि त्यागे सूत्रानतिक्रमेण यथाशक्ति निरन्तरं प्रवृत्तिस्त्यागसमाधिः, वैयावृत्त्यं दशविधं तद्यथा-- आचार्यवैयावृत्त्यं १ उपाध्यायवैयावृत्त्यं २ स्थविरवैयावृत्त्यं ३ तपस्विवैयावृत्त्यं ४ ग्लानवैयावृत्त्यं ५ शैक्षकवैयावृत्त्यं ६ साधर्मिकवैयावृत्त्यं ७ कुलवैयावृत्त्यं ८ गणवैयावृत्त्यं ९ सङ्घवैयावृत्त्यं चेति १०, एकैकं त्रयोदशविधं तद्यथा— भक्तदानं १ पानदानं २ आसनप्रदानं ३ उपकरणप्रत्युपेक्षा ४ पादप्रमार्जनं ५ वस्त्रदानं ६ भैषजदानं ७ अध्वनि साहाय्यं ८ दुष्टस्तेनादिभ्यो रक्षणं ९ वसतौ प्रविशतां दण्डकग्रहणं १० कायिकामात्र कसमदर्पणं ११ संज्ञामात्रक समर्पणं १२ श्लेष्ममात्रक समर्पण १३ मिति एतेषु वैयावृत्त्यभेदेषु यथाशक्ति निरन्तरं प्रवृत्तिर्वैयावृत्त्य समाधिः । तृतीयगाथान्याख्या- 'अप्पुचे' त्यादि, अपूर्वस्य ज्ञानस्य निरन्तरं ग्रहणमपूर्वग्रहणं १८ अष्टादशं तीर्थ- ४ ॥ १६१ ॥ करनामकर्मबन्धकारणम्, एकोनविंशतितमं श्रुतभक्तिः - श्रुतविषयं बहुमानं १९ विंशतितमें प्रवचनप्रभावना, सा च यथाशक्ति प्रवचनाथपदेशदानादिरूपा २० । एभिरनन्तरोकैः कारणैस्तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥ For Peace & Personal Use Ony ~46~ wanlibrary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [९७९-१८०], विभा गाथा ], भाष्यं [३...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: % प्रत सत्राक दीप अनुक्रम पुरिमेण पच्छिमेण य एए सोवि फासिया ठाणा । मजिझमएहिं जिणेहिं एक दो तिमि सवे वा ॥१७९॥ पूर्वेण ऋषभनाथेन पश्चिमेन प-वर्द्धमानस्वामिना प्राग्भवे एतानि अनन्तरोकानि स्थानानि सर्वाण्यपि स्पृष्टानिआसेवितानि, मध्यमैर्जिनैः-अजिप्तस्वामिप्रभृतिभिरेकं हे त्रीणि सर्वाणि वा स्पृष्टानि, किमुक्त भवति !-केनाप्येक केनापि द्वे केनापि त्रीणि केनापि सर्वाण्यपीति ॥ आहतंच कहं वेइबाइ ! अगिलाए घम्मदेसणाईहिं । वज्झइ तं तु भयवतो, तइयभवोसकइत्ताणं ॥१८॥ पशब्दः पुनरथें, तत्पुन:-तीर्थकरनामकर्म विपाकावस्थाप्राप्तं कथं वेद्यते !, एवं शिष्येण प्रश्ने कृते सति सूरिराह-अग्लान्या-लानिपरिहारेण धर्मदेशनादिभिः-अष्टमहापातिहार्यादिरूपे सुरेन्द्रकृते पूजोपचारे सति सदेवमनुजासुरायां पर्षदि धर्मदेशनया-श्रुतचारित्ररूपधर्मप्ररूपणया, आदिशब्दाचतुस्त्रिंशता देहसौगन्ध्यादिभिरतिशयैः। पञ्चत्रिंशता बुद्धवचनातिशेषरित्यादिपरिग्रहः, तत्तु-तीर्थकरनामकर्म भगवतस्तीर्थकरभवात् प्राक् अवष्यष्क्य-पृछतो गत्वा तृतीयभवं प्राप्य बध्यते-बन्धमायाति ॥ आह-तीर्थकरनामकर्मणो जघन्यत उत्कर्षतश्च बन्धस्थितिरन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा, ततः कथमुक्त तीर्थकरभवात्प्राक् अवप्वष्क्य तृतीयभवे वध्यते इति !, नैष दोषः, वध्यते इति किमुकं भवति 1, निकाचितावस्थीक्रियते, द्विविधो हि बन्धो-निकाचनारूपोऽनिकाचनारूपञ्च, तत्रानिकाचनारू|पस्तृतीयभवात् प्राक्तरामपि भवति, जघन्यतोऽप्यन्तःसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकत्वात् , निकाचनारूपस्तु तीर्थकरभवात् माक् तृतीयभव एवाधिकृतवचनप्रामाण्यात, तत्र निकाचितमवन्ध्यफलमितरत्तूभयथापि, 'बन्धा(यद्वा)मोसक ष्टमा and remona wwvieosanelibrary.orm ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८१], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोदात-15 इचाणं ति संसारं पदिवा प्राक् बद्धो सुदीर्घा तीर्थकरनामकर्मणः स्थितिमवष्वक्य-अपवर्त्य, किमुक्तं भवति !-1| जिनकर्मनियुक्तिः तीर्थकरभवात् प्राक् यावत्तृतीयो भवस्तावत्प्रमाणां कृत्वेति, तीर्थकरभवात् प्राक् तृतीयभवे निकाच्यते इति, उक्तं च बन्धः फलं विशेषणवत्याम्-'कोडाकोडी अयरोवमाण तित्थयरनामकम्मठिई । वज्झइ यतं अणंतरभवमि तइयंमि निदिई ॥१॥ च गा. ॥१६२॥ तं ठिइमोसके तइयभवो जाव अहव संसारं । तित्थयरभवातो वा ओसकेनुं भवे तइए ॥२:: बज्झइत्ति भणियंदार तत्थ निकाइजइत्ति नियमोऽयं । तदवंझफलं नियमा भयणा अनिकाइयावत्थे ॥३॥" निकाचनारूपश्च बन्धः तृतीयभवादारभ्य तावद्यावतीर्थकरभवेऽपूर्वकरणस्य सङ्ख्येयभागाः, तत ऊर्ध्वं बन्धव्यवच्छेदः, केवलिकाले तु तस्योदय इति ॥ अथ कस्यां गतौ वध्यते इत्याहनियमा मणुयगईए इत्थी पुरिसेयरो व सुहलेसो । आसेवियबहलेहिं वीसाए अन्नयरएहि ॥ १८१ ॥ नियमात्-नियमेन मनुष्यगतौ बध्यते-निकाचनरूपो बन्धः प्रारभ्यते, किंस्वरूपायां गतौ वनातीत्यत आहस्त्री पुरुष इतरो वा-नपुंसकः, किं सर्व एव!, नेत्याह-शुभा लेश्या यस्यासौ शुभलेश्या, कैः कृत्वेत्यत आह-विशतेरन्यतः स्थान, कथम्भूतैरित्याह-'आसेवितबहुलैः, बहुलम्-अनेकप्रकारमासेवितरित्यर्थः, पूर्वापरपदनिपातव्यत्ययः प्राकृतशैलीवशात् ॥ कथानकशेषमुच्यते--एवं तेण वयरनामेण तित्थगरत्तं निबद्धं, बाहुणा वेयावच्चेण भोगा निव-18 त्तिया, सुबाहुणा बाहुबलं, इयरेहिं दोहिवि इत्थीनामगोयं कम्म, ततो पंचवि अहाज्यं पालइचा कालं काऊण सब?सिद्धिमहाविमाणे तेत्तीससागरोवमहिइया देवा उपवण्णा, सत्यवि अहाउयं पालइत्ता पढमं ववरनाभो चाइऊण इमीसे दीप अनुक्रम ॥१६२॥ Jan Edin ForFive Persanamory ~48-~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [९८२-१८३], विभा गाथा ], भाष्यं [३...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक दिउस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए वइकताए सुसमाएवि वाइफताए सुसमदुसमाएवि तइयाए बहुवइकंताए चउरासीएं पुबसय सहस्सेसु एगणनईए थ पक्खेसु सेसेसु आसाढे बहुलचउत्थीए उत्तरासादाजोगजुत्ते मियंके इक्खागभूमीए नाभिस्स S|| कुलगरस्स मरुदेवाए भारियाए कुञ्छिसि गम्भत्ताए उवयन्ने, सा उसहगयसीहमाईए चोइस सुमिणे पासित्ता पडिबुद्धा, हनाभिस्स कुलगरस्स कहियं, तेण भणियं-तुम्भ पुत्तो महाकुलगरो भविस्सइ, सक्कस्स य आसणं चलिअं, सिग्घं आग मण, भणइ-देवाणुप्पिए ! तव पुत्तो सयलमंगलालओ पढमराया पढमधम्मचक्वट्टी भविस्सइ, केई भष्णति-बत्ती४|| संपि इंदा आगंतूण वागरेंति, ततो मरुदेवी हहतुट्ठा गम्भं वहइ । अमुमेवार्थमुपसंहरनाह उववातो सबढे सन्वेसिं पढमतो चुतो उसभो। रिक्खेण असाढाहिं असाढबहुले चउत्थीए ॥ १८२॥ उपपातः सर्वेषां-वज्रनाभप्रभृतीनां सर्वार्थमहाविमाने, आयुष्कपरिक्षये सति प्रधर्म च्युत ऋषभः ऋक्षेण-नक्षत्रेण आषाढाभिः, उत्तराषाढारूपे नक्षत्रे चन्द्रेण सह योगमुपागते इत्यर्थः, आषाढबहुले चतुर्थ्याम्, आषाढप्रथमपक्षचतुर्थ्यामित्यर्थः ॥ सम्प्रति तद्वतव्यतामभिधित्सुरिगाथामाह जम्मणे नाम वुड्डी य, जाईस्सरणे इय । वीवाहे य अवचे, अभिसेए रजसंगहे ॥१८३॥ 'जम्मणे' इति प्रथम जम्मविधिर्वक्तव्यः, यथा 'चेत्तबहुलट्ठमी' इत्यादि, तदनन्तरं नामविषयः, ततो भगवतो वृद्धिर्वाच्या, 'अह वहा सो भयवमित्यादि, ततो जातिस्मरणे-जातिस्मरणविषयो विधिर्वाच्या, 'जाइस्सरो उ भयव'मिमा.सू. २८ [त्यादि, तदनन्तरं विवाहविषयो विधिर्वक्तव्यः, 'भोगसमत्थं नामित्यादि, 'अवचे' इति अपत्येषु क्रमो वाच्यः, वक्ष्यति 9AURBERACT C दीप अनुक्रम H RI-सब-च ForFive Persanamory T imsanelionary.ero ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत पोदास-द'तो भरहर्षभिमुंदरिबापली 'त्यादि, ततोऽभिपेके-राज्यामिपेकविषयो विधिर्वाच्यः, 'रजसंगहे' इति राज्यसतह- श्रीपभ नियुक्तिःविषयो विधिर्वक्तव्या, तथा च वक्ष्यति-'आसा हत्थी गायो' इत्यादि । एष द्वारगाधासमासार्थः, अवयवार्थ तु प्रतिद्वारंट जम्माधि15 यथावसरं वस्यामः, तत्र प्रथमद्वारावयवार्थमभिधित्सुराह कार: ॥१६॥ चेत्तपहलढमीए जातो उसभो असाहनक्खत्ते । जम्मणमहो य सबो नेयो जाव घोसणयं ॥ १८४ ॥ चैत्रमासस्य बहुलपक्षे अष्टम्यामाषाढनक्षत्रे-उत्तराषाढानक्षत्रे ऋषभस्वामी भगवान् जातः, तस्य च भगवत आदितीर्थ४ करस्य जन्ममहः सर्वोऽपि तावत् नेतव्या-शिष्यबुद्धिं पापणीयो यावद् घोषणकमिति ।। जन्ममहश्च यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञ स्यादिषु साक्षात् सूत्रतोऽभिहितस्तथा विनेयजनानुग्रहायेहापि दश्यते-सामरुदेवी नवसु मासेसु बहुपडिपुण्णेसु अट्ठमेसु राइदिएसु बहुवइकतेसु अहरत्तकालसमयंसि चेत्तबहुलहमीए उत्तरासाढाजोगजुत्ते मियंके आरोया आरोयं दारयं पसूया, जायमाणेसु य तित्थयरेसु सबेसुवि सबलोए उज्जोतो भवति, तित्थयरमायरो य पच्छन्नगम्भातो भवंति, जररुहिरकलमलाणि य न हवन्ति, ततो जाते तिलोगनाथे तेणं कालेणं तेणं समएणं अहोलोगवत्थबातो अह दिसाकुमारीमहत्तरिगातो सएहिं सरहिं कूडेहिं सएहिं सएहिं भवणेहिं सएहिं सएहिं पासायवडिसएहिं पत्तेयं पत्तेयं चरहिं सामाणीयसाहस्सीहिं चरहिं महत्तरियाहिं सपरिवाराहि अणियाहिवईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिं बहूहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं IPL॥१६॥ देवीहि य सद्धिं संपरिबुडातो महयाहयनडगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई ol मुंजमाणीतो विहरन्ति, दिक्कुमारिका नाम दिकुमारभवनपतिविशेषजातीया देव्यः, सपहिं सरहिं कूडेहिं इत्यादौ तृतीया दीप अनुक्रम 6465 Jan E XH iewsanelibrary.orm ... अथ भगवन्त "ऋषभस्य जन्माधिकारः वर्णयते, छप्पन दिक्कुमारी आगमन एवं जन्म महोत्सव-करणं ~50 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वात्, ततोऽयमर्थ:-स्वकीयेषु स्वकीयेषु कूटेषु स्वकीयेषुरभवनेषु स्वकीयेषु २ प्रासादावतंसकेषु, मासादापावतंसका नाम प्रासादविशेषाः, 'सामाणियसाहस्सीहिं' इति समाने विभवादी भवा सामानिकाः, अध्यात्मादित्वादिकण्: दिकुमारिकामहत्तरिकाः सदृशद्युतिविभवादिका देव्य इत्यर्थः तेषां सहस्राणि सामानिकसहस्राणि तैश्चतुर्भिः, प्राकृतत्वाच सूत्रे दीर्घत्वं खीत्वं च, 'चउहि महत्तरियाहिं'ति महत्तरिका नाम दिकुमारिकातुल्यविभवा दिक्कुमारिकाणामनतिक्रमणीयवचना, 'महयाहये'त्यादि महता रवेणेति योगः, 'आय'ति आख्यानकप्रतिवद्धानीति वृद्धाः अथवा अहतानि-अक्षतानि अव्याहतानि इति भावः नाव्यगीते प्रतीते वादितानि च तानि तन्त्री-वीणा तला-हस्ततलास्ताला:-कंसिकानुटितानि-शेषतर्याणि वादिततन्त्रीतलतालत्रुटितानि घनो घनवत् गम्भीरध्वनियों मृदङ्गो-माईला पटुना-दक्षपुरुषेण प्रवादितस्ततः एतेषां पदानां द्वन्द्वस्तेषां यो रवस्तेन दिव्यान्-अतिप्रधानान् भोगाहाँ ये भोगाः- शब्दादयस्ते भोगभोगास्तान, सूत्रे नपुंसकतानिर्देशाप्राकृतत्वात् , मुञ्जाना विहरन्ति-आसते, तंजहा-"भोगङ्करा १ भोगवती २, सुभोगा ३ भोगमालिनी । तोयधारा ५ विचित्ता य ६, पुष्फमाला ७ अप्रिंदिया ८॥१॥ तते णं तासि अहोलोगवत्थवाणं अहण्हं दिसाकुमारिमयहरिगाणं पत्तेयं पचेयं आसणाणि चलंति, तते णं ताओ अहोलोगवत्थबातो अढ दिसाकुमारिमयहरियातो पत्तेयं पत्तेयं आसणाई पलियाई पासति पासित्ता ओहिं पउंति, भगवं तिरथयरं ओहिणा आभोएंति, आभोएत्ता हतुडचित्तमाणंदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया वियसियवरकमलनयणा पयलियवरकड़गतुडियकेजरमउदकुंडलद्दारविरायंतरइयवच्छा पालंबपळंबमाणघोळंतभूसणधरा ससंभमं तुरियं चवलं सीहासणातो अन्भुटुंति २ पायपीढातो पञ्चोरहंति है दीप अनुक्रम wiewsaneliterary.cre ~51 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत --% -- 95% -% 2 उपोद्घात- पच्चोरुहिता अंजलिमलियग्गहत्था तित्थगराभिमुहं सत्तटु पयाई अणुगच्छंति अणुगच्छित्ता एवं जहा सक्के जाव वंदित्ता दिकुमारीनियुक्तिःनमंसित्ता अन्नमन्नं सद्दावेति सद्दावेता एवं वयासी-जुप्पण्णे खलु भो जंबुद्दीवे भयवं! तित्थयरे तं जीयमेयं तीयपचु-हा महोत्सवः प्पन्नमणागयाणं अहोलोगवस्यवाणं अहण्हं दिसाकुमारिमयहरियाणं जम्मणमहिमं करेंतए, तं गच्छामो णं अम्हेवि । ॥१६४॥ भगवतो जम्मणमहिमं करेमोत्तिकट्ठ एवं वयंति वइत्ता पत्तेयं २ आभियोगे देवे सदाति, सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभसयसंनिविट्ठ लीलट्ठियसालिभंजियागं ईहामिगढसभतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं खंभुग्गयवरवइरपेइआपरिगयाभिरामं विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्तपिच अच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणे भिम्भिसमाणं चवखुल्लोयणसं सुहफासं सस्सिरीयरूवं घंटावलिचलियमहुरमणहरसरं सुभं कंत दरिसणिज्ज निपुणोचियमिसमिसंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खितं जोयणविच्छिन्नं दियं जाणविमाणं 8 विजयह विउवित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं ते आभिओगा देवा अणेगखंभसयसंनिविट्ठ जाव पञ्चप्पिणंति, तए णं ताओ अहोलोगवत्थवाओ अट्ट दिसाकुमारिमयहरियातो हतुट्ठा जाव हयहियया पत्तेयं पत्तेयं चाहिं सामाणियसाहस्सीहिं चरहिं मयहरियाहिं जाव अण्णेहिं बहूहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडातो ते दिवे जाणविमाणे दुरुहंति, दुरुहित्ता सबड्डीए सबजुईए सबवलेणं सबसमुदएणं सपायरेणं सबविभूईए सबविभूसाए सबसंभमेणं सबदिवतुडियसद्दनिनाएण ॥१६॥ |मस्याहयनहगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुयंगपडुप्पवाइयरवेणं साए उक्किठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्याए| जवणाए उद्धृयाए दिवाए देवगतीए जेणेव भगवतो तित्थयरस्स जम्भणभवणे तेणेव उवागच्छति, उवागरिछत्ता भगवतो 8 दीप अनुक्रम % + का JanEentaries ForFive Persanamory wwsanelibrary.com ~52~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक तित्थयरस्त जम्मणभवर्ण तेहिं दिवेहि जाणविमाणेहिं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, करेत्ता उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे ईसिं चउरंगुलमसंपत्ते धरणितले ते दिवे जाणविमाणे ठाविंति, ठावित्ता पचेयं पत्तेयं चाहिं सामाणियसाहदस्सीहिं जाव सद्धिं संपरिबुडातो दिवहितो जाणविमाणेहितोपचोरुहंति, पचोरुहिता जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छंति २ तित्थयरं तित्थयरमाय च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंति करेत्ता पत्तेयं पत्तेयं करयलपरि-14 ग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-नमोऽत्थु ते रयणकुच्छिधारिए ! जगपदीवदायए चक्षुणो य मुत्तस्स सबजगजीववच्छलस्स हियकरगमग्गदेसियवागद्धिविभुप्पभुस्स जिणस्त नाणिस्स नायगस्स बुद्धरस वोहगस्स सबलोगनाहस्स सबजगमंगलस्स निम्ममस्स पवरकुलसमुभवस्त जाइखत्तियस्त जंसि लोगुत्तमस्स जणणी धन्नाऽसि पुण्णाऽसि तं कयत्थे !, अम्हे णं देवाणुप्पिये ! अहोलोगवत्ययातो अट्ट दिसाकुमारिमयरिंगातो भगवतो तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करेस्सामो, तं तुम्भेहिं न भाइयवंतिका उत्तरपुरच्छिम दिसीभार्ग अवकमंति अवकमित्ता वेधियसमु. पाएणं समोहणंति समोहणित्ता संखिजाई जोयणाई दंड निसिरंति. तंजहारयणाणं १ वयराणं २ वेरुलियाणं ३ ४ालोहियक्खाणं ४ मसारगलाणं ५ हंसगम्भाणं ६ पुलगाणं ७ सोगंधियाणं ८ जोहरसाणं ९ अंजणाणं १० अंजणपुल-1 है दगाणं ११ रयणाणं १२ जायसवाणं १३ अंकाणं १४ फलिहाणं १५ रिद्वाणं १६ अहाबायरे पोग्गले परिसाडिति अहाबा-11 नयरे २ अहामु हुमे पोग्गले परियायेंति परियाइत्ता दोच्चपि वेबियसमुग्घाएणं समोहणंति समोहणित्ता संवगवाए विति, से जहानामए कम्मगरदारए सिया तरु झुगवं वलवं अप्पायके थिरसंघयणे घिरगहत्य पडिपुण्णपाणिपाए पिटुतरोरुम-18 दीप अनुक्रम Jan wsanelionary.org ~53. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोद्घात-18 घायपरिणए घणनिचियवहवलियखंधे लंपणवग्गणजवणवायामसमत्थे उरस्सवलसमण्णागए तलजमलजुगलपरिघनिभ- दिकुमारीनियुक्तिः बाहू छेदे दक्खे कुमले मेहावी निउणसिप्पोवगए एग महं दंडसंपुच्छणि वा सिलागाहत्थर्ग वा वेणुसलाइयं वा गहाय महोत्सवः रायंगणं वा रायंतेउरं वा आराम वा देउलं वा सभं वा पर्व वा अतुरियमचवलमसंभंतं निरंतरं सुनिउणं सबतो। ॥१६५|| समंता संमनेजा, एवमेताओवि अहोलोगवत्थबातो अट्ट दिसाकुमारिमयहरिगातो संवट्टवाए विउति, विउवित्ता तेणं| सिवेणं मजएणं मारुएणं अणुद्धिएणं भूमितलविमलकरणेणं सबोउयसुरभिकुसुमगंधाणुवासिएणं पिंडिमनीहारिमगंधुद्धरेणं | तिरिय पवाइएणं भगवतो तित्थगरस्स जम्मणट्ठाणस्स सबतो समंता जोयणपरिमंडलं जं किंचि तणं वा पत्तं वा कई वा कअवरं वा असुइमचोक्खं पूई दुन्भिगंधं तं सर्व आहुणिय आहुणिय एगंते एडति, एडित्ता जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भगवतो तित्थयरस्स तित्थगरमायाए य अदूरसामंते आगायमाणीतो चिटुंति, अत्र विषमपदव्याख्या-ओहिं पति अवधिं प्रयुञ्जते-व्यापारयन्ति, आभोगयन्ति-परिभावयन्तीति भावः, हतुद्दचित्तमाणदिया' इति हटतुष्टा-अतीवतुष्टा, अथवा इष्टा नाम विस्मयमापन्ना यथा अहो भगवान् आदितीर्थकरः । * समुत्पन्न इति तुष्टाः-तोपं कृतवत्यः, यथा भव्यमभूत् यदादिनाथो जात इति,तोषवशादेव चित्तमानन्दितं-स्फीतीभूतं । 'टुनदि समृद्धा'विति वचनात् यासां ताःचित्तानन्दिताः सुखादिदर्शनात् निष्ठान्तस्य पाक्षिकः परनिपातः मकारःप्राकृत- ॥१६॥ वादलाक्षणिका, ततः पदत्रयस्य, पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्मधारयः, 'पीइमणा' इति प्रीतिर्मनसि भगवद्विषया यास ताः प्रीतिमनसः, भगवति बहुमानपरायणमानसा इति, एतदेव व्यक्तीकरोति-'परमसोमणस्सिया' इति शोभनं मनो येषां ते ASSACRICK दीप अनुक्रम 60-6-9 anelibrary.com ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१८४ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ ३...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education International सुमनसस्तेषां भावस्सौमनस्यं परमं च तत् सौमनस्यं च परमसौमनस्यं तत्सञ्जातं यासां ताः परमसोमनस्थिताः, एतदेव व्यक्ती करोति- 'हरिसव सविसप्पमाणहियया' हर्षवशेन विसद् - विस्तारयायि हृदयं यासां ता हर्षवशविसहृदयाः, | हर्षवशादेव च विकसिते वरकमलवन्नयने यासां ता विकसितवरकम उनयनाः, हर्षवाच्छरीरोद्धर्षे 'पयलियवर कडगतुडि| यकेयूरमउडकुंडले 'ति प्रचलितानि वराणि कटकानि-कलाचिकाभरणानि त्रुटितानि - वाहुरक्षिकाः केयूराणि-वाह्नाभरणविशेषरूपाणि मुकुटाः- शिरोभूषणानि कुण्डलानि - कर्णाभरणानि यासां ताः प्रचलितवर कटक त्रुटितकेयूरमुकुटकुण्डलाः, तथा हारेण विराजमानमत एव रतिदं वक्षो यासां ता द्वारविराजमानरतिदवक्षसः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथा | प्रलम्बते इति प्रलम्बः- आभरणविशेषः तं प्रलम्बमानं घोलन्ति भूषणानि च घरन्तीति प्रलम्बमानप्रलम्बघोलद्भूषणधराः, प्रलम्बमानपदस्य विशेष्यात् परनिपातः प्राकृतत्वाद्, हर्षवशादेव 'ससम्भ्रमं' सम्भ्रमः इह विवक्षितक्रियायामादर बहुमानपूर्विका प्रवृत्तिः सह सम्भ्रमो यस्याभ्युत्थानस्य तत्ससम्भ्रमं क्रियाविशेषणमेतत् त्वरितं शीघ्रं चपलं-सम्भ्रमवशादेव यथा व्याकुलं भवति, एवं च सिंहासनादभ्युत्तिष्ठन्ति, 'अञ्जलियम उलियहत्था' इति अञ्जल्या -अञ्जलिरूपतया मुकु|लितौ हस्तौ यासां तास्तथा, 'एवं जहा सके' इति एवं यथा शक्रे वक्ष्यमाणं तथाऽत्र वेदितव्यम्, 'अणेगखंभसय संनिविट्ठ’| मिति अनेकेषु स्तम्भशतेषु निविष्टमने कस्तम्भ शतनिविष्टं 'लीलट्ठियसालभंजियाग' मिति लीलया स्थिताः लीलास्थिताः शालभञ्जिकाः पुत्तलिका यत्र तत्तथा, 'ईहामिये' त्यादि ईहामृगा - वृका व्यालाः- श्वापदभुजगा ईहामृगऋषभतुरगनरम करविहगव्यालकि शररुरुसर भचमरकुंजरवनलतापझलतानां भक्त्या विच्छित्त्या चित्रम् - आलेखो यत्र तत्तथा, तथा स्तम्भोग For Peace & Personal Use Ony ~55~ www.sanlibrary.on Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोद्घात-पातया-स्तम्भोपरिवर्तिन्या वरवज्ररत्नमय्या वेदिकया परिगतं सत् यदभिरामं स्तम्भोद्गतवरवज्रवेदिकापरिगताभिरामं, तथा| दिकमारीनियुक्तिःविद्यां धरन्तीति विद्याधरा:-विशिष्ट विद्याशक्तिमन्तस्तेषां यमलयुगलानि-समानशीलानि द्वन्द्वानि तेषां यन्त्राणि-प्रपश्च-|महोत्सवः विशेषाः अञ्चिषां-मणिरलप्रभाज्यालानां सहस्रर्मालनीयं-परिवारणीय, किमुक्तं भवति !-एवं नाम अत्यद्भुतर्मणिरत्नप्रभाजालराकलितमवभाति यथा नूनमिदं न स्वाभाविक किन्तु विशिष्टविद्याशक्तिमत्पुरुषप्रपञ्चप्रभावितमिति, तथा रूपकसहस्रकलितं, तथा 'भिसमाणं' दीप्यमानं 'भिसंतं दिप्यंत मितिवचनात् , 'भिन्भिसमाणम्'असकृत् देदीप्यमानं 'चक्खुल्लोयणलेसं'ति चक्षुः कर्तृ लोकने-अवलोकने लिसतीव दर्शनीयत्वातिशयभावात् यत्ततथा शुभस्पर्श, सश्रीकं रूपम्-आकारो यत्र तत्सश्रीकरूपं, तथा घण्टावले:-घण्टापतेः वातवशेन चलितायाः-कम्पितायाः मधुरः-श्रोत्रप्रियो मनोहरो-मनोनिवृत्तिकरः स्वरो यत्र तद् घण्टावलिचलितमधुरमनोहरस्वरं, शुभं यथोदितवास्तुलक्षणोपेतत्वात् , कान्तं कमनीयमत एव दर्शनीयं, 'निउणोवियमिसमिसंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्त'मिति निपुणमिति-निपुणक्रियमोवियत्ति-खचितानि मिसमिसंतत्ति-देदीप्यमानानि मणिरत्नानि यत्र घण्टिकाजाले तत्तथा तेन इत्यंभूतेन घण्टिकाजालेनक्षुद्रघण्टिकासमूहेन परि सामरत्येन क्षिप्तं यत्तत्तथा, 'सबड्डीए' इत्यादि सर्वा-परिवारादिकया सर्वद्युत्या-यथाशक्ति |विस्फारितेन शरीराभरणतेजसा सर्वबलेन-समस्तानीकेन सर्वसमुदायेन-स्वस्वाभियोग्यादिसमस्तपरिवारेण सर्वांदरेण ॥१६६॥ समस्तेन यावच्छक्तितो बलेन सर्वविभूत्या-सर्वसम्पदा सर्वविभूषया-यावच्छक्ति स्कारोदारशृङ्गारकरणेन सर्वसम्भ्रमेण सम्प्रमो नामात्र भगवत्समीपागमन प्रति यावच्छकि त्वरिता प्रवृचिः 'सबदिवतुडियसहसंनिनाएण'ति सर्वाणि च तानि है। दीप अनुक्रम CARRC ForFive Persanamory Felmsannlionary.orm. ~56~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१८४ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ ३...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः दिव्यतुटितानि - दिवसूर्याणि च तेषां शब्दाः सर्वदिव्यतुटितशब्दास्तेषां एकत्र मीठनेन य सङ्गतो नितरां नादो - महान् घोषः सर्वदिव्यतुटितशब्दसन्निनादस्तेन, 'ताए उक्किट्ठाए' इत्यादि तया देवजनप्रतिद्धया उत्कृष्टया - प्रशस्तया शीघ्र सञ्चरणात् त्वरितया - शीघ्रतरमेव तथा प्रदेशान्तरक्रमणात् चपलेव चपला तया - क्रोधाविष्टस्येव श्रमासंवेदनात् पण्डेव चण्डा तथा शीघ्रत्यगुणयोगात् शीघ्रा तया शीघ्रया परमोत्कृष्टवेगपरिणामोपेता जवना तथा वातोद्धूतस्य दिग स्तव्यापिनो रजस इव या गतिः सा उद्धता तथा, इत्थंभूतया दिव्यया देवगत्या 'आयाहिणं पयाहिणं करेंति' आ सर्वतः समन्तात् परिभ्रमतां दक्षिणमेव जन्मभवनं यथा भवति, एवं प्रदक्षिणं कुर्वन्ति, 'करयलपरिग्गहिय' मित्यादि द्वयोर्हस्तयोरन्योऽन्यान्तरिताङ्गुलिकयोः सम्पुटरूपतया यदेकत्र मीलनं सा अञ्जलिस्तां कथंभूतामित्याह - करतठाभ्यां परिगृहीता-निष्पादिता करतलपरिगृहीता तां, तथा आवर्त्तनमावर्चः शिरस्यावर्त्तो यस्यां सा शिरस्यावर्त्ता 'कण्ठेकाल उरसिलोमेत्यादिवत् अलुक्समासः तामत एव मस्तके कृत्वा नमोऽस्तु ते तुभ्यं रलं भगवलक्षणं कुक्षौ धारयतीति रत्नकुक्षिधारिका तस्याः सम्बोधनं रलकुक्षिधारिके, जगतः प्रदीप इव जगत्प्रदीपस्तद्दायिके, चक्षुरिव चक्षुः चक्षुर्भाव चक्षुरि त्यर्थः तस्येदं भगवद्विशेषणं, भावचक्षुः किल विवेकरूपममूर्त्तं भवति भगवांश्च साक्षान्मूर्त इत्यत आह-मूर्त्तस्य, तथा सर्वजगज्जीववत्सलस्य 'छज्जीवहियं जिणा वेतीति वचनात् तथा हितकर्येव हितकरिका मार्गदेशिका च या बागृद्धिः - बाक्सम्पद् पुनः कथम्भूतेत्यत आह-विभुः- ध्यापिका सर्वस्वस्वभाषानुगमनेन परिणमनात् तस्याः प्रभुः-स्वामी हितकर| मार्गदेश कवा गुद्धिविभुप्रभुस्तस्य पुंवद्भावः समासस्य कर्मधारयत्वात् विभुशब्दस्य परनिपातः प्राकृतत्वात्, जिनस्य For Peace & Personal Use Only ~57~ wsanlibrary.org Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत पोदात- ज्ञानिनो ज्ञानत्रयोपेतत्वात् , भाविकेवलज्ञानसम्भवाद्वा,शायकस्वापरेषां ज्ञानोत्पादकत्वात् , बुद्धस्य स्वयं बुद्धत्वाद् बोध-दिकमारीनिर्यकिः कस्य सद्धर्मदेशनया मार्गे प्रवत्तेकत्वात् सर्वलोकनाथस्य इन्द्रादीनामपि नमस्करणीयत्वात् सर्वजगमङ्गलस्य भुवनत्रयेऽ-13ामहोत्सवः प्युपद्रवविनाशकत्वात् निम्ममस्य क्वचिदपि ममत्वाभावात् , प्रवरं यत्कुशलं-कुशलानुष्ठानजन्य तीर्थकरनामकर्म तस्मात् ॥१६७॥ समुद्भावः-उत्पत्तिर्यस्य स प्रवरकुशलसमुद्भवस्तस्य, जात्यक्षत्रियस्य भावक्षतात्रायकत्वात् , यदसि भगवतो लोकोत्तमस्य |जननी, तत् हे कृतार्थे ! धन्याासे-सपुण्यासि । 'वेउबियसमुग्घाएण'मित्यादि, वैक्रियसमुद्घातेन-क्रियकरणाय प्रयनविशेषेण समवहन्यन्ते, समवहता भवन्तीत्यर्थः, समवहताश्चात्मप्रदेशान् दूरतो विक्षिपन्ति, तथा चाह-संखेजाणि जोयणाणि दंड निसिरंति', दण्ड इव दण्ड औवोधआयतः शरीरवाहल्यो जीवप्रदेशसमूहस्तं शरीरावहिः सोयानि नयोजनानि यावत् निसृजन्ति-निष्काशयन्ति, निसृज्य तथाविधान् पुद्गलान् आददते, एतदेव दर्शयति-तद्यथा रजानां-कतनादीनां वज्राणामित्यादि पाठसिद्धं यथावादरान्-असारान् पुगलान् परिशातयन्ति, तथा सूक्ष्मान्सारान् पुदलान् पर्यादाय चिकीर्पितरूपनिर्मापणार्थं द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यन्ते, समवहत्य च यथोक्तानां रतादीनां योग्यान पुद्गलान् यथावादरान् परिशातयन्ति, यथासूक्ष्मान् पर्याददते, 'से जहा नामए' इत्यादि, +सः-वक्ष्यमाणगुणो यथानामक:-अनिर्दिष्टनामा कश्चित् कम्मैकरदारकः, किंविशिष्ट इत्याह-तरुणः-प्रवर्द्धमानवयाः, आह दारका प्रवर्द्धमानवया एव भवति ततः किमनेन विशेषणेन ?,न, आसन्नमृत्योः प्रवर्द्धमानवयस्त्वाभावात् , नहि आसन्नमृत्युः प्रवर्द्धमानवया भवति, न च तस्य विशिष्टसामर्थ्यसम्भवः आसन्नमृत्युत्वादेव, विशिष्टसामर्थ्यप्रतिपादनार्थक्षेप आरम्भस्ततो ACAXCCC दीप अनुक्रम Jan Farvey ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education International “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१८४ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ ३...], मूल [- / गाथा-] दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ऽर्थवद्विशेषणम्, अन्ये तु व्याचक्षते - इह यद्रव्यं विशिष्टवर्णादिगुणोपेतमभिनवं च दत्तरुणमिति लोके प्रसिद्धं, दया तरुणमिदमश्वत्थपत्रमिति, ततः स कर्म्मकरदार कस्तरुण इति किमुक्तं भवति । - अभिनयो विशिष्टवर्णादिगुणोपेतश्चेति, तथा युर्ग- सुषम दुष्वमादिः कालः स स्वेन रूपेण यस्यास्ति न दोषदुष्टः स युगवान्, कालोपद्रवरहित इत्यर्थः, बलं - सामर्थ्यं तद् यस्यास्ति स बलवान्, 'अप्पायंके' इत्यादि, अल्पशब्दोऽभाववाची अल्पः -- सर्वथा अविद्यमानः आतङ्को – ज्वरादिर्यस्य सोऽस्पातङ्कः स्थिरं दृढं प्रथममित्यर्थः संहननं यस्य स स्थिरसंहननः, तथा स्थिरौ-अग्रहस्तौ यस्य स स्थिराग्रहस्तःप्रतिपूर्णपाणिपादः, इतरस्य सम्यकूकर्मकरत्वायोगात्, 'पिट्ठतरोरुसंघायपरिणय' पृष्ठं अन्तरे च पार्श्वरूपे ऊरू सङ्घातेन संहतत्वेन परिणती यस्य स पृष्ठान्तरोरुसङ्घातपरिणतः, दृढपृष्ठान्तरोरुरितिभावः, तथा घनम् -- अतिशयेन निचितौ - निविडतरचयमापन्नौ वृत्तौ वलिताविव वलितौ स्कन्धौ यस्य स निचितघनवृत्तवलितस्कन्धः, तथा लसुने - अतिदीर्घस्यात्युच्च स्यापि चातिक्रमणे वल्गने प्रतीते जबने — वेगे व्यायामे च समर्थो लङ्घनवल्गनजवनव्यायामसमर्थः, तथा उरसि भवमुरस्यं तच तद्वलं च उरस्यबलं तत्समन्वागतः - प्राप्त उरस्यवल समन्वागतः, आन्तरोत्साहवीर्ययुक्त इति भावः, तथा तली- तालवृक्षौ तयोर्य मलयुगलं समश्रेणिकं युगलं तेन परिघेण च अतिसरलतया पीवरतया च | निमौ- सदृशौ बाहू यस्य स तलयमलपरिघनिभवाहुः, छेको- द्वासप्ततिकलापण्डितः दक्षः-कार्याणामविलम्बितकारी कुशलः सम्यकूक्रियापरिज्ञानवान् मेघावी - परस्पराव्याहतपूर्वापरानुसन्धानदक्षः अत एव निपुणं यथा भवति, एवं शिल्प - क्रियासु कौशलमुपगतः प्राचो निपुणशिल्पोपगतः, 'दंडपुच्छर्ण'ति दंडपुच्छणकं शढाकाहस्तकं सरत्पर्णादि Far Peyote & Personal Use Ony ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्धात- प्रत ॥१८॥ सुत्राक शलाकासमुदाय वेणुशलाकिकां-वेणुशलाकामयीं सम्मार्जनी, 'तणं सिबैण'मित्यादि, तत्कालविकुवितेन शिवेन कस्याप्यु- दिकमारीपद्यकारित्वाभावात् , मृदुना शरीरसुखस्पर्शहेतुत्वात् 'पिण्डिमनीहारिमगंधुद्धरेणं ति पिण्डिमा-पिण्डितः सन् यो निहा- महोत्सव रिमो-दूरं यावद् गमनशीलो गन्धस्तेन कृत्वा उडुर:-उद्धतः पिण्डिमनिभरिमगन्धोद्धरस्तेन, 'जोयणपरिमंडलं जं किंचि ! तणं या इत्यादि, योजनपरिमण्डलक्षेत्रं यावत् यत्किश्चित् तृणं वा इत्यादि प्रतीतम् , अशुचि-अपवित्रं, एतदेव व्याचष्टे|अचोक्ष-पूतिविरूपगन्धम् , एतदेव व्याचष्टे-दुरभिगन्धं, शेषं सुगम । तेणं कालेणं तेणं समएणं उद्धलोगवस्थधातो अह । दिसाकुमारिमयहरियातो सएहिं २ तं चेव जाव विहरन्ति, तंजहा-मेहंकरा १ मेहवती २, सुमेहा ३ मेहमालिणी ४। सुवच्छा ५ वच्छमित्ता ६ य, वारिसेणा ७ चलाहगा ८॥१॥तए णं तासिं उद्धलोगवत्थवाणं अट्टण्हं दिसाकुमारिमय-द हरियाणं पत्तेयं पत्तेयं आसणाई चलंति, एवं तं चेव भाणियचं, जाव अम्हे णं देवाणुप्पिए ! उद्धलोयवत्थवातो अट्ट दिसाकुमारिमयहरियातो भयवतो तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो, तं तुन्भेहिं न भाइयवंतिकडे उत्तरपुरस्थिमं |दिसीभागं अवकमंति २ जाव दोच्चपि बेउषियसमुग्धाएणं समोहणंति समोहणित्ता अभवद्दलए विउवंति, से जहा नामए कम्मकरदारगे सिया तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए, एगं महं दगवारगं वा दगकुंभगं वा दगथालगं वा दगकलसं वा गहाय रायंगणं वा रायंतेउरं वा आराम वा देउलं वा सभं वा पर्व वा अतुरियमचवलमसंभतं सुनिउणं सबतो समंता | आवरिसिज्जा, एवमेव तातोऽवि उद्धलोगवस्थवातो अढदिसाकुमारिमयहरियातो अभवद्दलए विउविति, वाः-पानीयं तस्य दलानि वादेलानि तान्येव वादलकानि मेघा इत्यर्थः, अपो बिभ्रतीति अग्धाणि-रोधास्तान्यस्मिन् सन्तीति दीप अनुक्रम MARCHICALCCACCORROCES %84- *% ForFive Persanamory nsansliterary.orm ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक अधादिभ्य इति मत्वर्थीयोऽकारप्रत्ययः आकाश इत्यर्थः, अत्रे वादलकानि अनवार्दलकानि तानि विकुर्वन्ति, आकाशे मेघान् विकुर्वन्तीत्यर्थः, अन्भवद्दले विउवित्ता खिप्पामेव तणतणायंति-गर्जयन्तीत्यर्थः, खिप्पामेव तणतणायित्ता : खिप्पामेव विजुयायंति-विद्युतं कुर्वन्तीत्यर्थः, विजुयाइत्ता भगवतो जम्मणट्ठाणस्स सबतो समंता जोयणपरिमंडलं नच्चो-18 दकं नाइमट्टियं पविरलफुसियं रयरेणुविणासणं-श्लक्षणतरा रेणुपुद्गला रजात एव स्थूला रेणवः रजांसि च रेणवश्च रजोरेणवस्तेषां विनाशनं रजोरेणुविनाशनं, दिवं सुरमिगंधोदगवास वासंति वासित्ता निहयरयं नहरयं भट्टरयं उवसंतरयं पस-1 तरयं करेंति, निहतं रजो भूय उत्थानासम्भवात् यत्र तन्निहतरजः, तत्र निहतत्वं रजसः क्षणमात्रोत्थानाभावेनापि सम्भ-181 वति तत आह-'नष्टरजा' नष्टं-सर्वथा अदृश्यीभूतं रजो यत्र तन्नष्टरजः,भ्रष्टं-बातोद्भूततया योजनमात्रात् क्षेत्रात् दूरतः। | पलायितं रजो यस्मात् तद्भष्टरजः, एतदेव एकाथिकद्धयेन प्रकटयति-उवसंतरयं पसंतरयमिति, निहयरयं जाव पसं-1 ४ वरयं करता खिप्पामेव उवसमंति उवसमेचा तच्चपि वेउश्चियसमुग्धाएणं समोहणइरणित्ता पुष्फवद्दलए विउति-पुष्पवधु-13 टिकाणि बालकानि पुष्पवाईलकानि तानि विकुर्वन्ति, से जहा नामए कम्मगरदारए सिया तरुणे जुगवं जाव निउपसि-11 प्पोवगए एगे महं पुष्फपडलग वा पुप्फचंगेरियं वा पुप्फछजियं वा पुष्फपत्धिगं वा गहाय रायंगणं वा रायंतेजरं 1वा आरामं वा देउलं वा सभं वा पर्व वा कयग्गहगहियकरयलपभडविप्पमुक्केणं, इह मैथुनसरंभे रभसवशात् यत् युवतेः। केशेषु पञ्चाङ्गुलिभिग्रहणं स कचग्रहस्तेन गृहीतं कचग्रहगृहीतं करतलात् विप्रमुक्तं सत् प्रभ्रष्टं करतलप्रभृष्टविप्रमुक्त। भा.सू.२९ प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययस्ततो विशेषणसमासः तेन, दसवण्णेणं कुसुमेण पुष्फपुंजोवयारकलियं करेजा, एवमेव तामोचि दीप अनुक्रम H ForFive Persanamory . ~61 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: दिकुमारी प्रत सत्राका पपादात- रहटोगवस्थबातो मह दिसाकुमारिमयहरियातो युष्फबद्दलए विउधित्ता खिप्पामेव तणतणायंति खिप्पामेव विजुयायंतिहाऊचलाकनियुक्तिः मविजुयाइत्ता भगवतो जम्मणत्याणस्स सबतो समंता जोयणपरिमंडलं जलजत्थलजभासुरप्पभूयस्स जलजं-पद्मादि स्थलज महोत्सवः विच किलादि भाखर-दीप्यमान प्रभूतम्-अतिप्रचुरं ततः पदद्वयरमीलनेन विशेषणसमासः, तस्स वेंटवाइयस्स दसद्ध-18 ॥१६॥ वण्णकुसुमस्स पंचवर्णकुसुमजातस्येत्यर्थः जन्नुस्सेहपमाणमेत्तं वार्स वासंति वासित्ता कालागरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमघमपंतगंधुव्याभिरामं सुगंधवरगंधगंधियं गंधवट्टीभूयं सुरवराभिगमणजोग्गं करेंति करेत्ता जेणेव भयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उवागच्छंति जाव परिगायमाणीओ चिट्ठति, अत्र कालागुरुः प्रसिद्धः प्रवरः-प्रधानः कुन्दुरुक:चीडा तुरुक-सिल्हकं तेषां धूपस्य यो मघमघायमानो गन्धः उद्धृतः-इतस्ततो विप्रसतस्तेनाभिराम-रमणीयं काला गुरुपवरकुन्दुरुक्कतुरुष्कधूपमघमघायमानगन्धोडुताभिरामं, तथा शोभनो गन्धो येषां ते सुगन्धास्ते च ते वरगन्धाश्चहै वासाः सुगन्धवरगन्धास्तेषां गन्धः सोऽस्यास्तीति सुगन्धवरगन्धगन्धिक, 'अतोऽनेकस्वरादितीकप्रत्ययः, अत एवं गन्धवर्तिभूतं सौरभ्यातिशयात् । तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरच्छिमरुयगवत्थधातो अट्ट दिसाकुमारिमयरियातो |सएहिं सपहिं कूडेहिं जाव विहरंति, तंजहा-नंदुत्तरा य १ नंदा २, आणंदा ३ नंदिवद्धणा ४ । विजया य ५ वेजयंती ६, जयंती ७ अपराजिया ८॥१॥ सेसं तहेव जाव तुन्मेहिं न भाइयवंतिकटु भगवतो तित्थयरस्स तित्थयर-16 माऊए य पुरथिमेणं आयंसहधगयातो आगायमाणीतो परिगायमाणीओ चिट्ठति । तेणं कालेणं तेणं समपर्ण दाहिणरुयगवत्धबातो अढ दिसाकुमारिमहयरियातो सरहिं. सरहिं कूडेहिं तहेव जाब विहरति, तंजहा-समाहास १ दीप अनुक्रम 64-04-Dwar % ॥१६॥ ॐ Jan E l Farvey A ryansliterary.org ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक । सुष्पदिण्णा २ सुप्पबद्धा ३ जसोधरा ४ । लच्छिमती चित्तगुत्ता ६ वसुन्धस ७ सेसक्ती ८, तहेब जाव न भाइय तिक भगवतो तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए य दाहिणणं भिंगारहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ |चिट्ठति । तेणं कालेणं तेणं समएर्ण पञ्चस्थिमरुयगवस्थबातो अट्ठ दिसाकुमारिमहयरियातो सएहिं सरहिं कूडेहिं तहेब जाव विहरंति, तंजहा-इलादेवी १ सुरादेवी २ पुहवी ३ पउमावई ४ । एगनासा ५ नवमीया ६ भदा. सीया य ८ अवमिया, तहेब जाव तुम्मेहिन भाइयचंतिकटु भगवओ तित्थयरस्स तित्थयरमाउए य पञ्चस्थिमेण तालविण्टहत्यगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणीओ चिट्ठति । तेणं कालेणं तेणं समएणं उत्तरिल्लरुयगवस्थबातो अढ दिसाकुमारिमपहरियाओ सपहिं सएहिं कूडेहिं तहेव जाव विहरंति, तंजहा-अलंबुसा १ मिस्सकेसी य २ पुंडरीका य ३ वारुणी ४ । हासा ५ सक्षप्पभा चेव ६ हिरी ७ सिरी चेव ८ उत्तरतो तहेव जाव तुम्भेहि न भाइयचंतिकटु भयवओ तित्ययरस्स तित्थयरमाऊए य उत्तरेणं चामरहत्थगयातो आगायमाणीओ परिगायमाणीतो चिट्ठति । तेण* कालेणं तेणं समएणं विदिसिरुयगवत्धबातो चत्तारि दिसाकुमारिमयहरियातो सरहिं २ कूडेहिं तहेब जाब विहरति, तंजहा-चिचा य १ चित्तकणगा २ सतेरा ३ सोयामणी ४, तहेव जाव न भाइयवंतिकट्ट भगवतो तित्थयरस्स तिस्थयरमाऊए पचासु विदिसासु दीविआहत्थगयातो आगायमाणीतो परिगायमाणीतो चिट्ठति । तेणं कालेणं तेणं समएणं | मझिमरुयगवत्थबातो चत्तारि दिसाकुमारिमयहरियातो सरहिं सरहिं कुडेहिं सहेव जाव विहरंति, तंजहा-"रूया १ रुयंसा २ मुख्यारुयगावती ४, तहेब जाव तुम्मेहिन भाइयवंतिका भगवतो तित्थयररस परंगुलवजं नाभिं| 4 दीप अनुक्रम H 1-64- -1- Jan E rebon wavewsanelitary.orm ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्धात प्रत कप्पंति कप्पेत्ता वियर खणति खणित्ता वियरए नामि निहणंति निहणित्ता रवणाणं वयराण व पूरंति पूरित्ता हरि- पूर्वदक्षिणनियुक्तिः यालियापेढं पर्वधंति, भगवतो तित्थयरस्स जम्मणभवणस्स पुरथिमदाहिणुत्तरेणं ततो कयलीहरगे विउति, तएणं पश्चिमोत्त तेसिं कयलीहरगाणं बहुमज्झदेसभागे तओ चाउस्सालए विउधिति, तए णं तेसिं चाउस्सालाणं बहुमम्झदेसभागे ततो रविदिग्म॥१७॥ सीहासणे विउर्वति, तेसि णं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णते, तंजहा-तवणिज्जमया चकला रययामया ध्यरुवक ४सीहा सोचनिया पाया नाणामणिमयाई पायसीसगाई जंवूणयामयाई गत्ताई नाणामणिमयं विचासणं सिंहासणे || कुमायः ईहामियतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता ससारसारोवचियमणिरयणपाय-1. वीढा अत्थरयमउयमसूरनवत्तयकुसंतलिच्चकेसरपच्चत्थुयाभिरामा सुविरइयरइत्ताणा ओवचियखोमदुगुल्लपपडिच्छायणा रतंसुयसबुया सुरम्मा आईणगरूयबूरनवणीयतूलफासा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा, अत्र तपनीयमयानि चकलानि-पादानामधो वृत्ताकारा अवयवविशेषाः, रजतमयाः सिंहा यैरुपशोभितं सत्तत्सिंहासनमुच्यते, सौवर्णिका:-सुवर्णमयाः पादाः, नानामणिमयानि पादशीर्षकाणि-पादानामुपरितना अवयवविशेषाः, जाम्बूनदंसुवर्णविशेषस्तन्मयानि गात्राणि-ईषादीनि नानामणिमयं विचं वानं, 'ससारोवचियेत्यादि सारसारैः-प्रधानप्रधानैः मणिरक्षरुपचितेन पादपीठेन सह यानि तानि ससारसारोपचितमणिरत्नपादपीठानि, प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययः, तथा आस्त-॥१७॥ रकम्-आच्छादकं मृदु यस्य तदास्तरकमृदु विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् नवा त्वच येषां ते नवत्वचः कुशान्तादर्भपर्यन्ता नवत्वचश्च ते कुशान्ताच नवत्वकुशान्तास्त एव लिच्चानि-कोमलानि नमनशीलानि च केसराणि मध्ये यस्य दीप अनुक्रम ForFive Persanamory M ysannlionary.org.in ~64~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: % * प्रत % 4 सत्राक + मसूरकस तन्नवत्वकुशान्तलिच्चकेसरं आस्तरकमृदुना मसूरकेन नवत्वकुशान्तलिच्चकेसरेण प्रत्यवस्तृतानि-आच्छादितानि सन्ति यानि अभिरामाणि तानि तथा, तथा सुष्टु विरचितं रजस्त्राणं येषामुपरि तानि सुविरचितरजखाणानि, तथा ओयवियं-विशिष्टपरिकर्मणापरिकर्मिमतं क्षौम-दुकूलपट्टरूपं प्रतिच्छादनं येषां तानि तथा, पार्श्वतो रक्कांशुकसंवृतानि, अत एव सुरम्याणि तथा आजिनक-धर्ममयं वस्त्रं एतच्च स्वभावादतिकोमलं भवति रूतं-कर्पासपक्ष्म बूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीत-घक्षणं तुलम्-अर्कतूलं तेषामिव स्पर्शो येषां तानि तथा,प्रासादीयानि मनःप्रसादहेतुत्वाद् दर्शनीयानि रूपातिशयभावात् तथा अभि-प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं येषां तानि अभिरूपाणि इत्थं प्रतिरूपाणि-प्रतिविशिष्टरूपाणीति। तए णं तातो रूयगमज्झवत्थबातो चत्तारि दिसाकुमारिमयहरियातो जेणेव भगवं तित्ययरे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भयवं तित्थयरं करयलपुडेण तित्थयरमायरं च बाहाए गेण्हति गेण्हेचा जेणेव दाहिणिल्ले कयलीहरए जेणेव | चाउस्सालए जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे निसी-1 याविति निसीयाविचा सयपागसहस्सपागतिल्लेहिं अभंगिति अभंगित्ता सुरभिगंधवट्टएणं उबहिति उबट्टित्ता भयवं पतित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च वाहाहिं गिण्हन्ति गेण्हेत्ता जेणेव पुरथिमिल्ले कयलीहरए जेणेव चाउस्साले जेणेव | दासीहासणे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता भयवं तित्धयरं तिस्थयरमायरं च सीहासणे निसीयाविति, निसीयावित्ता तिहिं उदएहिं मज्जावेंति, तंजहा-गंधोदएणं पुष्फोदएणं सुद्धोदगेणंति, मजावित्ता सघालंकारविभूसिए करेंति करेत्ता भयवं तित्थयर करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च बाहाहिं गेहंति गिण्हित्ता जेणेव उत्तरिले कयलीघरगे जेणेव चाउस्सालए ५ दीप अनुक्रम ForFive Persanamory Sysansliterary.cro ~65 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोदात- नियुक्तिः कृतं जिन प्रत मज्जनादि ॥१७॥ दीप अनुक्रम जेणेब सीहासणे तेणेव उवागच्छति ज्वागच्छित्ता भयवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च सीहासणे निसीयाविति निसीयावित्ता अभियोगे दवे सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! चुल्लहिमवंतातो वासहरपषयातो गोसीसचंदणकहाई साहरह, तए णं ते आभियोगा देवा ताहिं रुयगमज्झवस्थवाहिं चरहिं दिसाकुमारिमयहरियाहिं एवं वुत्ता समाणा हदुतहा जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया विणपण वयणं पडिच्छित्ता खिप्पामेव चलहिमवंतातो वासहरपचयातो गोसीसचंदनकट्ठाइं सरसाइं साहरति, तए णं तातो मज्झिमरुयगवत्थयातो चत्तारि दिसाकुमारिमयहरियातो सरगं करेंति सरगं करेत्ता अरणि घडति अरणिं घडेत्ता सरएण अरणिं महंति अरणि महित्ता अग्गिं पाति अग्गि |पाडेता अग्गि संधुकंति अग्गिं संधुक्कित्ता गोसीसचंदणकढे पक्खिवंति पक्खिवित्ता अग्गिं उज्जालेंति अग्गिं उजाळेत्ता *समिधाकट्ठाई पक्विवंति समिधाकट्ठाई पक्खिवित्ता अग्गिहोम करेंति अग्गिहोम करेत्ता भूहकम्म करिंति भूइकम्म करिता रक्सापोट्टलिय बंधति पंधित्ता नाणामणिरयणभत्तिचित्ते दुवे पासाणवट्टगे गहाय भगवतो तित्थयरस्स कण्णमूलंसि टिट्टिया-ति, भवउ भयवं! पत्याउए, तए णं ताओ रुयगमज्झवत्थबातो चशारि दिसाकुमारिमयहरियातो |भगवं तित्थयरं करयलपुडेणं तित्थयरमायरं च बाहाए गेहंति गेण्हेत्ता जेणेव तिस्थयरस्स भगवतो जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता तित्थयरमायरं सयणिजसि निसीयावेंति, भगवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेंति ठवेत्ता आगायमाणीओ परिगायमाणीतो चिट्ठति ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के नाम देविंदे देवराया वळपाणी पुरंदरे सतकऊ सहस्सक्खे मघवं पाकसासणे दाहिणहलोयाहिवई बच्चीसविमाणावाससमसहस्साहिवई परावणवाहणे मुरिदे पर स्मारक iwsanelitrary.orm ... अथ शक्र आदि इन्द्रादि आगमन एवं जिन-जन्म महोत्सव करणं 466~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१८४], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ ३...], मूल [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education International यंत्ररवत्थधरे जालइयमालमउडे नवहेमचारुचितचंचलकुंडलविलि हियमाणगंडे भासुरबोंदी पलंबवणमाले महहीए महज्जु|इए महाबले महायसे महाणुभाषे महासुक्खे सोहम्मे कप्पे सोहम्मवर्डिसर विमाणे सभाप सुहम्माए सर्कसि सीहासणंसि से णं तत्थ बसीसाए विमाणावाससयसहस्साणं चउरासीए सामाणियसाइस्सीणं तिचीसाए तायत्तोसमाणं चरण्हं लोगपालाणं अदृण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिन्हं परिसाणं सत्तण्डं अणियाणं सचण्डं अणियाहिवईणं चरण्हं चतरासीणं | आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च बहूणं सोहम्मकप्पवासीणं वैमाणियाणं देवाण व देवीण य आहेवचं पोरेवचं भट्टित्तं | सामित्तं मयहरगतं आणाईसरसेणावञ्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनडगीय वाइयंसंतीतलतालसुडियघणमुगपदुप्पवाइयरवेणं दिवाएं भोगभोगाई भुंजमाणे बिहरइ । अत्र वज्जपाणी इति वज्रं पाणावस्येति बज्रपाणिः असुरादिपुरदारणात् पुरन्दरः शतं ऋतूनां प्रतिमानामभिग्रहविशेषरूपाणां श्रमणोपासक पञ्चमप्रतिमारूपाणां वा कार्त्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया यस्य स शतक्रतुः, 'सहस्रक्ले' इति सहस्रमक्ष्णां यस्यासौ सहस्राक्षः, इन्द्रस्य हि किल मन्त्रिणां पञ्च शतानि तदीयानां | चाक्ष्णामिन्द्रप्रयोजनव्यापृततया इन्द्रसम्बन्धित्वेन विवक्षणात् सहस्राक्षत्वमिन्द्रस्य, 'मघति' मघा - महामेघास्ते यस्य बशे सन्ति स मघवान, पाको नाम बलिरिपुः स शिष्यते - निराक्रियते येन स पाकशासनः, तथा अरजांसि -रजोरहितानि स्वच्छतया अम्वरवदम्बराणि वस्त्राणि धारयतीति अरजोऽम्बरवस्त्रघरः, तथा माला च मुकुटश्च मालामुकुटमालगितम् आविद्धं मालामुकुटं येन स आलगितमालामुकुटः, तथा नवमिवात्युत्कटचारुवर्णत्वान्नवं हेम यत्र ते नवहेत्री नवहेमभ्यां चारुचित्राभ्यां चञ्चाम्यां कुण्डलाभ्यां विलिख्यमानौ गण्डौ यस्य स तथा, भाखरा बोन्दि:---तनुर्यस्यासौ भाव For Peace & Personal Use Only ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ १७२ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ निर्युक्तिः [१८४ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ ३...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अध्ययनं [-], रबोन्दिः प्रलम्बते इति प्रलम्बा वनमाला यस्य स तथा, महर्द्धिको विमानपरिवारादिकाया ऋद्धेः अत्यद्भुतत्वात् महाद्युतिः शरीरगताभरणगतमहाद्युतिसद्भावात्, महावलो महाशरीरप्राणसद्भावात् महायशा भुवनत्रयगतख्यातित्वात् महानु भागः सद्भूतशापानुग्रहविपयसामर्थ्य सद्भावात्, अत एव महासौख्यः, 'आहेबच्च' मित्यादि, अधिपतेः कर्म आधिपत्यं * रक्षा इत्यर्थः सा च रक्षा सामान्येनाप्यारक्षकेणैव क्रियते तत आह-पुरस्य पतिः पुरपतिः तस्य कर्म्म पौरपत्यं सर्वेषामात्मीयानां मध्येऽग्रेसरत्वमिति भावः तच्चाग्रेसरत्वं नायकत्वमन्तरेणापि स्वनायकनियुक्तं तथाविधगृह चिन्तक सामान्यपुरुषस्येव भवति, तत आह- 'स्वामित्वं' स्वमस्यास्तीति स्वामी तद्भावः स्वामित्वं नायकत्वमित्यर्थः तच्च नायकत्वं कदाचित्पोषकत्वमन्तरेणापि भवति यथा हरिणयूथाधिपतेर्हरिणस्य तत आह भर्तृत्वं पोषकत्वमत एव महत्तरकत्वं, तदपि च महत्तरकत्वं कस्यचिदाज्ञाविकलस्यापि सम्भवति यथा कस्यद्वणिजः स्वदासदासीवर्ग प्रति, तत आह'आणाईसर सेणावचं' आज्ञया ईश्वरः आज्ञेश्वरः सेनायाः पतिः सेनापतिः आज्ञेश्वरश्वासौ सेनापतिश्च तस्य कर्म आज्ञेश्वरसेनापत्यं कारयन् अन्यैर्नियुक्त पुरुषः पालयन् स्वयम् । तए णं तस्स सकस्स देविंदरस देवरण्णो आसणं चलेइ, तए णं से सके जांव आसणं चलियं पासइ पासिता ओहिं पतंजइ, परंजित्ता भयवं तित्थयरं आभोएइ आभोइत्ता, हहतुट्ठचित्तमाणंदिए पी मणे परमसोमणस्सिए धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयऊसवियरोमकूवे वियसियवरकमलनयणे पयलियवरकडगतुडिय केऊरमउड कुंडलहारविरायंतरइयवच्छे पालंबलंबमाणघोलंतभूसणघरे ससंभ्रमं तुरियं चवलं सुरिंदे सीहासणातो अभुद्वेर अम्भुडिया निउणोचियमिसमिसंतमणिरयणमंडियातो पाउयाओ ओमुबइ For Peace & Personal Use Ony 68~ शक्रेन्द्रासनचलनादि ॥ १७२॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: C प्रत सत्रांक ओमुइत्ता एगसाडियं उत्तरासंग करेइ करेत्ता अंजलिमउलियहत्थे तित्थयराभिमुहे सत्तह फ्याई अणुगच्छा अणुग-10 च्छित्ता वाम जाणुं अंचेइ उत्पाटयतीत्यर्थः दाहिणं जाणुं धरणितलंसिनिह१ तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवाडेइ8 | निवाडेता कडगतुडियर्थभियातो भुयातो साहरेइ साहरित्ता करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कह| एवं वयासी-नमोऽत्थु णं अरहंताणं भगवंताणं, आदिगराणं तित्थयराणं जावसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमो-15 ऽत्थु णं भगवतो पढमतित्थयरस्स जाव संपाविउकामस्स, वंदामि णं भगवंतं पढमतित्थयरं इहगए, पासउ मे भगवं| तत्थ गए इह गयंतिकट्ठ वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता सीहासणवरंसि पुरत्वाभिमुहे संनिसण्णे, तएणं तस्स सकस्स देविंदस्स देवरपणो अयमेयारुवे अभथिए मणोगए संकप्पे समुप्पजित्था-उप्पण्णे खलु भोबुद्दीवे दीवे भयवं पढमतित्थयरे, तं जीयमेयं तीयपचुप्पन्नमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं देवराईणं तित्थगराणं जम्मणमहिमं करतए, तं] गच्छामि अहंपि भगवतो तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करेमित्तिकट्ठ एवं संपेहेइ संपेहित्ता हरिणेगमेसि पायत्ताणियाहिवई देवं सहाचे सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! मेघोघरसियगंभीरमहुरसई जोयणपरिमंडलं सुघोस | सुसरं घटं तिक्खुत्तो उल्लालेमाणे महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणे एवं वयासी-आणवए णं भो ! सक्के देविंद देवराया| गच्छइ भो । सके देविंदे देवराया जंबुद्दीवं दीवं भारह वासं पढमतित्थयरस्स भगवतो जम्मणमहिमं करेत्तए, तं|* तुम्मेऽविय णं देवाणुप्पिया ! सविडीए सबजुईए सबवलेणं सबसमुदएणं सवायरेणं सबविभूइए सबविभूसाए सबसंभमेणं सबनाइएणं समोरोहेहि सबपुष्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सबदिवतुडियसंनिनाएणं महया इबीए महया जुईए| दीप अनुक्रम ARRRRRRAKAR ***** ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्धात हरिणैगमेपिकृतं घ. ण्टावादनं प्रत % % महया बलेणं महया समुदएणं जाव महया पुष्फगंधमल्लालंकारविभूसाए महया वरतुडियजमगसमगपडुप्पवाइअरवेणं संख- पणवपरहभरिझल्लरिखरमुहिहुडुक्कमुरवमुइंगदुंदुभिनिग्घोसनादितरवेणं नियगपरिवारसंपरिवुडा सयाई सयाई जाणवि- माणाई दुरूढा समाणा अकालपरिहीणं चेव सकरस देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पादुम्भवह, एतत्सर्व प्रायो व्याख्या- ताधं सुगमं च, नवरं 'धाराहए'त्यादि यथा धाराहतानि नीपस्य-वृक्षविशेषस्य सुरभीणि कुसुमानि चक्षुभिरिव मालितानि भवन्ति तद्वत् उच्छ्रायिता रोमकूपा येन स धाराहतनीपसुरभिकुसुमचश्चमालितोच्छायितरोमकूपः, प्राकृतत्वात पदव्यत्ययः, 'अयमेयारूवे अभथिए' इत्यादि सङ्कल्पः समुदपद्यत, किंविशिष्ट इत्याह-आत्मनि अधि अध्यात्म तत्र भव आध्यात्मिक आत्मविषय इत्यर्थः, पुनः कथंभूत इत्याह-मनोगतो-मनसि व्यवस्थितो, नाचापि विचसा प्रकाशितस्वरूप इत्यर्थः, 'मेघोघरसिये'त्यादि मेघस्येव ओघेन-प्रवाहेण रसितं यस्याः सा मेघौधरसिता, तथा गम्भीरतरो मधुरः शब्दो यस्याः सा तथा विशेषणसमासः, 'सुघोस'मिति सुघोषाभिधानां, 'सबोरोहेहिं' इति परम्तापुरैः, इह स्वल्पेष्वपि सर्वशब्दो दृष्टो यथा सर्वमनेन घृतं पीतमिति तत आह-'मया इड्डीए' इत्यादि, 'महया वरतुडिय' इत्यादि, महता-स्फूतिमता वराणां-प्रधानानां तुटितानाम्-आतोद्यानां यमकसमकम्-एककालं पटुभिः पुरु प्रवादितानां यो रवस्तेन, एतदेव विशेषणाचष्टे-'संखपण'त्यादि शङ्खः प्रतीतः पणवो-भाण्डानां पडहः पटहःप्रतीतः मेरी-दक्का झालरी-चावनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा खरमुखी-काइला हुडुका प्रतीता महाप्रमाणो मुख्जो मईलः एव लघुर्मूदकः दुन्दुभिा-भेाकारा सङ्कटमुखी एतेषां द्वन्द्वस्तासां निर्पोषो-महान ध्वानो :वादितं - % दीप अनुक्रम % %% % % 4 anEducation i Newsanelibrary.com ~70~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक घण्टायामिव वादनोत्तरकालभावी सततध्वनिस्तलक्षणो यो रवस्तेन । तए णं से हरिणेगमेसी देवे पायत्ताणियाहिबई सख्या देवर्विदणं देवरण्णा एवं बुत्ते समाणे हतुवचित्तमाणदिए जाव विसप्पमाणहियए करयरूपरिग्गहियं सिरसावत्तं मरथए अंजलिं कटु एवं देवो तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियातो पहिनिक्खमह पहिनिक्खमइत्ता जेणेव सभाए सुहम्माए मेघोघरसियगंभीरमहुरसहा जोयणपरिमंडला सुघोसा घंटा तेणेव उचामच्छइ उवागच्छित्ता तं मेघोघरसियं गंभीरमहुरसई जोयणपरिमंडलं सुघोसं घंटे तिक्खुत्तो उल्लालेह । तएणं || मेघोषरसियमहुरसहाए जोयणपरिमंडलाए सुघोसाए घंटाए तिक्खुत्तो उल्लालियाए समाणीए सोहम्मे कप्पे एगणेहिं पतीसाए विमाणावाससयसहस्सेहिं अण्णाई एगूणगाई बत्तीसं घंटासयसहस्साई ज़मगसमर्ग कणकणारवं कार्ड पयसाइंपि होत्था । तए णं सोहम्मे कप्पे पासायविमागनिक्खुडावडियसद्दघंटापडंसुयासयसहस्ससंकुचिए जाए यावि होत्था, सए णं तेर्सि सोहम्मकप्पवासीर्ण बहूणं वेमाणियाणं देवाणं देवीण व एगंतरइपसत्तनिच्चपमत्तविसयसुहमुच्छियाणं सूसरघंटारसियविउलबोलतुरियचवलपडिबोहणे कए समाणे घोसणकुतूहलदिष्णकण्णएगग्गचित्तस्वउत्तमाणसाणं सो पायताणीयाहिवई देवो तंसि घंटारवंसि निसंतपसंतसि समाणसि तत्थ २ तहिं २ देसे महया महया सद्देणं सम्बोसेमाणे एवं वयासो-हंदि सुणतु भवतो वहवे सोहम्मकप्पवासी चेमाणिया देवा देवीतो य सोहम्मकप्पवणो इमं वयणं हियमहत्य-आणवह गं भो ! सके तं चेव जाव अंतिवं पादुम्भवह, इदमपि सुगमम्, नवरं एवं देवो। तहतिजामाय इति-दे देव, आमन्त्रणे ओकारान्तता प्राकृतित्वात. यधा समासमणो इति, एवं-पथैव यूयमादिद्मथ httrrxNAR दीप अनुक्रम - -- Jan E rmonal ForFive Persanamory AK iwsaneliorary.orm. ~71 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्घात- नियुक्तिः प्रत ॥१७४॥ तथैवाज्ञया-युप्मदादेशेन कुर्म इत्येवंरूपेण विनयेन, 'तिक्खुत्तो उल्लालेह त्रिकृत्वस्ताडयति, 'तए ण' मित्यादि, तत- शेषदेवप्रस्तस्यां मेघौधरसितगम्भीरमधुरशब्दायां योजनपरिमण्डलायां सुघोषायां घण्टायां त्रिकृत्व उल्लालितायां सत्यां सौधर्मे तित्राधनम् कल्पे 'अहि' इत्यादौ सप्तम्यर्थे तृतीया अन्येष्वपि एकोनेषु द्वात्रिंशति विमानावासशतसहस्रेषु यान्यन्यानि एकोनानि द्वात्रिंशत् घण्टाशतसहस्राणि तानि स्वयमेव यमकसमकम्-एककालं कणकणारवं प्रवृत्तान्ययभवन, दिव्यप्रभाव एषः नात्र युक्त्यन्तरमिति, ततः सौधर्मकल्पः प्रतिविमानप्रासादनिष्कुटेषु विमाननिष्कुटेषु च ये आपतिताः शब्दाःशब्दवर्गणापुद्गलास्तेभ्यः समुच्छलितानि यानि घण्टाप्रतिश्रुतां शतसहस्राणि तैः सङ्कचितोऽपि जातोऽभवत् , किमुक्त भवति ।-प्रतिविमानं कणकणारवं कर्तुं प्रवृत्तासु घण्टासु ये विनिर्गताः शब्दास्तत्प्रतिघातवशतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च दिव्यानुभावतः समुच्छलितैः प्रतिशब्दैः सकलोऽपि सौधर्मकल्पो वधिरित इवोपजायते इति, एतेन यदुच्यते। द्वादशम्यो योजनेभ्यः समागतः शब्दः श्रोत्रग्राह्यो भवति न परतः, ततः कथमेकत्र ताडितायां घण्टायां सकलेऽपि सौधर्मकल्पे शब्दश्रवणमिति तदपास्तमवगन्तव्यम् , उक्तयुक्तितः सर्वत्रापि शब्दश्रवणसम्भवात् , 'एगंतरईत्यादि, एकान्तेनसर्वात्मना रतौ-रमणे प्रसका एकान्तरतिप्रसकाः, अत एव नित्यं-सर्वकालं प्रमत्ता नित्यप्रमत्ताः, कस्मादेवंभूता इति चेत् अत आह-विषयसुखेषु मूर्छिता-अध्युपपन्ना विषयसुखमूच्छितास्ततो विशेषणसमासस्तेषां सुस्वरघण्टारसितरूपेण | विपुलेन सकल सौधर्मकल्पव्यापिना बोलेन त्वरित-शीघ्र चपले-आकुले प्रतिबोधने कृते सति घोषणे कुतूहलेन दचौ कर्णी यैस्खे घोषणकुतूहलदत्तकर्णाः, एकाग्रचित्ता-घोषणावगमविषयनिक्षितमानसाः, एकाग्रचित्तत्वेऽपि कदाचिदन्तरा दीप अनुक्रम E Jan Education ansliterary.com ~72~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] मा.सु. ३० “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१८४], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ३...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अनुपयोगः स्यादत आह-उपयुक्तमानसाः - निरन्तरमव हितमनसः, ततो विशेषणसमासः पदत्रयत्व, 'निसंतपसंतंसी 'ति नित शान्तो निशान्तः- अत्यन्तं मन्दीभूतस्ततः प्रकर्षेण सर्वात्मना शान्तः प्रशान्तः ततः छिन्नप्ररूढ इत्यादाविव विशेषणसमासः 'हंदे 'ति हन्तेति हर्षे, हर्षश्च स्वामिना आदिष्टत्वादा दितीर्थकर जन्ममहिमार्थं च प्रस्थान समारम्भात्, 'हिय सुहत्यं ति हितार्थ सुखार्थ चेत्यर्थः तप णं ते देवा देवीतो य एयम सोच्चा हतुचित्तमाणं दिया जात्र त्रिसयमाणहियया अप्पेगइया वंदणवतियं अप्पेगइआ पूअणवत्तियं अप्पेगइया सक्कारवत्तियं अप्पेगइया सम्माणवत्तियं अध्येगइया दंसगको उहला० अप्पेगइआ सकस्स वयणमणुवत्तमाणा अध्येगइया अण्णमणुयत्तमाणा अध्पेगइया जीयमेयं एवमाइतिकट्टु सबडीए जान अकालपरिहीणमेव सकस्स देविंदस्स देवरण्णो अंतियं पाउन्भवंति, तर णं से सके देविंदे देवराया ते बहवे वेमाणिए देवें देवीओ य अकालपरिहीणं चेव अंतियं पाउन्भवमाणे पासइ पासेचा हट्टतुट्ठजावविसप्पमाणहियए पालयं नाम अभियोग्गं देवं सहावेइ | सहावेता एवं व्यासी- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अगेगखं भसय संनिवि लीलट्ठिय सालभंजियाक लियं ईहामिगड सभतुरग| नरमगर विहगवालगकिन्नर रुरुसरभ चमरकुंजरवण लयपउम लयभत्तिचित्तं खंभोग्गय वइरवेड्या परिगयाभिरामं विजाहरजमलजुगलजुच जंतंपिव अच्चीसहस्समालणीयं रूवगसहस्सकलियं भिक्षमाणं भिम्भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं स स्सिरीयरूवं घंटावलिपचलियभहुरमणहरसरं सुभं कंतं दरिसणिज्जं निउणोचियमिस मि संतमणिरवणघंटिया जालपरिक्लितं जोयणसयस इस्स विच्छिन्नं पंचजोयणसयोषिद्धं सिग्धतुरियजइणनिवायं दिवं जाणविमाणं विउबाहि विवित्ता एयमाणचियं पञ्चप्पिणाहि एतत्सर्वं प्राग्वत् परिहवनीयम् । तए णं से पालए देवे सकेण देविदेण देवरण्णा एवं दुत्ते समाणे For Pevote & Personal Use Ony ~73~ anlibrary.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: + पोदा- नियुक्तिः प्रत ॥१७॥ सनाक - दीप अनुक्रम हतुढे विसप्पमाणहियए पषियसमुग्धाएणं समोहणइ जाव दोचपि वेथियसमुग्धाएणं समोहणिता अणेगवरखंभसय- पालकावसंनिविटुं जाब दिचं जाणविमाणं विउषिउं पवते यावि होत्था,तए णं से पालए देवे तस्स दिवस्स जाणविमाणस्स तिदिसि | ततो तिसोवाणपडिरूवगे विउबइ, तंजहा-पुरच्छिमेणं दाहिणेणं उत्तरेणं, तेसिणं तिसोवाणपडिरूवगाणं इमे एयाख्ये 50 सोपानावण्णावासे पण्णते, तंजहा-वइरामया नेमा रिट्ठामया पइट्ठाणा वेरुलियमया खंभा सुवप्रणरुप्पमया फलगा लोहियक्खमतीतो सूईओ वारामया संधीओ नाणामणिमया अवलंबणा अवलंबणवाहातो य पासाइया जाव पडिरूवा,तत्र 'तिदिसिं| तओ.' इति तिम्रो दिशः समाहताखिदिक् तस्मिन् त्रिदिशि 'ततो तिसोवाणपडिरूवा' इति एकैकस्यां दिशि एकैकभावेन प्रतिविशिष्ट रूपं येषां तानि प्रतिरूपकाणि त्रयाणां सोपानानां समाहारखिसोपानं त्रिसोपानानि च तानि प्रतिरूपकाणि चेति विशेषणसमासः,विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , तेसि णमित्यादि, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणामयमेतद्पो| वर्णावासो-वर्णकनिवेश-प्रज्ञप्ता, तद्यथा-वज्रमया-बजरक्षात्मिका नेमाः-भूमिकात ऊर्ध्वं निर्गच्छन्ता प्रदेशा रिष्ठमयानिरिष्वरसमयानि प्रतिष्ठानानि-त्रिसोपानमूलप्रदेशाः वैडूर्यमया स्तम्भाः सुपर्णरूप्यमयानि फलकानि-त्रिसोपानाङ्गभूतानि लोहिताक्षमय्यः सूचयः-फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयाः पञमया-बजरक्षापूरिताः सन्धयः-फलकद्वयापान्तरालप्रदेशा नानामणिमयानि अवलम्ब्यन्ते इति अवलम्बनानि-अवतरतामुत्तरतां चालम्बनहेतुभूताः अवलम्ब- ॥१७५॥ नवाहातो विनिर्गता नागदन्तास्थानीयाः केचिदवयवार, 'अवलंबणबाहातो य' इति अवलम्बनबाहा नाम उभयो पाम्योरवलम्बनानामाभयभूता भित्तयस्ता अपि नानामणिमय्यः ॥ देसि तिसोवाणपडिस्वगाणं पुरतो तोरणे विच्या +-+ Jan 12 ForFive Persanamory viewsanelibrary.orm ~74~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: * * * % प्रत सत्राक % -% होते ण तोरणा नानामणिमयेसु खंभेसु स्वनिविट्ठसंनिविद्वविविहतारारूपोवचिया विविहमुत्रतरोविया ईहामिगरसमतुर* गनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचिचा खंमुग्गवधाइरवेड्यापरिगयाभिरामा विजाह रजमलजुगलजंतजुत्ताविव अञ्चीसहस्समालिणीया रूबगसहस्सकलिया मिसमाणा भिभिसमाणा चक्खुल्लोयणसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया जाव पडिरूवा, अत्र 'उबविट्ठसंनिविडा' इति उपविष्टानि सामीप्येन स्थितानि, तानि चकदाचिचलानि अथवा अपदपतितानि आशझोरन् तत आह-सम्यक्-निश्चलतया अपदपरिहारेण च निविष्टानि सन्निविष्टानि, सतो विशेषणसमासः, तथाविधैस्तारारूपैः-तारिकाभिरुपचितानि, तोरणेषु शोभार्थ तारका निवध्यन्ते इति प्रतीतं लोकेऽपीति, तथा विविहमुत्तरोविया' इति विविधषिच्छित्तिकलिता मुक्का-मुक्ताफलानि 'अंतरे'ति मन्तराशब्दोऽगृहीतवीप्सोऽपि सामर्थ्यात् वीप्सां गमयति अन्तरा अन्तरा रोविया-आरोपिता यत्र तानि तथा, शेष मागेव व्याख्यातमिति । तेसिं तोरणाणं उप्पि अहमंगलगा पन्नता, तंजहा-सोत्थिय सि.रेवच्छ नंदियावत्त बद्धमाणग ट्र भद्दासणग फलस मच्छ दप्पणा, सबरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्ठा महा नीरया निम्मला निप्पका निककहरछाया समिरीया सरजोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा, अत्र 'अच्छा' इति अच्छानि आकाशस्फटिकवत् भतीव स्वच्छानि श्लक्ष्णानि-लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्नानि लक्ष्णदलनिष्पन्नफ्टवत्, लण्हानि-मरणानि घुटितपटवत्, पृष्टानीव पृष्टानि खरशानया पाषाणप्रतिमावत् , मृष्टानीव मृष्टानि सुकुमालशानया पाषाणप्रतिमेव, अत एव नीरजांसि स्वाभाविकरजोरहितत्वात् निर्मलानि अभ्यागन्तुकमलामावाद, निष्पानि कलकविकलानि, तथा निष्काटा-निष्कवचा % दीप अनुक्रम %AkSOCTSketex % - -" andre ForFive Persanamory ~75~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत निच पोटात निरावरणा निरुपपातेति भावः छाया-दीष्ठिर्येषां तानि निकटच्छायानि सप्रमाणि-स्वरूपतः प्रमावन्ति समरीची. निनिच-वहिर्विनिर्गतकिरणजालानि अत एव सोद्योतानि-बहिर्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशकराणि, 'पासाइया' इत्यादि। का इत्यादिध्वजादीपदचतुष्टयं प्राग्वत् । तेसि णं तोरणाणं उप्पिं बहवे किण्ह चामरज्झया लोहियचामरज्झया नीलचामरझया सुकिल्लचामर॥१७॥ झया हालिदचामरज्झया अच्छा सण्हा रुप्पपट्टा वयरामयदंडा जलयामलगंधिया सुरम्मा पासाइया जाव पडिरूवा, मत्र कृष्णचामरयुक्का ध्वजाः कृष्णचामरध्वजा, एवं शेषपदेष्वपि भावना कायों, 'रूप्पपट्टा' इति रूप्यो-रूप्यमयो वज्रमयस्य दण्डसोपरि पट्टो येषां ते रूप्यपट्टाः, 'वइरदंडा' इति वज्रो-वज्ररत्नमयो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवर्ती येषां ते वज्रदण्डा, तथा जल जानामिव-जलजकुसुमानां पद्मादीनामिवामलो-निर्मलो यो गन्धः स विद्यते येषां ते जलजामलगन्धिका दीप मत एव सुरम्या, प्रासादीया इत्यादि प्राग्वत् । तए णं तेसिणं तोरणाणं उप्पिं बहवे छचातिच्छचे घंटाजुयले पडागाअनुक्रम इपडागे उप्पलहत्थर कुमुदहत्थए नलिणहत्थए सुभगहथए सोगंधियहत्थए पुंडरीयहत्वए सयवत्तहर थए सहस्सपत्तहत्थए सबरयणामए अच्छे सण्हे जाव पडिरूवे विउबह, इह छत्रात् लोकप्रसिद्धादेकसलकात् अतिशायीनि छत्राणि उपर्यधोभावेन द्विसमानि विसङ्ग्यानि वा छत्राविच्छत्राणि, पताका लोकप्रसिद्धास्ताभ्योऽतिशायिन्यो दीर्घवेन विस्तारेण च पताकाः पताकातिपताकाः, उत्पलहस्तान्-उत्पलास्यजलजकुसुमसमूहविशेषान, एवं शेषपदान्यपि भावनीयानि, नवरमुत्पलं-ईम पद्म-सूर्यविकासि कुमुदं-कैरवं नलिनम्-ईपद्रकंपनं सुभगं पद्मविशेषः सौगन्धिककल्हारं पुण्डरीकं-ताम्बुजं सहसपनशतपत्रे पत्रसझलाभेवकृती पद्मावशेषौ । तर णं से पालए देवे तस्स पं दिवस **hakk - R ॥१७६॥ Jan E DUi sanelibrary.com ~764 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१८४ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ ३...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः जाणविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जं भूमिभागं विउबार से जहानामर आर्लिंग खरेइ वा मुईंगपुक खरेइ वा सरतलेइ वा करयलेइ वा चंदमंडलेइ वा सूरमंडलेइवा आयंसमंडलेइ वा उरब्भचम्मेइ वा वराहचम्मेइ वा वगचम्मेइ वा दीवियचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलगसहस्त्रवितते आवडपच्चा वड से ढिप से ढि सोत्थिय तो त्रत्थि वधूस माणगद्ध माणगम च्छंड मारंड जार | मारफुलावलिप उमपत सागरतरंगव संतलपपड मलयभित्तिचित्तेहिं सच्छा मनमेहिं समिरीएहिं सउज्जोएहिं नाणा विहपंचवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिते, तंजहां- किण्हेहिं नीजेहिं लोहिएहिं हलिदेहिं सु के डेहिं, अत्र 'आलिंगपुक्खरइ वे'ति आलिङ्गन्ध वाद्यते इत्यालिङ्गो-मुरजवाद्य विशेषः तस्य पुष्करं चर्म्म दुई तत्किलात्यन्तसममिति तेनोपमा क्रियते, इति | शब्द उपमाभूतवस्तुपरिसमाप्तिद्योतकः, वाशब्दः समुच्चये, एवं शेषपदान्यपि भावनीयानि, नवरं 'वगचम्मेद वे 'ति वृकचर्म द्वीपी चित्रकः, उरवादिवर्म्मविशेषण नाह- 'अगेगे' त्यादि, अनेकैः शङ्कुममाणैः कील सहस्रैर्महद्भिः कीलकैस्ताडितं प्रायो मध्यक्षामं भवति, तथारूपताडासम्भवात् ततः शङ्कुमहणं, विततं बिततीकृतं ताडितामति भावः, यथा अत्यन्तं बहुसमं भवति तथा तस्यापि यानविमानस्यान्तर्बहुसमो भूमिभागः कथम्भूत इत्याह- 'नाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहिं वसोभिए' नानाविधा-जातिभेदान्नानाप्रकारा ये पञ्चवर्णा मण वस्तैरुपशोभितः, कथम्भूतै रित्याह-'आवडे' त्यादि, आवर्त्तादीनि मणीनां लक्षणानि, तत्रावर्त्तः प्रतीतः, एकस्यावर्त्तस्य प्रत्यभिमुख आवर्त्तः प्रत्यावर्त्तः, श्रेणिः -- तथाविधबिन्दुजालादेः पक्तिः तस्याश्च श्रेणेर्या विनिर्गता अभ्या श्रेणिः सा प्रवेणिः, स्वस्तिः प्रतीतः, सौवस्तिकपुष्पमाणवी क्षणविशेषौ लोकात् प्रत्येतव्यौ, वर्द्धमानकं धरावसम्पुटं, मरस्याण्डकमकराण्डके प्रतीते, जारमारो-लक्षणविशेषो For Peace & Personal Use Ony ~77~ janelibrary.org Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...]. मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: * * प्रत * ** दीप अनुक्रम पोटालोकादक्सेयः, पुष्पावलिपनपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापमलता प्रतीता, तासांभल्या-विच्छित्त्या चित्रम्-आलेखोयेऽभूमिभागः ते आवर्तप्रत्यावर्तश्रेणिप्रश्रेणिस्वस्तिकसौवस्तिकपुष्पमाणववर्खमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपुष्पावलिपनपत्रसाग रतरङ्गवासन्तीलतापद्मलताभक्तिचित्रास्तैः, किमुक्तं भवति ।-आवर्तादिलक्षणोपेतः, तत्थ जे ते किण्हा मणी तेसिणं ॥१७७॥ इमेयारूवे चण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामए जीमूतेइ वा अंजणेइ वा खंजणेइ वा कजलेइ वा गवलेइ वा गवलगुलि याइ वा भमरेइ वा भमरावलीइ वा भमरपतंगसारेइ वा जंबूफलेइ वा अदारिद्वेइ वा परपुढेइ वा किण्हकेसरेइ वा आगासधिग्गलेइ वा किण्हासोपइ वा किण्हकणवीरेइ वा किण्हबंधुजीवेइ वा, भवे एयारूवे?,नो इणढे समढे, तेणं किण्हा मणी इत्तो इट्टतरा चेव कंततरा चेव मणुण्णतरगा चेव मणामतरा चेव वण्णेणं पण्णत्ता, अत्र अञ्जनं-सौवीराजनं रत्नविशेषो वा खञ्जनं-दीपमल्लिकामलः गवलं-माहिषं शृङ्ग गवलगुटिका-माहिषशृङ्गस्य निबिडतरसारनिवर्तिता गुटिका, धमरपत सारा-धमरपक्षान्तर्गतो विशिष्टकालिमोपचितः प्रदेशविशेषः, आर्द्रारिष्ठः-कोमलकाकः आकाशथिग्गलं-शरदि मेषविनिमुक्तमाकाशखण्ड, तद्धि कृष्णमतीव प्रतिभातीति तदुपादानं, केसरो-बकुलः, केसरादयः पञ्चवर्णा भवन्तीति शेषवर्णव्युदासार्थ कृष्णयहणम् , इह केपाश्चिदकान्तमपि किञ्चिदिष्टमाभाति ततोऽकान्तताव्यवच्छित्त्यर्थमुकं-कान्ततरका एव-अतिनिधमनोहारिकालिमोपचिततया जीमूतादेः कमनीयतरका एव, अत एव मनोज्ञतरकार, मनोज्ञतर- ॥१७७॥ मपि किचिन्मध्यमं भवति ततः सर्वोत्कर्षप्रतिपादनार्थमाह-मनापतरका एव, द्रष्टणां मनांसि आमुवन्ति-आरमयशतां मयन्तीति मनमापार, ततः प्रकर्षविषक्षायां तर प्रत्यया, माकृतत्वाच पकारस्य मकारे मणामतरा इति, सत्वर्ण *** E * *** Jan iewsanelibrary.orm ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१८४ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ ३...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः जे से नीला मणी तेसि णं मणीर्ण इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णसे, से जहानामए भिंगेइ वा भिंगपलेइ वा सुरइ था सुवपिच्छे वा चासेइ वा चासपिच्छे वा नीलीइ वा नीलभेदेइ वा नीलीगुलियाई वा सामागेइ वा उच्चंत वा इल| हरवसणेइ वा मोरग्गीवाइ वा जवसीकुसुमेइ वा अंजणकेसियाकुसुमेइ वा नीलुप्पलेइ वा नीलासोगेह वा नीलबंधुजी| वगेइ वा नीलकणवीरेह वा भवे एयारूवे १, नो इणट्ठे समट्ठे, ते णं नीला मणी तत्तो इद्वतरा चैव कंततरा चैव मणुनतरा | चेव मणामतरा चैव वज्ञेणं पद्मत्ता, अत्र भृङ्गः कीटविशेषः, पक्ष्मलं भृङ्गपत्रं तस्यैव भृङ्गाभिधानस्य कीटविशेषस्य पक्ष्म, उच्चतगो दन्तरागः, हलधरो -बलदेवस्तस्य वसनं हलधरवसनं तच्च किल नीलं भवति, सदैव तथा स्वभावतया हलधरस्य नीलवस्त्रपरिधानात्, अञ्जनकेशिका-वनस्पतिविशेषः । तत्थ णं जे ते लोहिया मणी तेसि णं मणीणं इमे पयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते से जहानामए उरब्भरुहिरेइ वा ससगरुहिरेइ वा नररुहिरेइ वा बराहरु हिरेइ वा बालिंदगोपगेड वा वाढदिवागरेइ वा संशय्मरागेइ वा गुंजद्धरागेइ वा जासुमणकुसुमेह वा किंसुयकुसुमेइ वा पारिजातकुसुमेइ वा जायहिंगुलप पा | सिलप्पवालेड वा पवालंकुरेइ वा लोहियक्खमणीइ वा लक्खारसगेइ वा किमिरागकंचलेइ वा चीणपिडरासीइ वा रसुप्पछेड़ वा रसासोगेइ वा रतकणवीरेइ वा रत्तबंधुजीवेइ वा भवे एयारूवे १, नो इणट्ठे समट्ठे, ते णं लोहिया मणी एतो इतरा वेव कंततरा चैव मणुष्णतरा च मणामतरा चेव वण्णेणं पण्णत्ता, उरस्वादिरुधिराणि शेषरुधिरेभ्यो लोहितवर्णोत्कटामि भवन्तीति तेषामुपादानं, बालेन्द्रगोपकः-सद्योजात इन्द्रगोपकः, स हि प्रवृद्धः सन् ईषत्पाण्डुरको भवति ततो वालग्रहणं, | शिलाप्रवाल- प्रवालनामा रक्षविशेषः प्रवालाङ्कुरः- तस्यैव रक्षविशेषस्याङ्कुरः । तत्थ णं जे ते हालिहा मणी तेसि णं मणीणं Jan Education International For Peace & Personal Use Only 79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोबात- इमे एयारूचे वण्णावासे पण्णसे, से जहानामए चंपेहवा चंपगच्छडीइ वा हलिहाइ वा हलिइभेएइ वा हलिइगुलियाइ वा161 पंचवर्णम नियुक्ति: हरियालेवा हरियालभे देह वा हरियालगुलिपाइ वा चिकुरेइ वा चिकुरंगरागेइ वा वरकणगानेघसेइ वा वरपुरिसबसणेइ णिवर्णनं वा चंपगकुसुमेइ वा कोहंडियाकुसुमेइ वा तडउडाकुसुमेइ वा घोसाडि कुपुमेइ वा सुवण्ण जूहियाकुसुमेइ वा जूहियाकु. सुमेइ वा सुहिरणकुसुमेह वा कोरिटंवरमल्लदामेह वा पीयासोगेइ वा पीयक गोरेइ वा पीयधुजोवेइ वा, भने एयारवे?.15 Fनो इण समढे, तेणं हालिदा मणी एत्तो इतरगा चेव कंतसरा चेव मणुगतरा चेव मणामतरगा चेव वागणं पण्णचा. चम्पका-सुवर्णचम्पको वृक्षः, चिकुरो-रागद्रव्यविशेषः, चिकुरागरागा-चिकुरसंयोग ने मे दो वस्त्रादौ रागः (ग्रन्था.* प्रम्ब०००) वरकनकनिघसो-वरकनकस्य कषपट्टके रेखा वरपुरुषो-वासुदेवस्तस्य वसनं वरपुरुषवसनं, तच्च किड पीतमेव |भवतीति तदुपादानं, कूष्माण्डी-पुष्पफली तडवडा-आउली मुहिरण्यको-धनस्पतिविशेषः । तस्य णजे ते सुकिल्ला मणी, | तेसि णं मणीणं इमे एयारूवे वण्णावासे वण्णते, से जहानामए अंकेह वा संखेइ वा कुंदेइ वा दरइ वा हंसावलीइ वास चंदावलीह या सारख्यबलाहपर वातवोयरुप्पपहेद वा सालिपिहरासीइ वा कुमुदपुकरासीह वा सुकाळेवाडीइ वा पेहु. द्रोणमिजियाइ वा विसेइ वा मुणालियाइ वा गयदंते वा लवंगदलेह वा सेवासोगेइ वा से यकणवीरेइ वा सियबंधुजीचे । *वा, भषे एयारुचे, नो इणजे समद्वे, ते णं सुकिला मणी एत्तो इतरगा चेव कंततरा चेव मणुष्मतरा चेव मणामत साचेव, अत्र असो-रक्षविशेषः बलाका-विसकण्ठिका चन्द्रावली-तडागादेतु जउमध्यप्रतिविम्बितचन्द्रपतिः शारदिका ला-161 का-धरत्कालभावी मेपातशेयरुपपदे वेति माता-अग्निसम्पर्कग निर्मलोकतो धौतो-भतिसरण्टितहत सम्माजे दीप अनुक्रम FU ForFive Persanamory ~80~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक ॥४ा नातिनिर्मलीकृतो योरूप्यपट्टो-रजतपत्रक समातधौतरजतपट्टा, सुमच्छिमाडिया'तिछे बाडी नाम वादिकलिका, सा च क्वचिद्देशे शुष्का सती अतीव शुक्ला भवति ततस्त दुपादानं, 'पिडुमिनियाइ ति पेड-मयूरपिन्छ तन्मध्यवर्तिनी मझिका सा चातिशुक्लेति तदुपन्यासः, बिसं-पद्मिनीकन्दः मृणालिका-पद्मतन्तुः लवंगदलं-उबलपत्र मेति । तेसिणं मणीण इमे एयारूचे गंधे पपणचे, से जहानामए कुपुडाण वा तगरपुडाण वा चोयपुडाणं वा चंपापुडाण वा दमणापुडाण वा कुंकुमपुडाण वा चंदणपुडाण वा उसीरपुडाण वा मरुयापुडाण वा जाइपुअण वा जूहियापुडाण वा मल्लियापुडाण वा पहाणमल्लिकापुडाण वा पाडलि मुडाण वा पडिवायमि उभिजमाणाण वा कोहि जमाणाण वा उकरि जमाणाण वा रुचिजमाणाण वा भाएज्जमाणाण वा भंडातो भंड साहरि जमाणाण वा ओसला मणुग्णा मणहरा घाणमणनिव्वुइकरा ट्रा सबसो समंता अभिनिस्सरंति, भवे एयारूवे, नो इणढे समहे, तेसि मगीणं इतरगाए चेव गंधे पण्णत्ते, अत्र कुष्ठं-गन्ध-11 द्रव्यं प्रतीतमेव चोओ-गन्धद्रव्यविशेषः स्नानमल्लिका-मल्लिकाविशेषः, एतेषां पुटानां प्रतिवाते-आघायकावेवक्षितपुरुषाणां प्रत्यभिमुखं वाते वाति सति उद्भिद्यमानानाम्-उद्घाट्यमानानां 'कोट्टि जमाणाण वा' इति इह पुटैः परिमितानि यानि कोष्ठादीनि गन्धद्रव्याणि तान्यपि परिमेये परिमाणोपचारात् कोष्ठकुटादीनीत्युच्यन्ते तेषां कुचमानानाम्-उदूपलेन क्षुधा मानानां संचिजमाणाण वा' इति श्लक्ष्ण खण्डी क्रियमाणानामेतच विशेषग कुष्ठादिद्रयाणामबसेयं, तेषामेव प्रायः कुट्टनश्लक्ष्णखण्डीकरणसम्भवात्, न तु यूथिकादीनाम्, उक्करिजमाणाण'क्षुरिकादिभिः कुष्ठादिसुटानां कुष्ठादिगन्धद्रव्याणां वा उत्कीर्यमानानां परिभाव्य (ज्य) मानानां-पार्श्ववर्तिभ्यो मनाक् मनारदीयमानानां, तया भाण्डादेकस्मात् स्थानाद् भाण्ड-1 दीप अनुक्रम Akhter Jan Education ForFive Persanamory annlionary.org ~81 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: मणीनां गन्धः प्रत | स्पर्शश्च सुत्रांक दीप अनुक्रम उपोदात- भाजनान्तरं संहियमाणानां पदारा:-स्फाराः, ते चामनोज्ञा अपि स्युः अत बाह-मनोज्ञा-मनोऽनुकूला, तश मनोज्ञत्वं नियुक्ति कुत इत्याह-मनोहरा-मनोहरन्तीति-आत्मवशं नयन्तीति मनोहरा वतस्ततो मनोज्ञान, तदपि मनोहरत्वं कुत इत्याह माणमनोनिवृतिकराः। तेसि णं मणीर्ण हमे एयारूवे फासे पण्णत्ते, से जहानामए आईणेइ वा रुएइ वा पूरेइ वा नवणीएड ॥१७९॥xमामला ४वा हंसतूलेइ वा सिरीसकुसुमनिचएइ वा बालकुसुमपत्तरासीइ वा, भवे एयारवे, नो इणढे समढे, ते णं मणी एत्तो इ तरा चेव कंततरा चेव मणुण्णतरा चेव मणामतरा चेव फासेणं पण्णता, तए णं से आभियोगे पालए तस्स दिवस जाणविमाणस्स बहुमज्झभागे एस्थ णं पेच्छाघरमंडवं विउवइ, अणेगखंभसयनिविटुं अन्मुग्गयसुकयवरवेइयातोरणवरवेइयसालंभजियागसुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठिअपसस्थवेरुलियविमलखंभ नाणामणिकणगरयणखचिओजलबहुसमसुविभचदेसभाग ईहामिगउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नरहरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं कंचणमणिरयणथूभियागं नाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिहरं चंचल (चवल) मरीचिकवयं विणिम्मुयंत लाउल्लोइयमहियं गोसीसरसचंदणदहरदिन्नपचंगुलितलं एवचियवंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं आसत्तोसत्तविउलवट्ठवग्धारियमल्लदामकलावं पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलियं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमघमपंतगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरग-1 धगंधियं गंधवट्टिभूअं दिखतुडियसद्दसंपणइयं अच्छे सण्हं जाव पडिरूवं, अत्र 'अम्भुग्गये'त्यादि, अभ्युद्गता-अत्युत्कटा सुकृता-सुनिष्पादिता वरवेदिका तोरणानि वरवेदिकाशालभलिकाश्च यत्र तदभ्युद्गतसुकृतवरवेदिकातोरणवरवेदिकाशालभलिकाकं, तथा सुश्लिष्टा विशिष्टा लष्टसंस्थिता-मनोज्ञसंस्थानाः प्रशस्ता-वास्तुलक्षणोपेता वैदूर्यविमलस्तम्भा-वैडूर्यर 27 % ॥७९n Jan Fairysanelibrary.orm ~82 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: * प्रत ५+64. सत्रांक समया विमलाः स्तम्भा यत्र तत्सुश्लिष्टविशिष्टलष्टसंस्थितप्रशस्तवैडूर्यविमलस्तम्भ, नानामणिकनकरक्षानि खचितानि यत्रस नानामणिकनकरखचिता, सुखादिदर्शनानिष्ठान्तस्य परनिपातः, नानामणिकनकरतखचित उज्वलो-निर्मलो बहुसमाअत्यन्तसमः सुविभक्तो भूमिमागो यत्र तत्तथा, 'कंचणमणिरयण)भियाग'मिति काञ्चनमणिरतानां काशनमणिरसमयी स्तूपिका यत्र यत्तथा, नानाविधाभिः-मणिरत्नप्रकाराभिः पञ्चवर्णाभिः घण्टाभिः पताकाभिश्च परि-सामस्त्येन मण्डितमप्रशिखरं यस्य तत् नानाविषपञ्चवर्णघण्टापताकापरिमण्डितामशिखर, चपलं-पश्चलं चिकचिकायमानत्वात्, मरीचिकवच-किरणजालपरिक्षेपं विनिर्मुश्चत् 'लाउल्लोइयमहिय' लाइयं नाम यत् भूमेर्गोमयादिना उपलेपनम् उल्लोइयं-कुख्यानां मालस्य च सेटिकादिभिः सम्मृष्टीकरणं लाउल्लोइयाभ्यामिव महितं-पूजितं लाउल्लोइयमहिय, तथा गोशीर्षेण-गोशीर्षनामकचन्दनेन सरसरक्तचन्दनेन चदईरेण-बहलेन चपेटाकारेण वा दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला:-हस्तका यत्र तत् गोशीर्षचन्दनदईरदत्तपञ्चाङ्गुलितलं,तथा उपचिता-निवेशिताः चन्दनकलशा-मङ्गलकलशा यत्र तदुपचितचन्दनकलश, तथा चन्दनपटैः| चन्दनकलशैः सुकृतानि-सुत्रु कृतानि शोभितानीति तात्पर्यार्थः यानि तोरणानि तानि चन्दनघटसुकृतानि तोरणानि प्रतिद्वारदेशभार्ग-द्वारदेशभागे २ यत्र तत् चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभाग, तथा आ-अवाङ् अधोभूमौ सक्त आसक्तः भूमौलग्न इत्यर्थः ऊर्व सक्त उसका उल्लोचतले उपरिसम्बद्ध इत्यर्थः विपुलो-विस्तीर्णः वृत्तो-वर्तुल वग्धारियः-अलम्बितो माल्यदामकलाप:-पुष्पमालासमूहो यत्र तदासकोत्सतविपुलवृत्तमलम्बितमास्यदामकलापः, तथा पञ्चवर्णेन सरसेनसाइँण सुरभिणा मुक्केन-विन पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलितं पश्चवर्णसरससुरभिमुक्तपुष्पपुझोपचारकलितं, दीप अनुक्रम kN -Rotre Jan E rcan andorary.org ~834 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोदात- तथा दिव्यानां त्रुटितानाम्-आतोद्यानां वेणुवी गामृदङ्गादीनां ये शब्दास्तैः सम्प्रमदित-सम्पक श्रोत्रमनोहारिनवा पकण प्रभाग नियुक्तिनदितं-शब्दवत् दिव्यत्रुटितशब्दसम्प्रगदितं, शेष प्राग्वत् । तस्स पेच्छाघरमंडवस्त बहुस नरमणि जं भूमिभाग विपदण्डपः सिं तस्स वण्णतो जाव मणोणं फासो,तस्स णं पेच्छाघरमंडवस्स उल्लोयं विउबइ पउमलयभत्तिचित्तं अच्छे सण्हं जाव पडिरूवं, हासनं च ॥१८॥ तस्स गं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महं वयरामयं अखाडगं विउ,तस्स णं अक्वाडगस्स | बहुमज्झदेसभागे एत्य णं महं एर्ग मणिरेढियं विज्बइ अटु जोषणाई आयामविक्वंभेगं चत्तारे जोयगाई बाहले गं सबमणिमयं अच्छं जाव पडिरूवं, तीसे णं मणिपेढियाए उपरि एत्थ णं महं एगं सीहासणं विउबइ, तस्स णं सीहासणस्स इमे एयारूवे वण्णायासे पष्णते, तंजहा-तवणिजमया चकला रयगामया सीहा सोबगिया पाश मगिनपाई पाय तीसगाई जंबूणयमयाई गत्ताई नाणामणिमए विचासणं सीहासणे इहामिग(जलभ)तुरगनरमगरविहगवाउगकिरहरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं ससारसारोवचियमणिरयण रायवीढे अत्थरगमदुमपूरनवत्तय कुसंतलिचकेसरपबुत्युवाभिरामे |सुविरइयरयत्ताणे ओयवियखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे रसुयसंबुए सुरम्मे आइणगायबूरनवणीयतूमासे पासाईए जाव |पडिरूवे, एतत् सर्व माग्वत्, तस्स णं सीहासणस्स उवरि एत्थ णं महं एगं विजयदूस विवइ, संखककुंददगरयमित्र४ महिआफेणपुंजसंनिगास सबरयणामयं अच्छे सण्हं जाव पडिहवं, विजयदृष्यं नाम वखविशेषः, कवम्भूतमित्याह-संख-3 के'त्यादि, शङ्कः प्रतीतः अहो-रजावेशेषः कुन्देति-कुन्दकुसुमं दकरज-उदककणा अमृतत्य-धीरोदपिजल व मथितस्य या फेनपुंजो-डिण्डीरोत्करस्तरसंनिक्काश-तत्समप्रभ सर्वात्मना रसमय सर्वरक्षन । तस्स पं सीदासणस वरि विजय tortonkitcrtorest दीप अनुक्रम X F ~84~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक 44444466 सस्स य बहुमज्मदेसभागे एत्थणं वइरामयं अंकुसं विउबइ, तस्सिं च णं वइरामयंसि अंकुससि कुंभग्गं मुत्तदाम विउवद | से णं कुंभग्गे मुत्तदामे अन्नेहिं चाहिं कुंभग्गेहिं मुत्तादामेहिं तददुच्चत्तपमाणेहिं सवतो समंता संपरिक्खित्ते, ते णं दामा तवणिजलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया नाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियसमुदाया इसि अन्नमन्नमसंपत्ता पुवावरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहिं मंदायं २ इज्जमाणाणं इजमाणाणं वइजमाणाणं २पलंबमाणाणं २ पझंझमाणाणं २ ओरालेणं मणु-1 पणेणं मणहरेणं कण्णमणनिब्बुइकरेणं सद्देणं ते पएसे सबतो समंता आपूरेमाणा २ सिरीए अतीव उवसोमेमाणा २ चिट्ठति, अत्र 'अंकुसं विउपई'त्ति अङ्कुशाकार मुक्तादामावलम्बनाश्रयं विकुर्वति, तस्मिंश्च वज्रमये अङ्कुशे कुम्भाग्रं-मगधदेशपसिद्ध कुम्भपरिमाणं मुक्कामयं मुक्कादामं विकुर्वति, ते णं दामा' इत्यादि तानि पञ्चापि दामानि तपनीयस्य-तपनीयमयो लम्बू सको-मण्डलविशेषरूपो भागो येषां प्रलम्बमानानां तानि तथा, तथा नानामणिरत्नाना-नानामणिरक्षमयैर्विविधैः-विचित्र-13 हारैरीहारैश्च उपशोभितः-सामस्त्येन शोभितः समुदायो येषां तानि तथा, तथा ईषत्-मनागन्योऽन्य-परस्पर-16 मसम्पाप्तानि-असंलग्नानि पूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैतिर्मन्दायं मंदायमिति-मन्दकं २ मन्दं मन्दमित्यर्थः, 'एजमानानि 'भृशाभीक्ष्णाविच्छेदे द्विःप्राक्कमवादे रित्यविच्छेदे द्विवचनं यथा पचति पचतीत्यर्थः, तथा व्यग्यमानानि, कम्प-18 नवशादेव घर्षः, इतस्ततो मनाक् चलनेन प्रलम्बमानानि २, ततः परस्परसम्पर्कवशतः 'पझंझमाणा २' इति शब्दायमानानि २,शेष सुगमम् । तए णं से आभियोगे पालए देवे तस्स सीहासणस्स अवरुत्वरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरथिमेणं एत्वर्ण सकस्स देविंदस्स देवरपणो चउरासीइए सामाणियसाहस्सीणं चउरासीइसहस्साई भद्दासणाई विउवा, वस्स णं सीहासणस्स दीप अनुक्रम H JanEentaries ForFive Persanamory ~-85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घात निर्युक्तिः १८१ ॥ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ निर्युक्तिः [१८४ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ ३...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अध्ययनं [-], पुरस्थिमेणं अट्ठण्डं अग्गमहिसीणं अड भद्दासणाई बिरवर, तस्स वं सीहासणस्स दाहिणपुरत्थिमेणं एत्थ णं सकस्स देविंदस्स देवरण्णो अभितरपरिसाए दुबालसन्हं देवसाहस्सीणं दुबालस भद्दासणसाहस्सीतो विजबइ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणेणं एत्थ णं सकस्स मज्झिमपरिसाए चउदसण्डं देवसाहस्सीणं चउदस भहासणसाहस्सीतो विउबइ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपञ्चत्थिमेणं सकस्स बाहिरपरिसाए सोलसहं देवसाहस्सीणं सोलस | भद्दासणसाहस्सीतो विउबइ, तस्स णं सीहासणस्स पञ्च्चत्थिमेणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं तत्त भद्दासणे विजबइ, तस्स णं सीहासणस्स चउद्दिसिं एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो च उण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं चत्तारि चउ | रासीतो भद्दासणसाहस्सीतो विउबइ, तंजहा- पुरत्थिमेणं चउरासीइ भद्दासणसाहस्सीतो विउधर, दाहिणेणं चउरासीद भासण साहस्सीओ विउबइ, पचत्थिमेणं चउरासीइं भद्दासणसाहस्सीतो विजबइ, उत्तरेणं चउरासीह भद्दासण साहस्सीतो विवर, तस्स णं दिवस्स जाणविमाणस्स इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते से जहा नामए अचिरोग्गयस्स वा हेमंतियबालसूरियस्स खाइलिंगालाण वा रत्तिं पज्जलियाणं जासुमणवणस्स वा किसुयवणस्स वा परिजायवणस्स वा सवतो समंता संकुसुमियस्स, भवे एयारूवे १, नो इणडे समट्टे, तस्स णं दिवस्स जाणविमाणस्स इतो इद्वतरागे चैव कंततरागे चैव मणुण्णतरागे चैव मणामतरागे चैव वण्णे पण्णत्ते, गंधो फासो य जहा मणीणं, ततो तेण से आभियोगे पालए देवे तं दिवं आणविमाणं बिउवित्ता जेणेव सके देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छेत्ता सकं देविंद देवरायं करयखपरिग्गहियं सिरसावतं मत्थर अंजलिं कट्टु जपणं विजपणं वद्भावेति बद्धावेत्ता तमाप्यतियं पक्ष ~86~ पुष्पकवि मानरचना ॥१८२॥ wwsanelibrary.org Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक प्पिणइ । तप णं से सके देविंद देवराया आभियोगस अंतिए एवम सोचा हद्वतु जाव विसप्पमाणहियए दिवं| जिणिंदामिगमणजोगं उत्तरबेउवियरूवं वेउवित्ता अद्वहिं अम्गमहिसीहि सपरिवाराहिं दोहिं अणीपहि, तंजहा-नहाणीएणं |गंधवाणीएण य, सद्धिं संपरिबुडे तं दिवं जाणविमाणं अणुपयाहिणीकरेमाणे पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवेणं दुरूहा दुरूहित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ उचागच्छिचा सीहासणवरगते पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने, तते ण तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो चउरासीई सामाणियसाहस्सीतो तं दिवं जाणविमाणं अणुपयाहिणीकरेमाणा उत्तरिलेणं तिसोवाणपडिस्वेणं दुल्हति दुरूहित्ता पत्तेयं २ पुषन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति, अवसेसा देवा देवीतो य तं दिवं जाय|विमाणं अणुपयाहिणीकरेमाणा दाहिणणं तिसोवाणपडिरूवेणं दुरुहंति, दुरूहिता पत्तेयं पत्तेयं पुवन्नत्येसु भहासणेसु| |निसीयंति, तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरपणो तं दिवं जाणविमाणं दुरुढस्स समाणस्स अट्टमंगलगा पुरतो अहाPणुपुबीए संपत्थिया, तंजहा-सोत्थियसिरिवच्छजाव दप्पणो, तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारदिवायवत्तपडागा सचा मरा दंसणरइया आलोयदरिसणिज्जा वाउडुयविजयवेजयंती य ऊसिया गयणतलमणुलिहंती पुरतो अहाणुपुबीए संफस्थिया, अस्या व्याख्या-पूर्णकलशभृङ्गारदिव्यातपत्रपताकाः सचामराः, कथम्भूता इत्याह-दर्शनरतिकाः, पुनः किंविशिष्टा इत्याह-आलोके दर्शनीया-द्रष्टुं योग्या न पुनरत्युच्चा इत्यालोकदर्शनीयाः, तथा वातोद्धता विजयसूचिका वैजयन्ती विजयवैजयन्ती च उत्स्ता-ऊद्धींकृता गगनतलमनुलिखन्ती-अभिलमयन्ती पुरतो यथानुपूर्यो सम्पस्थिता । तयणंतरं च णं वेरुलियभिसंतविमलदंड पठंबकोरंटमल्लदामोवसोभियं चंदमंडलनिभं समूसियं विमलमायवत्तं पवरसी COCRACK दीप अनुक्रम wiewsanelibrary.orm ~-87 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: जवर्णन प्रत मोदास-1 नियुक्तिः ॥१८॥ हासणं च मणिरयणभत्तिचित्तं सपायपीढं पाउयाजोगसमाउत्तं बहुकिंकरामरपरिम्गहियं पुरतो अहाणुपुषीए संपत्वियं, एतत्पाठसिद्धं । तयणंतरं चणं वइरामयवट्टलट्ठसंठियसिलिट्ठपरिघद(मट्ट)सुपइदिए अणेग[प]वरपंचवण्णकुडभीसहस्सपरिम हस्सपारमा | डियाभिरामे वाउडुयविजयवेजयंतीपडागाछत्तातिच्छत्तकलिते तुंगे गगणतलमभिलंघमाणसिहरे जोयणसहस्समूसिए महइमहालए महिंदज्झए पुरतो अहाणुपुवीए संपत्थिए, अत्र वज्रमयो-वज्ररत्नात्मको वृत्तो-वर्नुलः लष्टसंस्थितो-मनोज्ञसंस्थानः श्लिष्टः-सुसंहतावयवः परिघृष्ट इव खरशानया पाषाणप्रतिमेव परिघृष्टः मृष्ट इव-मसृणीकृत इव सुकुमारशानया पापाणप्रतिमावत् मृष्टः सुप्रतिष्ठितो-यत्र मुक्तस्तत्र सुनिश्चलः, तत एषां पदानां पदद्वयपदद्वयमीलनेन विशेषणसमासः, यथाऽनेकैवरैः-प्रधानः पञ्चवर्णैः कुडभीसहनैः-लघुपताकासहस्रैः परिमण्डितः सन् अभिरामोऽनेकवरपञ्चवर्णकुडभीसहस्रपरिमण्डिताभिरामः, तथा वातोद्भूता विजयसूचकवैजयन्तीरूपाः पताकाश्छनातित्राणि च तैः कलितः, |शेष सुगमं । तयणंतरं च णं सुरूवनेवत्थहवपरियच्छिया सुसज्जा सवालंकारविभूसिया महया भडचडगरपहकरेणं पंच अणीया पंच अणीयाहिवइणो पुरतो संपत्थिया, अत्र सुरूपं नेपथ्यं हवं-शीघ्रं परिकक्षितं-परिगृहीतं यैस्ते तथा, सुठुअतिशयेन सज्जाः-स्वसामग्रीयुकतया प्रगुणीभूता महता भटचटकरपहकरेण-चटकरप्रधानभटवृन्देन, शेषं प्रतीतम् ।। तए णं आभियोगा देवा देवीतो य सरहिं सएहिं स्वेहिं सएहिं सरहिं विहवेहि सएहिं २ निज्जोगेहिं पुरतो अहाणुपुबीए संपत्थिया, तवणंतरं च णं बहवे सोहम्मवासिणो देवा य देवीतो य सबड्डीए सबजुईए.जाव संखपणवपडहभेरिझल्लरिजाव-12 नाइयरवेणं सकं देविंद देवराय पुरतो पासतो मग्गतो अणुगच्छंति, तते णं से सके देविंद देवराया पंचाणीयपरिक्खि दीप अनुक्रम वाल॥१८॥ JanEdititonirani ForFive Persanamory ~88 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक तेणं वइरामयलट्ठसंठियजावजोयणसहस्समूसिएण महइमहालएणं महिंदग्झएणं पुरतो पकहिजमाणेणं पकहिजमाणेणं चउरासीए सामाणियसाहस्सीहिं जाव चउहिं चउरासीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिं बहिं सोहम्मकप्पवासीहि वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे सबड्डीए सबजुईए जाव संखपणवजावनादितरवणं सोहम्मकप्पस्स मज्झमग्झेणं तं दिवं देवहिं दिवं देवजुई दिवं देवाणुभावं उपदंसेमाणे पडिजागरेमाणे जेणेव सोहम्मस्स कप्पस्स उत्तरिल्ले निजाणमग्गे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जोयणसयसाहस्सिएहिं विग्गहेहिं ओवयमाणे ताए उकिट्ठाए जाव दिवाए देव-18 गतीए तिरियमसंखेजाणं दीवसमुद्दाणं मझमज्झेणं विइवयमाणे विइवयमाणे जेणेव नंदीसरे दीवे जेणेव पुरथिमिले। रइकरपथए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छिता तं दिवं देवहिंजाव दिवं देवाणुभावं पडिसाहरेमाणे जेणेव जंबुद्दीव दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव भगवतो आदितित्थगरस्स जम्मणभवणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता भगवतो आदितित्धयरस्स | जम्मणभवणं तेणं दिवेणं जाणविमाणेणं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता भगवतो आदितित्थगरस्त जम्मणभवणस्स उत्तरपुरस्थिमिल्ले दिसीभागे चउरंगुलनसंपत्तं धरणितलंसि तं दिवं जाणविमाणं ठवेइ ठवित्ता अग्गमहिसीहिं दोहिं य अणीएहिं तंजहा-धधाणीएण नडाणीपण य, सद्धिं संपरिबुडे ततो दिवातो जाणविमाणातो पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवेणं पचोरुहइ, तए णं सक्करस देविंदस्स देवरण्णो चउरासीए सामाणियसाहस्सीतो ततो दिवातो. जाणविमाणातो उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवेणं पच्चोरुहंति, अवसेसा देवा य देवीतो य ततो दिवातो जाणविमाणातो । दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरवेणं पञ्चोरुहंति, तवेणं सके देविंद देवराया चउरासीए सामाणियसाहस्सीहिं जाव चाहिंता दीप अनुक्रम R44 ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्धात- प्रत धरासीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिं बहूहिं सोहम्मकप्पवासीहिं वैमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य सर्विसंपरिपुरे सबड्डीए आदिजि. सबजुईए जाव संखपणवपडहभेरि जाव नादितरवेणं जेणेव भयवं सिस्थयरे तिस्थगरमाया य तेणेव उवागछा उचा- नभवनामगच्छित्ता आलोए पणामं करेइ करता भयवं तित्थयरं तित्थयरमायरं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करेचा करव-14 लपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कहु एवं वयासी-नमोऽत्थु ते रयणकुच्छिधारिए, एवं जहा दिसाकुमारीसो जाव घन्मासि सपुण्णासि तं कयत्थे।, अहण्णं देवाणुप्पिए । सक्के नाम देविंद देवराया भगवतो तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करेस्सामि, तं गं तुम्भेहिं न भाइयचंतिकट्ठ ओसोयणि दलइ २ ता तिस्थयरपडिरूवर्ग विउपह, विउवित्ता तित्ययरमाऊए पासे ठवेइ, ठवेत्ता पंच सके विउवा, एगे सक्के भगवं आदितित्थयरंकरयलपुडेणं गेण्हइ, एगे सके पिढतो आयवतं घरोइ, दुवे सका उभतो पासिं चामरुक्खेवं करेंति, एगे सके पुरतो वजपाणी वहा, 'गहियजिणिंदो एको दोहिउ पासेटि चामरा गहिया। धवलायवत्तकलितो एक्को एको य वजधरो॥॥ तए णं से सके देविंद देवराया अण्णेहि य बहूहिं भवपवाइवाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे सबड्डीए सबजुईए जाव संखपणवपडह जाव नादि| तरवेणं ताए उकिटाए जाच दिवाए देवगईए जेणेव मंदरे पथए जेणेव पंडगवणे जेणेव अभिसेयसिला जेणेव आभि-| | सेए सीहासणे तेणेव उवागच्छा स्वागच्छिता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे संनिसचे । तेणं कालेणं तेणे समएणं PIRen ईसाणे देविंदे देवराया सूलपाणी वसंभवाहणे उत्तरद्धलोगाहिवई महावीसविमाणसयसहस्साधिवई अरयंबरवस्थघरे एवं बहा सके, नवरं मं नाण-महाघोसा घंटा लहुपरकमे पायताणीयाहिवई, पुण्फतो विमाणकारी, दक्षिणा निजा दीप अनुक्रम Jana ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक रणभूमी, उत्तरपुरथिमिल्ले एकरगपषते, मंदरे समोसरितो जाव पञ्जवासइ, एवमवसेसावि इंदा भाणियवा जाव अवतो, इमं नाणसं-पउरासीती १ असीती २ बावत्तरी व ३ सत्तरी य ४ सट्ठी ५ पण्णा तालीसा - तीसा वीसा 51 दस सहस्सा १० एते सामाणिवा, बत्तीस अट्ठावीसा बारस अट्ठ पउरो सयसहस्सा, पण्णा चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहसारे, आणथपाणयकप्पे चचारि सया, आरणचुए तिणि सया, एए विमाणा, इमे जाणविमाणकारी-पालए १ पुष्फए २ सोमणसे द सिरिषच्छे ४ नंदियावत्ते ५ कामगमे ६ पीइगमे ७ मणोरमे ८ विमले ९ सवतोभदे १०, सोहम्मगाणं सर्णकुमाराणं ५ बंभलोगाणं महासुकाणं आणय आरण]गाणं सुघोसा घंटा हरिणेगमेसी पायताणीयाहिवती उत्तरिल्ला निजाणभूमी दाहिणपुरथिमिल्ले रइकरगपचते, ईसाणगाणं माहिंदलंतगसहस्सार पाणय] अञ्चयइंदाणं महाघोसा घंटा लहुपरक पायताणीयाधिवती दक्षिणिल्ले निजाणमग्गे उत्तरपुरस्थिभिल्ले रतिकरगपवते, सकस्स अभितरपरिसाए दुवालस देवसहस्सा मशिमपरिसाए चोदस देवसहस्सा बाहिरपरिसाए सोलस देवसहस्सा, ईसाणस्स अम्भितरपरिसाए दस देवसहस्सा मज्झिमपरिसाए बारस देवसहस्सा बाहिरिआए परिसाए चोद्दस देवसहस्सा, सर्णकुमारस्स अम्भितरपरिसाए अह देवसहस्सा मज्झिमिआए परिसाए दस देवसहस्सा बाहिरिआए परिसाए वारस देवसहस्सा, माहिदस्स देविंदस्स अम्भित-18 रिमाए परिसाए छ देवसहस्सा मज्झिमियाए परिसाए अट्ठ देवसहस्सा बाहिरपरिसाए दस देवसहस्सा, बंभलोगस्स। अभितरियाए परिसाए चत्तारि देवसहस्सा मज्झिमपरिसाए छ देवसहस्सा बाहिरपरिसाए अह देवसहस्सा, लंतगस्स। अम्भितरपरिसाए दो देवसहस्सा मजिसमपरिसाए पत्तारि देवसहस्सा बाहिरपरिसाए छ देवसहस्सा, महासुफस्स अभि-18 दीप अनुक्रम % % E * ForFive Persanamory wwwwsanelitary.orm ~91 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: दिपरिवा प्रत सुत्राक उपोदात-19 तरपरिसाए एगा देवसाहस्सी मज्झिमपरिसाए दो देवसाहसीतो बाहिरपरिसाए चत्तारि देवसाहस्सीतो, सहस्सारस्स61 अच्युताल अभितरपरिसाए पंच देवसया मज्झिमपरिसाए एगा देवसाहस्सी बाहिरपरिसाए दो देवसाइस्सीतो, आणयपाणयेदस्स अम्भितरपरिसाए अड्डाइज्जा देवसया मज्झिमपरिसाए पंच देवसया बाहिरपरिसाए एगा देवसाहस्सी, आरणअञ्चुइंदस्स रादि ॥१८॥ अभितरपरिसाए पणवीसं देवसयं मज्झिमपरिसाए अड्डाइजा देवसया बाहिरपरिसाए पंच देवसया । आयरक्खा सबेसि सामाणियचउरगुणा, जाणविमाणा सबेसि जोयणसयसहस्सविच्छिण्णा उच्चत्तेण सविमाणप्पमाणा, महिंदझया सबेसि | जोयणसाहस्सिया, सकवज्जा मंदरे समोयरंति जाव पजुवासंति । तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे असुरराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहाससि चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसगेहिं चउहिं लोगपालेहिं पंचहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहि तीहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीएहिं सत्तहिं अणीआहिबईहिं चरहिं चउसट्ठीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि य चमरचंचारायहाणिवत्यवेहिं बहूहिं असुरकुमारहिं देवेहिं देवीहि य एवं जहा सके, नवरं इमं नाणत्तं- दुमो पायत्ताणीयाहिबई ओघस्सरा घंटा विमाणं पण्णासं जोयणसहस्साई महिंदशओ पंचजोयणसया विमाणकारी आभियोगे देवे, अवसिटुं तं चेव जाव मंदरे समोसरह । तेणं कालेणं वेणं समएणं वली असुरिंदे असुरराया बलिचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए वलिंसि सीहासणंसि सहीए सामाणियसाहस्सीहिं ॥१८ तायत्तीसाए तायत्तीसगेहिं चउहि लोगपालेहिं पंचहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहि तीहिं परिसाहिं सत्चहिं अणिपहि सत्तहिं अणियाहिवईहिं चरहिं सड़ीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि,सेसं जहा चमरस्स, नवरं महादुमो पायचाणीयाहिबई महा दीप अनुक्रम ACT A a ntinrary.orm. ~92~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education Iren “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१८४ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ ३...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ओघस्सरा घंटा, सेसं तं चैव मंदरे समोसरइ, पज्जुवासइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं धरणे नागिदे नागराया तद्देव नाणचं छ सामाणियसाहस्सीते छ अग्गमहितीतो चउग्गुणा आयरक्खा मेघस्सरा घंटा भद्द सेणो पायत्ताणीयाहिवई विमाणं | पणवीसं जोयणसहस्साई महिंदज्झतो अढाइलाई सयाई, एवं असुरिंदवज्जियाणं सबेसिं भवणवासिइंदाणं, नवरं इमं नाणतंअसुराणं ओघस्सरा घंटा नागाणं मेघस्सरा सुवण्णाणं हंसस्सरा विज्जूणं कोंचस्सरा अग्गीणं मंजुस्सरा दिसाणं मंजुघोसा उयहीणं सुसरा दीवाणं मधुरसरा वाऊणं मंदस्सरा थणियाणं नंदिघोसा, तथा चउसडी सही खलु छच्च सहस्सा असुरवज्जाणं, दाहिणिल्लाणं पायत्ताणियाहिवई भद्दसेणो, उत्तरिल्लाणं पायत्ताणीयाहिवई दक्खो, चमरस्स अम्भितरपरिसाए चवीसं देवसहस्सा मज्झिमियाए अट्ठावीसं देवसहस्ता बाहिरियाए बत्तीसं देवसहस्सा, बलिस्स अग्भितरियाए परिसाए वीसं देवसहस्सा मज्झिमियाए चडवीसं देवसहस्सा बाहिरियाए अट्ठवीसं देवसहस्सा, घरणस्स अग्भितरियाए परिसाए सही देव सहस्सा मज्झिमियाए सत्तरिं देवसहस्सा बहिरियाए असीइ देवसहस्सा, भूयाणंदस्त अभितरियाए | परिसाए पण्णासं देवसहस्सा मज्झिमियाए सट्ठी देवसहस्ता बाहिरियाए सत्तरी देवसहस्ता, एवं जहा धरणस्स तहा | सबेसिं दाहिणिल्लिदाणं, जहा भूयाणंदस्स तहा सबेसिं उत्तरल्लिदाणं । तेणं कालेणं तेणं समएणं काले नाम पिसाईदे पि सायराया चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं तीहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीपहिं सत्तहिं | अणियाहिवईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं तं चैव एवं सचेसिं, नवरं महिंदज्झया पणुवीसं जोयणसया, घंटा दाहिणाणं मंजुसरा उत्तरिल्लाणं मंजुळसा, पायताणीयाहिवई विमाणकारी व आभियोगा देवा, सबेसिं अभितरपरि For Peace & Personal Use Only ~93~ anlibrary.org Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H, भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अभिषेक| सामघ्यानयनं प्रत दीप अनुक्रम उपोद्धात |साए गढ़ देवसहस्सा मज्झिमपरिसाए दस देवसहस्सा बाहिरियाए दुवालस देवसहस्सा, सबे मंदरे समोसरंति, जाव निर्यचिदिपज्जुवासंति । तेणं कालेणं तेणं समएणं जोइसिंदा जोइसरायाणो पत्तेयं पत्तेयं चरहिं सामाणियसाहस्सीहिं पउहि अग्ग- महिसीहिं तीहिं परिसाहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं एवं जहा वाणम- तरा एवं चंदसूरावि, नवरं दाहिणिलाणं चंदसूराणं सुसराओ घंटाओ, उत्तरिलणं सुसरनिघोसाओ घंटाओ, परिसापरिमाणं जहा वाणमंतराणं, सो मंदरे समोसरंति जाव पजुवासंति । तेणं कालेणं तेणं समएणं अचुए देविंदे देवराया महं देवाहिवे आभियोगं देवं सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो। महत्थं महग्धं महरिहं विउलं तित्थयराभिसेय उवहवेह, तए णं ते हतुट्ठजायविणएणं पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसीभार्ग अवकर्मति अवक्कमित्ता वउवियसमुग्याएणं इसमोहणइ समोहणित्ता संखिज्जाई जोयणाई दंडं निसरइ तंजहा-रयणाणं वयराणं जाव रिहाणं, अहावायरे पोग्गले परिसाडंति परिसाडित्ता अहासुहुमे पोग्गले परियायंति परियायित्ता दोश्चपि बेउषियसमुग्धाएणं समोहणंति समोहणिता असहस्सं सुवण्णमयाण कलसाणं १, असहस्सं रुप्पमयाणं कलसाणं २ अडसहस्स मणिमयाणं कलसाणं ३ असहस सुवण्णरुप्पमयाण कलसाणं ४ असहस्सं सुवण्णमणिमयाणं कल साणं ५ अट्ठसहस्सं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं ६ महसहस्सं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं कलसाणं ७ अट्ठसहस्सं भोमेजाणं कलसाणंद, अट्ठसहस्सं चंदणकलसाणं ९ अद्वसहस्सं भिंगारार्ण २० अदुसहस्सं आयंसाणं ११ असहस्सं थालाणं १२ अहसहस्सं पाईणं १३ असहस्सं सुपइहाणं १४ अट्ठसहस्सं रयणकरंडगाणं १५ अडसहस्सं वातकरगाणं १६वातकरका नाम बहिश्चित्रिता उपरि गवच्छिता मध्ये जलशून्याः करका, अदुस Jan viewsanelibrary.orm ... जिन-जन्माभिषेक्स्य अभिषेक-सामग्रे: वर्णनं ~94~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ESAR प्रत सत्रांक दीप अनुक्रम हस्सं पुष्फचंगेरीण १७ अदुसहस्सं मल्लचंगेरीणं १८ अट्ठसहस्स चुण्णचंगेरीणं १९ अनुसहस्सं वत्थचंगेरीण २० असहस्स आभरणचंगेरीण २१ अङ्कसहस्सं लोमहत्थगचंगेरी] २२ अट्ठसहस्सं पुष्फपडलगाणं २३ एवं जाव असहस्सं लोमहत्थगपडलगाणं २४ अवसहस्सं सीहासणाणं २५ अदुसहस्सं छत्ताणं २६ अट्ठसहस्सं चामरगाणं २७ अट्ठसहस्सं तेल्लसमुग्गाणं २८ एवं जाव अद्वसहस्सं अंजणसमुग्गाणं, एस्थ संगहणिगाहा-"तेल्ले कोट्ट समुम्गे पत्ते चोए य तगर एला य। हरियाले हिंगुलप मणोसिला अंजणसमुग्गा ॥१॥ अट्ठसहस्सं घूवकडुच्छुयाणं विउपइ, विउवित्ता साभावियबेउपिए य कलसे जाव धूवकडुच्छुए गेण्हति गेण्हेत्ता जेणेव खीरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता खीरोदगं गेण्हंति गेण्हेक्षा जाई तत्थ उप्पलाई पउमाई सुभगाई सोगंधियाई पोंडरीयाई महापोंडरीयाई सयपत्ताई सहस्सपचाई ताई गेहंति गेण्हेत्ता जेणेच पुक्खरोदे समुहे तेणेच उवागच्छति उवागच्छिता पुक्खरोदगं गेण्हंति गेण्हेत्ता जाई तत्था उप्पलाई जाव सहस्सपत्ताई ताई गिण्हंति गिहित्ता जेणेव समयखेते जेणेव भरहेरवयवासाई जेणेव मागहवरदामप्प|भासाई तिस्थाई तेणेव उवागच्छति उवागरिछत्ता तित्थोदगं गेहति तित्थोदगं गेण्हित्ता तिस्थमट्टियं गेहंति गेण्हेत्ता जेणेव गंगासिंधुरत्तारत्तवतीतो य महानदीतो तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेण्हंति, नद्युदकं गृहन्तीत्यर्थः, गेण्हेत्ता उभयोतहमट्टियं गेण्हति गेण्हेत्ता जेणेव चुल्लहिमवंतसिहरी तेणेव उवागच्छति उवागरिछत्ता सबतूबरे | सवपुप्फे संवगंधे सबमल्ले सबोसहिसिद्धथए य गेण्हंति गिण्हित्ता जेणेव पउमद्दहपुंडरीयद्दहातो तेणेव उवागच्छंति, उवाग-1 हाच्छित्ता दहोदयं गेहंति २ जाई तत्थ उप्पलाई जाव जाई तत्थ सहस्सपत्ताई ताई गेण्हंति गेण्हेचा जेणेव हेम-] - - Jando Raviewsanelibrary.orm ~95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोदात-14वएरण्णवयाई वासाई जेणेव रोहियारोहियंससुवण्णकूलरुप्पकूलातो महानदीतो तेणेव उवागच्छंति २ सलिलोदगं अभिषेकनियुकिः गेण्हंति २ उभतोतडमट्टियं गेहति गेण्हेत्ता जेणेव सद्दावइवियडावइ वट्टवेयड्डा तेणेव उवागच्छंति उवागरिछत्ता सब- सामच्या तूबरे सबपुप्फे जाव सघोसहिसिद्धत्थए गेहंति गेण्हेत्ता जेणेव महाहिमवंतरुप्पिवासहरपवया तेणेव उवागच्छति २|| नयनं सबतूवरे जाव सघोसहिसिद्धत्वए गेण्हंति गेण्हेत्ता जेणेव महापउमद्दहमहापोंडरीयद्दहा तेणेव उवागच्छंति २ दहोदगा गेण्हंति गेण्हेत्ता जाई तत्थ उप्पलाई जाव सहस्सपत्ताई ताई गेण्हंति गेण्हेत्ता जेणेव हरिवासगरम्मगवासाई जेणेव । हरिहरिकांतानरनारीकतातो महानदीतो तेणेव उवागच्छंति २ सलिलोदगं गेहंति २ उभयतडमट्टियं गेण्हंति गिण्हेत्ता जेणेव 8 गंधावइमालवंतपरियाता वट्टवेयहा तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सबतूबरे जाव सबोसहिसिद्धत्थए य गेण्हति गेण्हेत्ता जेणेव निसढनीलवंतवासहरपबया तेणेव उवागच्छंति २ सबतूवरे जाव सबोसहिसिद्धत्थए गेण्हति गेण्हेत्ता जेणेव तिगिच्छिद्दहकेसरिद्दहा तेणेव उवागच्छंति २दहोदगं गेण्हंति २ जाई तस्थ उप्पलाई जाव सहस्सपचाई ताई गेण्हंति गेण्हे. चा जेणेव पुवविदेहअवरविदेहवासाई जेणेव सीयासीतोदातो महानदीओ तेणेव उवागच्छंति २ सलिलोदगं गेहति २ उभयोतडमट्टियं गेहति गेण्हिता जेणेव सवचक्वट्टिविजया जेणेव सबमागहवरदामपभ'साई तित्वाई तेणेव उवागच्छति २ तित्थोदगं गिण्हंति २ तित्थमट्टियं गेण्इंति गेण्हेत्ता जेणेव सबवक्खारपबया तेणेव उवागच्छंति २ सबतूबरे जाव सबो- 8 ॥१८६ सहिसिद्धत्थए गेहति गिणिहत्ता जेणेव सबातो अंतरनदीतो तेणेव उवागच्छंति २ सलिलोदगं गेहंति २ उभयोतडमहिंयं गेण्डति गेण्हेचा जेणेव मंदरे पवते जेणेव भद्दसालवणे तेणेव उवागच्छंति २ सबतूबरे जाव सबोसहिसिद्धत्थए य दीप अनुक्रम + Jan E aton + ~964 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक गण्हंति गेण्हेचा जेणेव नंदणवणे तेणेव उवागच्छति २ सबतूवरे जाव सवोसहिसिद्धत्थए सरसं च गोसीसचंदणं गेण्हति || ||गण्हेत्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छंति २ सम्बत्तूवरे जाव सबोसहिसिद्धत्यए सरसं च गोसीसचंदणं दिवं च सुम-16 राणोदामं गेहति गेण्हेत्ता जेणेव पंडगवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सबतूवरे जाव सबोसहिसिद्धत्थर सरस गोसीसचंदणं दिवं च सुमणदामं ददरमलए य सुगंधगंधिए गंधे गेण्हंति, इह दईर:-चीवरावन भाजनमुखं तेन गालितं ४ तन्त्र पकं वा यत् मलयोद्भवतया प्रसिद्धत्वान्मलयं-श्रीखण्डं येषु तान् सुगन्धगन्धिकान्-परमगन्धिकेन गन्धकान् गन्धान गृह्णन्ति, गेण्हेत्ता एगतो मेलंति,मेलित्ता जेणेव सामी आइतिस्थयरे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता महत्थं महग्पं | महरिहं विउलं तिस्थयराभिसेयं उवणेति । तए णं से अचुए देविंद देवराया दसहि सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए | तायत्तीसगेहिं चडहिं लोगपालेहि तीहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि य बहूहिं आरणअचुयकप्पवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहिं सद्धिं संपरिबुडे तेहिं साभाविएहिं वेउविएहिं पवरकमलपइद्वाणहिं सुरभिवरवारिपडिपुण्णेहिं चंदणकयचच्चेहिं आविद्धकंठगुणेहिं पउमुप्पलपिहाणेहिं अद्वसहस्सेणं सोब-है। णियाणं कलसाणं १ एवं रुप्पमयाणं २ मणिमयाणं ३ सुवण्णरुप्पमयाणं ४ सुवण्णमणिमयाणं ५ रुप्पमणिमयाणं ६ सुवण्णरुप्पमणिमयाणं ७ अट्ठसहस्सेणं भोमेजाणं कलसाणं ८ सबोदएहिं सबमट्टियाहिं सवतूबरेहिं सबपुप्फेहि सबगंधेहिं सबमल्लाहिं सघोसहिसिद्धत्थएहिं सबिड्डीए सबजुईए सबवलेणं सबसमुदएणं सपायरेणं सबविभूईए सबसंभमेण सवपुप्फगंधमल्लालंकारेणं सवतुडियसद्दनिनाए भया इडीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडियजम दीप अनुक्रम H मा .३२ ForFive Persanamory ~97 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युतिः ॥ १८७॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१८४ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ ३...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | गमरापप्पवाइयरवेणं संखपणवपडहमे रिझहरिखरमुहिहुडुक मुइंग दुंदुभिनिग्घोसनाइयरवेणं महया २ तित्थयराभिसेएणं अभिसिंचिति, तए णं सामिस्स भगवतो आदितित्थयरस्स अभिसेयंसि वट्टमाणंसि सबै इंदा छत्तचामरकलसधूवक डुच्छु|यपुष्पगंधमहालंकार हत्थगया हहतुट्टश्चित्तमाणंदिया जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया वज्जसूलपाणी पुरतो चिट्ठति, अने य देवा देवीतो य कलसहत्थगया भिंगारहत्थगया चामरहत्थगया जाव मल्लालंकार हत्थगया पंजलिउडा य पुरतो चिट्ठेति, अप्पेगइया देवा आसियसम्मज्जियोवलितं सम्मट्ठरत्थंतरावणवीहियं करेंति अप्पेगइया देवा मंचातिमंचकलियं करेंति, अप्पेगइया देवा नानाविहरागऊसियज्झयपडागमंडियं करेंति, अप्पेगइया गोसीससरसचंदणदद्दर दिन्नपं चंगुलितलं करेंति, अप्पेगइया उवचियचंदणकलसं करेंति, अप्पेगइया चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं करेंति, अप्पेगइया | आसत्तोसतवि उलट्टवग्वारियमलदामकलावं करेंति, अध्पेगइया पंचवण्णसरससुरभिमुकपुप्फपुंजोवयारकलियं करेंति, | अप्पेगइया कालागुरुपवर कुंदुरुक्क तुरुक्क धूवमघमघंतगंधुज्जुयाभिरामं सुगंधवरगंधगंधियं गंधवट्टिभूयं करेंति, अप्पेगइया हिरण्णवासं वासेंति, अप्पेगइया सुवण्णवासं वासेंति, अप्पेगइया रयणवासं वासेंति, अप्पेगइया वइरवासं वासंति, अप्पेगइया आभरणवासं वासंति, अप्पेगइया पत्तवासं वासंति, अप्पेगइया पुष्कवासं वासंति, अप्पेगइया फलवासं वासेंति, अप्पे गइया वण्णवासं वासेंति, अप्पेगइया चुण्णवासं वासेंति, अप्पेगइया गंधवासं वासेति अप्पेगइया हिरण्णविहिं भायंति जाव अप्पेगइया गंधविहिं भायंति, अप्पेगइया चत्थविहिं भायंति अप्पेगइया दुयं नट्टविहिं उपदंसंति, अप्पेगइया विलंबिर्य नट्टविधिं उवदंसंति, अप्पेगइया दुयबिलंबियं नडविधिं उवदंसंति, अप्पेगइया अंचियन विधिं उवदंसंति, अप्पे For Pevate & Personal Use Ony ~98~ अच्युतादिकृतोऽभिषेक: ॥ १८७॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 44-48 प्रत 1 सत्राक गइया रिमियं नट्टविधि उवदसति, अप्पेगड्या अंचियरिभियं नदृविहिं उवदंसंति, अप्पेगइया आरभड नट्टविहिं उवदसति, अप्पेगइया भसोलं नहविधि उपदंसेंति, अप्पेगइया आरभडभसोलं नट्टविहिं उवर्दसेंति, अप्पेगइया उप्पयनिवयं निवउप्पयं० संकुचितपसारियं० भताभंतं नाम नट्टविहिं उवदंसेंति, अप्पेगइया चउविहं वन्न वायंति, तंजहा-ततं विततं घणं झुसिरं, अप्पेगइया चउविहं गेयं गायंति, तंजहा-उक्खित्तयं पावत्तयं मयं रोइयं, अपेगइया चउविहं अभिनयं अभिणति-दिहतियं पाडिस्सुयं लोगमज्झवसियं सामंतोवणिवाइय, अप्पेगइया पीणंति अप्पेगइया तंडवेंति अप्पेगइया लासेंति अप्पेगइया उच्छलंति अप्पेगइया पुच्छलंति अप्पेगइया तिवई छिदंति अप्पेगइया हयहेंसियं करेंति अप्पेगइया हस्थिगुलुगुलाइयं करेंति अप्पेगइया रहघणघणाइयं करेंति अप्पेगइया हयहेसियं रहघणघमाइयं करेंति अप्पेगइया हत्धिगुलुगुलाइयं रहघणपणाइयं करेंति, अप्पेगइया हयहेसियं हत्थगुलुगुलाइयं रहघणघणाइयं करेंति, अप्पेगइया | अप्फोडेंति अप्पेगइया वगंति, अप्पेगइया सीहनादं नदंति, अप्पेगइया अप्फोडंति वग्गंति सीहनादं नदंति, अप्पेगइया पायदद्दरं करेंति, अप्पेगइया भूमिचवेडं दलयंति, अपेगइया महया महया सद्देण रावंति, अप्पेगइया पायदहरगं भूमिचवेडगं महया मया सद्देण रावंति, अप्पेगइया हक्कारेंति अप्पेगइया बोकारेंति अप्पेगइया थेक्कारेंति, अप्पेगइया देवा हक्कारेंति बोकारेंति थेकारेंति, अप्पेगइया ओवयंति अप्पेगइया उप्पयंति अप्पेगइया परिवत्तंति अप्पेगइया ओवयंति उप्पयंति परिवति, अप्पेगइया गजति अपेगइया विजुयायंति अप्पेगइया वासं वासेंति, अप्पेगइया गजति ट्र विजुयायति वासं वासंति, अप्पेगइया देवुकलियं करेंति अप्पेगइया देवकहकहयं करेंति अप्पेगइया देवदुहृदुद्दयं करेंति,१॥ दीप अनुक्रम - - न and remona For Five Persana tumory wwwviewsanelibrary.com ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत नाव्यादि अलंकार रोपणादि प्रपोदात- अप्पेगइया देवुकलियं देवकहकहयं देवदुहदुहयं करेंति, अप्पेगइया चेलुस्खेवं करेंति, अप्पेगल्या पंदणकलसहस्थगया नियुक्तिः अप्पेगइया भिंगारहत्वगया, एएणं अभिलावेणं आयंसा थालपाती वायकरगा रवणकरंडगा पुष्फचंगेरी जाव लोम हत्थचंगेरी पुष्फपडलगजावलोमहत्वपडलग सीहासणछत्तचामरतेल्लसमुग्ग जाच अंजणसमुग्गयहत्थगया, अप्पेगइया ॥१०॥18 घूवकडच्छुय हत्थगया हतुट्ठचित्रमाणंदिया जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया आधावेंति परिधावेंति, तएणं से अचुइंदे। सपरिवारे सामि तेणं महया तित्थगराभिसेएणं अभिसिंचइ, अभिसिंचित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं-विजएणं वद्धावेइ वद्धावित्ता ताहिं इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं वग्गूहि जयजयसई पउंजइ, तए णं तस्स अच्चुयस्स देविंदस्स अभियोगा सुवहुं अलंकारभंडं उवणेति, तए णं से अचुए देविंदे तप्पढमयाए पम्हलसुकुमालयाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लूहेइ लूहेत्ता सरसेण गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ अणुलिंपित्ता नासानीसासवायवोज्झं चक्खुहरं वणफरिसजुत्तं हयलालापेलवाइतिरेगं धवलं कणगखचियंतकम्मं देवदूसजुयलं नियंसेह नियंसित्ता कप्परुक्खगंपिव अलंकियविभूसियं करेइ करेत्ता नट्टविधि उवर्दसेइ, उवदंसित्ता अच्छेहि सण्हेहि रययामएहिं अच्छरसातंदुलेहिं भगवतो सामिस्स पुरतो अट्ठट्टमंगलगे आलिहति, तंजहा-दप्पणभद्दासणवद्धमाणवरकलसमच्छसिरिवच्छा । सोस्थियनंदावत्ता लिहिया अमंगलगा ॥१॥ लिहति लिहिऊण करेइ उवयारं, किं तं ?पाडलिमलियचंपकअसोगपुन्नागचूतमंजरिनवमालियावउलतिलगकणवीरकुंदकुज्जयकोरंटयदमणगवरसुरभिगंधगंधियस्स कषग्गाहगहियकरयलपन्भविष्पमुकंस्स कुसुमनिगरस्स जाणुस्सेहपमाणमे ओहनिकर करेचा चंदप्पभरयणवइरवेरु 20-04-7 दीप अनुक्रम ॥१८॥ JanEdication install ForFive Persanamory ~100 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक लियविमलदंडकंचणमणिरयणभत्तिचित्रं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवर्गधुत्तमाणुविद्धं घूमवदि विणिम्मुयन्तं बेरुलियमय || द्राकडुच्छर्य पग्गहित्तु धूवं पयतो दाऊण जिणवरिंदस्स सत्तट्ट पयाई ओसरित्ता दसंगुलिं अंजलिं करिय मत्थगंमि पयतो मट्ठसयविसुद्धगंथजुत्तेहिं महावित्तेहिं अपुणरुत्तेहिं अत्थजुत्तेहिं संथुणइ, संथुणित्ता वामं जाणुं अंचेइ अंचेत्ता दाहिणजाणुं धरणितलंसि निवाडेइ, २ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-नमोऽस्थु ते सिद्ध बुद्धा! नीरय समाहिया समण समत्ता समजोगि सल्लगत्तण निन्भय नीरागदोस निम्मम निस्संग निस्सल्ला माणमूसुमूरण गुणरयण है सीलसागरा अणंतमप्पमेया भवियधम्मचाउरंतचकवट्टी, नमोऽत्थु ते अरहतोत्तिकटु वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नञ्चासणे नाइदूरे सुस्सूसमाणे जाव पजुवासेइ, अत्र विषमपदव्याख्या-'आसियसंमजिए'त्यादि, आसिक्त उदकच्छटया संमार्जितः कचवरशोधनेन उपलिप्त इव गोमयादिना उपलिप्तः स एवोचितो मेरुप्रदेशः, ततो विशेषणसमासः, तथा शुचीनि-पवित्राणि संमृष्टानि कचवरापनयनेन रथ्यान्तराणीच रध्यान्तराणि आपणवीथी इव आपणवीथयो-स्थ्याविशेषाश्च यत्र स शुचिसंमृष्टरथ्यान्तरापणवीधिकस्तं कुर्वन्तीति, अप्येकका देवा सञ्चातिमश्चकलितं कुर्वन्तीत्यादि सुगर्म माग्भावितं च यावद् गन्धवट्टिभूयं करेंति, अप्येकका हिरण्यवर्ष वर्षन्ति, हिरण्यवर्ष यथा भवत्येवं वर्षन्ति, |हिरण्यवृष्टिं कुर्वन्तीति भावः, एवं सुवर्णरत्नवज्राभरणपत्रपुष्पफलवर्णकचूर्णगन्धवर्षपदान्यपि भावनीयानि, अप्येकका |देवा हिरण्यविधि-हिरण्यरूपं मङ्गलप्रकारं भाजयन्ति-विश्राणयन्ति, शेषदेवेभ्यो ददतीति भावः, एवं सुवर्णरसवज्राभरणपत्रपुष्पफलवर्णकचूर्णगन्धवस्त्रभाजरपदान्यपि भाव्यानि, 'अप्पेगइया दुयं नट्टविहिमित्यादि, इइ द्वात्रिंशन्नाव्यवि दीप अनुक्रम %% % % ForFive Persanamory vsanelibrary.com ~101 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सपोद्रात- नियुक्तिः प्रत ॥१८९॥ RA+5 दीप अनुक्रम धयः ते च राजप्रश्नीयोपानटीकायां भावितास्तेषां मध्ये कांश्चन नाव्यविधीनुपदर्शयंति, अप्येकका द्रुतादुतनामक नाव्य- 1नाव्यव्याविधिमुपदर्शयंति, एवं विलम्बितद्रुतविलम्बित २अशित ३ रिभित ४ अश्चितरिभित ५आरभट ६ भसोल ७ आरभटभसोल-18 ख्या ८ पदान्यपि भावनीयानि, अप्येकका देवा उत्पातपूर्वको निपातो यत्र स उत्पात[पूर्वक]निपातः तं, तथा निपातपूर्वक उत्पातो यत्र स निपातोत्पातस्तं, सकुचितप्रसारितं 'रियारियमिति गमनागमनं भ्रान्तसम्भ्रान्तं नाम नाव्यविधि सामान्यतो नर्तविधि द्वात्रिंशद्विध्युत्तीर्णमुपदर्शयन्ति, अप्येकका देवाश्चतुर्विधं वाद्यं वादयन्ति, तद्यथा-ततं-मृदङ्गपदहादिकं विततं-वीणादिकं धनं-कसिकादि शुषिरं-काहलादि, अप्येकका देवाश्चतुर्विधं गेयं गायन्ति, उत्क्षिप्त प्रथमतः समारभ्यमाणं, प्रवृत्तं उरक्षेपावस्थातोऽतिकान्तं मनाग्भरेण प्रवर्त्तमान, मन्दायमिति-मध्यभागे मूर्च्छनादिगुणोपेततया मन्द | मन्दं प्रवर्त्तमानं घोलनात्मकं, रोचितमिति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् 'रोचितावसान' रोचितं-यथोचितलक्षणोपेततया भावितमवसानं यस्य तद्रोचितावसानम् , अप्येकका देवाश्चतुर्विधं अभिनयं अभिनयन्ति, तद्यथा-दार्टान्तिकं प्रतिश्रुतिकं सामान्यतो विनिपातिकं लोकमध्यावसानिकमिति, एतच्च नाव्यकुशलेभ्यो वेदितव्यम् , अप्येकका देवाः पीनयन्ति-पीनमारमानं कुर्वन्ति, स्थूला भवन्तीति, अप्पेगइया हक्कारेंति-हकारं कुर्वन्ति, हक्काशब्दं कुर्वन्तीति भावः, एवं बोकारंति वोक्काशब्दं कुर्वन्ति, थकारेंति-धक्कारे इत्येवं महान्तं शब्दं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवोत्कलिका देवानां वा- ॥१८॥ ४ तस्येवोत्कलिका देवोत्कलिका तां कुर्वन्ति, अप्येकका देवा देवकहकहक, प्रभूतानां देवानां प्रमोदभरवशतः स्वेच्छावहै चोलकोलाहलो देवकहकहकः तं कुर्वन्ति, अप्येकका देवा दुहुदुहुकमिति प्रकुर्वन्ति, दुहुदुहुकमित्यनुकरणवचन % * Jan Kaviewsanelibrary.orm ~102 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education Ine “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [१८४ ], वि०भा० गाथा [-], भाष्यं [ ३...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मेतत्, 'नासानीसासवायवोज्झं ति नासिकानिःश्वासवातवाद्यं, अनेन तस्य लक्ष्णतामाह, 'चक्खुहरं'ति चक्षुर्हरति-| आत्मदर्श नयति विशिष्टरूपातिशयकलितत्वात् चक्षुर्हरं, वर्णस्पर्शयुक्तं अतिशायिना वर्णेनातिशायिना स्पर्शेन च युक्तं, 'हयलालापेलवाइरेग' मिति हयलाटा - अश्वलाला तस्या अपि पेलवमतिरेकेण हयलालापेलवातिरेकं, बाहुलकादेवं समासः, विशिष्टमृदुत्वलघुत्वगुणोपेतमिति भावः, तथा कनकेन खचितानि - विच्छुरितानि अन्तकर्माणि-अञ्चलयोर्वानलक्षणानि यस्य तत् कनकखचितान्तकर्म, 'अच्छरसातंदुलेहिं'ति अच्छो रसो येषां ते अच्छरसाः, येषु प्रतिबिम्बमपि सङ्क्रान्तमुपलभ्यते इति, ते च ते तन्दुलाश्च अच्छरसतन्दुलाः, सूत्रे पूर्वपदस्य दीर्घान्तता प्राकृतत्वात्, 'पाडलियमलियेत्यादि, पाटलीमल्लिकाचम्पकाशोकपुन्नागचूत मञ्जरी नवमालिकावकुलतिलककणवीर कुन्दकुलकोरण्टकानि प्रतीतानि पत्रप्रधानो दमनकः पत्रदमनकः एवंरूपश्चासौ वरसुरभिगन्धिकश्च पाटलो यावत्पत्रदमनकं वरसुरभिगन्धिकस्तस्य ओघनिकरं- उच्चैस्त्वेन प्रवाहनिकरं, 'चंदप्पभवइरे' त्यादि, चन्द्रप्रभः- चन्द्रकान्तो वज्रवैडूर्ये प्रसिद्धे तेषां तन्मयो विमलो दण्डो यस्य स तथा तं काञ्चनमणिरलैर्भक्त्या - विच्छिश्या चित्रं यस्य स तथा तं, उत्तमेन कालागुरुप्रवरकुन्दुरुष्क| तुरुष्क धूपगन्धेनानुविद्धा काटागुरुप्रवरकुन्दुरुष्कतुरुष्कधूपगन्धोत्तमानुविद्धा, उत्तमशब्दस्य परनिपातः प्राग्वत्, तां धूमवति विनिर्मुञ्चन्तं, 'दसंगुलं अंजलि मिति अन्योऽन्यान्तरिता दश अङ्गुल्यो यत्र सा दशाङ्गुलिस्तामञ्जलिं 'अडसयवि सुद्धगंधजुत्तेहि' विशुद्धो-निर्म्मलो लक्षणदोषरहित इति भावः यो ग्रन्थः - शब्दसन्दर्भस्तेन युक्तानि विशुद्धग्रन्थयुक्तानि अष्टशतं च तानि विशुद्धप्रन्ययुक्तानि च तैर्महावृत्तैरपुन रुचैरर्थसारैः, तथा नमोऽस्तु ते तुभ्यं, सिद्धेत्यादीनि सर्वाण्यपि or Peyote & Personal Use Ony 103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत पपोतात- पदानि, तत्र सिद्धः कृतकृत्यत्वाद्बद्धोऽवगततत्त्वत्त्वात् नीरजा बध्यमानकर्मरहितत्वात् समाहितः परमसमाध्युपेतत्वात् ईशानशनियुक्तिःश्रमणोऽनुत्तरश्रामण्यकलितत्वात् समाप्तः समाप्तवेदत्वात् समयोगी सुविशुद्धमनोवाकाययोगत्वात् शल्यकर्त्तनो माया-[काभिषेको दिशल्यकर्तनस्वभावत्वात् निर्भय इहलोकादिसप्तप्रकारभयरहितत्वात् नीरागद्वेषो विगतक्रोधादिकषायत्वात् निर्ममो-] ॥१९॥ ममत्वरहितो निस्सङ्गो बाह्याभ्यंतरसङ्गरहितत्वात् निःशल्यो मायादिशल्यरहितत्वात् मानमूसुमूरणो-मानमईनः गुणा एव रक्षानि यस्यासौ गुणरत्नः शीलेन सागर इव शीलसागरः अनन्तो ज्ञेयानन्तत्वात् अप्रमेयस्तद्गुणानां परैरप्रमेयत्वात्, तथा भव्यानां धर्मेण-धर्मरूपेण वरेण-इतरचक्रापेक्षया प्रधानेन भावचक्रत्वात् चतुरन्तेन-चतुर्गतिकसंसारान्तकारिणा चक्रेण वर्चत इत्येवंशीलो भविकधर्मवरचतुरन्तचक्रवर्ती तस्य सम्बोधनं, एताश्च भाविन्योऽप्यवस्था वर्तमाना इवाहै वश्यंभावितया विवक्षित्वा संस्तुताः, शेष सुगमम् , एवं जहा अचुयस्स तहा जाव ईसाणस्स भाणियब, एवं भवणवइकावाणमंतरजोइसिया य सूरपज्जवसाणा सएण सएण परिवारेण पत्तेयं पत्तेयं अभिसिंचंति, तए णं ईसाणे देविंदे देवराया पंच ईसाणे विउवइ, एगे ईसाणे भयवं तित्थयरं करयलपुडेण गेण्हइ गेण्हेत्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे संनिसने, पगे ईसाणे पिट्ठतो आयवत्तं धरेह, दो ईसाणा उभतो पासिं चामरुक्खेवं करेंति, एगे ईसाणे पुरतो सूलपाणी चिट्ठइ, ॥१९॥ तए णं से सके देविंदे देवराया भगवतो आदितित्थगरस्स चसहिसिं चत्तारि धवलवसमे विउबइ सेए संसदलविमलनिम्मलदधिषणगोखीरफेणरयणिगरप्पगासे पासाइए दरसणिजे अभिरुवे पडिरूचे, तए णं वेसि चउण्हं धवलवसभाणं अहिं सिंगेहितो अङ्क तोयधारातो निम्गच्छति, तए णं तातो मह तोयधारातो उडं वेहासं उप्पयंति उप्पइचा एगतो दीप अनुक्रम JanEdicatoning wsansliterary.com ~104 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: । प्रत सत्रांक मिलायति एगतो मिलायित्ता भगवतो आदितित्थगरस्स मुद्धाणंसि णिवयंति, तए णं से सक्के देविंद देवराया चर-18 रासीए सामाणियसाहस्सीहिं एयरस तहेव अभिसेओ भाणियबो जाव नमोऽत्थु ते अरहतोत्तिकद्दु पंच सके विउबइ, विउवित्ता एगे सके भयवं आइतित्थयरं करयलपुडेणं गेण्हइ, एगे सक्के पिट्ठतो आयवत्तं धरेइ, दुवे सका उभयोपासं चामरुक्खेवं करेंति, एगे सक्के पुरतो वजपाणी चिट्ठइ, तए णं से सक्के चउरासीए सामाणियसाहस्सीहिं जाव अण्णेहिं भवणवइचाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे सबड्डीए जाव संखपणवजावनादितरवेण जेणेव भगवतो आदितित्वगरस्स जम्मणभवणे जेणेव आदितित्थगरमाया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता भयवं तित्थयरं माऊए पासे ठवेइ २ तित्थयरपडिरूवर्ग पडिसाहरइ पडिसाहरेत्ता ओसोवणि पडिसाहरइ पडिसाहरेत्ता एग महं खोम-18 जुयलं कुंडलजुयलं च भगवतो तित्थगरस्स ओसीसगमूले ठवेइ ठवेत्ता एगं महं सिरिदामगंडं तवणिज्जलंवूसगं सुवण्णपयरगमंडियं नाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियं समुदयं भगवतो तित्थयरस्स उल्लोयंसि निक्खिबइ, जंणं भयवं| तित्थयरं अणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणे देहमाणे सुहसुहेणं अभिरममाणे चिढइ । तएणं से सके देविंदे देवराया वेसमणं देवं सदावेद सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! बत्तीसं हिरण्णकोडीतो बत्तीसं सुवण्णकोडीतो बत्तीसं नंदाई बत्तीसं भद्दाई सुभगसोभग्गरूवजोषणगुणलावण्णे य भगवतो तित्थगरस्स जम्मणभवर्णमि साहराहि | साहरिता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं से वेसमणे देवे सकेणं एवं वुत्ते समाणे हहतुद्दचित्तमाणदिए करयलपरि-18 |ग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ठ एवं देवो तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता जंभए देवे || दीप अनुक्रम vsanttinrary.orm ~105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८४], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम पोदात- मद्दावेद सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया । बत्तीसं हिरनकोडीओ जाव भगवतो तित्थगरस्स जम्म-18 नियुक्तिःणभवणंसि साहरह साहरित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं ते जंभगा देवा बेसमणेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हद्वतुहा जाव विसप्पमाणहियया खिप्पामेव बत्तीसं हिरन्नकोडीओ जाव सुभगसोभग्गरूवजोषणगुणलादपणे य भगवतो जम्मणभव-दा लार्पणादि ॥१९॥ सा उत्सवान्त णसि साहरिति साहरित्ता जेणेव बेसमणे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति, तएणसे वेसमणे देवे|| जेणेव सके देविंद देवराया तेणेव जाव तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति, तए णं से सक्के देविंदे देवराया आभियोगे देवे सद्दा-18 वेइ सद्दावेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया ! भगवतो तित्थगरस्त जम्मणवाणंसि सिंघाडगतियचउम्मुहमहापथेसु महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणे एवं वयह-हंद सुगंतु भवंतो बहवे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा देवीओ य जे णं देवाणुप्पिया! तित्थगरस्स तित्थगरमाऊए असुभ मणं पहारेइ तस्स णं अजगमंजरिकादिव सयधा मुद्धाणं फुट्टउत्ति घोसणं घोसेह, घोसित्ता एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं ते आभियोगा देवा हडतुट्ठा जाब विसप्पमाणहियया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कहु एवं देवो तहत्ति आणाए विणएणं वयर्ण पडिसुणंति पडिसुणेत्ता सरस देविंदस्स देवरण्णो अंतियातो पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता खिप्पामेव भगवतो तित्थगरस्स जम्मणनगरंसि सिंघाडग जाव सयहा मुद्धाणं फुट्टउत्तिकट्ट घोसणं घोसंति, एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति, तए णं बहवे भवणवइवाणमंतर जोइसवेमाणिया देवा भगवतो तिस्थगरस्स जम्मणमहिमं करेत्ता जेणेव नंदीसरे दीवे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता दाते अढाहियातो महामहिमातो करेंति करेसा जामेव दिसि पाउम्भूया तामेव दिसं पडिगया, एतदपि सुगम प्रायः ॥१९ ॥ GB Pavsanelibrary.com ~106 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१८५], विभा गाथा H], भाष्यं [३...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: A- प्रत सत्रांक % प्राग्भावितार्थ च, नवरं 'देहमाणे' इति प्रेक्षमाणः प्रेक्षमाणः 'बत्तीस हिरण्णकोडीतो' इति घटितं हिरण्यं अपटितं सुवर्ण, नन्दानि-आसनविशेषरूपाणि, भद्राणि-भद्रासनानि, तदेवं यदुक्तम्-"जम्मणमहो य सबो, नेयवो जाव घोस णय"मिति तत् जम्बूद्वीपप्रज्ञाप्यादिभिः सूत्रैः भावितं, 'यथागर्म जन्ममहोत्सवो मया, प्रकाशितस्तीर्थकृतां परिरफुटः। सैयदत्र पुण्यं भवति स्म तेन मे, जनो भवेज्जन्मनिबन्धनच्छिदे ॥१॥गतं जम्मद्वारम् । इदानीं नामद्वार, तत्र भगजवतो नामनिबन्धनं चतुर्विंशतिस्तवे वक्ष्यति-ऊरूसु ससभलंछणमुस सुमिणमि तेण उसभजिणों' इति । सम्पति वंशनामनिवन्धनमभिधातुकाम आह देसूणगं च परिसं सफागमणं च वंसठवणा य । आहारमंगुलीए विहिति देवा मणुपणं तु ॥१८५॥ - देशोनं वर्ष भगवतो जातस्य यावदभूत् तावदेतावति समये शकस्यागमनमजायत, तेन च वंशस्थापना भगवतः कृता, एवं स भगवान् ऋषभनाथः सञ्जातः, तस्य गृहवासे आहारोऽसंस्कृत आसीत् । किञ्च-सर्वतीर्थकरा एव बालभावे वर्नमाना न स्तन्योपभोगं कुर्वन्ति, किन्त्याहाराभिलाषे सति स्वामझुलिं वदने प्रक्षिपन्ति, तस्यां चाकुल्यामाहारं नानारससमायुक्तं मनोज्ञ देवाः स्थापयन्ति, तत आह-आहारमंगुलीए विहिंति देवा मणुण्णं तु' । अतिक्रान्तवालभावास्तु सर्वेऽपि तीर्थकृतोऽग्निपचमाहारं गृहन्ति, भगवांस्तु ऋषभनाथो यावदद्यापि प्रत्रज्यां न प्रत्यपद्यत तावद्देवोपनीतमेवाहारमुत्तरकुरुगतकल्पद्रुमफलरूपमुपभुक्कवानिति । अभिहितमानुषङ्गिकमधुना प्रकृतमुच्यते, आह-पन्द्रेण वंशस्था दीप अनुक्रम % Jan E r hana FarPavane Parsanarimony ... अत्र एक गाथा "संवट्ट मेह आयंसगा......" स्वतन्त्ररूपे न दृश्यते, सा गाथा हरिभद्रसूरिकृत् वृत्तो क्रमांक १८८ रूपेण वर्तते ~107-~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] पोद्धा निर्युक्तिः ॥ १९२॥ Jan Education Ine “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ निर्युक्तिः [१८६ ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [३...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अध्ययनं [-], पना कृता इत्यभिहितं तत्र सा वंशस्थापना किं यथाकथञ्चित्कृता आहोश्चित्यवृत्तिनिमित्त पूर्विका ?, उच्यते, प्रत्तिनिमित्तपूर्विका तथा चाह सो बसवणे इक्खु अगू तेण हुंति इक्खागा । जं च जहा जम्मि वए जोग्गं कासीय तं सर्व्वं ॥ १८६ ॥ कथानक शेषं - जीयमेयं तीयपचुप्पन्नमणागयाणं देवाणं पढमतित्थगराणं बंसठवणं करेल, ततो तियसगणसंपरि वुडो सको आगतो, पच्छा किह रिक्कहत्थतो पविसामित्ति महंतं इक्खुलाई गहाय आगतो, इतो य नाभिकुलगरो उसभ सामिणा अंकगएण अच्छइ, सकेण य उवागएण इक्खुलट्ठीहत्थगएणं जएणं विजएणं भयवं वद्धाविओ, भयवया लड्डीमु दिट्ठी पाडिया, ताहे सकेण भणियं भयवं ! इक्खू अगू ?, 'अकं भक्षणे' भक्षयसि ?, ताहे सामिणा पसत्थलक्खणधरो अलंकियविभूसितो दाहिणहत्थो पसारितो, अतीव भगवंतस्स तासु हरिसो जातो, तए णं सकस्स देविंदस्स देवरण्णो अयमेयारूवे संकल्पे समुध्यजित्था - जम्हा भयवं तित्थयरो इक्खुं अभिलसइ तम्हा इक्खा गुवंसो भवड, पुवया य भगवतो इक्खुरसं पिवियाइया, इक्षवश्च तदा पानीयवल्लीवत् छिन्ना विद्धा वा रसं गलन्ति स्म, तेणं गोचं कासवन्ति, एवं सक्को वंसं ठवेऊण गओ । पुणोवि जं जहा जंमि वए जोग्गं तं सर्व तहेब कासी, गाथाक्षरगमनिका - शक्रो बंशस्थापने प्रकृते इक्षुमादाय समागतः भगवता च करे प्रसारिते स प्राह- भगवन् ! इक्षुमकु-भक्षयसि ?, एवमुक्ते भगवानिधुयष्टिग्रहणाय हस्तं प्रसारितवान् तेन भवन्ति इक्ष्वाकवः --- इक्षुभोजिन ऋषभनाथवंशजाः, एवं यद् यस्मिन् वयसि यथा योग्यं तत्सर्वं शक्रस्तथैव कृतवान्, अत्र पञ्चार्द्ध पाठान्तरं 'तालफलाहयभगिणी भविस्स पत्ती व सारवणा' तालफलेनाहतस्य ... शक्रेन्द्र द्वारा भगवन्त 'ऋषभस्य वंश स्थापना Far Pavoce & Personal Use Only 108~ वंशस्थापना ॥ १९२ ॥ wsanelibrary.org Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [९८७-१८९], विभा गाथा ], भाष्यं [३...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक पुरुषस्य भगिनी-सहजाता ऋषभस्य पक्षी भविष्यतीति सारवणा-तस्याः सङ्गोपना, इदं च पाठान्तरं किल भगवतो नन्दायाश्च तुल्यवयस्त्वख्यापनाफलं, तथा चानन्तरमेव वक्ष्यति-'नंदाएँ सुमंगला सहितो' अन्ये तुप्रतिपादयन्ति-सवेयं जन्मद्वारवक्तव्यता, द्वारगाथाऽपि किलैवं तैः पठ्यते-'जम्मणे य विवड्डी य जाईसरणे इय' इति ॥ सम्प्रति वृद्धिद्वारमधिकृत्याहअह वडइ सो भयवं दियलोगचुतो य अणुवमसिरीओ । देवगणसंपरिबुडो नंदाएँ सुमंगलासहितो॥१८७ ॥ असियसिरतो सुनयणो थियोट्ठो धवलदंतपंतीओ। वरपउमगब्भगोरो फुल्लुप्पलगंधनीसासो॥१८॥ । देवलोकात्-सर्वार्थसिद्धिविमानरूपकात् च्युतः सन् अथ-जन्मानन्तरं वर्द्धते स ऋषभनाथो भगवान् , किंविशिष्टः |सन्नित्याह-अनुपमश्रीका-निरुपमदेहकान्तिकलितः, 'देवगणसंपरिवृतः' सेवागतनानाविधदेवपरिवारोपेतो नन्दया सुमङ्गलया च सहितः सन् , ते अपि वर्द्धते इति भावः, तथा असिताः-कृष्णाः शिरोजा:-केशा यस्यासौ असितशिरोजा, शोभने नयने यस्यासौ सुनयनः, बिम्ब-गोल्लाफलं तद्वत् ओष्ठौ यस्य स बिम्बोष्ठः, धवले दन्तपती यस्य स धवलदन्तपतिकः, वरपद्मगर्भ इव गौरो-निर्मलो वरपझगर्भगौरः, फुल्लोत्पलगन्धवनिःश्वासो यस्य स तथा । इदानीं जातिस्मरणद्वारमभिधित्सुराह जाईसरो उ भयवं अप्परिवडिएहिं तिहि उ नाणेहिं । कंतीए वुद्धीए य अम्महितो तेहिं मणुएहिं ॥ १८९॥ | जाति स्मरतीति जातिस्मरो भगवान्, 'लिहादिभ्य' इत्यणपवादोऽचू, कथं जातिस्मर इत्याह-अप्रतिपतितैरेवी त्रिभिः-मतिश्रुतावधिरूपैर्जानैः, अवधिज्ञानं हि भगवतो देवलोकिकमेवायच्युतं भवति, तथा कान्त्या च बुद्ध्या च तेभ्यः-11 % 95 दीप अनुक्रम H भा.म.३३ sannlinrary.orm ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घात निर्युतिः ॥१९३॥ Jan Educaton “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ९९०-१९१], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [३] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तत्कालभाविभ्यो मिथुनकमनुष्येभ्योऽभ्यधिकः ॥ अधुना विवाहद्वारमाह पदमो अकालमचू तर्हि तालफलेण दारको उ हतो । कक्षा य कुलगरेहि य सिद्धे गहिया उसभपत्ती ॥ १९० ॥ भगवतो देशोनवर्षकाल एव किञ्चिन्मिथुनकं सञ्जातापत्यं सत् तदपत्यमिथुनकं तालवृक्षस्याधो विमुच्य रिरंसया कदलीगृहादिक्रीडागृहमगमत् तस्माच्च तालवृक्षात् पवनप्रेरितं पक्कं तालफलमपतत् तेन दारकोऽकाल एव जीविताद् ते व्यपरोपितः, एष प्रथमोऽवसर्पिण्यामकालमृत्युः, तदपि मिथुनकं तां दारिकां वर्द्धयित्वा प्रतनुकपायं मृत्या सुरलोके समुत्पन्नं, सा चोद्यानदेव तेवोत्कृष्टरूपा एकाकिन्येव वने विचार, दृष्ट्वा च तां त्रिदशवधूसमानरूपां मिथुनकनरा | विस्मयोत्फुल्लनयना नाभिकुलकराय न्यवेदयन्, निवेदिते च तैः कन्या नाभिकुलकरेण ऋषभपक्षी भविष्यतीति सङ्गृ| हीता, भगवांश्च तेन कन्याद्वयेन सार्द्धं विहरन् यौवनमनुप्राप्तः, अत्रान्तरे देवराजस्य चिन्ता समुदपादि - यथा कृत्य|मेतदतीतप्रत्युपन्नानागतानां शक्राणां प्रथमतीर्थकराणां विवाहकर्म क्रियत इत्येवं सञ्चिन्त्याने कसुरवधूवृन्दसमन्वितोऽवतीर्णवान् अवतीर्य च भगवतः स्वयमेव महता ऋद्धिसत्कारसमुदयेन वरकर्म्म- प्रम्रक्षणस्नान गीतवादित्रादि चकार, नन्दासुमङ्गलयोरपि शक्रमहिष्यो महता ऋद्धिसत्कारसमुदायेन विवाहकर्म कृतवत्यः ॥ एतदेवाह- भोग मत्थं ना वरकम्मं तस्स कासि देविंदो । दोहं वरमहिलाणं बहुकम्मं कासि देवीतो ॥ १९१ ॥ भोगसमर्थं भगवन्तं ज्ञात्वा सस्य-भगवतो वरकर्म्म देवेन्द्रोऽकार्षीत्, द्वयोर्वरमहिलयो:- नन्दामुमङ्गलयोर्वधूकर्म | देव्यो- देवेन्द्रस्य अग्रमहिष्योऽकार्षुः ॥ इदानीमपत्यद्वारमाह For Pevate & Personal Use Ony 110~ जातिस्मरविवाहा पत्यद्वारा णि ॥१९२॥ wsanlibrary.org Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [१९२-१९४ वि० भा० गाथा [-], भाष्य [४], मूल [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः छप्पुवसयहस्सा पुर्वि जायस्स जिणवर्रिदस्स । तो भरहबंभिसुंदरि बाहुबली चैव जायाई ॥ १९२ ॥ जातस्य जिनवरेन्द्रस्य जन्मकालादारभ्य यावत्षट् पूर्वशतसहस्राणि - पूर्वलक्षाणि व्यतिक्रामन् तावदेतावत्यवसरे भगवतो भरतो ब्राह्मी सुन्दरी बाहुबलीति चत्वारि अपत्यानि जातानि तत्रायं सम्प्रदायः - अनुत्तर विमानादवतीर्य सुम| ङ्गलाया बाहुः पीठश्च भरतब्राह्मीति मिथुनकं जातं, तथा सुबाहुर्महापीठश्च सुनन्दाया बाहुबली सुन्दरीति मिथुनकमिति ॥ अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह मूलभाष्यकारः --- देवी सुमंगलाए भरहो बुंभी य मिहुणगं जायं। देवीऍ सुनंदाए बाहुबली सुंदरी चैव ॥ १ (मू. भा.) ॥ ★ सुगमा, आह- किमेतावन्त्येव भगवतोऽपत्यानि उतान्यान्यपि १, उच्यते-अन्यान्यपि, तथा चाह अणानं जुयले साण सुमंगला पुणो पसवे । नीतीण अइकमणे निवेषणं उसभसामिस्स ॥ १९३ ॥ एकोनपञ्चाशतं पुत्राणां युग्मानि सुमङ्गला पुनः प्रसूतवती, अत्रान्तरे प्रागूनिरूपितानां हकारप्रभृतीनां दण्डनी| तीनां लोकाः प्रचुरतरकषायसम्भवात् अतिक्रमणं कृतवन्तः, ततश्च नीतीनामतिक्रमणे सति ते लोका अभ्यधिकज्ञानादिगुणसमन्वितं भगवंतं विज्ञाय निवेदनं-कथनं ऋषभस्वामिने - आदितीर्थकराय, सूत्रे चतुर्थ्यर्थे षष्टी प्राकृतत्वात्, | कृतवन्त इति क्रियाध्याहारः । निवेदिते सति भगवानाह - Jan Education International राया करेइ दंडं सिट्टे ते येति अम्हवि स होउ । मग्गह य कुलगरं सो य येह उसभो य भे राया ॥ १९४ ॥ नीत्यविक्रमणकारिणां राजा - सर्वनरेश्वरः करोति दण्डं, स च राजा अमात्यारक्षकादिवलयुक्तः कृताभिषेकोऽनति For Peace & Personal Use Ony (अत्र मूल भाष्य ४ एव वर्तते । संभवत: मुद्रणदोष: अथवा संपादन पद्धत्ति-परिवर्तन दृश्यते T 111~ www.sanlibrary.org Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१९५], विभा गाथा H], भाष्यं [४...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोद्धातक्रमणीयाज्ञश्च भवति, एवं भगवता शिष्टे-कथिते सति ते-मिथुनका बुवते-अस्माकमपि सः-राजा भवतु, वर्तमानका राज्यद्वार नियुकिः दालनिर्देशः खल्वन्यास्वष्यवसर्पिणीषु प्राय एष एव न्याय इति प्रदर्शनार्थः, सूत्रस्य त्रिकालगोचरत्वात् , अथवा प्राकृ-|| तत्वादापत्वाद्वा वति'त्ति उक्तवन्तः, भगवानाह-यद्येवं 'मग्गह य कुलगरं' ति मार्गयत-याच, कुलकरं-नाभिकुलकर ॥१९४॥ राजानं, ततस्तैर्याचितो नाभिकुलकरो, राजानं याचितश्च सन् स 'ते' उक्तवान्-अहं महान् जातः ऋषभो भवतां । राजेति, ततस्ते मिथुनका राज्याभिषेककरणार्थ उदकानयनाय पद्मिनीसरो गतवन्तः, अत्रान्तरे देवराजस्य वज्रपाणेरासनप्रकम्पो वमूव, ततोऽवधिना विज्ञाय सर्वया सलोकपालः शक्रः समागत्य राज्याभिषेकं कृतवान् ।। अमुमेवार्थमुपसंहरन् अनुक्तं च प्रतिपादयन्नाह आभोएउं सको उवागतो तस्स कुणइ अभिसेयं । मउडाइ अलंकारं नरिंदजोगं च से कुणइ ॥ १९५ ॥ आसनप्रकम्पानन्तरं आभोग्य-अवधिज्ञानेन सम्यग्वस्तुगतिमवगम्य शक्रो-देवराज उपागतस्तस्य-भगवतः ऋषभस्वामिनोऽमिषेकं-राज्याभिषेकं करोति, तथा मुकुटादि आदिशब्दात् कटककुण्डलकेयूरादिपरिग्रहः नरेन्द्रयोग्यं-नरेश्वरपदब्युचितमलङ्कारं 'से' तस्य भगवतः करोति, अत्रापि वर्तमानकालनिर्देशप्रयोजनं प्राग्वद् भावनीयं, पाठान्तरं वा "आभोएर सक्को उवागतो तस्स कासि अभिसेयं । मउडाइ अलंकारं नरिंदजोगं च से कासि ॥" अत्रान्तरे ते मिथुन-1 ॥१९॥ कपुरुषाः पद्मिनीसरसः खलु पद्मिनीपत्रैरुदकमादाय भगवतः समीपमागत्य भगवन्तं चालङ्कृतविभूषितं दृष्ट्वा विस्मयोत्फुल्लनयनाः किंकर्तव्यताब्याकुलीकृतचेतसः कियन्तमपि कालं स्थित्वा भगवत्पादयोस्तदुद निक्षिप्तवन्तः, ततस्तानेव ar दीप अनुक्रम 2-% Jan 12 Insanelibrary.com ~112 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१९६-१९८], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक दीप अनुक्रम विषक्रियोपेतान् दृष्ट्वा वज्रपाणिर्देवराजोऽचिन्तयत्-अहो ! खलु विनीता एते पुरुषास्ततोऽत्र विनीता नगरी भवतु, ततो वैश्रमणं यक्षराजमाज्ञापितवान्-इह द्वादशयोजनदीपी नवयोजनविष्कम्भां विनीतां नाम नगरी निष्पादयति, स| चाज्ञासमनन्तरमेव दिव्यप्राकारभवनमालोपशोभितां नगरौं चकार, एतदेवाहभिसिणीपत्तेहियरे उदयं घेर्नु छुहंति पाएसु । साहु विणीया पुरिसा, विणीयनयरी अह निविट्ठा ॥१९६॥ विसिनीपत्रै:-पमिनीपत्रेरितरे-मिथुनकनरा उदकं गृहीत्वा छुभंति-प्रक्षिपन्ति भगवत्पादयोरुपरि, ततो देवराजोऽभि|हितवान-साधु विनीताः पुरुषा इति, ततः शक्रादेशादथ-अथानन्तरं वैश्रमणयक्षेण विनीताभिधाना नगरी निविष्टाअन्तर्भूतण्यर्थत्वान्निवेशिता ॥ गतमभिषेकद्वारम् , इदानीं राज्यसङ्ग्रहद्वारमाह-- मासा हत्थी गावो गहियाई रजसंग्गहनिमित्तं । घेत्तूण एवमाई चउबिहं संगहं कुणइ ॥ १९७ ।। अश्वा हस्तिनो गाव एतानि चतुष्पदानि तदा भगवता गृहीतानि, राज्ये-राज्यविषयः सङ्ग्रहो राज्यसग्रहः तन्निमिचम् , अश्वादिग्रहणं चोष्ट्राग्रुपलक्षणं, तथा चाह-एवमादि चतुष्पदजातमसौ भगवान् गृहीत्वा चतुर्विघ-वक्ष्यमाणलक्षणं साहं करोति, वर्तमाननिर्देशप्रयोजनं सर्वत्रापि पूर्ववत्, पाठान्तरं वा 'चउविहं संगहं कासि ॥ अथ कोऽसी चतुर्विधः सह इत्याहउग्गा भोगा रायण्ण खत्तिया संगहो भवे चउहा । आरक्खगुरुवयंसा सेसा जे खत्तिया ते उ ॥ १९८॥ उमा मोगा राजन्याः क्षत्रिया एष चतुर्दा भवति सङ्घहः, एतेषामेव यथाक्रम स्वरूपमाह-आरक्षका उमदण्डका vsanelibrary.org ~113 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [१९९-२०२], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्धातनियुतिः ॥१९५॥ प्रत करू दीप अनुक्रम ४ रित्वादुयाः, गुरवो-गुरुस्थानीया भगवत आदितीर्थकरस्य प्रतिपत्तिस्थानीया इति भावः भोगा, वयस्याः-स्वामिनःराज्यसंग समवयसो राजन्याः, शेषा उक्तव्यतिरिक्ता ये ते पुनः क्षत्रिया इति ॥ सम्प्रति विविधलोकस्थितिनिबन्धनप्रतिपादनार्थ हा आहाश्लोकचतुष्टयमाह रशिस्माआहारे सिप्प कम्मे य, मामणा य विभूसणा । लेहे गणिए य रूवे य, लक्षणे माण पोयए ॥ १९९॥ पुदेशः बवहारे नीइजुद्धे य, ईसत्ये य उवासणा | तिगिच्छा अत्थसत्ये य, बंधे घाए य मारणा ॥२०॥ जण्णूसवसमवाए, मंगले कोउए इय । वत्थे गंधे य मल्ले य, अलंकारे तहेव य॥२०१॥ चोलोषण विचाहे य, दत्तिया मडयपूयणा । झावणा यूभ सरेय, छेलावणग पुच्छणा ॥ २०२॥ प्रथमत आहारविषयो विधिर्वक्तव्यो, यथा कथं कल्पतरुफलाभावे पक्काहारः संवृत्त इति १ तथा शिल्प-घटादिविषय अभिज्ञानं तद्विषयो विधिर्वाच्यः, यथा कुतः कदा कथं कियन्ति वा शिल्पान्युपजातानीति २ तथा कर्म ३ मामणा ४-1 विभूषणः ५ लेख ६ गणित ७ रूप ८ लक्षण ९मान १० पोत ११ व्यवहार १२ नीति १३ युद्धे १४ घुशास्त्रो १५-1 पासना १६ चिकित्सा १७ र्थशास्त्र १८ बन्ध १९ घात २० मारणा २१ यज्ञो २२ त्सव २३ समवाय २४ मङ्गल २५कौतुक २६ वख २७ गन्ध २८ माल्या २९ लङ्कार ३० चूलोपनयन ३१ विवाह ३२ दत्ति ३३ मृतकपूजना ३४- १९ ध्यापना ३५ स्तूप २६ शब्द ३७च्छेलावण ३८ प्रश्न ३९ विषयाच विषयो वक्तव्याः, एष द्वारश्लोकचतुष्टयसलेपार्थः अवयवार्थ तु प्रत्येकमभिषित्सुः प्रथममाहारद्वारमधिकृत्याह %ARA 2% Jan Edition ... भगवन्त उपदेशित शिल्प-कर्मादि वर्णनं ~114 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२०३-२०६], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: THI 6 - प्रत 4 सत्राक 4:21 Pासी य कंदहारा मूलाहारा य पत्तहारा य । पुप्फफलभोइणोऽपि य जइया किर कुलगरो उसमो ॥२०॥12 यदा 'किले'ति परोक्षाप्तागमवादसंसूचकः ऋषमा कुलकरो-राजा आसीत् तदा ते 'मिथुनका आसन् कन्दाहाराः| मूलाहारा पत्राहारा, पुष्पफलमोजिनोऽपि चासन् । आसी य इक्खुभोई इक्खागा तेण खत्तिया होति । सणसत्सरसं घनं आमं ओमं च मुंजीया ॥२०४॥ क्षत्रिया येन कारणेन वाहुल्येनेक्षुभोजिन आसीरन् तेन कारणेन ते क्षत्रिया इक्ष्वाकवो लोके स्याताः, तथा सणः सप्तदशो यस्य तत्सणसप्तदर्श धान्य-शास्यादि, तद्यथा-"सालि १ जब २ वीहि ३ कुद्दव ४ राली ५ तिल ६ मुग्ग ७ मास ८ चवले य ९। चण १० तुवरि ११ मसूर १२ कुलत्थ १३ गोधूम १४ निष्फाव १५ अयसि १६ सणा १७ ॥१॥ आमम्-अपकं अवर्म-न्यूनं 'भुञ्जीया' इति भुक्तवन्तः, तथापि कालदोषात् तदपि न जीयति, ततो भगवन्तं पृष्टवन्तः, भगवांस्त्वाह-हस्ताभ्यां घृष्ट्वा त्वचमपनीय आहारयध्वमिति ॥ अमुमेवार्थमाह ओमंऽपाहारेता अजीरमाणमि ते जिणमुवैति । हत्थेहि घंसिऊणं आहारेहत्ति ते भणिया ॥ २०५॥ अवममपि-स्तोकमप्याहारयन्तोऽजीर्थत्याहारे ते मिथुनका जिन-प्रथमतीर्थकरमुपयान्ति-उपसर्पन्ति, भगवता हस्ताभ्यां घृष्ट्वा आहारयध्वमिति भणिताः सन्तस्ते किमित्याह"आसीय पाणिघंसी तिम्मिय तंदुलपवालपुडभोई हत्थयलपुडाहारा जइया किल कुलगरो उसभो ॥२०६॥ आसन् पाणिभ्यां घर्षितुं शीलं येषां ते पाणिर्षिणः, किमुक्तं भवति ।-ता एव औषध्यः शाल्यादिका हस्ताभ्यां दीप अनुक्रम . k Jan E rebon ForPaves Poranatmory ... अत्र यत् नियुक्ति-गाथा २०३ "आसी य कंदहारा" आरभ्य गाथा २०९ "पक्खेवडहणमोसई पर्यन्ता • गाथा: हारिभद्रिया आवश्यक-वृत्ती भाष्य-गाथा:रूपेण उल्लिखिता: तत्र भाष्यगाथा: क्रम (५) पञ्चमात (११) एकादश: पर्यन्ता: इति निर्दिष्टा: ~115 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२०३-२०६], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत **** घर्षित्वा त्वचं चापनीय भुक्तवन्त इति, एवमपि कालदोषात् कियत्यपि काले गते ता अपि न जीर्णवन्तः, ततः पुनरपिहा आहारभगवन्तमापृच्छय तदुपदेशात्तीमिततन्दुलप्रवालपुटभोजिनो बभूवुः, तीमितान् तन्दुलान् प्रवालपुटे-पत्रपुटे मुहूर्त धृत्वाला ॥१९॥ है। मुञ्जत इत्येवंशीलास्तीमिततन्दुलप्रवालपुटभोजिनः, तन्दुलग्रहणमशेषौषध्युपलक्षणम् , एवमपि कियति काले अतिक्रान्ते ।। शाल्याद्यौषधयः कठिनभावतो न जीर्यन्तीति भूयोऽपि भगवन्तं पृष्ट्वा तदुपदेशेन हस्ततलपुटाहारा आसीरन् , हस्त. तलपुटेषु निहित आहारो यैस्ते तथाविधाः, हस्ततलपुटेषु कियन्तमपि कालमौषधीः स्थापयित्वा भुक्तवन्त इत्यर्थः, एवमपि गच्छता कालेन कालदोषात् औषध्यः कठिनतरभावमापन्ना न जीर्यन्ति, ततो भगवदुपदेशेन कक्षामु स्वेदयित्वा भुक्तवन्तः, एतच्चानुक्तमपि व्याख्यानादवसीयते, तथा मूलटीकाकृता व्याख्यानाद्, एवंभूताश्च ते मिथुनका आसन् कायदा ऋषभः कुलकरस्तदेति, तदनन्तरमभिहितप्रकारबादिसंयोगैराहारितवन्तः,तद्यथा-हस्ताभ्यां घृष्ट्वा पत्रपुटेषु च मुहूर्त तीमित्वा, तथा हस्ताभ्यां घृष्टा हस्तपुटेषु च मुहूर्त धृत्वा, तथा हस्ताभ्यां घृष्ट्वा कक्षास्वेदं च कृत्वा, एते त्रयो भङ्गका द्विकसंयोगे, परिघृष्टपदं मुक्त्वा तीमित्वा हस्तपुटेषु च मुहूर्त घृत्वा इत्यादिकामपि भङ्गयोजनामुपदर्शयन्ति केचित, तच्चायुक्तं, त्वगपनयनमन्तरेण तीमितस्यापि हस्तपुटे कृतस्य सौकुमार्यानुपपत्तेः, यदिवा श्लक्ष्णत्वग्भावाददोष इति, विकर्सयोगेऽपि बयो भङ्गा हस्ताभ्यां घृष्ट्वा पत्रपुटेषु तीमित्वा हस्तपुटेषु मुहूर्ते घृत्वा १ हस्ताभ्यां घृष्ट्वा पत्रपुटेषु तीमित्वा ६ कक्षासु स्वेदयित्वा २ तथा हस्ताभ्यां वृष्ट्वा हस्तपुटेषु घृत्या कक्षासु खेदयित्वा ३ इति, यस्तु घृष्टपदं विहाय पत्रपुटेषु ** दीप अनुक्रम हा॥१९६॥ *** Jan Education ForFive Permaneumory wsanelitrary.orm ~116 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education In “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [२०७-२०८], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तीमित्वा हस्तपुटेषु मुहूर्त्त घृत्वा कक्षासु स्वेदयित्वा स प्राग्वदसमीचीनः समीचीनो वा वेदितव्यः, चतुष्कसंयोगे एक एव भङ्गः हस्ताभ्यां वृष्ट्वा पत्रपुटेषु तीमित्या हस्तपुटेषु घृत्वा कक्षासु स्वेदयित्वा इति ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह घंसेऊणं तिम्मण सणतिम्मणपवालपुडभोई । घंसणतिम्मपवाले हत्थउडे कसे य ॥ २०७ ॥ अस्या भावार्थ उक्त एव, नवरमियमुक्तार्थविषया अक्षरयोजना- घृष्ट्वा भुक्तवन्तः, तीमनं प्रवालपुटे तदनन्तरं कृत्वा भुक्तवन्त इत्यनेन प्रागभिहितप्रत्येकभङ्गकाक्षेपः कृतः, तथा हस्ताभ्यां घर्षणं कृत्वा तीमनं च प्रवालपुढे ततो भोजिन इत्यनेन समस्तद्विक संयोगभङ्गकाक्षेपः, तथा घर्षणं हस्ताभ्यां तीमनं प्रवालपुढे तदनन्तरं मुहूर्त्त हस्तपुढे करणं कृत्वा भुक्तवन्त इत्यनेन समस्त त्रिकसंयोगभङ्गकाक्षेपः, 'कक्खसेए य' इति अत्र चशब्दो घर्षणादिसमुच्चयार्थः, ततोऽयमर्थः - हस्ताभ्यां घर्षणे प्रवालपुटे तीमने हस्तपुढे च कियन्तं कालं धरणे तदनन्तरं च कक्षास्वेदे कृते सति भुक्तवन्तः, एतेन चतुष्कसंयोगभङ्गकोऽभिहितः । अत्रान्तरे अगणिस्स य उट्ठाणं वणधंसा दट्टू भीय परिकहणं । पासेसुं परिछिंदह गेण्हह पागं ततो कुणह ॥ २०८ ॥ ननु ते मिथुनकाः सर्वे तीमनादि भगवतीर्थ करोपदेशात्कृतवन्तः, स च भगवान् जातिस्मरः ततः किमित्ययुत्पादो| पदेशं न दत्तवान् १, उच्यते, तदा कालस्य एकान्तस्निग्धतया सत्यपि यत्ते वह्न्युत्पादाभावात्, भगवांस्तु विजानाति - न एकान्तस्निग्धरुक्षयोः कालयोर्वियुत्पादः, किन्तु विमात्रया स्निग्धरूक्षकाले, ततो नादिष्टवानिति । ते च मिथुनका | यदा चतुर्थभङ्गविकल्पितमप्याहारं काल दोषान्न जीर्णवन्तस्तदा अस्मिन् प्रस्तावे कालस्य स्निग्धरूक्षत्वाद्वने दुमाणां पर For Pivote & Personal Use Only ~117~ ganelibrary.org Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२०९], विभा गाथा H], भाष्यं [४...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अध्युत्थान प्रत उपोदात-19 स्परसङ्घर्षात् अग्नेरुत्थानमभूत् , तत उस्थित प्रवृद्धज्वालावलीसनाथं भूपाप्तं तृणादि दहन्तं वहिं दृष्ट्वा अपूर्वरक्षबुझ्या नियुक्ति ग्रहणं प्रति प्रवृत्तवन्तः, दह्यमानास्तु भीताः परिकथनं ऋषभाय कृतवन्तः, भीतानां परिकथनं भीतपरिकथनमिति समासो वा, ततो भगवानाह-अश्वेष्वारुह्य यावत्यग्निः प्रज्वलति तावन्तं प्रदेशं विहाय तस्य सर्वासु दिक्षु पार्थेषु तृणा॥१९७॥ | दिकं सर्व परिच्छिन्दन्तु, एवमुक्तास्ते मिथुनका हस्तिभिरम्धैश्चारुह्यारुह्य पार्थेषु स्थितं सर्वं तृणादिकं किश्चिम्मिलितं कृतवन्तः किश्चित्सर्वथा ततोऽपनीतवन्तः, ततः स प्रवृद्धि गरछन्नग्निरुपशान्तः, ततः स्वामिनोक्तम्-अमुमग्निं गृहीत गृहीत्वा चैनं पाकं कुरुतेति, ते मिथुनका न जानन्ति, ततोऽग्निं गृहीत्वा तत्रैवौषधीः शाल्यादिकाः प्रक्षिप्तवन्तः, ताश्च दाहमापुः, पुनस्ते भगवतो हस्तिस्कन्धगतस्य न्यवेदयन् , स हि स्वयमेवौषधीर्भक्षयतीति, भगवानाह-तत्र नातिरोहितानां प्रक्षेपः क्रियते, किन्तु मृत्पिण्डमानयध्वमिति, तैरानीतो मृत्पिण्डः, ततो भगवान् हसिकुम्भे पिण्डं निधाय पत्रकाकारं निर्दिश्य ईशानि भाण्डानि कृत्वाऽत्रैवाग्नौ पक्त्वा एतेषु पाकं निवर्त्तयध्वमित्युक्तवान् , ततस्ते तथैव कृतवन्तः, इत्थं | तावत् प्रथमकुम्भकारशिल्पमुत्पन्नम् ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहपक्खेवडहणमोसहि कहणं निग्गमण हस्थिसीसम्मि । पयणारंभपविती ताहे कासीय ते मणुया ॥ २०९॥ भावार्थ उक्त एव, किन्तु क्रियाध्याहारकरणेनैवमक्षरगमनिका कार्या-यथा ते मिथुनका अनावौषधीनां प्रक्षेपं कृत| वन्तः, ततो दहनमौषधीनामभूत् , ततो भगवते हस्तिस्कन्धारूढाय विनीताया नगर्या विनिर्गच्छते कथनं, ततो MARCAMERARIA दीप अनुक्रम ॥१९७० aaiwsanttionary.com ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२१०-२११], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: * * * प्रत सूत्रांक * *** हस्तिशिरसि कुम्भे कईमरूपस्य मृत्पिण्डस्य पत्रकाकारकरणं, ततस्ते मिथुनकास्तयारूपाणि भाण्डानि कृत्वा पचनारम्भप्रवृत्तिमकार्षुरिति ।। गतमाहारद्वारम्, अधुना शिल्पद्वारमभिषित्सुराह पंचेव य सिप्पाइं घड लोहे चित्तऽणंत कासवए । एकेकस्स य एतो वीस बीसं भवे भेया ॥२१॥ पश्चैव मूलभूतानि शिल्पानि, तद्यथा-'घड लोहे चित्तणतकासवए' इति तत्र घट इति कुम्भकारशिल्पस्योपलक्षणं, |'लोहे'त्ति' लोहकारशिल्पस्य 'चित्तेति चित्रकरशिल्पस्य, 'णन्त'मिति देशीवचनं वखवाचकं, ततोऽनेन वस्त्रशिल्पस्य ग्रहणं, 'काश्यप'इति नापितशिल्पस्य, इयमत्र भावना-वस्त्रवृक्षेषु परिहीयमानेषु भगवता वस्त्रोत्पादनिमित्तं वस्त्रशिल्पमुत्पादितं, तदनन्तरं गृहाकारेष्वपि कल्पद्रुमेषु हानिमुपगच्छत्सु गृहकरणनिमित्तं लोहकारादिशिल्पमुत्पादितं, पश्चात् माणिनां कालदोषान्नखरोमाण्यपि पद्धितुं प्रवृत्तानीति नापितशिल्पोत्पादना, गृहाण्यपि च चित्ररहितानि विशोभानि भान्तीति चित्रकरशिल्पोत्पादना, कुम्भकारशिल्पोत्पादकारणं प्रागेव भावितम् , 'एकेकस्स येत्यादि एभ्यः पञ्चभ्य एकैकस्य विंशतिविशतिर्भेदा अभूवन्निति सर्वसङ्ख्या तदा शिल्पशतस्योत्पत्तिरभवदिति ॥ सम्प्रति कर्ममामणाविभूषणाद्वारप्रतिपादनार्थमाहकम्मं किसिवाणिजाइ मामणा जा परिग्गहे ममता । पुवं देवेहिं कया विभूसणा मंडणा गुरुणो ॥ २११॥ कर्म नाम कृषिवाणिज्यादि तच्चानावुत्पन्ने सञ्जातमिति, 'मामणेति ममीकारार्थे देशीवचनमेतत् , ततो या परिग्रहे । ERGRAMROKS दीप अनुक्रम ** H ******** and on FrPave Poranaatmory ... नियुक्ति-गाथा क्रम [ हरिभद्रसूरिजी कि वृत्ति और इस मलयगिरिजी कि वृत्तिमे नियुक्ति-गाथा क्रम अलग अलग हि चल रहा है ] ... अत्र यत् नियुक्ति-गाथा २११ "कम्म किसिवाणिज्जाइ आरभ्य गाथा २२९ "किंचिच्च भरहकाले" पर्यन्ता १९ गाथा: हारिभद्रिया आवश्यक-वृत्तौ भाष्य-गाथा:रूपेण उल्लिखिता: तत्र भाष्यगाथा: क्रम (१२) द्वादशात्त (३०) त्रिंशत् पर्यन्ता: इति निर्दिष्टा: ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२१२-२१३], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोदाद- नियुक्तिः ॥ १९८॥ प्रत 4 KARE RE ममता सा मामणा ज्ञातव्या, सा च तत्काल एव प्रवृत्तेति, तथा विभूषणा-मण्डना, सा च पूर्व देवेन्द्रगुरोम-भगवत हा कर्मशिआदितीर्थकृतः कृता, पश्चालोकेऽपि प्रवृत्तेति ॥ सम्पति लेखगणितरूपद्वारद्वयप्रतिपादनार्थमाह पादिले. का लेहं लिचीविहाणं जिणेण बंभीऍ दाहिणकरेणं । गणियं संखाणं सुंदरीए वामेण उवइह ।। २१२॥ लेखनं लेखो नाम सूत्रे नपुंसकता प्राकृतत्वात् लिपिविधानं, तच्च जिनेन-भगवता ऋषभस्वामिना ब्राहया दक्षिण-II करेण प्रदर्शितमत एव तदादित आरभ्य वाच्यते, गणितं नाम एकद्वियादिसल्यानं, तच्च भगवता सुन्दा वामकरेणोपदिष्टमत एव तत्पर्यन्तादारभ्य गण्यते । अधुना रूपलक्षणमानरूपद्वारत्रयप्रतिपादनार्थमाह- भरहस्स रूवकम्म नराइलक्षणमहोइयं बलिणो । माणुम्माणवमाणपमाणगणिमाइ वत्यूणं ॥२१३ ॥ रूपं नाम काष्ठकर्म पुस्तककर्मेत्येवमादि, तच्च भगवता भरतस्योपदिष्टं, तथा लक्षणं नरादि-पुरुषलक्षणादि, तच्च अथ-भरतस्य काष्ठकाद्युपदेशानन्तरं भगवता बाहुबलिने उदितं-कथितं, तथा मानं नाम वस्तूनां मानोन्मानावमानप्रमाणगणितानि, तत्र मानं द्विधा-धान्यमानं रसमानं च, धान्यमानं 'दो असतीओ पसई दो पसईतो सेइया चत्तारि सेइया कुलवो चत्तारि कुलवा पत्यओ' इत्यादि, रसमानं 'चउसट्ठिया बत्तिसिया सोलसिया' इत्यादि, उन्मानं येनोन्मीयते, तच्च तुलागतं कर्षः पलमित्यादि, अवमानं येनावमीयते, तद्यथा-हस्तो दण्डो युगमित्यादि, प्रमाणं प्रतिमानं, तब सुवर्णपरिमाणहेतुर्गुञ्जादि, गणितं यदेकादिसझमया परिच्छिद्यते, यत्तु गणितं तत्मागेव पृथग्द्वारतयाऽभिहितम्, एतत् । दीप अनुक्रम % % Jan k wsannlionary.orm. ~120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आ.सू. ३४ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययन [-] निर्युक्ति: [२१४-२१६], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | पञ्चप्रकारमपि मानं भगवति राज्यमनुशासति भगवदुपदेशेन प्रवृत्तमिति ॥ 'पोयए' इति द्वारगाथायां यदुक्तं तस्य संस्कारः प्रोतकमिति पोतक इति वा, तथा चाह माई दोरा पोता तह सागरंमि वहणाई । ववहारो लेहवणं कज्जपरिच्छेयणत्थं वा ॥ २९४ ॥ मणिकाः आदिशब्दात् मुक्ताफलादिपरिग्रहः दवरकादिषु लोकेन प्रोताः क्रियन्ते तदेतत्प्रकर्षेण उतनं प्रोतं तदा प्रवृत्तं, अथवा पोता नाम सागरे समुद्रे वहनानि - प्रवहणानि तान्यपि तदैव प्रवृत्तानि तथा व्यवहारो नाम विसंवादे सति राजकुलकरणे गत्वा निजनिजभाषालेखापनलक्षणः कार्यपरिच्छेदनार्थं वा पणमुक्तिलक्षणः स उभयरूपोऽपि तदा प्रवृत्तः, कालदोषतो लोकानां प्रायः स्वस्वभावापगमाद् ॥ अधुना नीतियुद्धरूपं द्वारद्वयमभिधित्सुराह- नई कराई सत्तविहा अहव सामभेयाई । जुदाई बाहुइया वायाणं च ॥ २१५ ॥ नीतिर्हकारादिलक्षणा सप्तविधा, तद्यथा-हक्कारो मकारो धिकारः परिभाषणा मण्डलीबन्धञ्चारके प्रक्षेपो महापराधे च्छविच्छेद इति, एषा सप्तविधाऽपि नीतिस्तदा विमलवाहन कुलकरादारभ्य भरतकालं पर्यन्तं कृत्वा यथायोगं प्रवृत्ता तथा च वक्ष्यति 'किञ्चिच्च (शीव) भरहकाले' इत्यादि, अथवा नीतिर्नाम सामभेदादिका चतुष्प्रकारा, तद्यथा-सान भेदो | दण्ड उपप्रदानमिति, एषा चतुर्विधापि भगवत्काले समुत्पन्नेति, तथा युद्धानि नाम बाहुयुद्धादीनि यदिवा वर्त्तिकादीनां यानि तान्युभयान्यपि तदा प्रवृत्तानि ॥ साम्प्रतमिषुशास्त्रोपासनारूपं द्वारद्वयमाह सत्यं धणुवेदो उवासणा मंकम्ममाईया । गुरुरायाणं वा उवासणा पजुवासनया ॥ २१६ ॥ Far Pavoce & Personal Use Ony 121~ www.sanlibrary.org Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२१७-२१९], विभा गाथा H, भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गोद्धात प्रत -* ।१९९॥ २१४-२ -* | इपुशास्त्रं नाम धनुर्वेदः, स च तदैव राजधर्मे सति शावर्चत, उपासना नाम श्मश्रुकर्सनादिरूपं नापितकर्म, तदपि पोलादीनि मातदेव जातं, पूर्व ह्यवस्थितनखलोमानस्तथा कालमाहात्म्यतः पाणिनोऽभवन्निति, पषा च शिल्पान्तर्गततया प्रागभिहिताऽपि मंगलाता पुनः पृथद्धारतयोपन्यस्ता, भगवत्काल एव नखरोमाण्यतिरेकेण प्रवर्दितुं लग्नानि, न पूर्वमिति ख्यापनार्थ, यदिवानि द्वाराण उपासना नाम गुरुराजादीनां पर्युपासना, साऽपि तदैव प्रवृत्ता । अधुना चिकित्सार्थशास्त्रवन्धघातरूपद्वारचतुष्टयन- गा. तिपादनार्थमाहरोगहरयां चिकिच्छा अस्थागम सत्यमत्थसस्थिति । निगडाइजमो बन्धो घातो दंडादितालणया ॥ २१७॥ चिकित्सा नाम रोगापहारक्रिया, साऽपि तदैव भगवदुपदेशात्प्रवृत्ता, अर्थागमनिमित्तं शाखं अर्थवाखं, बन्धो-II निगडादिभिर्यमः-संयमनं, घातो-दण्डादिभिस्ताडना, एतेऽपि अर्थशास्त्रबन्धघातास्तत्काले यथायोगं प्रवृत्ताः ॥ अधुना |मारणयज्ञोत्सवरूपद्वारत्रयप्रतिपादनार्थमाह___मारणया जीववहो जन्ना नागाइयाण पूयातो। इंदाइमहा पायं पइनियया ऊसवा होति ।। २१८॥ मारणं जीववधो-जीवस्य जीविताद् व्यपरोपणं, तच भरतेश्वरकाले समुत्पन्न, यज्ञा-नागादीनां पूजा उत्सवा:प्रायः प्रतिनियताः, वर्षमध्ये प्रतिनियतदिवसभाविन इन्द्रादिमहार, पूजास्वनियतकालभाविन्य इति पूजामहोत्सवानां ॥१९९॥ प्रतिविशेषः, पतेऽपि तत्काले प्रवृत्ताः सम्प्रति समवायमङ्गलरूपद्वारद्वयमभिषित्सुराह समवाओ गोहीणं गामाईणं व संपसारो वा । तह मंगलाई सोस्थियमुवपणसिद्धस्थगाईणि ॥१९॥ CICE * दीप अनुक्रम Jand ~122 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२२०-२२२], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत *444 सत्रांक समवायो नाम गोष्ठिनां मेलापका, यदिवा प्रामादीनामादिशब्दात् खेदकर्बदनगरादिपरिग्रहः सम्-एकीभावेन किमप्युदिश्य एकत्र मीलनं सम्प्रसार:-समवायः, किमुक्तं भवति -प्रामादिजनानां किश्चित्प्रयोजनमुहिश्य यदेकर मीलनं सवा समवाय इति, तथा मङ्गलानि नाम स्वस्तिकसुवर्णसिद्धार्थकादीनि तानि पूर्व देवैर्भगवतो मङ्गलबुख्या प्रयुक्तानि, || ततो लोकेऽपि तथा प्रवृत्तानि ॥ सम्पति कौतुकादिद्वारपञ्चकमाह पुवं कयाई पहुणो सुरेहिं रक्खादिकोउयाई च । तह वत्थगंधमल्लालंकारा केसमूसाई ॥२२॥ तंदण पवत्तोऽलंकारेउं जणोऽवि सेसोऽवि।। पूर्व प्रमो:- भगवतः ऋषभस्वामिनः सुरैः कृतानि कौतुकानि-रक्षादीनि, ततो लोकेऽपि तानि जातानि, तथा वर्ष चीनांशुकादिभेदभिन्न गन्धः-कुष्ठपुटा दिलक्षणः माल्य-पुष्पदाम, एतानि तदैव जातानि, अलकार-केशभूपादित चालङ्कारं भगवतो देवः कृतं दृष्ट्वा अवशेषोऽपि खं स्वमलङ्क प्रवृत्तः ॥ सम्पति थलाबारमाह बिहिणा चूलाकम्म बालार्ण चोलयं नाम ॥ २२१॥ पूरा नाम विधिना शुभनक्षत्रतिथिमुहूर्तादौ धवलमङ्गलेष्टदेवतापूजाखजनभोजनादिलक्षणेन बालानां पूडाकर्म, तदपि तदा प्रवृत्तम् ।। सम्प्रत्युपनयनद्वारमाह उवणपणं तु कलाणं गुरुमूले साधुणो ततो धम्मं । घेर्नु हवंति सड्डा केई दिक्खं पयजति ॥ २२२ ॥ उपनयनं नाम तेषामेव बालानां कलानां ग्रहणाय गुरोः कलाचार्यस्व मले-समीपे नयनं. पदिषा धर्मअषणनिमित्त । दीप अनुक्रम Jan E rebon wiewsanelibrary.orm ... अथ चूडाकर्म, उपनयन, विवः आदि द्वाराणाम् वर्णनं ~1237 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥२००॥ Jan Education In “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ २२३-२२६], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः साधोः सकाशं नयनमुपनयनं, तस्माच्च साधोर्धम्मै गृहीत्वा केचित् श्राद्धा भवन्त्यपरे लघुकर्माणो दीक्षां प्रपद्यन्ते, एतच्चोभयमपि तदा प्रवृत्तम् ॥ अधुना विवाहद्वारं दत्तिद्वारं वाह दहुं कथं विवाहं जिणस्स लोगोऽवि काउमारद्धो । गुरुदनिया य कन्ना परिणिज्यंते ततो पायं ॥ २२३ ॥ दत्ती व दाणमुसभं दितं दहं जर्णमिवि पवतं । जिणभिक्वादानंपिय द भिक्खा पवत्ताओ ॥ २२४ ॥ जिनस्य-भगवत ऋषभस्वामिनो देवैः कृतं विवाहं दृष्ट्वा टोकोऽपि स्वापत्यानां विवाहं कर्तुमारब्धवान्, गतं विवाहद्वारम् । दत्तिद्वारमाह-भगवता युगलधर्म्मव्यवच्छेदाय भरतेन सह जाता ब्राह्मी बाहुबलिने दत्ता, बाहुबलिना सह जाता सुन्दरी भरतायेति दृष्ट्वा तत आरभ्य प्रायो लोकेऽपि कन्या पित्रादिना दत्ता सती परिणीयते इति प्रवृत्तम्, अथवा दत्तिनम दानं तच्च भगवन्तमृषभस्वामिनं सांवत्सरिकं दानं ददतं दृष्ट्वा लोकेऽपि प्रवृत्तं यदिवा दत्तिर्नाम भिक्षादानं, तच्च | जिनस्य भिक्षादानं प्रपौत्रेण कृतं दृष्ट्वा लोकेऽपि भिक्षा प्रवृत्ता, लोका अपि भिक्षां दातुं प्रवृत्ता इति भावः ॥ अधुना मृतकपूजाध्मापनास्तूपशब्दद्वाराण्याह मजयं मयस्स देहो तं मरुदेवीऍ पढमसिद्धोत्ति । देवेहि पुरा महियं झावणया अग्गिकारो ॥ २२५ ॥ सो जिणदेहाईणं देवेहिं कतो चिता सभा य । सहो य रुग्णसदो लोगोवि ततो तहा पकतो ॥ २२६ ॥ मृतकं नाम मृतस्य देहस्तच्च मृतकं मरुदेव्याः प्रथमसिद्ध इतिकृत्या देवैः पुरा महितं -पूजितं तत आरम्य लोकेऽपि मृतकपूजा प्रसिद्धिं गता, ध्मापना' नामाग्निसंस्कारः, स च भगवतो निर्वाणप्राप्तस्यान्येषां च साधूनामिक्ष्वाकूणामितरेषां For Pivote & Personal Use Ony ~124~ स्तूपादीनि 2 शब्दान्तानि द्वारा 4 णि गा. २२०-१ ॥ २००॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२२७-२२९], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: N प्रत सूत्रांक ectCABKECEBCARRC- च प्रथमं त्रिदः कृतः पश्चाल्लोकेऽपि सञ्जातः, तथा भगवदेहादिदग्धस्थानेषु भरतेन स्तूपाः कृताः, ततो लोकेऽपि तत 3 आरभ्य मृतकदाहस्थानेषु स्तूपाः प्रावर्तन्त, तथा शब्दो नाम रुदितशब्दः, स च भगवत्यपवर्ग गते भरतदुःखमसाधार णमवबुध्य तदपसरणाय शक्रेण कृतः, ततो लोकेऽपि ततः कालादारभ्य रुदितशब्दः प्रवृत्तः, तथा चाह-लोकोऽपि तथा-भरतवत् शक्रवद्वा रुदितशब्दं प्रकृत:-कर्तुमारब्धवान् ॥ सम्प्रति च्छेलापनकद्वारं पृच्छाद्वारं चाह छेलावणमुकिटाइ बालकीलावणं च सेंटाई । इंखिणियादिरुयं वा पुच्छा पुण किं कहिं कजं? ॥२२७॥ | अहय निमित्ताईणं सुहसइयाइ सुहदुक्खपुच्छा वा । इचेवमाइयाए उप्पन्नं उसमकालम्मि ॥ २२८॥ छेलापनकमिति देशीवचनं, तच्चानेकार्थ, तथा चाह-'उक्किट्ठाई'इत्यादि, उत्कृष्टि म हर्षवशादुत्कर्षेण नदनम् , आदि-| शब्दात् सिंहनादादिपरिग्रहः, यदिवा बालक्रीडापनं छेलापनक, अथवा शेण्टितादि। तथा प्रच्छन्नं पृच्छा, सा इकिणिकाहै दिरुतलक्षणा, इंखिणिका हि कर्णमूले घण्टिकां चालयन्ति, ततो यक्षाः खल्वागम्य तासां कर्णेषु किमपि प्रष्टुर्विवक्षितं कथयन्ति, आदिशब्दात् इङ्खिणिकासदृशपरिग्रहः, अथवा किं कार्य ? कथं वा कार्यमित्येवलक्षणा या लोके प्रसिद्धा पृच्छा सा पृच्छ-18 ना, यदिवा निमित्तादीनामादिशब्दात्स्वमफलादिपरिग्रहः पृच्छा-पृच्छना, अथवा सुखशयितादिरूपा सुखदुःखपृच्छना इत्येवं आदितया सर्वमुत्पन्नमृषभस्वामिकाले, उपलक्षणमेतत्, किञ्चिद्भरतकाले किश्चित्कुलकरकाले च ॥ तथा चाहकिचिच्च भरहकाले कुलगरकालेवि किंचि उप्पन्नं । पहुणा उ देसियाई सन्चकलासिप्पकम्माई ।। २२९॥ किश्चित्-निगडादिभिर्घात इत्यादि भरतकाल उत्पन्नं, किश्चित्-हकारादि कुलकरकालेऽप्युत्पत्रं, प्रभुणा तु-भगवता दीप अनुक्रम F ~1254 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२३०-२३३], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोद्घात-13ऋषभस्वामिना सर्वा गणितप्रकृतयः कलाः सवाणि घटशिल्पप्रभृतीनि शिल्पानि सर्वाणि च कृष्यादीनि कर्माणि लापननियुक्तिःदेशितानीति ॥ दिच्छे संबोध__उसभचारचाहिगारे ससि जिणवराण सामपणं । संबोहणाइ वोत्तुं वोच्छं पत्तेयभुसभस्स ॥ २३०॥ नादिद्वा॥२०॥ | इ वक्तुमिदानीमधिकृतं भगवत ऋषभस्वामिनश्चरित्रं, तत्र च ऋषभचरिताधिकारें वक्ष्यमाणं सम्बोधनादि सर्वेषामपिरोद्देशगा. जनवराणां सामान्यमतस्तथैव सामान्येनोक्त्वा पश्चात् प्रत्येकम्-एक प्रति प्रत्येक, नान प्रतिशब्दो चीप्सायां, किन्त्वा-16/२२७-२३ भिमुख्ये, ततोऽयमर्थ:-एकस्याभिमुख्येन, कस्यैकस्येत्यत आह-ऋषभस्य, शेष चरित्रं वक्ष्ये ॥ तत्र सम्बोधनादिवारपतिपादनार्थ द्वारगाथात्रयमाहसंबोहण १ परिचाए २, पत्तेयं उवहिम्मि य ३ । अन्नलिंगे ४ कुलिंगे य ५, गामायार परीसहे७॥२१॥ जीवोवलंभ ८ सुयलंभे९, पञ्चक्खाणे १० य संजमे ११ । एउमत्ध १२ तवोकम्मे १३, उप्पया नाण १४ संगहो १५॥२३२॥ तित्थं १६ गणो १७ गणहरा १८, धम्मोवायरस देसगा १९॥ ॥२०१॥ परियाय २० अंतकिरिया २१, कस्स केण तबेण वा.!॥२३३॥ सर्व एव भगवन्तस्तीर्थकृतः खयंवुद्धास्तथापि कल्प इतिकृत्या लोकान्तिकदेवाः सर्वतीर्थकृतां सम्बोधनं कुर्वन्ति, ससः प्रथमं तत्सम्बोधनं वाच्यं, तदनन्तरं परित्यागः-किं भगवम्तचारित्रमतिपची परिस्यजन्तीति, तथा प्रत्येकमिति का दीप अनुक्रम % Jan For ... अथ जिनेश्वर संबंधी 'संबोधन' आदि २१ द्वाराणाम् वर्णनं ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२३०-२३३], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत * सत्रांक CASC कियत्परिवारो निष्कान्त इति वाच्यं, तथा 'उपधा'विति उपधिविषयो विधिर्वतव्यः, यथाकः केनोपधिरासेवितः कोवा | विनेयानामनुज्ञातः इति, इह यत्साधूनां लिङ्गं यच्च गृहस्थानां तद्भगवतां तीर्थकृतामन्यलिज, कुत्सितं लिंग कुलिंगं तापसपरि-13 माजकादिलिङ्गं, तत्र भगवन्तो नान्यलिङ्गे निष्क्रान्ताः, नापि कुलिके, किन्तु तीर्घकरलिङ्गे एवेति वक्तव्यं, तथा ग्रामाचाराविषयाः परीपहा:-क्षुत्पिपासादयः, ग्रामाचाराश्च परीपहाश्च ग्रामाचारपरीपहं तस्मिन् विधिर्वक्तव्यः, यथा कुमारप्रवजितैविषया न भुक्ताः, शेषेभुक्ताः, तथा परीपहाः सर्वैरेच निर्जिता इति, तथा जीवोपलम्भो-जीवग्रहणमुपलक्षणं जीवाजीवाद्युपलम्भो वक्तव्यः, तथा पूर्वभवे यस्य यावान् श्रुतलाभास वक्तव्यः, प्रथमान्तस्याप्येकारान्तता सूत्रे प्राकृतत्वात् , तथा प्रत्याख्यानं महात्रतरूपं वक्तव्यं, तस्य किं प्रमाणमासीदिति, तथा संयमः-सामायिकादिरूपो वक्तव्यः, कस्य किं सामायिकादि चारित्रमासीदिति, तथा छादयतीति छद्म-ज्ञानावरणीयादिघातिकर्मचतुष्टयं छद्मनि तिष्ठतीति छद्मस्था, क| कियन्तं कालं छद्मस्थ आसीदिति वक्तव्यं, तथा किं कस्य तपाकति वक्तव्यं, तथा 'उप्पया नाणेति ज्ञानोत्पादो यक्तव्यः, कस्य कस्मिन्नहनि केवलज्ञानमुत्पन्नमिति, तथा सङ्घहो वक्तव्यः, कस्य कियान् शिष्यादिसञ्चहा, तथा 'तीर्थमिति कथं कस्य कदा तीर्थ मुत्पन्नमित्यादि वक्तव्यं, तीर्थ नाम चातुवर्णः श्रमणसङ्कः, गणः-एकवाचनाचारक्रियास्थानां समुदायो, म कुलसमुदाया, ते च ऋषभादीनां कस्य कियन्त इति वक्तव्यं, तथा गणधराः-सूत्रकारः, तेच कस्य किय-14 न्त इति वक्तव्यं, तथा दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः तस्योपायो-द्वादशाङ्गं प्रवचनमधवा पूर्वाणि देशयदम्तीति देशकाः धर्मोपायस्य देशका गणधरा अथवा अन्येऽपि यस्य यावन्तश्चतुर्दशपूर्वविदः, सवा पर्याय इति दीप अनुक्रम and remona GB wiewsaneliterary.cre ~127 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२३४-२३६], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत 10 दीप अनुक्रम पोदात-18|कस्य प्रवज्यादिपर्यायः इत्येतद्वक्तव्यं, तथा अन्ते क्रिया अन्तक्रिया-निर्वाणलक्षणा सा कस्य केन तपसा , वाशब्दात्सं बोधन नियुक्तिकस्मिन् वा कियत्परिवारपरिवृतस्य चेति वक्तव्यम् ॥ सम्प्रति प्रथमद्वारप्रतिपादनार्थमाह दाद्वार को IN सव्वेऽवि सयंवुद्धा लोगंतियबोहिया य जीयंति । सवेर्सि परिचाओ संवच्छरियं महादाणं ॥ २३४॥ कान्तिका ॥२०२॥ रजाइयाओधि य पत्तेयं को व कित्तियसमग्गो। को कस्सुवही को वाऽणुण्णाओ केण सीसाणं ॥२३॥ श्व गा. | (ग्रन्था ८०००)सर्व एव तीर्थकृतः स्वयंबुद्धा वर्तन्ते, तथापि लोकान्तिकदेवानामियं स्थितिर्यदुत स्वयंबुद्धानपि भग-1 २३५-4 वतोबोधयन्ति, ततो जीतमिति-कल्प इतिकृत्वा लोकान्तिकदेवैर्बोधिताः सन्तो निष्कामन्ति। व्याख्यातं सम्बोधनाद्वारम् , अधुना परित्यागद्वारं व्याख्याति-सर्वेषां भगवतां परित्यागः सांवत्सरिकं महादानं वक्ष्यमाणलक्षणम् ॥ हा राज्यादित्यागोऽपि च परित्यागः, व्याख्यातं परित्यागद्वारं, प्रत्येकद्वारमाह-प्रत्येकमिति क एककः को वा किय समग्रो निष्क्रान्तः । उपधिद्वारमाह-कः कस्योपधिः? को वा केनानुज्ञातः शिष्याणामुपधिरिति । इदं च गाथाद्वयमपि समासव्याख्यारूपं, न च समासेनोकं मन्दमतयोऽवबुध्यन्ते, ततः प्रपञ्चेन विवरीषुः प्रथमद्वारमाह सारस्सय १ माइचा २ वण्ही ३ वरुणा य ४ गहतोया य५। तसिया ६अदाबाहा ७ अग्गिचा चेव८रिट्ठा य९॥२३६॥ ॥२०श्या सारस्वता मकारोऽलाक्षणिकः १ आदित्याः २ वइयः ३ वरुणाः ४ गतोयाः ५ चः समुच्चये तुषिता अव्यावाधा अग्नयःदएत एव संज्ञान्तरतोमरुतीऽप्यभिधीयन्ते, रिठाश्चेति तात्स्यात्तद्व्यपदेश'ब्रह्मलोकस्थरिष्ठप्रस्तटाधारा रिष्ठा इति, GANG JanEdication iralILLI For Five Porno saneliterary.com ... [ एकबार फ़िर याद कर लेते है की हारिभद्रिया वृत्ति और मलयगिरिया वृत्ति के सम्पादनमे किसी भी कारण से नियुक्तिक्रम अलग अलग चल र रहे है, यहां भाष्यगाथा की गिनती नियुक्तिगाथामे हुइ है इसीलिए यहां गाथा २३६ है ,उस गाथा का क्रम हारिभद्रिया-वृत्तिमे २१४ है । ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२३७-२४०], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत 545-45 सत्रांक एए देवनिकाया भयवं वोहिंति जिणवरिंदं तु । सबजगजीवहियं भयवं ! तिस्थं पवत्तेहि ॥ २३७ ॥ एते देवनिकायाः-सारस्वतादयः स्वयं सम्बुद्धमपि भगवन्तं जिनवरेन्द्रं कल्प इतिकृत्वा बोधयन्ति, कथमित्याहसर्वे च ते जगजीवाश्च सर्वजगज्जीवास्तेभ्यो हितं हे भगवन् ! तीर्थ प्रवर्चयस्वेति ॥ उक्तं सम्बोधनद्वारम् , इदानी परि-2 त्यागद्वारमाह संवच्छरेण होही अभिनिक्खमणं तु जिणवरिंदाणं । ता अत्थसंपयाणं पवत्तए पुबसूरंमि ।। २३८॥ संवत्सरेण जिनवरेन्द्राणामभिनिष्क्रमणं भविष्यति, ततोऽर्थसम्प्रदानम्-अर्थस्य सम्यक्-तीर्थप्रभावनाबुमा अनुकसम्पावुझ्या च, न तु कीर्तिबुझ्या, संप्रदानं जनेभ्यः प्रवर्तते, पूर्वसूर्ये-पूर्वाहे इत्यर्थः॥ कियत् प्रतिदिवसं दीयते इत्याह एगा हिरण्णकोडी अहेव अणूणगा सयसहस्सा । सरोदयमाईयं दिजइ जा पायरासाओ ॥ २३९ ॥ एका हिरण्यस्य कोटी अष्टौ चान्यूनानि-परिपूर्णानि शतसहस्राणि-लक्षाणि इति प्रतिदिवसं दीयते, कथं दीयते इत्याह|४| सूर्योदय आदौ यस्य दानस्य तत् सूर्योदयादि, क्रियाविशेषणमेतत् , सूर्योदयादारभ्य दीयते इति भावः, कियन्तं कालं यावदित्याह-'प्रातराशा' प्रातः अशनमाशः प्रातराशः तस्मात् , तमभिच्याप्य, प्रातभोजनकालं यावदिति भावः । यथा दीयते तथा प्रतिपादयन्नाह सिंघाडगतिगचउक्चच्चरचउम्मुहमहापहपहेसुं। दारेसु पुरवराणं रत्थामुहमज्झकारेसु ॥ २४०॥ काटकं नाम शुकाटकाकृतिपथयुकं, त्रिकोण स्थानं वा, त्रिकं यत्र रथ्यात्रयं मिलति, चतुष्क-चतुष्पथसमाहारः, AKANGACANADA दीप अनुक्रम * % % % % 4 ForPivate Permaneumony ~129 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२४१-२४२], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत योद्धात- चत्वर-बहुरथ्यापातस्थानं चतुर्मुखं-यस्माच्चतसृष्वपि दिक्षु पन्थानो निस्सरन्ति, महापथो-राजपथः, शेष: सामान्यः सावत्सरिनियुक्तिः पन्थाः पथः, तत एतेषां द्वन्द्वः, तथा पुरवराणां द्वारेषु, प्रतोलीवित्यर्थः, तथा रथ्याणां मुखानि-प्रवेशा मध्यकारा-1 कदानं गा 14 मध्या एव कारशब्दस्य स्वार्थिकत्वाद्र्थ्यामुखमध्यकारास्तेषु । किमित्याह २३७-४२ २०३॥ वरवरिया घोसिजइ किमिच्छियं दिजए बहुविहीयं । सुरअसुरदेवदाणवनरिंदमहियाण निक्खमणे ॥ २४१॥ वरं याचध्वं वर याचध्वमित्येवं घोषणा समयपरिभाषया वरवरिकोच्यते, सा वरवरिका पूर्व शृङ्गाटिकादिषु घोच्यते, ततः कः किमिच्छति-यो यदिच्छति तस्य तद्दानं समयपरिभाषयैव किमिच्छकमुच्यते, किमिच्छकं यथा भवति एवं दीयते, एकमपि वस्त्वङ्गीकृत्य एतत्परिसमाप्त्या भवति अतो बहवो विधयो-मुक्ताफलप्रदानादिलक्षणा यमिंस्तद्वहुविधिक, क इत्याह-सुरैः-वैमानिकज्योतिष्क असुरैः-भवनपतिव्यन्सरैः, देवदानवनरेन्द्ररिति इन्द्रग्रहणं प्रत्येकमभिसम्बध्यते, देवेन्द्रैःशकादिभिः दानवेन्द्रः-चमरादिभिः नरेन्द्रः-चक्रवर्तिप्रभृतिभिर्महितानां भगवता तीर्थकृतां निष्क्रमणे इति ॥ साम्प्रतमेकैकेन तीर्थकृता कियड्रव्यजातं संवत्सरेण दत्तमित्येतत्प्रतिपादयन्नाहतिण्णेव य कोडिसया अट्ठासीई अ होंति कोडीओ । असियं च सयसहस्सा एवं संवच्छरे दिण्णं ॥ २४२ ॥ । त्रीण्येव कोटिशतानि अष्टाशीतिश्च भवन्ति कोटयः अशीतिश्च शतसहस्राणि ३८८८०००.०० एतत्-एतावत्प्रमाणमेकैकेन तीर्थकृता संवत्सरे दत्तम्, एतच्च प्रतिदिनदेयं त्रिभिः पधाधिकैर्वासरशतैर्गुणयित्वा परिभावनीयम् ॥प्रथमघरव- ॥२० ॥ रिका समाप्ता । सम्पत्यधिकृतद्वारार्थानुपात्येव वस्तु प्रतिपादयताह दीप अनुक्रम AXXX and retinal ~130~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२४३-२४७], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: %%-- % प्रत % % सत्रांक -% बीरं अरिष्टनेमि पास मल्लिं च वासुपुजं च । एए मोत्तूण जिणे अवसेसा भासि रायाणो ॥ २४॥ रायकुलेसुवि जाया विसुद्धवंसेसु खत्तियकुलेसुंशन य इच्छियाभिसेया कुमारवासंमि पवइया ॥४४॥ संती कुंय य भरो अरहंता चेव चक्कवट्टी य । अवसेसा तिथपरा मंडलिया आसि रायाणो ॥ २४५॥ वीर-महावीरमरिष्टनेमि पार्श्वनाथं मलिं वासुपूज्यं च, एतान् सर्वसस्यया पश्च जिनान-तीर्घकृतो मुक्त्वा अवशेषासस्तीर्घकृतः-ऋषभस्वामिप्रभृतय आसन् राजानः, एते हि महावीरप्रभृतयः पञ्च तीर्थकृतो राजकुलेष्वपि विशुद्धवंशेषु क्षत्रियकुलेषु, राजकुलं हि किश्चिदक्षत्रियकुलमपि भवति, यथा नन्दराजकुलमत उक्त क्षत्रियकुलेषु जाता अपि, न ईप्सिताभिषेका-अभिलषितराज्याभिषेकाः, किन्तु कुमारवास एवं प्रव्रजिता:-प्रव्रज्यां प्रतिपेदिरे, येऽपि च राजान ऋषभस्वामिप्रभृतयस्तेष्यपि शान्तिः कुन्थुः अर एते अयोऽहन्तश्चक्रवर्तिनोऽभवन् , अवशेषाः पुनस्तीर्थकरा आसन् राजानो-माण्डलिकाः स्वस्वमण्डलमात्राधिपतयः, परित्यागद्वारानुपातिता तु गाथात्रयस्यैवं परिभावनीया-बक्कलक्षणं राम्यं परित्यज्य भगवन्तः प्रव्रजिता इति ॥गतं परित्यागद्वारम् , अधुना प्रत्येकद्धारमाहजाएगो भयवं वीरो पासो मल्ली य तिहि तिहि सएहिं । भयपि वासुपुज्जो छहिं पुरिससरहिं निक्खतो॥२४६॥ | उग्गाणं भोगाणं रायन्नाणं च खत्तियाणं च । चाउर्हि सहस्सेहुसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा ॥ २४७॥ एको भगवान् बीरो-वर्द्धमानस्वामी प्रत्रजितः, पार्श्वनाथो भगवांश्च मल्लिखिभिः त्रिभिः शतैः सह, भगवानपि वासुपूज्यः पइनिः पुरुषश्चतैः सह निष्कान्त:-प्रवजितः । तथा समाणां भोजाना राजन्यानां क्षत्रिवाणांच, एतेषां विशेषः प्रागे N दीप अनुक्रम 6 CRe८२ and on ForFive Persanamory ~131 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ २०४ ॥ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [२४८-२५०], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः व चोपदर्शितः, सर्वसङ्ख्यया चतुर्भिः सहस्रैः सह भगवान् ऋषभो निष्क्रान्तः, शेषास्तु - अजितस्वामिप्रभृतयः सहस्रपरिवारा निष्क्रान्ताः ॥ सम्प्रति प्रसङ्गतोऽत्रैव द्वारे ये यस्मिन् वयसि निष्क्रान्ता इत्येतदभिधित्सुराह च वीरो अरिनेमी पासो मल्ली य वासुपूज्जो य । पढमवए पढइया सेसा पुण मज्झिमवयंमि ॥ २४८ ॥ वीरो - महावीरः अरिष्टनेमिः पार्श्वनाथ मल्लिर्वासुपूज्य इत्येते पञ्च तीर्थकृतः प्रथमवयसि - कुमारत्वलक्षणे प्रत्रजिताः, | शेषाः पुनः - ऋषभस्वामिप्रभृतयो मध्यमे वयसि - यौवनलक्षणे वर्त्तमानाः प्रत्रजिताः ॥ गतं प्रत्येकद्वारमधुनोपधिद्वारमाहसवेऽवि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउडीसं । न य नाम अन्नलिंगे न य गिहिलिंगे कुलिंगे वा ॥ २४९ ॥ ४२४३-५८ सर्वेऽपि भगवन्तोऽतीता अपि जिनवराः चतुर्विंशतिः चतुर्विंशतिसङ्ख्याः, एतेन सर्वास्वप्यवसर्पिणीषूत्सर्पिणीषु प्रत्येकं भरतक्षेत्रे चतुर्विंशतिरेव तीर्थकरा अभूवन्निति ख्यापितम्, 'एगदूष्येण' एकेन वस्त्रेण निर्गता - अभिनिष्क्रान्ताः, तद्यदि भगवन्तोऽप्येकदूष्येण निर्गता इति सोपधयोऽभवन् किं पुनस्तन्मतानुवर्तिनः शिष्या न सोपधयः, तत्र य उपधि| रासेवितो भगवद्भिः स साक्षादेवोक्तः, यः पुनर्विनेयेभ्यः स्थविरकल्पिकादिभेदभिन्नभ्योऽनुज्ञातः स खलु प्रन्थान्तरादवसेयः ॥ गतमुपधिद्वारम् इदानीं लिङ्गद्वारं तंत्र सर्व एव तीर्थकृतस्तीर्थ करलिङ्ग एव निष्कान्ता, न तु नाम अम्यलिङ्गेगृहिसाधुलिङ्गे कुलिङ्गे वा अन्यलिङ्गाद्यर्थः प्रागेवाभिहितः ॥ सम्प्रति यो येन तपसा निष्क्रान्तस्तदभिधित्सुराहसुमइत्थ निचभतेण निग्गतो वासुपुज जिण चडत्थेण । पासो मल्लीवि य अमेण सेसा उद्वेणं ॥ २५० ॥ सुमतिरत्र - अस्यामवसर्पिण्यां चतुविशती तीर्थकृत्सु मध्ये नित्यभक्तेन - अनवरतभकेन निर्गतः- निष्क्रान्तः, वासु For Peace & Personal Use Ony कुमारजि नादि प्रत्ये कोपचित पोद्वाराणि गा. ~132~ ॥ २०४ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२५१-२५४], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दापूज्यो जिनश्चतुर्थेन, एकेनोपवासेनेत्यर्थः, पार्श्वनाथो मल्लिरपि चाष्टमेन-त्रिभिरुपवासः, शेषास्तु ऋषभस्वामिप्रभृतयः षष्ठेन-द्वाभ्यामुपवासाभ्यां निष्क्रान्ताः ॥ साम्प्रतमस्मिन्नेव निर्गमप्रस्तावे यो यत्र नगरे यत्र चोद्यानादौ निष्कान्तस्तदेत६ दभिघित्सुराह सभो य विणीयाए बारवईए अरिद्ववरनेमी । अवसेसा तित्थयरा निक्खंता जम्मभूमीसु ॥ २५१॥ ऋषभः-ऋषभस्वामी भगवान् विनीतायां नगर्या निष्क्रान्तः, द्वारवत्यां अरिष्टनेमिः, अवशेषा-अजितस्वामिप्रभृतय-17 |स्तीर्थकरा निष्क्रान्ता जन्मभूमिषु, यत्र जातास्तत्र निष्क्रान्ता इति भावः॥ उसभो सिद्धस्थवर्णमि वासुपुत्रो विहारगिहगंमि । धम्मो य वप्पगाए नीलगुहाए मुणी नाम ॥ २५२॥ आसमपयंमि पासो धीरजिणिदो य नायसंडमि । अवसेसा पवइया (निक्खंता) सहसंबवणंमि उजाणे ।।२५३|| ऋषभ:-ऋषभस्वामी सिद्धार्थवने उद्याने निष्क्रान्तः, वासुपूज्यो विहारगृहके-विहारगृहकाभिधाने उद्याने, धम्मो-धम्मे-18 स्वामी भगवान् वप्रगायां-वप्रगाभिधाने उद्याने, तथा च वक्ष्यति-सेसाण केवलाई जेसुजाणेसु पवइया' एवं नीलगु. फायां-नीलगुफाभिधाने उद्याने मुनिनामा-मुनिसुव्रतनामा तीर्थकरो निष्कान्तः, तथा आश्रमपदे-आश्रमपदाभिधान व उद्याने पार्श्वनाथो निष्क्रान्तः, वीरजिनेन्द्रो ज्ञातखण्डाभिधाने उद्याने, अवशेषा:-अजितस्वामिप्रभृतयस्तीर्थकराः सहस्राबवने निष्क्रान्ताः ॥ इदानीं प्रसङ्गत एव निर्गमनकालं प्रतिपादयन्नाहपासो अरिहनेमी सेजंसो सुमति मल्लिनामो य । पुषण्हे निक्खता सेसा पुण पच्छिमण्इंमि ॥२४॥ दीप अनुक्रम H आसू.३५ Jan E ren ~133 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] पोद्घातनिर्युतिः ॥२०५॥ Jan Education In “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [२५५-२५७], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पार्श्वनाथोऽरिष्टनेमिः श्रेयांसः सुमतिमहिनामा च एते पंच तीर्यकृतः पूर्वाह्णे निष्क्रान्ताः, शेषाः पुनः - ऋषभस्वामिप्रभृतयः पश्चिमाहे ॥ सम्प्रति प्रामाचारद्वारप्रतिपादनार्थमाह सर्वै गामायारा विसया निसेविया ते कुमारवज्जेहिं । गामागराइएस य केसि (सु) बिहारो भवे कस्स १ ॥ २५५ ॥ ग्रामाचारा नाम विषया उच्यन्ते, ते विषया निसेविता - आसेविताः कुमारवर्णैः- कुमारभाव एव ये प्रब्रज्यां गृहीतवन्तः तान् मुक्त्वा शेषैः सर्वैस्तीर्थकृद्भिः किमुतं भवति ? - वासुपूज्यमहिस्वामिपार्श्वनाथभगवदरिष्ठनेमिव्यतिरिक्तः स्तीर्थकृद्भिरासेविता विषयाः, न तु वासुपूज्यप्रभृतिभिः तेषां कुमारभाव एव व्रतग्रहणाभ्युपगमादिति, अथवा ग्रामाचारा नाम ग्रामाकरादिषु विहारास्ते वक्तव्याः यथा कन्य भगवतः केषु ग्रामाकरादिषु विहार आसीदिति । एतदेवाह - मगहारायगिहासु मुणओ खेत्तारिएस विहरिंसु । उसभी नेमी पासो वीरो य अणारिएसुंपि ॥ २५६ ॥ मन्यन्ते स्म जगतः समस्तस्यापि त्रिकालावस्थामिति मुनयो - भगवन्तस्तीर्थ कृतस्ते सर्वेऽपि मगधादिषु जनपदेषु राजगृहादिषु नगरेषु क्षेत्रार्येषु - आर्यक्षेत्रेषु विहृतान्तः, इह आर्यक्षेत्र चिन्तायां शास्त्रान्तरेषु मगधादयो जनपदा राजगृहादीनि नगराण्युक्तानि इत्यत्रापि 'मगहारायगि: इसु' इत्युकम्, अन्यथा ऋषभस्वामिन आदितीर्थकरत्वात् तदनुरोधेन नगरचिन्तायां विनीतादिष्वित्युच्येतेति, ऋषः स्वामी अरिष्टनेमिः पार्श्वनाथो वीरश्च भगवानित्येते चत्वारस्तीर्थकृतोनार्येष्वपि क्षेत्रेषु विहृतवन्तः ॥ गतं ग्रामाचारद्वा· म्, इदानीं परीषहद्वारमाह उदिता परीसहा सिं पराइया ते य जिणवां दिहिं । नव जीवाइपयत्थे उवलंभेऊण निक्खता ॥ २५७ ॥ For Pete & Personal Use Only ~134~ निष्क्रम णोद्यान कालग्रामा चाराः (विमहाराः )गा. २५१-६ ॥२०५॥ wsanlibrary.org Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२५८-२५९], वि भागाथा , भाष्यं [४...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: क प्रत सत्रांक उदिताः परीपहा:-शीतोष्णादयः एषां-भगवतां तीर्थकृतां, परं ते परीषहाः सर्वैरपि जिनवरेन्द्र पराजिताः । गतं परीषहद्वारम् ॥ अधुना जीवोपलम्भद्वारमाह-नव जीवाई इत्यादि, नव जीवादीन् आदिशब्दादजीवानववन्धसंवरपुण्यपापनिर्जरामोक्षपरिग्रहः पदार्थानुपलभ्य सर्वे निष्क्रान्ताः ॥ गतं जीवोपलम्भद्वारम्, इदानीं श्रुतलाभादिद्वाराणि प्रतिपादयति पदमस्स बारसंग सेसाणिकारसंगसुयलंभो।पंच जमा पढमंतिमजिणाण सेसाण चत्तारि ॥२५८॥ पञ्चक्खाणमिणं संजमो य पदमंतिमाण दुविगप्पो । सेसाणं सामइतो सत्तरसंगो असवेसि ॥ २५९ ॥ प्रथमस्य-भगवत ऋषभस्वामिनः पूर्वभवे श्रुतलाभः परिपूर्ण द्वादशाङ्गम् ,अवशेषाणाम्-अजितस्वामिप्रभृतीनामेकाहै दशाङ्गानि, यस्य च यावान् पूर्वभवे श्रुतलाभः तस्य तावान् तीर्थकरजन्मन्यपि अनुवर्तते, गतं श्रुतलाभद्वारम् । अधुना प्रत्याख्यानद्वारमाह-प्रथमजिनस्य-ऋषभस्वामिनोऽन्तिमजिनस्य-वर्द्धमानस्वामिन इदं प्रत्याख्यानं, यदुत पञ्च यमा:-प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनि पञ्च महाव्रतानि, शेषाणाम्-अजितस्वामिप्रभृतीनां मध्यमानां द्वाविंशतितीर्थकृतां चत्वारो यमाः, मैथुनव्रतवर्जाणि शेषाणि चत्वारि महानतानीत्यर्थः, तेषां मैथुनस्य परिग्रहेऽन्तर्भावविवक्षणात् , नापरिगृहीता स्त्री परिमुज्यते इति न्यायात्, संयमोऽपि-सामायिकादिरूपः प्रथमान्तिमजिनयोविविकल्पः, इत्वरं सामायिक छेदोपस्थापनीयं चेत्यर्थः, शेषाणां-मध्यमानां द्वाविंशतितीर्थकृतां यावत्कथिकमेवैकं सामायिक, न शेष छेदोपस्थाप|नादि, तथाकल्पत्वाव, सप्तदशाडा-सप्तदशमेदः पुनः, चः पुनरर्षे, सर्वेषां तीर्थकृतामभूत्, तेच सप्तदश मेदा ममी दीप अनुक्रम and remona wiewsaneliterary.cre ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२६०-२६४], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्धात- प्रत 4 - दीप अनुक्रम "पञ्चानवाद्विरमणं पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः॥१॥" सम्पति छद्मस्थतपः-परीषहजीकर्मप्रतिपादनार्थमाह वोपलंभश्रु वाससहरसं वारस चोद्दस अट्ठार वीस वरिसाई । मासा छन्नव तिपिण य चउतिगद्गमेकगदुगं च ॥२०॥ तियदुगएकग सोलस वासा तिण्णि य तहेवऽहोरतं । मासेकारस नवगं चउपपणदिणाई चुलसीई ॥२६१ ॥ तह वारस वरिसाई जिणाण छउमस्थकालपरिमाणं । उग्गं च तबोकम्म विसेसतो बद्धमाणस्स ॥२६॥ आलाःगा. भगवत ऋषभस्वामिनः छमस्थकालो वर्षसहस्रम् , अजितस्वामिनो द्वादश वर्षाणि, सम्भवनाथस्य चतुर्दश वर्षाणि, १२५७-७८ अभिनन्दननाधस्याष्टादश, सुमतिस्वामिनो विंशतिवर्षाणि, पद्मप्रभस्य पामासाः, सुपार्श्वस्य नव, चन्द्रप्रभस्य त्रयः, सुविधिस्वामिनश्चत्वारः, शीतलस्य त्रयः, श्रेयांसस्य द्वौ, वासुपूज्यस्यैको, विमलनाथस्य द्वौ मासी, अनन्तजिनस्य त्रीणि | वर्षाणि, धर्मस्य द्वे वर्षे, शान्तिनाथस्यैकं वर्षे, कुन्थुनाथस्य षोडश वर्षाणि, अरनाथस्य त्रीण्यहोरात्राणि, मल्लिस्वामिन | नोएकमहोरात्रं, सुव्रतस्वामिन एकादश मासाः, नमिनाथस्य मासनवकम् , अरिष्ठनेमेश्चतुष्पञ्चाशदिनानि, भगवतः पाश्च नाथस्य चतुरशीतिर्दिनानि, वर्द्धमानस्वामिनो द्वादश वर्षाणि, एतत् जिनानां-तीर्थकृता छद्मस्थकालपरिमाणं, सर्वेषा-18 मपि च छद्मस्थकाले उग्रं तपाकर्म, विशेषतो वर्द्धमानस्वामिन उपमिति ।। सम्प्रति ज्ञानोत्पादद्वारमाह २०६॥ फग्गुणबहुलेकारसि उत्तरसादाहिं नाणमुसभस्स । पोसेकारसिसुद्धे रोहिणिजोगेसु अजियस्स ॥ २६३ ॥ कत्तियवहुले पंचमिमिगसिरजोएण संभवजिणस्स । पोसे सुद्धचउद्दसि अभीड अभिनंदणजिणस्स ।। २६४ ॥ -4- -*--% -6 K---- Jan newsanelibrary.orm ~1360 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२६५-२७५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक - REACROCOCK- |चित्ते सुद्धक्कारसि महाहि सुमइस्स नाणमुप्पन्न । चेत्तस्स पुतिमाए पउमामजिणस्स चित्ताहि ॥ २६५ ॥ फग्गुणबहुले छट्ठी विसाहजोगे सुपासनामस्स । फग्गुणबहुले सत्तमि अणुराह ससिप्पभजिणस्स ॥ २६६ ॥ | कित्तियसुद्धे तइया मूले सुविहिस्स पुष्पदंतस्स । पोसे बहुलचउद्दसि पुवासाढाहिं सीपल जिण]स्स ॥ २६७ ॥ * पनरसि माहबहुले सेजंसजिणस्स सवणजोएण । सयभिसय वासुपुज्जे बीयाए माहसुद्धस्स ॥२८॥ पोसस्स सुद्धछट्ठी उत्तरभद्दवय विमलनामस्स । वइसाहबहुलचउद्दसि रेवइजोएण णंतस्स ॥ २६९ ॥ पोसस्स पुषिणमाए नाणं धम्मस्स पुस्सजोएणं । पोसस्स सुद्धनवमी भरणीजोएण संतिस्स ॥२७॥ चित्तस्स सुद्धतझ्या कत्तियजोएण नाण कुंथुस्स । कत्तियसुद्धे बारसि अरस्स नाणं तु रेवईहिं ॥ २७१ ॥ ४ामगसिरसुद्धएकारसीऍ मल्लिस्स अस्सिणीजोए । फग्गुणबहुले बारसि सवणेणं सुब्बयजिणस्स ॥ २७२॥ सामगसिरसुद्धकारसि अस्सिणिजोएण नमिजिणिदस्स । आसोयऽमावसाए नेमिजिर्णिदस्स चित्ताहिं ॥ २७३ ।। चित्ते बहुलचउत्थी बिसाहजोएण पासनामस्स । वइसाहमुद्धदसमी हस्धुत्तरजोगि वीरस्स ॥ २७४ ॥ ४) एता द्वादशापि गाथा निगदसिद्धाः॥ सम्प्रति कस्य कस्मिन् दियसभागे ज्ञानमुत्पन्ननिति प्रतिपादयति तेवीसाए नाणं उप्पन्नं जिणवराण पुतण्हे। वीरस्स पच्छिमण्हे पमाणपत्शाए चरमाए ॥२७॥ - त्रयोविंशति( तेः) जिनवराणां तीर्थकृतां ज्ञानमुत्पन्नं पूर्वाह्न,सूरोद्गमनमुहर्ते इत्यर्थः, तथा चोकं चूर्णी- तेवीसाए| |तित्थगराणं सूरुग्गमणमुहुत्ते एगराइयाए पडिमाए नाणमुप्पन्न मिति, वीरस्य भगवतः-अपश्चिमतीर्थकृतः पश्चिमाहे, दीप अनुक्रम - M sansliterary.orm ~137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२७६-२८१], विभा गाथा H, भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोद्धात- तत्रापि प्रमाणमाक्षायां चरमायां पौरुप्यामिति, अन्ये त्वभिदधति-द्वाविंशतेः पूर्वाहे ज्ञानमुत्पन्न मलिस्वामिमहावीरयोः ज्ञाने क्षेत्र नियुक्तिःपुनरपराहे इति ॥ साम्प्रतमधिकृतद्वार एव येषु क्षेत्रेषूत्पन्नं तदभिधानार्थमाह तपः साधुउसभस्स पुरिमताले वीरस्सुजुयालियानदीतीरे । सेसाण केवलाई जेसुजाणेसु पवइया ॥२७॥ साध्वीसं॥२०७11 ऋषभस्य-भगवतः आदितीर्थकरस्य विनीतायाः प्रत्यासन्नं यत्पुरिमतालं नगरं तत्र ज्ञानमुत्पन्नं, तत्रापि शकटमुखे ख्या गा. उद्याने न्यग्रोधपादपस्याधो निविष्टस्य सूर्योद्गमनवेलायां, धीरस्य भगवत ऋग्वालिकानदीतीरे, तत्र गृहपतिश्यामाकखले ||20६-८१ शालतरोरधःस्थितस्य, शेषाणां तु तीर्थकृतां केवल ज्ञानानि येषूद्यानेषु प्रत्रजितास्तत्रोत्पन्नानि । साम्प्रतं यस्य येन तपसा समुत्पन्नं तस्य तत्तपः प्रतिपादयन्नाह अहमभसंतमी पासोसहमल्लिारेटनेमीणं । बसुपखस्स चउत्थेण पट्ठभत्तेण सेसाणं ॥ २७७॥ पार्श्वनाथऋषभस्वामिमलिनाधारिष्ठनेमीनामष्टमभक्कान्ते-उपवासत्रयपर्यन्ते केवलज्ञानमुदपादि, वासुपूज्यस्य पुनर्भगवतश्चतुर्थेन, शेषाणां षष्ठभक्केन ॥ गतं ज्ञानोत्पादद्वारम् , सम्प्रति सनद्वारं विवरीषुः प्रथमतो यतिसग्रहपरिमाणमाहचुलसीइं च सहस्सा एगं च दुवे य तिपिण लक्खाई। तिपिण य वीसहियाई तीसहियाई च तिन्नेव ।। २७८॥ तिन्नि य अड्डाइज्जा दुवे य एर्ग च सयसहस्साई । चुलसीइंच सहस्सा विसत्तरि अट्ठसहि च ॥ २७९॥ X ॥२०७॥ छावहिं चोबढि यासहि सद्विमेव पन्नासा । चत्ता तीसा वीसा अट्ठारस सोलस सहस्सा ॥२८॥ चोदस य सहस्साई जिणाण' जइसीससंगहपमाणं । अन्जासंगहमाणं उसभाईणं अतो वोच्छ॥ २८१ ॥ CCCC दीप अनुक्रम sanelibrary.orm ~138 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२८२-२८५], विभा गाथा H, भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक दीप अनुक्रम भगवत ऋषभस्वामिनश्चतुरशीतिसहस्राणि श्रमणानाम्, एक लक्षमजितस्य द्वेलक्षे सम्भवनाथस्य त्रीणि लक्षाण्यभिनन्दनस्य सुमतेः त्रीणि लक्षाणि विंशतिसहस्राम्यधिकानि पद्मप्रभस्य त्रीणि त्रिंशत्सहस्राधिकानि सुपार्श्वस्य त्रीणि लक्षाणि चन्द्रप्रभस्य अर्द्धतृतीयानि लक्षाणि सुविधेर्दै लक्षे शीतलस्य एक लक्षं श्रेयांसस्य चतुरशीतिः श्रमणानां सहस्राणि वासुपूज्यस्य द्वासप्ततिः सहस्राणि विमलस्य अष्टषष्टिः सहस्राणि अनन्तजिनस्य षट्षष्टिः सहस्राणि धर्मनाथस्य चतुःषष्टिः सह वाणि शान्तिनाथस्य द्वापष्टिः सहस्राणि कुन्थुनाथस्य पष्टिः सहस्राणि अरनाथस्य पञ्चाशत्सहस्राणि मल्लिनाथस्य चत्वारिंश*त्सहस्राणि मुनिसुव्रतस्वामिनस्त्रिंशत्सहस्राणि नमिस्वामिनो विंशतिसहस्राणि अरिधनेमेरष्टादश सहस्राणि पार्श्वनाथस्य षोडश सहस्राणि भगवतो महावीरस्य चतुर्दश सहस्राणि, एतद्यतिशिष्यसङ्ग्रहप्रमाणं जिनानाम्-ऋषभादीनां यथाक्रममदिवसातव्यं, तच्च तथैव भावितम्॥अत ऊर्ध्वमार्यासहप्रमाणभूपभादीनां जिनानां क्रमेण वक्ष्ये । प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति तिण्णेव य लक्खाई तिन्नि य तीसाई तिन्नि छत्तीसा। तीसा य उच्च पंच य तीसा चउरो य वीसाई ॥२८॥ चित्तारि य तीसाई असीउत्तर तिणि तिपिणमित्तो या वीसुत्तरं छलहियं तिसहस्सऽहियं च लक्खं च ॥२८॥ हालक्खं अट्ठसयाणि य वासद्विसहस्स चउसय समग्गा । एगट्ठी छच्च सया सहिसहस्सा सया छच्च ॥ २८४ ॥ सहि पणपन्न पन्नेगचत्त चत्ता तहहतीसं च । छत्तीसं च सहस्सा अजाणं संगहो एसो ॥ २८५॥ . ___ भगवत आदितीर्थकरस्यार्यिकाणां त्रीगि लक्षा अजित स्वामिनस्त्रीणि लक्षाणि त्रिंशानि-त्रिंशत्सहनाभ्यधिकानि सम्भवनाथस्य त्रीणि लक्षाणि पत्रिंशत्सहस्राभ्यधिकानि अभिनन्दनस्य लक्षाणि षट् त्रिंशानि-त्रिंशत्सहस्राभ्यधिकानि MANIK E wiewsanelibrary.orm ~139 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२८६], विभा गाथा H], भाष्यं [४...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक उपोद्धात-18सुमतिनाथस्य पञ्च लक्षाणि त्रिंशत्सहस्राधिकानि पद्मप्रभस्य चत्वारि लक्षाणि विंशतिसहस्राधिकानि सुपार्श्वस्य चत्वारि साघुसानियतिलक्षाणि त्रिंशत्सहस्राभ्यधिकानि चन्द्रप्रभस्वामिनस्त्रीणि लक्षाणि अशीतिसहस्रोचराणि सुविधिस्वामिनस्त्रीणि परिप-16वीसंख्या कर्णानि लक्षाणि, 'तिन्निमित्तो य'इति विलक्षमात्रमार्यासङ्ग्रह इति गम्यते इत्यर्थः, शीतलनाथस्य विंशत्युत्तरं-विंशति૨૮ 18सहस्राधिकं लक्षं श्रेयांसस्य षट्सहस्राधिक लक्षं वासुपूज्यस्य त्रिसहस्राधिकं लक्षं विमलनाथस्य परिपूर्ण लक्षम् अनन्तजितो लालक्षमेकमष्टौ च शतानि धर्मनाथस्य द्वापष्टिसहस्राणि चतु:शताभ्यधिकानि शान्तिनाथस्य एकषष्टिः सहस्राणि षट् श-17 तानि कुन्थुनाथस्य षष्टिः सहस्राणि षट् शतानि अरनाथस्य षष्टिः सहस्राणि मल्लिस्वामिनः पञ्चपञ्चाशत्सहस्राणि मुनिसु व्रतस्वामिनः पञ्चाशत्सहस्राणि नमिनाथस्य एकचत्वारिंशत्सहस्राणि अरिष्टनेमेश्चत्वारिंशत्सहस्राणि पार्श्वनाथस्याष्टात्रिंशहोत्सहस्राणि भगवतो वर्द्धमानस्वामिनः षट्त्रिंशत्सहस्राणि, एवं ऋषभादीनां जिनानां यथाक्रममार्यिकासङ्ग्रहः॥ पदमाणुयोगसिद्धो पत्तेयं सावयाइयाणं च । नेओ सधजिणाणं सीसाणं संगहो कमसो ॥ २८६ ॥ | श्रावकादीनामादिशब्दात् श्राविकाचतुर्दशपूर्वधरादिपरिग्रहः, शिष्याणां साहः क्रमशो-यथाक्रम सर्वजिनानां प्रथमानुयोगसिद्धः-प्रथमानुयोगप्रतीतो ज्ञेयः, तत्र ऋषभस्वामिअरिष्टनेमिमल्लीपाश्वनाथवर्द्धमानस्वामिनां यथासम्प्रदायमुपदयते-भगवत आदितीर्थकृत ऋषभसेनप्रमुखाणि चतुरशीतिश्रमणसहस्राणि ब्राह्मीसुन्दरीप्रभृतीनि त्रीण्यार्यिकाणां लक्षाणि ॥२०८॥ श्रेयांसमभृतीनि त्रीणि श्रमणोपासकलक्षाणि पश्चसहस्राभ्यधिकानि सुभद्राप्रमुखानि पञ्च श्रमणोपासिकाशतसहस्राणि चतुष्पञ्चाशत्सहस्राभ्यधिकानि चत्वारिंशत्सहस्राणि सप्तशताभ्यधिकानि चतुर्दशपूर्विणां नव सहस्राण्यवधिज्ञानिनां दीप अनुक्रम % ForFive Persanamory ~140 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२८६], विभा गाथा H], भाष्यं [४...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक COM दीप अनुक्रम केवलज्ञानिनां विंशतिसहस्राणि २००००, विंशतिसहस्राणि षट्शताम्यधिकानि २०६०० वैक्रियलब्धिमतां, द्वादश सह खाणि षट् शतानि पश्चाशदधिकानि १२६५० विपुलमतीनां, द्वादश सहस्राणि षट् शतानि पञ्चाशदधिकानि १२६५० वादिनां, द्वाविंशतिसहस्राणि नव शतानि २२९०० अनुचरोपपाविना, विंशतिः श्रमणसहस्राणि सिद्धानि २०००० चत्वा| रिंशदार्यिकासहस्राणि सिद्धानि ४०००० सर्वसङ्ख्यया षष्टिरन्तेवासिसहस्राणि सिद्धानि ६००००।भगवतोऽरिष्ठनेमेर्वरदत्तप्रमुखाण्यष्टादश श्रमणसहस्राणि १८००० यक्षिणीप्रमुखाणि चत्वारिंशदार्यिकासहस्राणि ४०००० नन्दप्रमुखानां श्रमणोपासकानामेकं शतसहस्रमेकोनसप्ततिश्च सहस्राणि १६९००० महासुनताप्रमुखाणां श्रमणोपासिकानां त्रीणि लक्षाणि पत्रिंशत्सहस्राणि ३३६०० चत्वारि शतानि ४०० चतुर्दशपूर्विणां पञ्चदश शतानि १५०० अवधिज्ञानिनां पञ्चदश Fशतानि १५०० केवलज्ञानिनां पञ्चदश शतानि वैक्रियलन्धिमता १५०० दशशतानि १००० विपुलमतीनां अष्टादश शतानि 1१८०० वादिना पोडश शतानि १६०० अनुत्तरोपपातिनां । भगवतः पार्थेनाथस्य आयेदिन्नममुखाणि पोडश श्रमणसह-1* 31 माणि १६००० युष्पचूलाप्रमुखाण्यष्टात्रिंशदार्यिकासहस्राणि ३८००० सुनन्दाप्रमुखाणामेकं लक्षं चतुःषष्टिसहस्राणि श्रमणोसापासकानां १६४००० नन्दिनीप्रमुखाणां श्रमणोपासिकानां त्रीणि लक्षाणि सप्तविंशतिः सहस्राणि ३२७००० अर्द्धचतुर्थानि शतानि ३५० चतुर्दशपूर्विणां चतुर्दश शतानि १४०० अवधिज्ञानिनां दश शतानि केवलज्ञानिनामेकादश शतानि ११०० वैक्रियठन्धिमतामर्डोष्टमानि शतानि ७५० विपुलमतीनां षट् शतानि ६०० वादिनां द्वादश शतानि १२०० *अनुचरोपपातिनां । श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य इन्द्रभूतिप्रमुखाणि चतुर्दश श्रमणसहस्राणि १४००० आयेंचन्दना *-*-* For Five Persana tumory vsanelionary.org ~141 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२८७-२९०], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्घातनियुक्तिः प्रत है प्रमुखाणि पत्रिंशदार्यिकासहस्राणि ३६००० शङ्खममुखाणां श्रमणोपासकानामेकं लक्षं एकोनषष्टिः सहस्राणि १५९०००11 तीथे गणसुलसारेवतीप्रमुखाणां श्रमणोपासिकानां त्रीणि शतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि ३१८००० त्रीणि शतानि चतुर्दशपूर्विणां ३०० त्रयोदश शतानि १३०० अवधिज्ञानिनां सप्त शतानि ७०० केवलज्ञानिनां सप्त शतानि ७०० वैक्रिय २८७-९० लब्धिमतां पञ्च शतानि ५०० विपुलमतीनां चत्वारि शतानि ४०० वादिनामष्टौ शतानि ८०० अनुत्तरोपपातिनाम् ॥ गतं सनद्वारम् , अधुना तीर्थद्वारमाहतित्थं चाउच्चण्णो संघो सो पढमए समोसरणे । उप्पण्णो उ जिणाणं वीरजिणिदस्स बीयंमि ॥ २८७ ॥ तीर्थ नाम प्रवचनं, तच्च निराधारं न भवतीति चतुर्वर्णः सह उच्यते, स जिनानाम्-ऋषभादीनां प्रथम एव समवसरणे उत्पन्ना, वीरजिनेन्द्रस्य पुनर्द्वितीये समवसरणे, मध्यमायां पुरि, यत्र हि केवलज्ञानमुत्पन्नं तत्र तथाकल्पत्वात्समवसरणमभूत् यावता न तत्र सो जातः । गतं तीर्थद्वारम् , अधुना गणद्वारमाह चुलसीह पंचणउई विउत्सरं सोलसुत्तरसयं च । सत्तहियं पणनउई तेणउई अट्ठसीई य॥२८८ ॥ एक्कासीइ छावत्सरी य छावहि सत्तवन्ना य । पन्ना तेयालीसा छत्तीसा चेव पणतीसा ॥ २८९॥ तेतीसहावीसा अट्ठारस चेव तहय सत्सरस । एकारसदसनवगं गणाण माणं जिणिंदाणं ॥२९॥ ॥२०९॥ भगवत आदितीर्थकरस्य चतुरशीतिर्गणा, गणो नामेह एकवाचनाचारक्रियास्थानां समुदायो, न कुलसमुदाय इति पूर्वसूरयः, अजितस्वामिनः पञ्चनवतिर्गणाः सम्भवनाथस्य धुत्तरं शतम् अभिनन्दनस्य षोडशोचरं शतं सुमतिनाथस्य दीप अनुक्रम Jan ForFive Persanamory anelibrary.com ~142 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ २९१-२९३ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः | परिपूर्ण शतं पद्मप्रभस्य सप्ताधिकं शतं सुपार्श्वस्य पञ्चनवतिः चन्द्रप्रभस्य त्रिनवतिः सुविधिस्वामिनोऽष्टाशीतिः शीतलस्य एकाशीतिः श्रेयांसस्य षट्सप्ततिः वासुपूज्यस्य षट्षष्टिः विमलस्य सप्तपञ्चाशत् अनन्तजितः पश्चाशत् धर्म्मस्य | त्रिचत्वारिंशत् शान्तिनाथस्य पत्रिंशत् कुन्थुनाथस्य पञ्चत्रिंशत् अरजिनस्य त्रयस्त्रिंशत् मल्लिस्वामिनोऽष्टाविंशतिः मुनिसुव्रतस्वामिनोऽष्टादश नमिनाथस्य सप्तदश अरिष्ठनेमेरेकादश पार्श्वनाथस्य दश वर्द्धमानस्वामिनो नव, एतत् जिनेन्द्राणाम् ऋषभादीनां जिनानां यथाक्रमं गणानां मानं परिमाणं ॥ सम्प्रति गणधरप्रतिपादनार्थमाह एकरस उ गणहरा वीरजिनिंदस्स सेसयाणं तु । जावइया जस्स गणा तावइया गणधरा तस्स ॥ २९९ ॥ गणधरा नाम मूलसूत्रकर्त्तारः, ते च वीरजिनस्य एकादश, गणास्तु नव, द्वयोर्युगलयोरेकैकवाचनाचारक्रियास्यत्वात्, शेषाणां तु जिनवरेन्द्राणां यस्य यावन्तो गणास्तस्य तावन्तो गणधराः, प्रतिगणधरं भिन्नभिन्नवाचनाचारक्रियास्थत्वात् ॥ गतं गणधरद्वारम्, इदानीं धर्मोपायस्य देशका इत्येतद्व्याचिख्यासुराह मोवाओ पवयणमहवा पुवाई देसया तस्स । सङ्घजिणाण गंणहरा चोदसपुची उ ते तस्स ॥ २९२ ॥ धम्मपायो नाम प्रवचनं, तदन्तरेण धर्म्मस्यासम्भवात्, अथवा पूर्वाणि तस्य-धम्र्मोपायस्य देशकाः सर्वजिनानां गणधराः, तेषां मूलसूत्रकर्तृत्वात्, अथवा ये यस्य तीर्थकृतश्चतुर्द्दशपूर्विणस्ते धर्मोपायस्य देशकाः, परिपूर्ण श्रुततथा तेषां यथावस्थितवस्तुदेशकत्वात् ॥ सामाइयाइया वा वयजीवनिकाय भावणा पढमं । एसो धम्मोवादो जिणेहिं सबेहिं उवहट्ठो ॥ २९३ ॥ Jan Education International Far Pavoce & Personal Use Ony ~143~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२९४-२९८], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: गोदाव- नियुक्तिः देशका: प प्रत ॥२१ ॥ वाशब्दः प्रकारान्तरताद्योतनार्थः, अथवा या प्रथम प्रतजीवनिकायभावना महाव्रतविषयषड्जीवनिकाययथावस्थितपरिज्ञानसम्यश्रद्धानसंरक्षणाध्यवसायरूपा भावना सामायिकादिका-रागद्वेषपरिहारेण समभावादिका एष धर्मोपायः, तमन्तरेण सम्यक्चारित्ररूपधासम्भवात् , इत्थंभूतश्च धम्मोपायो जिनः सर्वैरप्युपदिष्टः, ततो धर्मोपायस्य देशकास्त SMया . एर जिना इति । उक्तं धर्मोपायदेशकद्वारम् , अधुना पर्यायद्वारमाह २९१-८ उसमस्स पुचलक्खं पुर्वगुणमजियस्स तं चेव । चउरंगूणं लक्सं पुणो पुणो जाव सुविहित्ति ॥ २९४ ॥ पणुचीसं तु सहस्सा पुवाणं सीयलस्स परियायो। लक्खाई एक्कवीसं सिवसजिणस्स वासाणं ॥ २९५ ॥ चउप्पन्नं पन्नारस तत्तो अट्ठमाई लक्खाई। अट्ठाइजाई तत्तो वाससहस्साई पणुचीसं ॥ २९६ ॥ तेवीसं च सहस्सा सयाणि अट्ठमाणि य हवंति । एगवीसं च सहस्सा वाससऊणा य पणपन्नं ॥ २९७ ॥ अट्ठमा सहस्सा अड्डाइजाइ सत्त य सयाई । सयरी विचत्तवासा दिक्खाकालो जिणिदाणं ॥ १९८॥ ऋषभस्य भगवतः श्रमणपर्याय एवं पूर्वलक्षम्, अजितस्वामिनस्तदेव एकं पूर्वलक्षमेकेन पूर्वाङ्गेन न्यून, पूर्वाङ्गं नाम चतुरशीतिवर्षलक्षाणि, अत ऊर्ल्ड चतुरङ्गोनं पूर्वलक्षं पुनः पुनस्तावद्वक्तव्यं यावत्सुविधिः, तद्यथा-सम्भवनाथस्य व्रतपर्यायः एक पूर्वलक्षं चतुर्भिरनेरून, अभिनन्दनस्य एवं पूर्वलक्षमष्टभिः पूजिरून, सुमतिनाथस्य एकं पूर्वलक्षं। द्वादशभिः पूर्वाङ्गैरून, पद्मप्रभस्य एक पूर्वलक्षं षोडशभिः पूर्वाङ्गहीन, सुपार्श्वस्यैक पूर्वलक्षं विंशत्या पर्वाहीनं, चन्द्रमभस्य एकं पूर्वलक्षं चतुर्विशत्या पूर्वाङ्गीन, सुविधिनाथस्य एकं पूर्वलक्षमष्टाविंशत्या पूर्वाङ्गहीनम् , पञ्चविंशतिः पूर्वाणां दीप अनुक्रम ॥२१० । wsaneliterary.com ~144 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [२९९-३०५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत CLICROG सत्रांक दासहस्राणि शीतलस्य पर्यायो-व्रतपर्यायः श्रेयांसजिनस्य वर्षाणां लक्षायेकविंशतिः वासुपूज्यस्य चतुष्पश्चाशद्वर्षलक्षाणि || विमलनाथस्य पञ्चदश वर्षलक्षाणि ततोऽनन्तरमनन्तजितो ष्टमानि-सार्दानि सप्त वर्षलक्षाणि प्रतपर्यायः धर्मनाथ18| स्वार्द्धतृतीयानि वर्षशतसहस्राणि शान्तिनाथस्य पञ्चविंशतिवर्षसहस्राणि कुन्थुनाथस्य त्रयोविंशतिवर्षसहस्राणि शतानि हाचा ष्टमानि अरस्वामिन एकविंशतिवर्षसहस्राणि मल्लिनाथस्य वर्षशतोनानि पञ्चपञ्चाशद्वर्षसहस्राणि मुनिसुव्रतस्वामि नोऽभष्टमानि वर्षसहस्राणि नमिनाथस्या तृतीयानि वर्षशतानि (सहस्राणि) अरिष्ठनेमेः सप्त शतानि पार्श्वनाथस्य सप्ततिर्वर्षाणां वर्द्धमानस्वामिनो द्वाचत्वारिंशत् , एष यथाक्रम जिनेन्द्राणां-ऋषभादीनां दीक्षाकालो-त्रतपर्यायः॥ साम्प्रतमस्मिन्नेव पर्यायद्वारे भगवतां वैविक्त्येन कुमारादिपर्यायान् प्रतिपादयन्नाह- .. उसभस्स कुमारत्तं पुवाणं वीसई सयसहस्सा । तेवट्ठी रजमि उ अणुपालेऊण निक्वंतो ॥ २९९ ॥ अजियस्स कुमारत्तं अट्ठारस पुखसयसहस्साई। तेवणं रजंमी पुवंग चेव बोद्ध ॥ ३०॥ पन्नरस सयसहस्सा कुमारवासो उ संभवजिणस्स । चोयालीसं रजे चउरंग चेव योद्धवं ॥ ३०१॥ अद्धत्तेरस लक्खा पुवाणऽभिणंदणे कुमारत्तं । छत्तीसा अर्द्ध चिय अटुंगा चेव रज्जमि ॥ ३०२॥ सुमइस्स कुमारत्तं हवंति दस पुषसयसहस्साइं। अउणत्तीसं रज्जे वारस अंगाई बोद्धया ॥ ३०३ ।। पउमस्स कुमारत्तं पुराणवमा सयसहस्सा। अद्धं च एकवीसा सोलस अंगा य रजमि ॥ ३०४॥ पुषसयसहस्साई पंच सुपासे कुमारवासो उचउदस पुण रजंमी वीसं अंगा य बोदवा ।। ३०५॥ आसू.३६ दीप अनुक्रम -CO-C4- 24 Jan E rm ForFive Persanamory ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घात निर्युक्तिः ॥२१॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३०६-३१९], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अडाइजा उक्त्वा कुमारवासो उ ससिप होइ । अहं छचिप रखे पडवीसंगा य बोद्धवा ॥ ३०६ ॥ पणं पुसहस्सा कुमार वासो व पुष्पदंतस्स । तावद्दयं रजंमी अट्ठावीसं च पुचंगा ॥ ३०७ ॥ पणुबीससहस्साई पुवाणं सीयले कुमारतं । तावइयं परियाओ पन्नासं चैव रज्जमि ॥ ३०८ ॥ वासाण कुमारतं एगवीसं लक्ख होइ सेजसे । तावइयं परियायो बायालीसं च रजमि ॥ ३०९ ॥ गिहवासे अट्ठारस वासाणं सपसहस्स नियमेणं । चउपन्न सयसहस्सा परियाओ होइ वसुपुजे ॥ ३१० ॥ पन्नरस सपसहस्सा कुमारवासो उ तीसई रज्जे । पन्नरस सपसहस्सा परियायो होइ विमलस्स ॥ ३११ ॥ अद्धट्टमलक्खाई वासाणमणंतई कुमारते । तावइयं परियायो रज्जमि य होंति पन्नरस ॥ ३१२ ॥ - धम्मस्स कुमारतं वासाणाइयाई लक्खाई । तावइयं परियाओ रजे पुण होंति पंचेन ॥ ३१३ ॥ संतिस्स कुमारन्ते मंडलिचक्किपरियाय चउपि । पत्तेयं पत्तेयं वाससहस्साई पणवीसं ॥ ३१४ ॥ एमेव य कुंथुस्सवि च सुवि ठाणेसु होंति पत्तेयं । तेवीससहस्साइं वरिसाणऽद्धट्टम सया च ॥ ३१५ ॥ एमेव अरजिविंदस्स चउसुवि ठाणेसु होंति पतेयं । एगवीस सहस्साइं वासाणं हुंति नायद्या ॥ ३१६ ॥ मल्लिस्सवि पाससयं गिहवासे सेसयं तु परियायो । चउपण्णसहस्साई तब चेव सयाई पुण्णाई ॥ ३१७ ॥ अट्टमा सहस्सा कुमारदासो उ सुवयजिणस्स । तावइयं परियाओ पनरस सहस्स रज्जमि ॥ ३१८ ॥ नमिणो कुमारवासो वाससहस्साई दोषि अर्द्ध च । तावइयं परियाओ पंच सहस्साई रज्यंमि ॥ ३१९ ॥ For Peace & Personal Use Only 146~ जिनानां कुमारादिपर्यायः गा. २९९१२१ ॥२११॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३२०-३२१], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: %E प्रत सत्रांक दीप अनुक्रम Catkari तिन्नेव य वाससयाँ कुमारवासों अरिहनेमिस्स । सत्त य वाससयाई सामण्णे होइ परिपाओ । ३२०॥ पासस्स कुमारसं तीसं परिपाउ सत्तरी होइ । तीसा य बद्धमाणे वायालीसा य परियामओ ॥ ३२१ ॥ ऋषभस्य कुमारत्वं पूर्वाणाम्-उक्तस्वरूपाणां विंशतिः शतसहस्राणि-लक्षाणि, त्रिषष्टिं पूर्वलक्षाणि राज्येऽनुपात्यगमयित्वा पश्चानिष्क्रान्तः, तत एक पूर्वलक्षं शेषं प्रतपर्यायः । अजितस्य भगवतोऽष्टादश पूर्वशतसहस्राणि कुमारत्वं, |त्रिपश्चाशत्पूर्वशतसहस्राण्येकं च पूर्वाङ्ग बोद्धव्यं राज्ये, शेषमेकपूर्वाङ्गोनपूर्वलक्षं प्रतपर्यायः । सम्भवजिनस्य कुमारवासः पञ्चदश पूर्वाणां शतसहस्राणि चतुश्चत्वारिंशत्पूर्वशतसहस्राणि 'चउरंग घेवेति चतुर्णामझानां समाहारश्चतुरङ्ग, चत्वारि च पूर्वाङ्गानि इत्यर्थः, राज्ये वोद्धव्यानि, शेषमेकं पूर्वलक्षं चतुर्भिः पूर्वाङ्गैरूनं व्रतपर्यायः । अभिनन्दने-षष्ठीसप्तम्योरथै ४ प्रत्यभेदात् अभिनन्दनस्य कुमारत्वमर्द्धत्रयोदशानि-सार्द्धानि द्वादश पूर्वाणां लक्षाणि, षट्त्रिंशत्पूर्वलक्षाणि एकं चार्द्धलक्षमष्टो च पूर्वाङ्गाणि राज्ये, शेपमेकं पूर्वलक्षमष्टभिः पूर्वाहैरूनं प्रतपर्यायः । सुमतेः कुमारत्वं दश पूर्वशतसहस्राणि, एकोनत्रिशत्पूर्वलक्षाणि द्वादश च पूर्वाङ्गानि भवन्ति बोद्धव्यानि राज्ये, शेषमेकं पूर्वलक्ष द्वादशभिः पूजिरून प्रतपर्यायःपास्य-1 पद्मप्रभस्य कुमारस्वमर्दाष्टमानि पूर्वाणां शतसहस्राणि, एकविंशतिः पूर्वलक्षाणि अर्द्धच पूर्वलक्षस्य तथा पोडन पूर्वाङ्गाणि । राज्ये, शेष त्वेकं पूर्वलक्षं षोडशपूर्वाङ्गोनं व्रतपर्यायः । सुपाचे षष्ठीसप्तम्योरभेदात् सुपार्श्वनाथस्य भगवतः पञ्च पूर्वशहतसहस्राणि कुमारत्वं, चतुर्दश पूर्वलक्षाणि विंशतिश्चाङ्गानि राज्ये बोद्धव्यानि, शेषं विंशत्या पूर्वाङ्गैरूनं पूर्वलक्षमेकं व्रत-|| पर्यायः ॥ शशिप्रभे-चन्द्रप्रभस्य अर्धतृतीयलक्षपूर्वाणि कुमारवासो भवति, अर्ध षडेव च पूर्वलक्षाणि चतुर्विशतिरङ्गानि च । and remona wiewsanelibrary.orm ~147 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युकिः ॥२१२ ॥ Jan Education In “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३२०-३२१], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मा. २९९. ३२१ बोद्धव्यानि राज्ये, शेषं पुनरेकं पूर्वलक्षं चतुर्विंशतिपूर्वाङ्गहीनं व्रतपर्यायः, पञ्चाशत्पूर्वसहस्राणि कुमारवासः । पुष्पदन्तस्य - जिनानां सुविधिस्वामिनः तावदेव - पञ्चाशदेव पूर्वसहस्राणीत्यर्थः अष्टाविंशतिश्च पूर्वाङ्गानि राज्ये, शेषमेकं पूर्वलक्षमष्टाविंशतिपू- १ कुमारादिवङ्गहीनं व्रतपर्यायः । पञ्चविंशतिः पूर्वाणां सहस्राणि शीतलस्य कुमारत्वं तावदेव - पञ्चविंशतिः पूर्वसहस्राणि पर्यायो - पर्यायः व्रतपर्यायः, पञ्चाशत्पूर्वसहस्राणि राज्ये । श्रेयांसस्य कुमारत्वमेकविंशतिर्वर्षाणां उक्षाणि भवन्ति, तावदेव - एकविंशतिः वर्षाणां लक्षाणि व्रतपर्यायः, द्वाचत्वारिंशद्वर्षलक्षाणि राज्ये । वासुपूज्यस्य गृहवासे— कुमारत्वलक्षणे नियमेन वर्षाणामटादश शतसहस्राणि, व्रतपर्यायः पुनश्चतुष्पञ्चाशद्वर्षाणां शतसहस्राणि राज्यानभ्युपगमाञ्च राज्यपर्यायाभावः । विमलस्य | कुमारचासः पञ्चदश वर्षाणां शतसहस्राणि त्रिंशद्वर्षलक्षाणि राज्ये, पञ्चदश वर्षशतसहस्राणि पर्यायो-व्रतपर्याय इति । अनन्तजितः कुमारत्वे वर्षाणामर्द्धाष्टमानि लक्षाणि तावदेव - अर्द्धष्टमानि वर्षलक्षाणि पर्यायो - व्रतपर्यायः, पञ्चदश वर्षल क्षाणि राज्ये । धर्म्मस्य तीर्थकृतः कुमारत्वमर्द्धतृतीयानि वर्षाणां उक्षाणि अर्द्धतृतीयान्येव च वर्षलक्षाणि व्रतपर्यायः, पञ्च वर्षाणि पुनर्भवन्ति राज्ये । शान्तेः- शान्तिनाथस्य चतुर्ष्वपि - कुमारत्वमण्डलिच क्रिपर्यायेषु - मण्डलिचक्रिग्रहणं भावप्रधानं कुमारस्वमण्डलित्व चक्रित्वव्रतपर्यायरूपेषु स्थानेषु प्रत्येकं २ वर्षसहस्राणि पञ्चविंशतिरवगन्तव्यानि पञ्चविं शतिर्वर्षसहस्राणि कुमारत्वं पञ्चविंशतिर्वर्षसहस्राणि मण्डलिकत्वं पञ्चविंशतिर्वर्षसहस्राणि चक्रवर्त्तिपदं पञ्चविंशतिर्वर्ष सहस्राणि व्रतपर्यायः । एवमेव शान्तिनाथस्यैव कुन्थुनाथस्यापि चतुर्ष्वपि स्थानेषु कुमारत्वमण्डलित्वच क्रित्वव्रतपर्यायरूपेषु प्रत्येकं भवन्ति त्रयोविंशतिर्वर्षसहस्राणि अष्टमानि च वर्षाणां शतानि । एवमेव कुन्थुनाथम्येव अरजिनेन्द्रस्यापि For Peace & Personal Use Only 148~ ॥२१२ ॥ janelibrary.or Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३२२-३२३], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक SECRUSAKACKER चतुर्धपि स्थानेषु-कुमारत्वमण्डलित्वचक्रवर्तिपदव्रतपर्यावरूपेषु प्रत्येकमेकविंशतिवर्षाणां सहस्राणि भवन्ति ज्ञातव्यानि । मल्लिनाथस्यापि गृहवासे वर्षशतं, शेषं तु सर्वमायुव्रतपर्यायः, तत्कियदिति चेत् अत आह-चतुष्पञ्चाशद्वर्षाणां सहसाणि नव च परिपूर्णानि शतानि । अर्द्धाष्टमानि वर्षाणां सहस्राणि कुमारवासः सुव्रतजिनस्य, तावदेव-अर्द्धाष्टमान्येव वर्षसहस्राणि पर्यायो-व्रतपर्यायः, पञ्चदश वर्षसहस्राणि राज्ये । नर्भगवतः कुमारवासो द्वे वर्षसहने अर्द्ध च-पञ्च वर्षशहातानीत्यर्थः, तावत्क-अर्द्धतृतीयान्येव वर्षसहस्राणि व्रतपर्यायः, पञ्च वर्षसहस्राणि राज्ये । अरिष्ठनेमेस्त्रीणि वर्षशतानि है कुमारवासः, राज्यानभ्युपगमात् राज्यपर्यायाभावः, सप्त वर्षशतानि भवति श्रामण्यः पर्यायः । पार्श्वनाथस्य कुमारत्वं त्रिंशद्वर्षाणि, व्रतपर्याय: पुनर्भवति सप्ततिर्वाणि, वर्द्धमाने-बर्द्धमानस्वामिनो गृहवासस्त्रिंशद्वर्षाणि, व्रतपर्यायः द्विचत्वारिंशद्वर्षाणि ॥ सम्प्रति केवलिपर्यायो वकन्यः, स च श्रामण्यपर्यायात् छद्मस्थपर्यायापगमे स्वयमेव ज्ञेय इति पूर्वो-181 कमेव श्रामण्यपर्यायं स्मारयतिउसमस्स पुचलक्खं पुखंगूणमजियस्स तं च । चउरंपूर्ण लक्खं पुणो पुणो जाव सुविहित्ति ॥ ३२२ ॥ अस्या व्याख्या पूर्ववत्, सेसाणं परियातो कुमारवासेण सहियतो भणितो। पत्तेयंपिय पुवं सीसाणमणुग्गहट्ठाए ॥ ३२३ ॥ शेषाणां-शीतलस्वामिप्रभृतीनां पर्यायः पूर्व कुमारवासेन सह भणितः, प्रत्येकमपि च, किमर्थमुभयथापि भणित, साइति चेत् अत आह-शिष्याणामनुग्रहाय, यतो मन्दमतीनामपि शिष्याणां बुद्धौ सम्यक् प्रतिस्फलति ॥ दीप अनुक्रम Jan ~149 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥२१३ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३२४-३२७], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ধz df shreeमेत सोहेउ सेसओ उ जिणकालो । सवाउयंपि एतो उसभाईणं निसामेह ॥ ३२४ ॥ जिनानां यथोदितरूपात् श्रामण्यकालात् छद्मस्थकालमात्रं प्रागुक्तस्वरूपं शोधयित्वा- अपनीय शेषः श्रामण्यपर्यायकालः स श्रामण्यपऋषभादीनां जिनकालोऽवसातव्यः कुमारादिपर्याय कालमीलने च सर्वायुःकालपरिमाणं भवति, तत्साक्षान्निर्दिदिक्षुराहर्यायादि 'सम्राज्यंपी' त्यादि, अतः कुमारादिपर्यायभणनानन्तरं सर्वायुरपि यथाक्रममृषभादीनां भण्यमानं निशमयत - आकर्णगाँ. यत ॥ तदेवाह ३२२-७ सीई वित्तरि सट्टी पण्णासमेत्र लक्खाई । चत्ता तीसा वीसा दस दो एगं च पुत्राणं ॥ ३२५ ॥ रासी बिसत्तरी व सट्ठी य होइ वासाणं । तीसा य दस य एगं च एवमेए सयसहस्सा ॥ ३२६ ॥ पंचाणउइ सहस्सा चउरासीइं च पंचवण्णा य। तीसा य दस य एवं समं च बाबत्तरी चैव ॥ ३२७ ॥ भगवत आदितीर्थकरस्य सर्वायुश्चतुरशीतिः पूर्वाणां लक्षाणि अजितस्वामिनो द्वासप्ततिः पूर्वलक्षाणि सम्भवनाथस्य षष्टिः पूर्वलक्षाणि अभिनन्दनस्य पञ्चाशत्पूर्व लक्षाणि सुम तेश्चत्वारिंशत् पद्मप्रभस्य त्रिंशत् सुपार्श्वनाथस्य विंशतिः चन्द्रप्रभस्य दश पूर्वलक्षाणि सुविधेद्वे पूर्वलक्षे शीतलस्यैकं पूर्वलक्षं, श्रेयांसस्य चतुरशीतिर्वर्षशतसहस्राणि वासुपूज्यस्य द्विसप्ततिर्वर्ष| लक्षाणि विमलस्य षष्टिवर्षलक्षाणि अनन्तजित त्रिंशद्वर्षलक्षाणि धर्मस्य दश वर्षलक्षाणि शान्तिनाथस्यैकं वर्षलक्षं, कुन्धुनाथस्य पश्ञ्चनवतिर्वर्षसहस्राणि अरनाथस्य चतुरशीतिर्वर्षसहस्राणि मल्लिनाथस्वामिनः पञ्चपञ्चाशद्वर्षसहस्राणि मुनिसुव्रतस्य त्रिंशद्वर्षसहस्राणि नमिनाधस्य दश वर्षसहस्राणि अरिष्ठनेमेरेकं वर्षसहस्रं पार्श्वनाथस्यैकं वर्षशतं वर्द्धमानस्वामिनो द्वास For Peyote & Personal Use Only ~ 150 ~ ॥२१३॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३२८-३३३], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक पतिर्वाणि ॥ गतं पर्यावद्धारम्, मधुना अन्तक्रियाद्वाराषस, सपान्तक्रिया निर्वाणलक्षणा, सा कस्य केन तपसा का वा जाता कियत्परिवृतस्य चेत्येतदनिधित्सुराह निवाणमंतकिरिया सा चोइसमेण पढमनाहस्स । सेसाण मासिएणं वीरजिर्णिदस्स छट्टेणं ॥ ३२८॥ साच निर्वाणलक्षणा अन्तक्रिया प्रथमनाथस्य-आदितीर्थकृतश्चतुर्दशकेन-पडिरुपवासैरभूत्, शेषाणाम्-अजितस्वामिप्रभृतीनां पार्श्वनाथपर्यन्तानां द्वाविंशतेस्तीर्थकृतां मासिकेन तपसा, मासोपवासेनेत्यर्थः, अन्तक्रियाऽभवत्, भगवतो वीरजिनेन्द्रस्य पुनः षष्ठेन-द्वाभ्यामुपवासाभ्याम् ॥ अट्ठावय-वंपु-त-पावा-सम्मेयसेल सिहरेसु । उसभ पसुपुज नेमी वीरो सेसा य सिद्धिगया ॥ ३२९ ॥ अष्टापदचम्पोजयन्तपापासम्मेतशैलशिखरेषु यथाक्रममृषभो वासुपूज्योऽरिष्ठनेमिवीरो भगवान शेषाश्च तीर्थकृतः सिद्धिं गताः, अष्टापदे ऋषभस्यामी सिद्धिमगमत, चम्पायां वासुपूज्या उज्जयन्तेऽरिष्टनेमिः भगवान् महावीरः पापायां शेषा अजितस्वामिप्रभृतयः सम्मेतशैलशिखरे इति ॥ एगो भयवं वीरो तेत्तीसाए सह निवुओ पासो । छत्तीसेहिं पंचहिं सएहिं नेमी उ सिद्धिगतो॥३३० ॥ पंचहिं समणसएहिं मल्ली संती उ नवसएहिं तु । अट्टसएणं धम्मो सएहिं छहिं वासुपुज्जजिणो ॥ ३३१॥ का सत्ससहस्साणतइजिणस्स विमलस्स छस्सहस्साई। पंच सयाई सुपासे पउमाझे तिपिण अट्ठ सया ॥ ३३२॥ हादसहि सहस्सेहुसमे सेसा उ सहस्सपरिबुडा सिद्धा । कालाइ न भणियं पढमणुयोगाओं तं नेयं ॥ ३३३॥18 दीप अनुक्रम E ranisanelitary.orm ~151 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्वृतिः ॥२९४॥ Jan Education Ire “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३३४-३३५], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वीरो भगवान् एकः - एकाकी सन् निर्वृतः त्रयस्त्रिंशता साधुभिः सह निर्वृतः पार्श्वनाथः पञ्चभिः शतैः पट्त्रिंशैःपत्रिंशदधिकैः सह सिद्धिं गतो नेमिः- अरिष्टनेमिः पञ्चभिः श्रमणशतैः सह परिवृतो मल्लिस्वामी नवभिः शतैः परिवृतः शान्तिनाथः अष्टभिः शतैर्द्धर्म्मः पङ्गिः शतैर्वासुपूज्यजिनः सिद्धिं गतः, अनन्तजितो जिनस्य निर्वाणं गच्छतः सप्त सहस्राणि परिवारः, विमलनाथस्य षट् सहस्राणि पञ्च शतानि सुपार्श्वस्य पद्मप्रभस्य त्रीणि अष्टोत्तराणि शतानि दशभिः सहस्रैः परिवृत ऋषभस्वामी निर्वाणमगच्छत् शेषास्तु-अजितस्वामिप्रभृतय उक्तव्यतिरिक्ताः प्रत्येकं सहस्रपरिवृता सिद्धाः, कस्मिन् काले दिवसादौ आदिशब्दात् कस्मिन्नक्षत्रे ते भगवन्तः सिद्धा इत्यादि यक्ष भणितं तत्सर्वं प्रथमानुयोगतो ज्ञेयम् ॥ इश्चैवमाइ सर्व जिणाण पढमाणुओगतो नेयं । ठाणासुन्नत्थं पुण भणियं पगयं अतो वोच्छं ॥ ३३४ ॥ इत्येवमादि निर्वाणक्रियापरिवारपरिमाणकालकथनयुगान्तकर भूमिप्रभृतिकं सर्वे जिनानां तीर्थकृतां प्रथमानुयोगतो ज्ञेयम्, इह पुनर्यद् भणितं तत्स्थानाशून्यार्थमतो न कश्चिद्दोषः ॥ अत ऊ पुनः प्रकृतं वक्ष्ये किं तत्प्रकृतमित्यत आहउसभजिणसमुत्थाणं उत्थाणं जं ततो मिरीयस्स । सामाइयस्स एसो जं पुषं निग्गमोऽहिगतो ॥ ३३५ ॥ ऋषभजिनसमुत्थानं प्रकृतं यद् - यस्मात् ततः - ऋषभजिनान्मरीचेरुत्थानं, तदपि मरीचेरुत्थानं प्रकृतं यद्-यस्मादेव निर्गमोऽधिकृतः सामायिकस्य, स च परम्परया मरीचेरिति ॥ तत्र विनीताया नगर्या दूरस्थिता जना विनीतावास्तव्यान् जनान् कलासु विशारदानुपलभ्यैवमूचुः - अहो कुशला अमी जनाः, ततः कुशलपुरुषंयोगात् विनीता नगरी कुशले त्युच्यते, तस्याश्चाधिपतिर्भगवान् ततः 'तत्र भव' इति विवक्षायामध्यात्मादीकण्प्रत्यये भगवान् कौशलिक उच्यते । For Pavoce & Personal Use Ony ~152~ जिनानां निर्वाणत पआदि गा. ३२८. ३५ ॥२१४॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education In “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३३४-३३५], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः से य उसमे कोसलिए पढमराया पढमभिक्खायरिए पढमतित्ययरे वीसं पुवसयसहस्साइं कुमारवासे वसित्ता तेवट्ठि पुवसय सहस्साई रज्जमणुपालेमाणे लेहाइयातो सउणरुतपज्जवसाणातो बावन्तरिं कलातो चोट्ठि महिलागुणे सिप्पाणमेगं सयं एए तिन्नि पयाहियट्ठाए उवदिसइ, उवदिसित्ता पुत्तसयं रज्जसए अभिसिंचर, ततो लोगंतिएहिं देवेहिं जीवमि तिकट्टु संबोहिए संवच्छरियं दाणं दाऊण भरहं विणीयाए, बाहुबलिं बहलीए, कच्छमहाकच्छा चउसहरसपरिवारा भयवया सह अणुपचइया, अन्ने भांति - एएवि कच्छमहाकच्छे रज्जे ठवेइत्ति, ठवित्ता चेत्तबहुलट्ठमीए दिवसस्स | पच्छिमे भागे सुदंसणाए सिबियाए सदेवमणुयासुराए परिसाए समणुगम्ममाणे विणीयाए रायहाणीए मझंमज्झेण निग्गच्छमाणे जेणेव सिद्धत्थवणे जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स हेट्ठा सीयं ठावेत्ता भयवया सयमेव कतो चउमुडिओ लोचो, पंचममुट्ठिग्गहणे हि भगवतो कणगावदाते सरीरे अंजणरेहाउ व रेहतीओ सको उवलभिऊणं भणियाइतो भयवं । एयातो एवमेव चिरंतु, तहेव ठियातो, तेण भगवतो चउमुडिओ लोओ, लोयं काऊण छद्वेण भत्त्रेण अपाणएणं आसाढानक्खत्तेणं उग्गाणं भोगाणं रायण्णाणं खत्तियाणं चउहिं सहस्सेहिं सद्धिं, तेसिं पंचमुट्ठितो होचो आसि, एगं देवदुसमादाय पधइतो, सवतित्थयरावि य णं सामाइयं करेमाणा एवं भणति - करेमि सामाइयं सवं सावज्जं जोगं पञ्चक्सामि जावज्जीवाए तिविहं तिविद्देणं जाव वोसिरामि, भदंत । इति न भणति, तथाकल्पत्वाद्, अत ऊर्ध्वमेतदेवोपसंहरन्नाहेत्यादि वक्तव्यम् । एवं भगवं कयसामाइओ नाणाभिग्गहं परमं घोरं घेण वोसद्वचचदेहो विहरइ, भगवं अरहा, उसमे कोसलिए साहियं संवच्छरं चीवरधारी होत्या, एवं जाव विहरइ, ताहे पुवभणि For Peace & Personal Use Ony ... भगवन्त 'ऋषभस्य कथानकं एवं तन्मध्ये 'नमि विनमि अधिकार: वर्णयते ~ 153~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३३४-३३५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: -- - प्रत उपोदात- यप्पगारेण दुवे कच्छमहाकच्छाण पुत्ता नमिविनमिणो उवविया, भयवं विण्णवंति, जहा-भय अम्हं तुम्हेहिं संवि- नमिचिननियुक्तिः भागो ण केणइ वत्थुणा कतोत्ति, ततो ते सन्नद्धवद्धकवया करवालवम्गहत्धा ओळग्गति, विष्णवंति य तिसंझ- म्यधिकारः ताय ! तुम्मेहि सबेसि भोगा दिन्ना ता अम्हवि देह, एवं तिसंझं विष्णवंताणमोलग्गताण य कालो वच्चइ, अन्नया धरणो नागकुमारिंदो भयवतो वंदतो आगतो, इमेहि य विनवियं, ततो सो ते तहा जायमाणे भणइ-भो ! सुणह, भयवं चत्तसंगो गयरोसतोसो ससरीरेवि निम्ममतो अकिंचणो परमजोगी निरुद्धासवो कमलपत्तनिरुवलेवचित्तो, मा एवं जायह, | अहं तु भगवतो भत्तीए मा तुभं सामिसेवा अफला होउत्तिकाउं पढियसिद्धाई अडयालीसं विजासहस्साई देमि, ताण इमातो चत्तारि महाविजातो, तंजहा-गोरी गंधारी रोहिणी पन्नत्ती, तं गच्छह तुम्मे विजारिद्धीए सजणं जणवयं उवलोभेऊण दाहिणिल्लाए उत्तरिल्लाए य विजाहरसेढीए गगणवल्लहपामोक्खे रहनेउरचकवालपामोक्ले य पण्णासं सद्धिं च विजाहरनगरे निवेसिऊणं विहरह, तेऽवि तं सबमाणत्तियं पडिच्छिउँ लद्धपसाया कामियं पुष्फगविमाणं विउविजणं है। भगवं तित्थयरं नागरायं च वंदिऊण पुष्फगक्मिाणमारूढा कच्छमहाकच्छाणं भगवप्पसायं उवदंसेमाणा विणीयनगरिमतिगम्म भरहस्स रण्णो तमत्थं निवेइत्ता सयणं परियणं च गहाय वेयड्ढे उत्तरसेढीए विनमी सट्दिनगराई गगणवल्लभप्पमुहाई निवेसेइ, नमी दाहिणसेढीए रहनेउरचकवालाईणि पन्नास नगराणि निवेसेइ, जे य जतो जणवयातो नीया मणुयातेसि तन्नामा वियढे जणवया जाया,,विजाहराणं च एगेगस्स अट्ठट्ट निकाया, सचे मिलिया सोलस, ते य इमे-गोरीण विजाणं हैमणुया गोरिया १मणूणं मणूया २ मंधारीणं गंधारा ३माणवीणं माणवा ४ केसिगाणं केसिगा ५भूमितुंडिगाणं भूमितुंडिगा दीप अनुक्रम ॥२१५ Jan trwsanslitrary.orm. ~1540 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३३६-३३८], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक दीप अनुक्रम *.** ७ मूलबीरियाणं मूलवीरिया ८ संबुकाणं संबुका ९ काठीणं कालीया १० समकोणं समका ११ मायंगीण मायंगा १२ पबईणं पबया १३ वंसालयाणं वंसालया १४ पंसुमूलियाणं पंसुमूलिया १५ रुक्खमूलियाणं रुक्खमूलिया ६१६, एवं ते नमिविनमी सोलस पिज्जाहरनिकाए विभइजणं देवा इव विज्जाबलेण गगणचारिणो सयणपरियणसहिया है मणुयदेवभोए मुंजंति पुरेसु भगवतो उसभसामिस्स रजमणुपालेमाणस्स वयपडिमा ठविया विजाहिवाइणो य घरणस्स। नागरायस्स । एतदेवोपसंहरबाह चेत्सबहुलट्ठमीए चरहिं सहस्सेहिं सो उ अवरण्हे । सीया सुदंसणाए सिद्धत्थवणम्मि छ?णं ॥३३६ ॥ चैत्रमासे बहुलपक्षेऽष्टम्यां चतुर्भिः सहस्रैः समन्वितः सन्नपराहे शिविकायां सुदर्शनायां व्यवस्थितः सिद्धार्थवने षष्ठेन भक्तन निष्कान्तः, अलङ्कारं परित्यज्य चतुर्मुष्टिकं लोचं कृत्वेति शेषः ॥ चतुर्भिः सहस्रः समन्वित इत्युक्तम्, तत्र तेषां दीक्षा किं भगवान् दत्तवान् उत नेति, तत्राह- ... | चउरो साहस्सीओ लोयं काऊण अप्पणा चेव । जं एस जहा काही तं तह अम्हेवि काहामो ॥ ३३७॥ चत्वारि सहस्राणि, सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात् , लोचमात्मनैव पञ्चमुष्टिकं कृत्वा इत्थं प्रतिज्ञां कृतवन्तो यत्कियानुष्ठा नमेष भगवान् यथा-येन प्रकारेण करिष्यति तत्तथा 'अम्हेवि' वयमपि करिष्याम इति, भगवानपि भुवनगुरुत्वात, स्वयमेव सामायिक प्रतिपद्य विजहार ॥ तथा चाह उसमो वरवसभगई घेतूण अभिग्राहं परमघोरं । वोसट्टचत्तदेहो विहरद गामाणुगामं तु ॥ ३३८॥ ६ ForFive Persanamory piewsanelibrary.orm ~1550 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३३९], विभा गाथा H], भाष्यं [४...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोदात प्रत तागा. । ऋषभो वृषभगतिरभिग्रहं परमघोरं, परमः परमसुखहेतुत्वात् घोरः प्राकृतपुरुषैः कर्तुमशक्यत्वात् , व्युत्सृष्टत्यक्तदेहोश्रीआदि. नियुक्तिःगामानुग्राम विहरति, व्युत्सृष्टो निष्प्रतिकर्मशरीरतया, तथा चोक्तम्-'अच्छिपि नो पमज्जइ नोवि य कंडूयइ मुणी नाथलोच गाय" त्यक्तः खलु उपसर्गसहिष्णुतया, स एवं भगवान् तरात्मीयैः परिवृतो विजहार, न तदा अद्यापि भिक्षादानं प्रव- कच्छादी ॥२१६॥ वार्तते, लोकस्य परिपूर्णत्वेनार्थित्वाभावात् ॥ तथा चाह नां तापस नवि ताव जणो जाणइ का भिक्खा केरिसा व भिक्खयरा । ते भिक्खमलभमाणा वणमझे तावसा जाता ।। ३३९ ॥ ३३६-१ नापि तावत् जनो जानाति यथा का भिक्षा? कीदृशा वा भिक्षाचरा इति, ततस्ते-भगवत्परिवारभूता भिक्षामलभ-द *मानाः क्षुत्परीपहारी भगवतो मौनव्रतापस्थितादुपदेशमनाकर्णयन्तः कच्छमहाकच्छाविदमुक्तवन्तः-अस्माकमनाथानां भवन्तौ नेतारौ अतः कियन्तं कालमस्माभिरेवं क्षुत्पिपासोपगतैरासितव्यं ?, तावाहतुः-वयमपि तावन्न विद्मः, यदि | भगवाननागतमेव. पृष्टोऽभविष्यत् 'किमस्माभिः कर्त्तव्यं किं वा नेति ततः शोभनमभविष्यत् , इदानीं त्वेतावत् युज्यतेभरतलजया गृहगमनमयुक्तम् आहारमन्तरेण चासितुं न शक्यते, ततो वनवासो नः श्रेयान् , तत्रोपवासरताः परिशटितपरिणतपत्राद्युपभोगिनो भगवन्तमेव ध्यायन्तस्तिष्ठाम इत्येवं सम्पधार्य सर्वसम्मतेनैव गङ्गानदीदक्षिणकूलेषु रम्येषु वनेषु वल्कलचीरधारिणः खल्वाश्रमिणः संवृत्ताः, तथा चाह-वनमध्ये तापसा जाताः, तयोश्च कच्छमहाकच्छयोः सुतौ | नामिविनमी पित्रनुरागात्ताभ्यां बह विहृतवन्ती, तौ च वनाश्रयकाले वाभ्यामुक्की-दारुणः खल्विदानीमस्माभिर्वनवास दीप अनुक्रम Jan Education Farve Personal T wsanelinary.orms ... अत्र यत् नियुक्ति-गाथा ३३९ रुपेण लिखितं तत् हारिभद्रिया वृत्तौ भाष्यगाथा ३१ रूपेण उल्लिखितं ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [३४०-३४२], विभा गाथा H, भाष्यं [४...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक दीप अनुक्रम द विधिरङ्गीकृतः, तद्यात यूयं स्वगृहाणि यदिवा भगवन्तमेव उपसर्पत, स चानुकम्पया अभिलपितफलदो भविष्यति, तावपि च पित्रोः प्रणामं कृत्वा पित्रादेशं तथैव कृतवन्तौ, भगवत्समीपमागत्य च प्रतिमास्थिते भगवति जलाशयेभ्यो नलिनीपत्रेषूदकमानीय सर्वतो जलप्रवर्षणं कृत्वा आजानूच्छ्यप्रमाणं सुगन्धिकुसुमप्रकरं च कृत्वा अवनतोत्तमाझौद्र क्षितिनिहितजानुकरतलौ प्रतिदिवसं त्रिसन्ध्यं राज्यसंविभागप्रदानेन भगवन्तं विज्ञप्य पुनस्तदुभयपाचे खड्गव्यग्रहस्तो वस्थतुः, तथा चाह नमिविनमीण जायण नागिंदो वेज्जदाण वेयडे । उत्तरदाहिणसेढी सही पन्नास नगराई ॥ ३४० ॥ नमिविनम्योर्याचना, नागेन्द्रो भगवद्वन्दनायागतः, तेन विद्यादानमनुष्ठितं, वैताब्ये पर्वते उत्तरदक्षिणश्रेण्योर्यथाक्रम पष्टिपञ्चाशनगराणि निवेशितानि इति । भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-एवं भयवं कयसामाइओ जाव नागरायस्स। | भयवमदीणमणसो संवच्छरमणसिओ विहरमाणो । कन्नाहि निमंतिजइ वत्याभरणासणेहिं च ॥ ३४१ ॥ 3. भगवानपि अदीनमना:-निष्पकम्पितचित्तः संवत्सरं-वर्षे न अशितोऽनशितो विहरन, भिक्षाप्रदानानभिज्ञेन लोके नाम्यस्तित्वात् कन्याभिनिमन्यते वस्त्राणि-पट्टदेवाडादीनि आभरणानि-कटककेयूरादीनि आसनानि-सिंहासनानि साव निमन्यते, वर्तमाननिर्देशप्रयोजनं प्राग्वत् ॥ अथैवं विहरता भगवता कियत्कालेन भिक्षा लम्धेत्यत आह संवच्छरेण भिक्खा लद्धा, उसमेण लोगनाहेण । सेसेहिं बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥ ३४२ ॥ मास.७ F ~157 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पोखात प्रत दीप अनुक्रम संवत्सरेण भिक्षा ऋषभेन लोकनाथेन-प्रथमतीर्थकृता लन्धा, शेषः-अजितजिनादिभिद्वितीयदिवसे प्रथमभिक्षा लब्धानमिविननियुक्तिसम्प्रति यद्यस्य पारणकमासीत्तदभिधित्सुराह मी पारण॥२१७॥ उसभस्स उ पारणए इक्खुरसो आसि लोगनाहस्स । सेसाणं परमन्नं अमयरसरसोवमं आसि ॥ ३४३॥ गा. ऋषभस्य लोकनाथस्य पारणके इक्षरस आसीत, शेषाणामजितस्वाम्यादीनां परमानं-पायसम् अमृतरसेन रसस्योपमा यत्र तदमृतरसरसोपममासीत् ॥ तीर्घकृतां प्रथमपारणके यद्वृत्तं तदभिधित्सुराह घुटं च अहोदाणं दिवाणि य आहयाणि तूराणि । देवा य संनिवड्या वसुहारा चेव बुढा य ।। ३४४ ॥ देवैराकाशस्थितैर्युष्टं यथा-अहो दानमिति, अहोशब्दो विस्मये, अहो दानमहो दानम्, अस्थायमर्थः-एवं दीयते, एवं हि | दत्तं भवतीति, तथा दिव्यानि तूराणि त्रिदशैराहतानि, देवाश्च तदैव सन्निपतिताः, वसुधारानिपातार्थमाकाशे जृम्भका | देवाः समागताः, ततो वसुधारा पृष्टा, द्रव्यवृष्टिरभूदित्यर्थः ॥ एवं सामान्येन पारणककालभाग्युक्तम्, इदानीं यत्र यधा च यदादितीर्थकरस्य पारणकमासीत्तदभिधित्सुराहगयपुर सेजस खोयरसदाण वसुहार पीढ गुरुपूया। तक्खसिलायलगमणं बाहुबलिनिवेयणं चेव ।। ३४५॥ अस्या भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-कुरुजणवए गयपुरं नाम नगरं, तत्थ बाहुबलिपुत्तो सोमप्पभो राया, तस्स पुत्तो सेजंसो जुवराया, सो सुमिणे मंदरं पवयं सामवण्णयं पासइ, ततो अणेण अमयकलसेण अभिसित्तो अभ-18 पाहियं सोभितुमादत्तो, नगरसेट्ठी सुबुद्धी नाम, सो सुमिणे पासइ-सूरस्स रस्सिसहस्सं ठाणातो चलितं, नवरि सेजसेण| E या CONS ॥२१७॥ Porno vsansliterary.com ... भगवन्त 'ऋषभस्य प्रथम भिक्षाप्राप्ते: वर्णनं तथा श्रेयांस सह पूर्व भावानां संबंधस्य कथनं ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३४३-३४५], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः हुक्खुतं, ततो सो सूरो अहिययरतेयसंपन्नो जातो, राइणा एको पुरिसो महप्पमाणो महया रिडवलेण जुज्झतो दिट्ठो, सेज्जंसेण साहज्जं दिण्णं, ततो तेण सब्बलं भग्गंति, ततो अस्थाणीए तिष्णिवि एगतो मिलिया परोप्परं सुमिणे साहंति, न उण जाणंति किं भविस्सइत्ति १, नवरं राया भणइ-कुमारस्स महंतो कोऽवि लाभो भविस्सइन्ति भणिऊण अत्थतो अत्थाणातो, सेज्जंसोऽवि गतो निययभवणं, सेडीवि, भगवंपि अणाउलो संवच्छरखमणंसि अडमाणो सेयंसभवणमइगतो, सो य सेज्जंसो पासायतलगतो तं आगच्छमाणं पपियामहं पासमाणो चिंतेइ कत्थ मया एरिसं नेवत्थं दिट्ठपुर्व जारिसं पपियामहस्स १, एवं मग्गणं करेमाणस्स तयावरणकम्मक्खतोवसमेण जाइस्सरणं जायं, सो य पुवभवे सामिस्स सारही आसि, तेण | तत्थ व इरसेणतित्थयरो तित्थयरलिंगेण दिठ्ठो, बहरनाभे य पद्ययंते सोऽवि अणु पवइतो, तेण सुयं-जं एस भरहे पढमतित्थयरो भविस्सइत्ति, एसो सो भयवंति ससंभंतो उडितो, एयरस परिचत्तसवसंगस्स भत्तपाणं दायवं, एवं जाव चिंतइ ताव भवगणे पासइ खोयरसघडे पुरिसोवणीए ततो परमहरिसोववेए अहय सुमहग्घदूसरयण सुसं बुडे सरसगोसीस चंदणाणुलित्त|गते आविद्धमणिसुवण्णकुंडलज्जोइयाणणे मउडदित्तसिरए कप्परुक्खे इव अलंकियविभूसिए जयजयसद्दकयालोए अणेगपरिवारबुडे उट्टित्ता पाउयातो मुयइ मुइत्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ करेत्ता अंजलिम लियहत्थे भयवंतं सत्तट्ट पयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता तिक्खुत्तो आग्राहिणपयाहिणं करेइ बंदइ नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता भवणंगणातो सयं चेव खोयरसघडगं घेत्तृणं दद्यसुद्धेणं दायगसुद्धेणं पडिगाहगसुद्धेणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं सामिं पडिलाभिस्सामित्ति तुट्ठे, भयवंतमुट्ठितो भयवं कप्पइत्ति ?, ततो भगवया पाणी पसारितो, सबो निसट्ठी पाणीसु, अच्छिद्दपाणी भयवं, उचरिं For Peace & Personal Use Ony ~ 159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोद्धात-1 सिहा पवट्ठा, न य छड्डिजइ, भगवतो एसा लद्धी, सो भगवया पारिओ, एवं सोपडिलामेमाणे तुटे पडिलाभिएऽवि तुडे, श्रेयांसम नियुक्तिः तए णं तत्थ पंच दिवाणि पाउन्भूशणि, तंजहा-वसुधारा वुट्ठा चेलुक्खेवे कए पहयातो देवदुंदुहीतो गंधोदकदसद्धवण्ण वाष्टकसं. कुसुमवासे निवइए आगासे अहो दाणं अहो दाणंति घुटुं, ततो तं चेव देवसंनिवार्य पासिऊण सवो लोगो सेजसघरमुव॥२१८॥ बंध: गतो, ते य ताबसा अण्णे य रायाणो आगया, ते सबे परेण कोऊहलेण पुच्छंति सेजंसं कुमारं-किमेयंति !, ताहे सो ते 01 पण्णवेइ-एवं भिक्खा दिजइ, एएसि दिन्ने सोग्गई गम्मइ, ततो ते सधे भणंति-कहं तुमे विनायं जहा एवं भगवतो । परमगुरुस्स मिक्खा दिजइति ?, सेजंसो भणइ-जाईसरणेण, अहं सामिणा सह अट्ट भवग्गहणाणि अहेसि, ततो ते संजायकोउहल्ला भणंति-साह अहसु भवग्गहणेसु को को तुम सामिणा सह आसि!, ततो तेसिं पुच्छंताणं अपणो सामिस्स अट्ठभवसंबद्धं कहं कहेइ, ताणि य अ भवग्गहणाणि वसुदेवहिंडीए, तहावि ठाणासुन्नत्थं संखेवतो भण्णइ। सेजंसो भणइ-इओ य छहभवे उत्तरकुराए अहं मिहुणइस्थिया भयवं मिहुणपुरिसो आसि, ततो वयं तंमि देवलोकभूए है। दसविहकप्परुक्खप्पभावसंपन्जमाणभोगोवभोगा कइयाए उत्तरकुरुद्दहतीरदेसे असोगपायवछायाए वेरुलियमणिसिलायले | णवणीयसरिसफांसे सुहनिसण्णा अच्छामो, देवो व तंमि हरए मजिउं उप्पइतो गगणदेसेण, ततो तेण नियगप्पभाए टू पभासियातो दस दिसातो, ततो सो मिहुणपुरिसो तं वारिस पस्समाणो किंचि चिंतेऊण मोहं उवगतो, कहमवि लद्ध- ॥२१॥ सण्णो भणइ-हा सर्यपभे! कत्थासि', देहि मे पडिवयणं, तं च तस्स सोऊण इत्थियावि-कत्थ मन्ने मए सयंपभाभिझणं मणुसूयपुवंति चिंतेमाणी तहेव मोहमुवगया, पञ्चामवचेयण्णा भणइ-अहो अज! अहं सयंपमा जीसे तुम्मेहिं नाम दीप अनुक्रम Rimsannlinrary.orm ~160 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education Ine “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३४३-३४५], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः 66+ गहियंति, ततो पुरिसो परं तुडिमुबहंतो भइ अजे ! कहेहि कहं तुमं सर्वप्रभा !, ततो सा भणइ-कहेमि जं सुयमणुभूयं च अस्थि ईसाणो कप्पो, तरस मज्झदेसातो उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे सिरिप्पभं नाम विमाणं, तत्थ ललियंगतो नाम देवो अहिवई, तस्स सयंपमा अग्गमहिसी बहुमवा आसि, सा अहं, तस्स य देवस्स तीए सह दिवसिय सुहसागर गयस्स बहुकालो दिवसो इव गतो, कयाइ चिंतावरो पचायमल्लदामो अहोदिट्ठी शायमाणो मए सपरिसाए विष्णवितो - देव ! कीस चिमणो दीससि ? को ते माणसो संतायो ?, ततो सो देवो भणइ-मए पुदभवे तवो येवो कतो, ततो अहं तुम्भेहिं विध्वजुजिहामित्ति परो संतावो, ततो अम्हेहिं पुणरवि पुच्छितो कहेह कहं तुम्भेहिं थोवो तवो कतो ?, ततो भणति - जंबुद्दीवे दीवे अवरविदेहे गंधिलावइविजए गंधमायणवक्खारगिरिवरासण्णवेयढपवए गंधारा नाम जणवओ, तत्थ समिद्धजणासेवियं गंधसमिद्धं नाम नयरं, तत्थ राया जणवयहितो सयबलस्स रण्णो नचुतो अइबलस्स सुतो महावलो नाम, सो अहं पिउपियामहपरंपरागयं रज्जसिरिं अणुभवामि, मम य बालमित्तो खत्तियकुमारो सयंबुद्धो नाम, सो य जिण - सासणभावियमई, विइतो संभिन्नसोतो, सो पुण मंती बहुसु कज्जेसु पुच्छणिज्जो, परं नाहियवाई, एवं तेहिं समं रज्जमणुपालेमाणो समइच्छिए बहुमि काले कयावि गीयपडिरती नञ्चमाणिं नट्टियं परसाभि, सयंबुद्धेण विष्णवितो देव ! सर्व गीयं | विलबियं सर्वं न विडंबणा सवाणि आभरणाणि भारा दुहावहा कामा, ता परलोगहिए चित्तं निवेसियवं, असासयं जीवियं अहितो विसयपडिबंधो, ततो मए भणियं कहं गीयसवणमेयं विलावो ? कहं नयणग्भुदयं नहं विडवणा ? कहं वा देहविभूसणाणि आभरणाणि भारा ! लोगसारभूया पीइकरा कामा कहं दुहावडा १, ततो संभंतेण सयंबुद्वेण भणियं For Peace & Personal Use Only ~161~ Janelibrary.org Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा ], भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत Cley उपोद्धात- सणह सामी ! पसन्नचित्ता जहा गीयं विलावो, जहा काइवि इस्थिया पविसियपइगा पइणो सुमरमाणी तस्स समाग- महारछनृनियुक्तिःममभिलसंती भनुणो गुणे विकप्पेमाणी पदोसे पचूसे य विलवमाणी चिट्ठइ, जहा वा कोऽवि भिच्चो पहुस्स कुवियस्सपः स्वयंदु पसायणानिमित्तं दासभावे अपाणं ठवेऊण पणतो जाणि वयणाणि भासइ ताणि विलावो, तहा इत्थी पुरिसो वा सरा-INः संभि॥२१॥ गमणो गीयसवणाभिलासी कुवियपसायणानिमित्तं वा जातो कायमणवाइयातो किरियातो पउंजइ ताओ कुसलनिव- श्रोताच द्धाओ गीयंति पवुच्चइ, तं पुण सामी चिंतेउ-किं विलावपक्खे वट्टइ नवा! इति, नर्स्ट जहा विडंबणा तथा भन्नइ-इत्थी पुरिसो वा जक्खाइट्ठो पीयमजो वा जातो कायविक्खेवकिरियातो दंसेइ सा विडंबणा, एवं जाव इत्थी पुरिसोवा पहुणो । दोपरितोसणनिमित्तं विउसजणनिवद्धविधिमणुसरंतो जं पाणिपायसिरनयणाधरादी विक्खिवति सा परमत्थतो विडंबणा, | इयाणिं आभरणाणि भारो भाविजइ-कोइ पुरिसो सामिणो नियोगेण पेडागयाणि मउडाईणि आभरणाणि परहेज,जहा सो अवस्सं भारेण पीडिजइ, एवं जो परविम्यनिमित्तं ताणि चेव आभरणाणि जोग्गेसु सरीरठाणेसु सन्निवेसियाणि वहइ सोऽवि भारेण पीडिज्जइ, नवरं सो रागेण भारं न गणइ, कामा पुण एवं दुहावहा-जहा सद्दमुच्छितो मिगो रूवमुच्छितो |पयंगो गंधमुच्छितो महुयरो रसमुच्छितो मच्छो फरिसमुच्छितो गइंदो वहबंधणमारणाणि पावइ, एवं जीवावि सोइंदियाइवसगया सद्दाइसंरक्षणपरा तदुवरोधकारिसु पडिणीएसु कलुसहियया इहलोगेवि मारणादीणि पावेंति, परलोगे ॥२१९॥ नरगाइदुक्खभायणं, ततो दुहावहा कामा। एवं भणंतो सयंबुद्धो मए भणितो-नूणं तुम मम अहितो सि जो मं संसइयपरलोयसुहेणं लोभतो संपइसुई च निंदतो दुहे पाडेतुमिच्छसि, ततो संभिन्नसोएण भणितो-सामि । सयंयुद्धो जहा। दीप अनुक्रम MCCRAC404-OR Jandi iewsanelibrary.orm ~162 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा H, भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक जंबुको मच्छकंखी मंसपेसिं चइत्ताणं मच्छं पइ धावितो मच्छो जले निमग्गो मंसपेसी सउणियाए गहियत्ति निरासो जातो तहा संदिद्धपरलोयसुहासाए दिह सुहं परिचयंतो उभयोवि चुको सोइहिइ, सयंबुद्धो भणइ-जं तुमं तुच्छसुहमोहितो भणसि को तं सचेयणो पमाणं करेइ , जो कुसलजणपसंसियं रयणं मुहागयं कायमणिए पसत्तो न इच्छह वं केरिस मन्नसि !, तं संभिन्नसोय धीरा सरीरविभवाईणमणिच्चयाइ जाणिऊणं कामभोगे परिच्चज्ज तवसि संजमे य निवाणसुहकारणे जुत्तंति, संभिन्नसोयो भणइ-सयंबुद्ध ! मरणं होहित्ति किं सका पढममेव सुसाणे ठाएर, नणं तुमं टिट्टिभीसरिसो, जहा टिटिभी गगणपडणसंकिया धरेउकामा उद्धपाया सुबइ तहा तुमं मरणं किर होहिति अइपयत्वकारी | संपयकालियं सुई परिचाय अणागयकालियं सुहं पत्थेसि, नणु पत्ते मरणसमए परलोगहियमायरिस्सामो, सयंजुरेण भणियं-मुख ! जुद्धे संपलग्गे कुंजरतुरगदमणं कज्जसाहगं न हवइ, न वा गेहे पलित्ते कूवखणणं कज्जकर, जा पुण दमणं खणणं वा पुचकयं होतं तो परवलमहणं जलणविज्झावणं च सुहेण होतं, एवं जो अणागयमेव परलोगहिए न 5 उज्जमइ सो उक्कर्मतेमु पाणेसु परमदुक्खाभिभूतो किह परलोगमणुढेहिति !, पत्थ सुणेहि वियक्खणकहियं उवएसं-कोइ हकिल हत्थी जरापरिणतो गिम्हकाले किंचि गिरिनई समुत्तरतो विसमे तीरे पडितो, सो सरीरंगरुयत्तणेण दुबलतेण य उद्देउमसत्तो तस्येव कालगतो, से अपाणदेसो सियालेण परिक्खइतो, तेण मग्गेण एगो वायसो अतिगतो मंसं उदगं च उक्जीवंतो चिट्ठइ, उण्हेण यडज्झमाणे कलेवरे सो पएसो संकुचितो, वायसो तुडो, अहो निरावाहं जावं, पाउसकाले यतं गयकलेवरं गिरिनइपूरेण बुझमाणं महानइसोयपडियं समुहमतिगयं, तत्थ मच्छमगरेहिं छिन्नं, ततो जलपूरियातो दीप अनुक्रम 21 JanEdicntamiA L ~163 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक स्पोद्धात-1गयकलेवरातो वायसो निग्गतो, तीरं अपस्समाणो तत्येव निहणमुवगतो, जइ पुण अणागयमेव निग्गतो होतो तो स्वयंबुद्धनियुक्तिःलादीहकालं सच्छंदपयारं विविहाणि य मंसोदगाणि य आहारतो, एयरस दिहतस्स अयमुवसंहारो-जहा वायसो तहा संभिन्नश्रो संसारिणो सत्ता, जहा हधिकलेवरप्पवेसो तहा मणुस्सवोंदिलाभो, जहा कलेवरभंतरे मंसमुदगं च तहा चिसयसंपत्ती, तोवादः २२०॥ जहा मग्गनिरोधो तहा तब्भवपडिवंधो, जहा उदकसोयविच्छोभो तहा मरणकालो, जहा विवरा निम्गमो तहा परभवसं-181 कमो, तं जाणाहि संभिन्नसोय ! जो तुच्छए निस्सारे धोवकालिए कामभोए परिच्चइऊणं तवसंजमुजोगं करेइ सो सुगइगतो न सोइहि, जो पुण विसएसु गिद्धो मरणसमयमुदिक्खइ सो सरीरभेए अगहियपाहेयो चिरं दुही होहिइ, तं मा जंबुक इव तुच्छ कप्पणामेत्तसुहपडिवो विउलकालिय सुहमवमन्नसु, संभिन्नसोएण भणियं-को सो जंबुकदिटुंतो, सयंबढेण भणिय-सुणाहि, कोइ किर वणयरो वणे संचरमाणो विसमे पएसे ठितो, दिहो एगो गइंदो, सो एगेण कंडेण | आहतो, निहुरं मम्मपदेसलग्गकंडष्पहारेण पडितो, पडतेण एगो महाकाओ सप्पो अक्कमितो अद्धनिग्गतो अच्छइ, ततो पडियं गयं जाणिऊण सजीव धणुमवकिरिय परसुं गहाय दंतमोत्तियहेउं गइंदं संलियमाणो तेण सप्पेण खइतो तत्थेव पडितोमतो, ततो एगेण जंबुगेण परिन्भमंतेण सो हत्थी सोय मणुस्सो दिट्ठो, भीरुत्तणेण य अवसरितो, मसलोलुयाए पुणो पुणो अल्लियइ, ततो निजीवंति निस्संसयं मुणिऊण तुट्टो अवलोएइ चिंतेइ य-हत्थी जायज्जीवयं भत्तं मणुस्सो सप्पो | ॥२२०॥ य कंचि कालं होहिह, जीवाबंधणं ताच खाएमिति तुट्ठो मंदबुद्धी, धणुकोडीए छिन्नपडिबंधाए तालुदेसे भिन्नो मतो, जह सो पुण अप्पसारं तुच्छंति जीवाबंधणं परिहरितण हत्थीमणुस्सोरगकलेवरेसु लग्गतो तो तामि य अण्णाणि चिरं है दीप अनुक्रम PUR ForFive Persanamory R a mtionary.org ~164~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक खायंतो, एवं तुमंपि जाणाहि-जो माणुससोक्खपडिबद्धो परलोगसाहणनिरवेक्खो सो जंबुको इव विणस्सिहिद, जंपि सामि ! तुम्भे भणह-संदिद्धो परलोको इति, तंपि न जुर्च, जतो तुम्मे भए सह कुमारकाले नंदणुजाणमुवमया, सत्य । एगो देवो आगासातो ओवइओ, तं दद्रूण अम्हे अवसरिया, देवो व दिवाए गतीए खणेण अम्ह सभीवं पत्तो, भणिया य|| का अम्हे तेणे-अहो महाबल ! अहं तव पियामहो सयवलो रजसिरि पयहिऊण चिण्णवतो लंतगे कप्पे अहिवई जातो, दता तुम्मेवि मा पमायह, भावह अप्पाणं जिणवयणेणं, ततो सुगइगामिणो भविस्सह, एवं वोत्तूण देवो गतो, तं जा सामि ! तुम्भे सुमरह तत्तो अत्थि परलोगोत्ति सद्दहह, मया भणियं-सुमरामि सयंबुद्ध ! पियामहभणियं, ततो उद्धा-1 वगासो सयंबुद्धो भणइ-सुणह सामि! पुषवुर्ततं-तुम्भं पुवजो कुरुचंदो नाम राया आसि, तस्स य देवी कुरुमई, हरि-18| द्राचंदो कुमारो, सो य राया नथिकवाई वहूर्ण सत्ताणं वहाय समुट्टितो निस्सीलो निवतो, एवं तस्स बहू कालोऽतीतो, मरणकाले अस्सायवेयणीयवहुलयाए नरगपडिरूवगो पोग्गलपरिणामो संवुत्तो, गीयं सुइमहुरं अकोसंति मन्नइ, मणोह-| राणि स्वाणि विकृतानि पासति, खीरं खंडसकरोवणीयं पूई मनइ, चंदणाणुलेवणं मुम्मुरं वेएइ, हंसतूलमहुफासं कंटकि-| साहासंचयं पडिसेवइ, तस्स तहाविहमसुभकम्मोदयातो विवरीयभावं जाणिऊण कुरुमई देवी हरिचंदेण सह पच्छन्नं, पडियरह, एवं सो कुरुचंदो राया परमदुक्खितो कालगतो, तस्स नीहरणं काऊण सजणवयं गंधसमिद्धं नाएण पालेइ, पिउणो व तहाभूयं मरणमणुचिंतयस्स एवं मती समुप्पना-अस्थि सुक्यदुक्यफलंति, ततो अणेण गो खचियकुमारो|8 दबालवयंसो सूबुद्धी संदिडो-भद! तुम पंडियजणोवाइ धम्मकहं पइदिणं मे कहेसु, एसा चेव ते से।च, ततो सो एवं दीप अनुक्रम cation Perang sannlionary.org ~1650 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] रोद्धत निर्युक्तिः | २२१ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [३४३-३४५], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः निवत्तो जं जं धम्मसंतियं वयणं सुणेइ तं तं राइणो निवेएइ, राया सद्दहइ तहेव पडिवज्जइ, कयाई च नगरस्स नाइदूरे तहारुवस्स साहुणो केवलनाणुप्पत्तिमहिमं काउं देवा उवागया एवं सुबुद्धिणा खत्तियकुमारेण जाणिऊण हरिचंदस्स रण्णो निवेइयं सोऽवि देवागमणविहितो तुरियं पवरतुरगारूढो साहुसमीवमागतो, वंदिऊण विणएण निसण्णो केवलि| मुहविणिग्गयं वयणामयं सुणेइ, सोऊण संसारमोक्खसरूवं अस्थि परभवसंकमोत्ति निस्संकियं जावं हियए, पुच्छर| भयवं ! मम पिया के गई गतो ?, ततो भगवया भणियं हरिचंद ! तव पिया अनिवारियपावासवो बहूणं सत्ताणं पीडाकरो पावकम्मगस्यताए इह य विवरीय बिसयोवलंभणं पाविऊण आहे सत्तमपुढवीए नेरइओ जातो, सो तत्थ परमनिविसहं निरुवमं निष्पडियारं दुक्खमणुभवइ, ततो कम्मविवागं पितणो सोऊण हरियंदो राया संसारभयभीतो बंदिऊण | केवलनाणि सनगरमइगतो, ततो पुचस्स रायसिरिं समप्पेऊण सुबुद्धिं संदिसइ-तुमं मम पुत्तस्स उवएसं देजासित्ति, | तेण विण्णवितो - सामि । अहं केवलिणो वयणं सोऊण सह तुम्भेहिं न करेमि तवं तो भए न सुयं परमत्थतो केवलिवयणं, तम्हा अहंपि तुम्भेहिं समं पवइस्सामि, जं पुण उवदेसो दायबोति संदिसह तं मम पुत्तो काहिइ, ततो राया पुत्तं संदिसइ-तुमे सुबुद्धिसुयोवएसो कायचो, ततो पठित्तगिरिकंदरातो सीहो इव राया विणिग्गतो पवइतो केवलिसमीबे सह सुबुद्धिणा, ततो परमसंवेगो सज्झायपसत्यचितणपरो परिक्खवियकिलेसजालो समुष्पश्नकेवलनाणदंसणो ॥ २२१ ॥ परिनिबुतो, तस्स हरिचंदस्स रायरिसिणो वंसे संखाईएस नरवईसु धम्मपरायणे अतिकंतेसु तुम्भे संपयं सामी 1, अहं पुण सुबुद्धिवंसे, तं एस अम्हं नियोगो बहुसुपुरिसपरंपरगतो घम्मदेसणाहिगारो, जं पुण एत्य मया अकांडे विष्ण For Pevate & Personal Use Ony 166~ कुरुचन्द्र हरिचन्द्रौ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक दीप अनुक्रम विया तं कारणं सुणह-अज अहं नंदणवणं गतो आसि, तत्थ मए दुवे धारणसमणा दिवा-आइचजसे अमियतेओ || य, ते य वंदिऊण पुच्छिया-भयवं ! महाबलस्स रण्णो केवइयमाउयं चिट्ठइ !, तेहिं कहियं-मासो सेसो, ततो संभंतो द आगतो, एस परमत्यो । ततो जं जाणह सेयं तमकालहीणं करेहत्ति, एवं सयंबुद्धवयण सोऊण अहं धम्माभिमुहो| जामो, आउपरिक्खयसवणेण य आमहियभायणमिव सलिलपूरिजमाणमवसण्णहिययो भीतो सहसा उद्वितो कयंजली सयंबुद्धं सरणमुवगतो, वयंस 1 किमियाणिं माससेसजीवितो परलोगहियं करिस्सामि , तेण समासासितो-सामि! |दिवसोऽवि बहुओ परिचत्तसबसावजस्स, किमंग पुण मासो, ततो तस्स वयणेण पुत्तसंकामियपयापालणवावारो गतो * सिद्धाययणं, कतो भत्तपरिचातो सर्यबुद्धोवदिट्ठजिणमहिमासंपायणनिरतो सुमणसो संथारगसमणो जातो, निरंतरं च संसारस्स अणिचयवेरग्गजणणिं धम्मकहं च सुणमाणो समाहिपत्तो कालगतो इहागतो, एवं मए थोचो तवो चिण्णोत्ति। एयं च अज मम सपरिवाराए ललियंगएण देवेण कहियं, इत्थंतरे ईसाणदेवरायसमीवातो दढधम्मो नाम देवो आगतो भणइ-अहो ललि यंगय! ईसाणदेवराया नंदीसरदीवं जिणमहिम का बच्चइत्ति गच्छामि अहंपित्ति सो गतो, ततो अज ललियंगदेवसहिताण इंदाणत्तीए अवस्सगमणं होहित्ति इयाणि चेव ववामित्ति गयामो खणेण नंदीसरदीवं, कया जिणाययणेसु महिमा, ततो तिरियलोए सासयचेइयाण पूर्व तित्थयरवंदणं च कुणमाणो चुतो ललियंगतो, ततो अहं परमसोगग्गिडज्झमाणविवसा सपरिवारा गया सिरिप्पमं विमाणं, ततो सयंबुद्धदेवो आगतो परिगलमाणसरीरसोम मंदण भणइ-सर्वपमे! पञ्चासन्नो ते चवणकालो तो जिणमहिमं करेहि जेण भवंतरेऽवि बोहिलाभो भवइत्ति, ततोऽहं । % 26- 06 1 JanEentarion viewsanelibrary.orm ~167 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ २२२ ॥ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३४३ - ३४५ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तस्स वयणेण पुणरवि नंदिस्सरदीवे समयक्खेत्ते य कवजिणवंदणपूया चुता समाप्णा अंबुद्दीवे दीवे पुत्रविदेहे पुक्खलावइविजए पुंडरिगिणीए नगरीए वइरसेणचक्कवट्टिस्स गुणवतीए देवीए दुहिया सिरिमई नाम जाया, घाईजणपरिग्गहिया सुहेण वडिया कलातो गहियातो, अनया कयाइ पदोसे सवतोभद्दं पासायमधिरूढा पस्सामि नगरबाहिं देवसंपायें, ततो भए देवजाई सुमरिया, सुमरिऊण य दुक्खेणाहया, परिचारिगाहिं जलकणगसित्ता पञ्चागयचेयणा चिंतेमि - कत्थ मे पियो ललियंगतो देवोत्ति १, तेण य विणा किं जणेण आभट्ठेणंति मूकत्तणं पवण्णा, परियणो भणइ-इमीसे वाया अंभगेहिं निरुद्धा, ततो तिगिच्छेहिं होममंतरक्खाविहाणेहिं कतो महंतो पयतो, अहंपि मूकत्तणं न मुयामि, परिचारियाणं पुण लिहिऊणमाणतिं देभि, अन्नया पमयवणगयं ममं पंडिया नाम अम्मधाई विरहे भाइ-अहं ते घाई तो मे | कहेहि सम्भूयं ततो मया भणियं-अम्मो ! अस्थि कारणं जेणाहं मूयत्तणं पवण्णा, ततो सा तुट्ठा भणइ पुत्ति ! साहस में कारणं, ततो जहा भण्णसि तहा चेट्ठिस्सामि, ततो मया भणिया-सुणाहि-अस्थि धायईसंडे दीवे पुवबि| देहे मंगलावइविलए नंदिग्गामो नाम संनिवेसो, तत्थ अहं इतो तइयभवे दरिद्दकुले सुलक्खणसुमंगलाईणं छण्णं भगिजीणं कणिट्ठा जाया, न कयं च मे अम्मापिकहिं नामं, ततो निनामियत्ति पसिद्धिं गया, सकम्मपडिबद्धा य जीवामि, | अनया कयाइ ऊसवे इब्भगडिंभाणि नाणाविहभक्ख हत्थगयाणि सगिहेहिंतो निग्गयाणि पासेमि, वाणि दडूण भए माया जाइया अम्मो ! देहि मे मोयगं अन्नं वा भक्खं जेण डिंभेहिं समं रमामित्ति, तीए रुट्ठाए आहया निच्छूढा य गिहातो, कतो ते इहं भक्खा है, वचसु अंबरतिलकं पवयं तत्थ फळाणि खावसु मरसु वचि, ततो रोयंती निग्गया दिट्ठो For Peace & Personal Use Ony 168~ उदितांग स्वयंप्रभे श्रीमती, निर्नामि काभवः ॥ २२२ ॥ wanaliorary.org Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] मा.स्. ३८ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३४३ - ३४५ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मया जणो अंबरतिलगाभिमुहं बच्चंतो, गया तेण सहिया, दिट्ठो मया सिहर करेहिं गगणतलमित्र मिणितं समुज्जुतो अंब| रतिलको नाम पवतो, तत्थ जणो फलाणि गेन्हइ, मएवि य पक्कपडियाणि सादूणि फलाणि भक्खियाणि, रमणिज्जयाए य गिरिवरस्स सह जणेण संचरमाणी सदं सुइद्मणोहरं सुणामि, समणुसरंती गया कंचि पदेसं, दिट्ठा जुगंधरा नाम आयरिया विविहनियमधरा चउदसपुषी घडणाणोवगया, तत्थ बहवो समागया देवा मणुया य, ते तेसिं बंधमोक्ख विहाणं कहेंति, अर्हपि पाए णिवडिऊणं एगदेसे निसण्णा धम्मक सुणामि, पुच्छिया मए – भयवं ! अस्थि मम समो कोऽवि दुक्खओ जीवो जीवलोगे ?, ततो तेहिं भगवंतेहिं भणियं निन्नामिगे ! तुहं सदा सुहासुहा सुइपहमागच्छंति, वाणिवि सुंदरमंगुठाणि पाससि, गंधे सुभासुभे अग्घायसि, रसेवि मणुष्णामणुवणे आसाएसि, फासेवि इद्वाणिडे पडि - संवेदेसि, अस्थिय ते सीउण्हछुहाणं पडियारो, निद्दं सुहागयं सोवेसि, तमसि जोइपगासेण कळं कुणसि, नरए पुण नेरइयाणं | निच्चमसुभा सदस्वरसगंधफासा निप्पडियाराणि य परमदारुणाणि सीउण्हाणि तहा छुहापिवासातो य, न य खर्णपि निहासुहं तेसिं, ते य निच्चंधयारेसु नरगेसु चिमाणा दुक्खसयाणि दिवसा अणुवमाणा बहुं कालं गर्मति, तिरियावि | सपक्खपरपक्खजणियाणि दुक्खाणि सीउण्हखुहापिवासादीयाणि य अणुहवंति, तब पुण साहारणं सुहदुक्खं, केवलमन्नसिं | रिद्धिं परससाणा दुहियमप्पाणं तफेसि, ततो मए पणयाए जह भगह तहत्ति पडिस्सुयं तत्थ व धम्मं सोऊण केइ | पवइया के गिहिवासजोग्गाई सीलबयाई पडिवन्ना, ततो मए विन्नवियं-भयवं ! जस्स नियमस्स पालणेऽहं समत्था तं मे उबइसद, ततो मे तेहिं पंच अणुवयाई उवदिट्ठाणि, परितुट्ठा, बंदिऊण जणेण सह नंदिग्गाममागता, पाठेमि ताणि २ For Pevate & Personal Use Ovy 169~ % %% sanelibrary.org Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: अपोद्धातनियुक्तिः ॥२२॥ प्रत सत्राक भवी ४ अणुषयाणि, परिपालयंती चउत्थछट्टमेहिं खमामि, एवं काले गते कयभत्तपञ्चक्खाणा रातो देवं परमर्दसणीय श्रेयांसपूर्व परसामि, सो भणइ-निन्नामिगे!चिंतेहि होमि एयस्स भारियत्ति ततो मे देवी भविस्समि, मया सह दिवे भोगे अँजेसि, तभवेषु निएवं वीत्तूण अइंसणं गतो, अहमवि परितोसविसप्पमाणहियया देवदंसणेण लभिज देवत्तंति चिंते ऊण समाहीए काल- नामिकागया, ईसाणे कप्पे सिरिप्पभविमाणे ललियंगस्स देवस्स अग्गमहिसी सयंपभा नाम जाया ओहिणाणोवयोगविण्णाय- स्वयंप्रभादेवभवकारणा, जहा-एस ललियंगो अहुणोववन्नो समाणो नियपरिचणं परिभाविन्तो देवीसु मज्झे सयंपभाए देवीए अझोववन्नो, सा आउक्सए चुया, ततो देवो पलविउमाढत्तो, सयंबुद्धो य महाबले कालगए गहियसामण्णो चिरकालं संजमं परिपालिऊण समाहिपत्तो कालगतो इहेच ईसाणे कप्पे इंदसामाणितो जातो, तेण विलवंतो संवोहितो, भणितोय-जहा धायइसंडे दीवे अवर विदेहे नंदिग्गामे निन्नामिगा कयभत्तपञ्चक्खाणा चिडइ,तं नियदसणेण पलोभेहि जेण कयनियाणा ते अग्गमहिसी सयंपभा जायइ, ततो अणेण नियदसणेण पलोभिया कयनियाणा इहमागयत्ति, सहरिसं सह ललियंगएण अच्छामि, अन्नया य सघसंपत्तीए कारणं भगवंतो जुगंधरायरियत्ति मुणिऊण ते वंदिउमवइन्ना, ते तंसमय तहेवी है अंबरतिलके पबए मणोरमे उजाणे सगणा समोसरिआ, ततोऽहं परितोसविसप्पियमुही तिगुणपयाहिणपुर्व नमिऊण पनिवेइ नाम, नट्टोवहारेण महिऊण गया सविमाणं, दिवे कामभोगे ललियंगएण सहिया निरुस्सुका बहुकालं अणुहवामि, ६|| देवो य सो ललियंगतो आउक्खएण चुतो, अम्मो न याणामि कत्थ गतो?, अहमवि तस्स वियोगदुहिया चुता समाणी है इहमागया, देवुज्जोयदरिसणेण समुप्पनजाइसरणा तं देवं मणमा परिवहंती मूअत्तणं पवना, किं तेण विणा करण दीप अनुक्रम * ** JanEducation vsansliterary.com ~170~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा H, भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत -+9194k सत्रांक दीप अनुक्रम संलावणति !, एस परमत्थो, तं सोऊण अम्मघाई मर्म भणति-पुत्ति ! मुह ते कहियं, एवं पुण पुषमवचरिय पडिलिहिजउ, ततोऽहं हेडावेहामि, सोय ललियंगतो जइ मणुस्सेसु आयातो होहिइ तो सचरियं दहण जाई सुमरिहिइ, तेण *य सह निवुया विसयमुहमणुभवेसु, ततो सजितो पडो, ततो विविहवण्णाहिं वट्टिगाहिंदोहिंवि जणीहिं पढम तत्व नंदिग्गामो लिहितो, ततो अंबरतिलगगिरिवरसंसियकुसुमियासोअतरुतलसग्निसन्ना गुरवो देवमेहुणगं च बंदणागयं ईसाणो कप्पो सिरिप्पमं विमाणं सदेवमिहुणं महाबलो राया सयंबुद्धसंभिन्नसोयसहितो निनामिया य तवसोसियसरीरा *सबस्थ ललियंगयसयंपभाणं नामाणि लिहियाणि, ततो निष्फन्ने पडे धाती पट्टगं गहेऊण धायइसंडदीवं वच्चामिति गयणण उप्पइया, खणेण य नियत्ता, पुच्छिया मया-कीस अम्मो लहु नियत्तासि,सा भणइ-पुत्ति! सुण कारणं, इह अम्ह सामिणो तव पिऊणो वरिसवद्धावणनिमित्तं विजयवासिणो बहुगारायाणो समागया तं जइ इहेव तव हिययदइतो होहिइ तो है लभयेति चिंतिऊण नियत्ता, जइ पुण न होहिइ तो परिमग्गणं करेस्सामित्तिचिन्तिऊगाऽऽगया, मया भणिया-मुटु कयंति, साततो बीयदिवसे पडं गहाय अवरण्हे आगया, पसन्नमुही भणइ-पुत्ति । निव्वुया होहि, दिवो मया ते ललियंगतो, पुच्छिया मया-अम्मो! साहसु कहति !, सा भणति-पुत्ति ! मया रायमग्गे पसारितो पडो, तं पड़ केइ आलिक्खकुसला आगमं पमाणं करेंता पसंसंति, जे अकुसला ते वण्णरूवाईणि पसंसंति, तस्थ दुम्मरिसणरायसुतो दुईतो | कुमारो सपरिवारो मागतो, सो मुहुत्तमेतं पासिऊण मुच्छितो पडितो, खणेण आसत्थो, मणुस्सेहिं पुच्छितोसामि ! किं मुच्छितो, सो भणइ-नियचरियं पडयलिहियं दद्दण जाती मए सुमरिया, अहं ललियंगतो देवो Ranieysanelibrary.orm ~171 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्धात- नियुक्ति प्रत ॥२२४॥ Ji आसि, सयंपभा मे देवी, मया पुच्छितो-पुत्त ! साहसु को एसो संनिवेसो ?, भणई-पुंडरिगिणी नगरी, पवयं श्रेयांसल कहइ, अणगारो कोऽवि एस साहू, वीसरियं से नाम, कप सोहम्मं साहइ, महावलं राया कोऽवि एसो मंतिसहितोचि श्रीमती जंपइ, निन्नामिगं कावि एसा तवरिसणी, न याण से नामंति, ततो विष्पावगो एसोति मुणिऊण मया भणितो- भक हापुच! संवदति सर्व, जं पुण वीसरियं तेण किं , सच्चं तुम ललियंगतो, सा पुण ते सयंपभा धायइसंडे दीवे नंदि-31 ग्गामे कम्मदोसेण पंगुलिया जाया, सुमरिया नियजाती, ततो तीए आगमकुसलाए तब मग्गणहे नियचरियं लिहियं, मम य धायइसंडं गयाए पडो समप्पिओ, कहिओ नियवुत्तो, ततो मए तीसे अणुकंपाए तव परिमग्गणं कयं, ता पुत्त! एहि नेमि धायइसंह, संतोसेहि नियदंसणेणं पंगुलियं, एवं भणिए उबहसितो मित्तेहि-गम्मउ भो सिझर त पंगुलिया, ततो सो अहोगीवं काऊण अवकतो, मुहुत्तमेत्तेण लोहग्गलाउ धणो नाम कुमारो लंघणपवणादिसु अतीवर समत्थोत्ति संजायवइरजंघोत्तिबीयाभिहाणो आगतो, पडं दहण में भणइ-केणेयं लिहियं चित्रं !, मया भणियंकिंनिमित्तं पुच्छसि ।, सो भणइ-मम एवं परियं, अहं ललियंगतो नामासि, सयंपभा मे देवी, असंसर्य तीए लिहिय.31 जइ वा अन्नेणवि तीए उवएसेणंति तकेमि, ततो मए पुच्छितो-जह से चरिय साहसु को एस संनिवेसो, सो भणइ-14 नंदिग्गामो, एसो पचतो, अंबरतिलको, जुगंधरा आयरिया, एसा खमणकिलंता निन्नामिया, महब्बलो राया सयं- २४॥ बुद्धसंभिन्नसोपहिं सह लिहितो, एस ईसाणो कप्पो, सिरिप्पभं विमाणं, एवं सर्व सपञ्चयं कहिय, ततो मए भणितो-जा एसा सिरिमती कुमारी तुज्झ पिउच्छाए दुहिया सा सयंपभा, सेणरण्णो निवेएमि जेण सा ते भवइ, एवं सोऊण सो सुमणसो दीप अनुक्रम For Pave Permana umory ~172 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education free “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३४३-३४५], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः गतो, ततोऽहं कयकज्जा आगया, ता गच्छामि पुत्ति ! रण्णो निवेएमि जेण ते पियसंगमो भवइ, गया रायसमीवं, सद्दाविया अहं रण्णा, माउसहिया गया रायसमीवं, राया पकहितो-वसुमइ ! जो सिरिमईए उलियंगतो देवो आसि तं जहा अहं जाणं न तहा सिरिमई, अस्थि अवरविदेहे सलिलावइविजए वीयसोगा नाम नगरी, जियसत्तू राया, तस्स मणोहरी केकई य दुवे देवीओ, तासिं जहकमं अयलो बिभीसणो य पुचा बलदेववासुदेवा, पिडंमि उबरते विजयद्धं भुंजंति, मणोहरी बलदेवमाया कमि काले पुत्तमापुच्छति - अयल ! अणुभूया मे भत्तणो सिरी पुण्णसिरी य, संपर पक्षयामि, करेमि परलोगहियं, विसज्जेहि मंति, सो नेहेण न विसज्जेइ, निब्बंधे कए भाइ-अम्मो ! जड़ ते निच्छतो ता | देवलोगं गया मं वसणपडिअं पडिवोहिज्जासि, तीए पडिवन्नं, पद्मइया, परमधिइबलेण अहीयाणि एकारस अंगाणि, वरिसकोडी तवमणुचरिऊण अपडिवइयवेरग्गा समाहीए कालगया लंतगे कप्पे देवो जातो, तं ताव मं जाण, वलदेव| वासुदेवाय बहुकालं समुदिता भोगे भुंजंति, कयाइ निम्गया अणुजतं, आसेहिं अवहिया, अडविं पवेसिया, दूरं गंण आसा विवन्ना, विभीसणो कालगतो, अयलो नेहेण तं जाणइ परिस्समेण मुच्छितो एसो, नेमि सीयलाणि वणगहणाणि, अहं च लंतगकप्पगतो पुचसिणेहेण संगारं सुमरिऊण खणेणागतो, विभीषणरूवं विजबिऊण अयलो भणितो-भाय ! अहं विजाहरेहिं समं जुज्झितं गतो, ते य भए पसाहिया, तुज्झे पुण अंतरं जाणिकगं केणवि मम रूपेण मोहिया, ता छडेहि एवं कलेवरं, सक्कारेसु अग्गिणा, ततो सकारेऊण सनगरमा गया, पूहुज्जमाणा जणेण सगिहं पविट्ठा एकासण| निसण्णा डिया, ततो मया मणोहीरूवं दंसिवं, संभंतो अबलो भाइ- सम्मो ! तुम्भेत्थ कचोति ? ततो मए पदज्जा For Pevoce & Personal Use Ony 173 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: नियुक्तिः प्रत श्रीवासेनोको वि. भीषणाचसंबन्धः सत्राक उपोदात- काटो संगारो य कहितो, विभीसणमरणं च, अहं लंतगातो इहागतो तव पडिवोहणनिमित, अणि मणुयरिद्धिं जाणि- ऊण करेहि परलोगहियं, एवं वोत्तूण गतोऽहं सर्ग कप्पं, अयलोऽवि पुत्तसंकामियरजसिरी निविणकामभोगो पबइतो, तधमणुचरिऊण ललियंगतो देवो जातो, अहं तु पुण तं सदेवीगं जाहे जाहे सुमरामि ताहे ताहे लंतर्ग कप्पं, तंमि सो १२२५॥ सागरोवमस्स सत्त नवभागे देवसुहं भोत्तूण चुतो तत्थऽन्नो उववन्नो, तंपि ललियंगयं एस मे पुत्तो चेवेति मन्नेमि, एएण कमेण गया सत्तरस ललियंगया, जो सो पुण सिरिमईए भत्ता ललियंगतो सो अद्वारसमो, एसोऽवि मण पुत्तसि-1 प्रणेहेण बहुसो लंतगं कपं नीतो, तं जाणामि सिरिमईए भत्ता ललियंगतो जातो वइरजंघोत्ति, आणचो कंचुकी सद्दावेह ४ वइरजंघ, सद्दावितो आगतो, दिहो मया परितोसवियसियच्छीए अच्छेरयन्भूतो, पणतो, राइणा भणितो-पुत्त ! वइ रजंघ! पुवभवसयंपम जाण सिरिमइंति, अवलोइया तेण अहं कलहंसेणेव कमलिणी, विहिणा पाणिं गाहितो, दिण्णं ताएण विपुलं धणं परिचारिगातो य, विसजियाणि अम्हे, गयाणि लोहग्गलं, भुंजामो निरुवसगं भोगे, वइरसेणोऽवि राया लोगतियदेवपडिबोहितो संवच्छरियं दाणं दाऊण पोक्खलपालस्स नियपुत्तस्स रज दाऊण नियगसुएहिं नरवईहिं सहितो पवइतो, उत्पण्णकेवलणाणो धम्म दिसइ, ममवि कालेण पुत्तो जातो, सो सुहेण वहितो, कयाइ पोक्खलपालस्स केइ सामंता विसंवइया, ततो तेण अम्हं पेसियं-एउ वइरजंघो सिरिमई य, अम्हे पुत्तं नगरे ठवेगं विउलेण खंधावारेण पत्थिया, सरवणस्स मझेणं जामो, जणेण पंथो पडिसिद्धो, जहा दिट्ठीविसो सरवणे सप्पो चिहा, तो न जाइ तेण पहेण गंतुन्ति, ततो तं सरवणं परिहरंता कमेण पत्ता पुंडरिगिणि, सुयं च तेहिं सामंतेहिं वइरजंघागमणं, ततो ते संकिया सेवामागया, Hotech दीप अनुक्रम २२५॥ JanEdication TRI wirsanelibrary.com ~174 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक अम्हेवि पोक्खलपालेण रण्णा पूइऊण विसज्जिया, पत्थिया सनगरं, भणइ य जणो-सरवणुजाणमझेण गंतवं जतो तत्थहियस्स साहुणो केवलनाणमुम्पन्न, ततो देवा ओवइया, देवुजोएण पडिहयं विसं, सप्पो निषिसो जातो, ततो अम्हे कमेण पत्ता सरवर्ण, तत्थ आवासिया, दिवा नियभायरो मए सागरसेणमुणिसेणा समणा, चंदिया भत्तिबहुमाणेणं, पडिलाभिया असणपाणखाइमसाइमेण, ततो अम्हे तेसिं गुणे अणुमोयंता कया अम्हेऽवि निस्संगा सामन्ने विहरिस्सामोत्ति विरागमग्गमोतिण्णा, पचा कमेण सनगरं, पुत्तेण अम्हं विरहकाले भिच्चवग्गो दाणमाणेहिं रंजितो, बाँसघरे विसधूमो पउंजितो, अम्हेऽवि विसजियपरियणा वासहरं रयणीए पविठ्ठा, धूमदूसियधातू कालगया इहागया उत्तरकुराएत्ति तं जाणामि-अजजा निन्नामिगा जा सयंपभा जा सिरिमई सा अहं, जो सो महबलो राया जो य ललियंगतो देवो जो य वइरजंघो राया ते तुन्मे, एवं जीसे नामं गहियं साऽहं सयंपभा, ततो सामिणा भणियं-अज! देवुजोएण जाई संभरिऊण मए एवं चिंतियं-देवभवे वट्टामि, ततो. सयंपभा आभट्ठा, तं सच्चमेयं कहियंति परितुद्वमाणसाणि पुवभवसुमरणपजलियसिणेहाणि तिण्णि पलितोवमाई जीविकणं कालगयाणि सोहम्मे कप्पे देवा जाया, तत्थवि वरा णे पीती आसि, पलितोवमठिई पालेऊण चुया वच्छावइविजए पहंकराए नगरीए सामी सुविहिविज्जस्स पुत्तो केसबो| नाम जातो, अहं पुण सेविसुतो, तत्थवि णो अधिगो सिणेहो, तत्थेव नगरे रायसुतो मंतिसुओ सेविसुतो सत्थवाहसुतो| |य तेहिंवि सह मेची जाया, कयाइ साहू महप्पा किमिकुडेण गहितो पडियरिओ, एयं जहा पुर्ष जाव समाहीए कालगया, अचुए कप्पे इंदसमाणा देवा जाया, ततो ठिइक्खए चुता केसवो वइरसेणस्स रणो मंगलावईए देवीए धारिणिवीयना दीप अनुक्रम " LanEducation iran D wsanelibrary.orm ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४३-३४५], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोदात- नियुक्तिः प्रत १२२६॥ माए पुचो जातो वयरनामो, रायसुयाइकमेण कणगनाभरुप्पनामपीठमहापीठा जाया, कणगनाभरुप्पनाभो बीयनामेण वज्रजा बाहुसुबाई, अहं पुण नगरे तत्धेव रायसुतो जातो, बालो चेव वइरनाभं समल्लीणो सारही सुजसो नाम, वरनाभेण श्रीमत्यो |सममणुपचइतो, भगवया य वइरसेणेण वइरनाभो भरहे पढमतित्ययरो उसभो नाम आदिवो कणगनाभो चक्कचट्टी सौधर्मे केभरहो इति, सेसं जहा पुर्व जाव सबढे देवा जाया, ततो चुया इहागया, मया य वइरसेणतित्थयरो एरिसेण नेवत्थेण शिवसारथी दिवोत्ति पपियामहलिंगदरिसणे पोराणीतो जाईतो सरियातो, विनायं च-अन्नपाणाई दायवं तवस्सीणं, तेसिं च तिण्णिवि सुविणाणमेतदेव फलं जं भयवतो भिक्खा दिन्ना, एयं च कहं सोऊण नरवइमाईहिं पहहमाणसेहिं सेजसो पूजितो, गया नियनियहाणं, सेज्जंसोवि जत्व ठितो भयवं पडिलाभितो ताणि पयाणि पाएहिं मा अक्कमिहामित्ति भनीए तत्य रयणामयं पीढं करेइ, तिसंझं च पूएइ, पवदिवसे विसेसेण पूइऊण भुंजइ, लोगो पुच्छइ-किमेयं ।, सेज्जंसो है।भणइ-आइतिस्थयरमंडलं, ततो लोगेणवि जत्य जत्थ भयवं ठितो तत्थ तत्थ पीढं कर्य, कालेण य आइचपीढं जायं । गाथाक्षरंगमनिका क्रियाध्याहारतः कार्या, यथा गजपुरं नगरमासीद, तत्र श्रेयांसः सोमयशसो राज्ञः पुत्रः, तेनेथुरसदानं भगवते प्रदत्तं, तत्रार्द्धत्रयोदशहिरण्यकोटी वसुधारा निपतिता, 'पीढ'मिति यत्र भगवता पारितं तत्र उत्पादयोर्मा कश्चिदाक्रमणं कादिति श्रेयांसेन मक्त्या रसमयं पीठं कारितं, गुरुपूजेति तदर्चनं कृतवान, अत्रान्तरे ॥२२६॥ भगवतस्तक्षशिलातले गमनं बभूक मगवत्प्रवृत्तिनियुक्तपुरुषस्तु बाहुबलिनिवेदनं कृतम्, एतच्चाग्रे भाववियते, वदेवं CAST दीप अनुक्रम ForFive Persanamory ~1764 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [३२३-३२७], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र -[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः भगवतः खल्वादितीर्थकरस्य पारणकविधिरुक्तः, सम्प्रति भगवतः प्रसंगतः शेषतीर्थकराणामजितस्वाम्यादीनां च येषु स्थानेषु प्रथमपारणकान्यासन् तान्यभिधित्सुराह— हत्थिंणडरं अयोज्ज्ञा सावत्थी चैव तह य साएयं । विजयपुर बम्हथलयं पाडलिसंयं पउमसंडं ॥ ३२३ ॥ सेयपुरं रिद्वपुरं सिद्धत्यपुरं महापुरं चैव । घन्नकर वद्धमाणं सोमणसं मंदिरं चैव ॥ ३२४ ॥ पुरं रायपुरं मिहिला रायगिहमेव बोद्धवं । वीरपुरं बारवई कोवकडं कोल्लुपग्गामो ॥ ३२५ ॥ भगवत ऋषभस्वामिनः प्रथमभिक्षास्थानं इस्तिनागपुरम्, अजितस्वामिनोऽयोध्या सम्भवनाथस्य श्रावस्ती अभिनन्द| तस्य साकेतं सुमतिनाथस्य विजयपुरं पद्मप्रभस्य ब्रह्मस्थलं सुपार्श्वस्य पाटलिखण्डं चन्द्रप्रभवामिनः पद्मखण्डं सुविधिस्वामिनः श्रेयःपुरं शीतलस्य रिष्ठपुरं श्रेयांसस्य सिद्धार्थपुरं वासुपूज्यस्य महापुरं विमलस्य धान्यकरं, अनन्तजितो बर्द्धमानं धर्म्मस्य सौमनसं शान्तिनाथस्य मन्दिरपुरं कुन्थुनाथस्य चक्रपुरम् अरनाथस्य राजपुरं महिस्वामिनो मिथिला | मुनिसुव्रतस्वामिनो राजगृहं नमिनाथस्य वीरपुरम् अरिष्ठने मेर्द्वारवती पार्श्वनाथस्य कोपकडं वर्द्धमानस्वामिनः कोलाकग्रामः ॥ एएस पढमभिक्खा लद्धातो जिणवरेहिं सङ्घेहिं । दिण्णाओं जेहिं पढमं तेसिं नामाणि बोच्छामि ॥ ३२६ ॥ एतेषु - हस्तिनागपुरादिषु स्थानेषु यथाक्रममृषभादिभिः सर्वैश्चतुर्विंशत्याऽपि प्रथमभिक्षा लब्धा, अधुना पुनर्वैर्भिक्षा प्रथमं भगवद्भचः प्रदत्ता तेषां नामानि यथाक्रमं वक्ष्ये । प्रतिज्ञातं निर्धाद्दयति सेस मंभवते सुरेंद्र य इंद्रदत्ते य । पउमे व सोमदेवे महिंद तह सोमदते प ॥ ३२७ ॥ Jan Education In For Peace & Personal Use Only •••• अत्र मूल संपादने गाथा क्रमांकने किञ्चित् स्खलना संभाव्यते, [... गाथा का सळंग क्रमांक ३४६ आना चाहिये, मगर यहा फिर से गाथा ३२३ लिखा है, जो क्रमांक इस प्रत के पृष्ठ २१३/१ पर पहेले हि हो चुका है ...] 177 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ २२७ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३२८-३३१], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पुस्से पुण पुर्ण नंद नंदे जए य विजए य । तत्तो य धम्मसीहे सुमित तह वासी य ॥ ३२८ ॥ अपराजिय वीस सेणे वीसइमे होइ बंभदन्ते य। दिपणे वरदिष्णे पुण घन्ने बहुले प बोद्धवे ॥ ३२९ ॥ भगवते ऋषभस्वामिने प्रथमभिक्षां श्रेयांसः - श्रेयांसनामा दत्तवान्, अजितस्वामिने ब्रह्मदत्तः सम्भवनाथाय सुरेन्द्रदत्तः अभिनन्दनाय इन्द्रदत्तः सुमतिनाथाय पद्मनामा पद्मप्रभाय सोमदेवः सुपार्श्वाय महेन्द्रः चन्द्रप्रभस्वामिने सोमदत्तः सुविधिनाथाय पुष्यः शीतलनाथाय पुनर्वसुः श्रेयांसाय नन्दः वासुपूज्याय सुनन्दः विमलाय जयः अनन्तजिते विजयः धर्मनाथाय धर्म्मसिंहः शान्तिनाधाय सुमित्रः कुन्थुनाथाय व्याघ्रसिंहः अरनाथायापराजितः मल्लिस्वामिने विश्वक्सेनः विंशतितमो भवति ब्रह्मदत्तः किमुक्तं भवति ? - मुनिसुव्रतस्वामिने ब्रह्मदत्तः प्रथमभिक्षां दत्तवान्, नमिस्वामिने दिनः अरिष्ठनेमये वरदिन्नः पार्श्वनाथाय धन्यः वर्द्धमानस्वामिने बहुलः । एए कयंजलिउडा भतीबहुमाणसुक्कलेसागा । तक्कालपट्टमणा पडिलार्भेसुं जिणवरिंदे ॥ ३३० ॥ एते श्रेयांसप्रभृतयः कृताञ्जलिपुटाः भक्ति:- उचितप्रतिपत्त्या विनयकरणं बहुमानः--- आन्तरः प्रीतिविशेषस्ताभ्यां शुक्ला-अतीव शोभना लेश्या - परिणामविशेषो येषां ते भक्ति बहुमानशुक्ललेश्याकाः तत्कालं - तस्मिन् प्रथमभिक्षादानकाले प्रहृष्टमनसो यथाक्रममृषभादीन् जिनवरेन्द्रान् प्रतिलाभितवन्तः ॥ सहिंपि जिणेहिं जहियं लद्वाउ पढमभिक्खाउ । तहियं वसुहारातो बुट्ठाओ पुप्फवुट्टीतो ॥ ३३१ ॥ ... जिनेश्वराणां प्रथम भिक्षादाता एवं भिक्षास्थान For Pevice & Personal Use Only 178~ जिनपारणकानां स्थानानि दातारश्च ॥ २२७ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३३२-३३४], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Educaton Iremational सर्वैरपि जिनैः ऋषभादिभिर्यत्र प्रथमभिक्षा लब्धास्तत्र वसुधारा-हिरण्यप्रपातरूपा दृष्टा पुष्पवृष्टयश्च दृष्टाः । साम्प्रतं वसुधाराया जघन्यत उत्कर्षतश्च परिणाममाह अद्धत्तेरसकोडी कोसा तत्थ होइ वसुहारा । अद्धतेरसलक्खा जहन्निया होह वसुहारा ॥ ३३२ ॥ अर्द्ध त्रयोदशं यासां ता अर्द्धत्रयोदशाः सार्द्धा द्वादश इत्यर्थः, हिरण्यानां कोटय उत्कृष्टाः तत्र प्रथमपारणकस्थाने भवति वसुधारा, अर्द्धत्रयोदशानां हिरण्यानां लक्षाणि जघन्या भवति वसुधारा । अथ यैः प्रथमा भिक्षा भगवद्भवो दत्ताः ते किंभूता अभवन्नित्याह ससिंपि जिणाणं जेहि उ दिन्नाउ पदमभिक्खाओ । ते पयणुपेज्जदोसा दिववरपरक्कमा जाया ॥ ३३३ ॥ केई तेणेव भवेण निब्बुया सङ्घकम्मउम्मुका । केई तइयभवेणं सिज्झिस्संती जिणसगासे ॥ ३३४ ॥ अक्षरगमनका तु क्रियाध्याहारतः कार्या यथा गजपुरं नाम नगरमासीत्, श्रेयांसस्तत्र, तेनेक्षुरसदानं भगवन्तमधिकृत्य प्रवर्त्तितं, तत्रार्द्ध त्रयोदशहिरण्यकोटीपरिमाणा वसुधारा निपतिता, 'पीठ' मिति श्रेयांसेन यत्र भगवता पारितं | तत्र तत्पादयोर्मा कश्चिदाक्रमणं करिष्यतीति भक्त्या रत्नमयं पीठं कारितं, गुरुपूजेति तदर्द्धनं चक्रे, अत्रान्तरे भगवतः तक्षशिलातलगमनं बभूव, भगवतः प्रवृत्तिनियुक्त पुरुषैर्वाहुबलिनिवेदनं कृतमित्यक्षरगमनिका, एवमन्यासामपि सङ्ग्रह| गाथानां स्वबुद्ध्या गमनिका कार्येति गाथार्थः ॥ इदानीं कथानकशेषं बाहुबलिना चिंतियं-कल्ले सविहीए बंदिस्सामित्ति, १ प्राक् कृताऽपि विंशत्यधिकत्रिंशत्तमगाथाया व्याख्याऽत्रोपनिबद्धा, विस्मरणशीलानामुपकाराय, मूलटीकायां त्वत्रैत्राचरगमनिका । For Peace & Personal Use Ony 179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३३५-३४०], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक चक उपोबात-16 निग्गयो पभाए, सामी गतो विहरमाणो, अदिहे अद्धिति काऊण जहिं भगवं वुत्यो तत्थ चम्मच पिचकारियंदा वसुपारानियुकिः सबरयणामयं जोयणपरिमंडलं पंचजोयणूसियदंडं, सामीवि बहलीयडंबइलाजोणगविसयादिएK निरुवमग्गं दिदातृग [विहरतो विणीयनयरीए उज्जाणत्थाणं पुरिमतालं नगरं संपत्तो, तत्थ य उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे सगडमुहं नाम | त्यादिधर्म ॥२२८॥ उज्जाणं, तंमि निग्गोहपायवस्स हेडा अहमेणं भत्तेणं पुषण्हदेसकाले फग्गुणबहुलेक्कारसीए उत्तरासाडानक्खचे । पवजादिवसातो आरम्भ वाससहस्संमि अतीते भगवतो तिहुयणेकबंधवस्स दिवमणतं केवलनाणमुष्पन्नति । यमुमेवार्थमुपसंहरन् गाथाषट्कमाहकल्लं सचिट्ठीए पूएमऽहऽवतु धम्मचकं तु । विहरह सहस्समेगं छउमत्यो भारहे वासे ॥ ३३५ ॥ बहलीअडबडल्लाजोणगविसओ सुवनभूमी अ। आहिंडिया भगवया उसभेण तवं चरतेण ॥ ३३६ ॥ बहली य जोणगा पल्लगा य जे भगवया समणुसिट्ठा । अने अमिच्छजाई ते तइआ भगा जाया ॥३३७॥ तित्थयराणं पढमो उसभसिरी विहरिओ निरुवसम्गं । अट्ठावओ नगवरो अग्गा भूमी जिणवरस्स ॥३३८॥ छउमत्थप्परिआओ वाससहस्सं तओ पुरिमताले । निग्गोहस्स य हिडा उप्पन्नं केवलं नाणं ॥ ३३९॥ फग्गुणबहुले इकारसीह अह अह्रमेण भत्तेण । उप्पन्नंमि अणते महत्वया पंच पनवए ॥ ३४०॥ मासां भावार्थः सुगम एव, नवरमनुरूपक्रियाध्याहारः कार्यः, यथा 'कलं' प्रत्यूपसि सर्वा पूजयामि मगवन्तमादि दीप अनुक्रम 6 ॥२२८ Eaicatonimal ForFive Persanamory wsanelionary.org ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आसू. ३९ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययन [-] निर्युक्तिः [३४१-३४३], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः कर्त्तारं 'अह' मित्यात्मनिर्देशः, अदृष्ट्वा भगवन्तं धर्म्मचक्रं तु चकारेत्यादिगाथाषकाक्षरार्थः । महाव्रतानि पञ्च प्रज्ञापयतीत्युक्तं, तानि तु त्रिदशकृतसमवसरणावस्थित एव तथा चाह- उपपन्नमि अणते नाणे जरमरणविप्पमुक्कस्स । तो देवदाणविन्दा करिंति महिमं जिदिस्स ॥ ३४१ ॥ गमनिका - उत्पन्न - धातिकर्म्मचतुष्टयक्षयजाते सञ्जाते अनन्ते ज्ञाने, केवल इत्यर्थः, जरा-वयोहानिलक्षणा मरणं| प्रतीतं जरामरणाभ्यां विप्रमुक्त इति समासः तस्य, विप्रमुक्तवद्विप्रमुक्त इति, ततो देवदानवेन्द्राः कुर्वन्ति महिमांज्ञानपूजां जिनवरेन्द्रस्य, देवेन्द्रग्रहणात् वैमानिकज्योतिष्कपरिग्रहः, दानवेन्द्रग्रहणात् भवनवासिव्यन्तरग्रहणं, सर्वतीर्थकराणां च देवाः अवस्थितानि नखलोमानि कुर्वन्ति, भगवतस्तु कनकावदाते शरीरे जटा एवाञ्जनरेखा इव राजन्त्य उपलभ्य धृता इति गाधाक्षरार्थः ॥ ( ग्रंथानं ९००० ) इदानीमुक्तानुक्तार्थस ब्रहपरां सहगायामाह - उज्जाणपुरिमताले पुरी विणीआइ तत्थ नाणवरं । चकुपया य भरहे नित्रेअणं चैव दुपि ॥ ३४२ ।। गमनिका - उद्यानं च तत्पुरिमतालं च उद्यानपुरिमतालं तस्मिन् पुर्या विनीतायां तत्र ज्ञानवरं भगवत उत्पन्नमिति वाक्यशेषः, तथा तस्मिन्नेवाहनि भरतनृपतेरायुधशालायां चत्रोत्पादश्च बभ्रुव, 'भरहे निवेषणं चैव दोण्हंपि त्ति भरताय निवेदनं च द्वयोरपि ज्ञानरलचकरलयोः तन्नियुक्तपुरुषैः कृतमित्यध्याहार इति गाथार्थः, अत्रान्तरे भरतश्चिन्तया - मास-पूजा तावद् द्वयोरपि कार्या, कस्य प्रथमं कर्तुं युज्यते ?, किं चक्ररलस्य उत तावस्येति, तत्रताम्मि पूए चक पूअं पूअणारिहो ताओ। इहलोइअं तु चकं परलोअसुहविहो ताओ ॥ १४३ ॥ or Pevoce & Personal Use Ony ... भगवन्त ऋषभस्य केवलज्ञानोत्पत्ति एवं मरुदेवा मातायाः मोक्ष-गमनं 181~ www.sanelibrary.org Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥२२९॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [३४१-३४३], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः गमनिका - ताते - त्रैलोक्यगुरौ पूजिते सति चक्रं पूजितमेव, तत्पूजानिबन्धनत्वाच्चक्रस्य, तथा पूजामईतीति पूजाईतातो वर्त्तते, देवेन्द्रादिनुतत्वात्, तथा इहलौकिकं चक्रं, तुरेवकारार्थः, स चावधारणे, किमवधारयति १ - ऐहिकमेव | चक्रं, सांसारिकसुखहेतुत्वात्, परलोकसुखावहस्तातः, शिवसुखहेतुत्वादिति गाथार्थः ॥ तस्मात्तिष्ठतु तावच्चक्रं, तातस्य पूजां कर्त्तुं युज्यत इति सम्प्रधार्य तत्पूजाकरणसन्देश व्यापृतो बभूव । इदानीं कथानकम्-भरहो सविट्टीए भगवंतं बंदि पयट्टो, मरुदेवी सामिणी य भगवंते पवइए भरहरज सिरिं पासिऊण भणियाइया - मम पुत्तस्स एरिसी रज्जसिरी आसि, संपर्क सो खुहापिवासापरिगओ नग्गओ हिंडइति उबेयं करियाइया, भरहस्स तित्थगरविभूई वन्ने॑तस्सवि न पत्तिचि | याइया, पुत्तसोगेण य से किल झामलं चक्खुं जायं रुयंतीए, तो भरहेण गच्छंतेण विन्नत्ता-अम्मो ! एहि जेण भगवओ विभूतिं दंसेमि, ताहे भरहो (तं) हरिथखंधे पुरओ काऊण निग्गओ, समोसरणदेसे य गयणतलं सुरसमूहेण विमाणारूटेणोवरंतेण वीरायंतघयवर्ड पहयदेवदुंदुहिनिनायापूरियदिसामंडलं पासिऊण भरहो भणियाइओ – पिच्छ जइ एरिसी रिद्धी मम कोडिसयसहस्सभागेणवि, ततो तीए भगवओ छत्ताइच्छन्तं पासंतीए चेव केवलमुप्पण्णं, अन्ने भांति-भगवओ धम्मकहासदं सुर्णेतीए, तकालं च तीए खुट्टमाउयं ततो सिद्धा, इह भरहोसप्पिणीए पढमसिद्धोत्तिकाऊण देवेहिं पूजा कया, सरीरं च खीरोए छूटं, भगवं च समोसरणमज्झत्थो सदेवमणुयासुराए धम्मं कहेइ, तस्थ उसभसेणो नाम भरहपुत्तो पुवभवबद्धगणहरनामगुत्तो जायसंवेगो पवइओ, बंभी य पवइया, भरहो सावगो जाओ, | सुंदरी पवयंती भरहेण इत्थीरयणं भविस्सइति निरुद्धा साविया जाया, एस चढविहो समणसंघो, ते य तापसा भग For Peace & Personal Use Only 182~ केवलं भर तपूजा म रुदेवीकेवलमोक्षी ॥२२९॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education in “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३४४-३४७ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [४...] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः वओ नाणमुप्पण्णंति कच्छसुकच्छवजा भगवओ सगासमागतूण भवणवतिबाणमंतरजोइसिय वेमाणियदेवागिण्णं परिसं दट्ठूण भगवओ सगासे पवइया, पत्थ समोसरणे मिरिचिमाइया बहवे कुमारो पवइया ॥ साम्प्रतमभिहितार्थस ग्रहपरमिदं गाथाचतुष्टयमाह् सह मरुदेवी निग्गओ कहणं पज्ज उसभसेणस्स । गंभीमरीइदिक्खा सुंदरिओरोह सुअदिक्खा || ३४४॥ पंच य पुतसयाई भरहस्स य सत्त नतु असयाई । सपराहं पञ्चइआ तम्मि कुमारा समोसरंणे ॥ ३४५ ॥ भवणवई वाणमंतर जोइसवासी विमाणवासी अ । सबिडीई सपरिसा कासी नाणुप्पयामहिमं ॥ ३४६ ॥ हूण कीरमाणि महिमं देवेहिं खत्तिओ मरिई । सम्मत्तलद्धबुद्धी धम्मं सोऊण पवइओ ॥ ३४७ ॥ कथनं धर्म्मकथा परिगृह्यते, मरुदेव्यै भगवद्विभूतिकथनं वा कथा, नसृशतानीति पौत्रकशतानि, तथा 'सयराह' मिति देशीवचनं युगपदर्थाभिधायकं त्वरिताभिधायकं वेति, मरीचिरिति जातमात्री मरीचीन् मुक्तवानित्यतो मरीचिमान् मरीचिः, अमेदोपचारान्मतुप्लोपाद्वेति, अस्य च प्रकृतोपयोगित्वात् कुमारसामान्याभिधाने सत्यपि भेदेनोपन्यासः, सम्यक्त्वेन लब्धा - प्राप्ता बुद्धिर्यस्य स तथाविधः शेषं सुगममिति गाथाचतुष्टयार्थः ॥ कथानकम् - भरहोऽवि भगवतो पूयं काऊण चकरयणस्स अट्ठाहियामहिमं किरियाइओ, निवत्ताए अट्ठाहियाए तं चक्करयणं पुवाभिमुहं पहावियं, भरहो | सबबलेण तमणुगच्छियाइओ, तं जोयणं गंतूण ठियं, ततो सा जोयणसंखा जाया, पुवेण य मागइतिस्थं पाविऊण अट्ठ| मभचोसितो रहेण समुदमवगाहिता चक्कणाभिं जाव ततो नामकं सरं विसाज्जयाइओ, सो दुवाउस जोयणाणि गंतूण For Pevane & Permal Use Only ... अथ भरतस्य दिग्विजय यात्रार्थे गमनं वर्णयते 183 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४४-३४७], वि०भा०गाथा , भाष्यं [४...], मूलं - गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 111 i उपोद्धात- मागहतित्थकुमारस्स भवणे पडिओ, सो तं दद्गुण परिकुविओ भणइ-केस णं एत्य अपस्थियपस्थिए ! ,अह नामयं भरतस्य नियुक्तिःपासति, नायं जहा उत्पन्नो चक्कवट्टित्ति सरं चूडामणिं च घिनूण उवडिओ भणति-अहं ते पुखिल्लो अंतेपालो, ताहे दिग्यात्रा तस्स अट्ठाहियमहामहिमं करेइ । एवं एएण कमेण दाहिणेण वरदाम, अवरेण पभासं, ताहे सिंधूदेवि ओयवेइ, ततो ॥२३॥ वयङगिरिकुमारं देवं, तो तिमिसगुहाए कयमालयं, तओ सुसेणी अद्भवलेण दाहिणिल्लसिंधुनिक्खुडं ओयवेइ, ततो हासुसणो तिमिसगुहं समुग्घाडेइ, ततो तिमिसगुहाए मणिरयणेण उज्जोयं काऊण उभओ पासिं पंचधणुसयायामविक्वं भाणि एगुणपन्नास मंडलाणि आलिहमाणे उज्जोयकरणेण उम्मग्गनिमुग्गाओ व संकमण उत्तरिऊण निग्गओ तिमिसKIगुहाओ, आवडिय बिलाएहिं समं जुद्धं, ते पराजिया मेहमुहे नाम कुमारे देवए आराहिंति, ते सत्तर वासं वासंति, हाभरहोऽवि चम्मरयणे खंधावारं ठवेऊण उवरिं छत्तरयणं ठावेइ, मणिरयणं छत्तरयणवत्थिभाए ठवेइ, ततो पभिइ लोगेण अंडसंभवं जगं पणीयंति तं ब्रह्माण्डपुराणं, तत्थ पुवण्हे साली वुष्पइ अवरण्हे जेम्मति, एवं सत्त दिवसे अच्छति,IR हातओ मेहमहा आभिओगिएहिं धाडिया, विलाया तेसिं वयणेण उवणया भरहस्स, तओ चुहिमवंतगिरिकुमारं देवं ओयवेइ, तत्थ बावत्तरि जोयणाणि सरो उवरिंहुत्तो बच्चति, ततो उसहकूडे नामयं लिहइ, ततो सुमेणो उत्तरियं सिंधुनिक्खुडं। X ॥२३॥ ओयवेइ, ततो भरहो गंगं ओयवेइ, पच्छा सेणावती उत्तरिलं गंगानिम्खुडं ओयवेइ, भरहो गंगाए सद्धिं वाससहस्सा भोगे भुंजइ, ततो वेयहुपवए णमिविणमीहिं समं बारस संवच्छराणि जुद्धं, ते पराजिया समाणा विणमी इन्धिरयणं णमी[5 सारयणाणि गहाय उवट्ठिया, पच्छा खंडगप्पवायगुहाए नहमालयं देवं ओयवेइ, ततो खंडगप्पवायगुहाए नीति, गंगाकूले | दीप अनुक्रम ~184 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४४-३४७], विभा गाथा , भाष्यं [४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक -* मानव निहयो रवागच्छति, पच्छा दक्सिणिलं गंगानिक्खुड सेणावई ओयवेइ, ताहे तेण क्रमेण सहीए वाससहस्सेहिं भारदं वासं अमिजिणिकण अतिगओ विषीयं रायहाणिति, वारस वासाणि महारावाभिसेओ, जाहे वारस वासाणि महारायाहै मिसेयो क्तो राइणो विसजिया ताहे निययवर्ग सरितमारद्धो, ताहे दाइजति सबै निएलया, एवं परिवाडीए सुंदरी दाइया, सा पण्डुलगितमुही जाया, साय जदिवस रुद्धा तदिवसमारन्म आयंबिलाणि करेंति, तं पासित्ता रुट्ठो ते कुटुंबिए भणइ-किं मम नधि भोवर्ण ! जं एसा एरिसी स्वेण जाया 1, वेज्जा वा नत्थि, तेहिं सिटुं-जहा आयंबिलाणि करेइ, ताहे तस्स स्सोवरिं पयणुबो रागो जाओ, सा व भणिया-जइ रुच्चति तो मए समं भोगे मुंजाहि, णवि तो पवयाहित्ति, चाहे पाएमु पडिया विसजिया पधइया । अन्नया भरहो तेसि भाउयाणं दूयं पट्टवेइ, जहा-मम रज आयाणह, ते भणति-अम्हवि रज तारण दिण्णं, तुज्झवि, एतु वाव ताओ पुच्छिजिहिति, जं भणिहिति तं करीहामो, तेणं समपणं भयवं अट्ठावयमागओ विहरमाणो, एत्थ सबे समोसरिया कुमारा, ताहे भणंति-तुम्मेहिं दिणाति रजाई हरति माया, तो किं करेमो !, किं जुज्झामो उदाहु आयाणामो !, ताहे सामी भोगेसु नियत्वावेमाणो तेर्सि धम्म | दाकहेइ, न मुचिसरिसं सुहमत्यि, वाहे इंगालदाहकदिद्रुतं कहेइ, जहा एगो इंगालदाहओ एगं भाणं पाणियस्स भरेजणं गओ, तं तेण उदगं निवियं, स्वरि आइचो पासे अम्गी पुणो परिस्समो दारुगाणि कुदितस्स, घरं गतो पाणियं पारं मुच्छितो सुमिणं पासइ, एवं असम्मावपट्ठवणाए कूवतलागनदिदहसमुद्दा य सबे पीया, न य छिज्जइ तण्हा, ताहे धाएगमि जिन्नकूवे तणपूलियं गहाय रस्सिंचइ, जं पडियसेसं तं जीहाए लिहइ एवं तुम्मेहिवि अणुत्तरा सबलोगे दीप अनुक्रम E * ** ForFive Persanamory pewsansliterary.org ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३४८], विभा गाथा H], भाष्यं [४...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्घात- नियुक्तिः ॥२३१॥ प्रत सफरिसा सबसिद्धे अणुभूया तहवि ततिं न गया, एवं वेयालियं नाम अग्झयणं भासइ-संबुज्झह किन्न बुज्झह सुन्दयों एवं अट्ठाणरईवित्तेहिं अट्ठाणरई कुमारा पवइयत्ति, कोइ पढमिलुएण संवुद्धो कोइ वितिएण कोइ ततिएण, जाहे ते अष्टानवते. पबइया ताहे तेसिं रजाणि तेसिं पुत्ताणं दिन्नाई ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरनाह दणांच | मागहमाई विजयो सुंदरि पछज्ज वारसऽभिसेओ। आणवण भाउआणं समुसरणे पुच्छ दिढतो ॥३४८॥ दीक्षा गमनिका-मागधमादौ यस्य स मागधादिः कोऽसौ !-विजयो, भरतेन कृत इति, पुनरागतेन सुन्दर्यवरोधस्थिता दृष्टा, क्षीणत्वान्मुक्ता चेति, द्वादश वर्षोण्यभिषेकः कृतो भरतस्य, आज्ञापनं भ्रातॄणां चकार, तेऽपि च समवसरणे भगवन्तं पृष्टवन्तः, भगवता चाङ्गारदाहकदृष्टान्तो गदित इति गाथाक्षरार्थः । इदानी कथानकशेष-कुमारेसु| पवइएमु भरहेण बाहुबलिणो दूओ पेसिओ, सो ते पबइए सोर्ड आसुरुत्तो, ते वाला तुमए पधाविया, अहं पुण जुद्धस-18 मत्थो, ता एहि, किं वा ममंमि अजिते भरहे तुमे जियंति , ततो सबवलेण दोवि मिलिया देसंते, बाहुबलिणा भणियं-1 कि अणबराहिणा लोगेण मारिएणं, तुमं च अहं च दुवेऽवि जुज्झामो, एवं होउत्ति, तेसिं पढम दिहीजुड़ जाय, तत्य भरहो पराजिओ, पच्छा वायाए, तत्थवि भरहो पराजिओ, एवं बाहायुद्धेण पराजिओ, मुद्विजुद्धेण पराजिओ, दंडजु झेवि जिष्पमाणो भरहो चिंतियाइओ-किं एसेव चक्की ? जेणाहं दुब्बलोत्ति, तस्सेवं चिंतंतस्स देवयाए आउहं दिन्नं चक्क-1 ॥२३॥ दारयणं, ताहे सो तेण गहिएणं पहाविओ, इओ बाहुबलिएण दिवो गहियदिधचकरयणो आगच्छंतो, सगर्व चिंतिय पडणेणं सममेएणं भजामि एवं', किं पुण तुच्छाण कामभोगाण कारणा, भट्ठनियपइण्णं च एवं मर्म वावाइडं न जुर्ग, सोहणं दीप अनुक्रम REC oversanelibrary.orm ~186 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Educat “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ३४९], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ३२-३३] मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मे भाउगेहिं अणुट्ठियं, अहमवि तमणुट्टामित्ति चिंतिऊण भणियं चडणेण घिसि घिसि पुरिसत्तणं ते अहम्मजुज्शपवत्तस्स, अलं मे भोगेहिं, गेण्हाहि रज्जं, पश्यामित्ति मुकदंडो पवइओ, भरहेण बाहुबलिस्स पुत्ती रज्जे ठविओ, बाहुबली विच| तेइ तायसमीवे भाडणो मे लहुत्तरा समुप्पण्णणाणातिसया ते किह निरतिसओ पेच्छामि १, एत्थेव ताव अच्छामि जाव केवलनाणं समुप्पज्जति, एवं सो पडिमं ठिओ ठिओ माणपश्यसिहरे, जाणइ सामी तहवि न पडवेइ, अमूढलक्खा तित्थवरा, ताहे संवच्छरं अच्छइ काउस्सग्गेण, वल्लीविताणेणं वेढिओ पाया य वम्मीयनिग्गएहिं भुयंगेर्हि, पुण्णे य संवच्छरे भगवं वंभिसुंदरीओ पट्टवेड, पुर्वि नेव पट्टविया जेण तथा सम्मं न पडिवज्जइत्ति, ताहिं सो मग्गंतीहिं वल्लीतण| वेदिओ दिट्ठो परूढेणं महलेणं गवेणंति, तं दहूण बंदिओ, इमं च भणिओ-न किर हत्थीविलग्गस्स केवलनाणं समुप्पज्जइत्ति भणिऊणं गयाओ, ताहे चिंतियाइओ कहिं एत्थ हत्थी ?, ताओ य अलियं न भणन्ति, ततो चिंतें| तेण णायं जहा माणहत्थित्ति, को य मम माणोः वच्चामि भगवंतं वंदामि ते य साहुणोत्ति, पादे उक्खित्ते केवलनाणं समुप्पण्णं, ताहे गंतूण केवलीपरिसाए ठिओ । ताहे भरहोदि रज्जं भुंजइ, मिरीइवि सामाइयादि एकारस अंगाणि अहिजितो ॥ साम्प्रतमभिहितार्थोपसंहारायेदं गाथासप्तकमाह - बाहुबलिकोवकरणं निवेअणं चक्कि देवया कहणं । नाहम्मेणं जुज्झे दिक्खा पडिमा पन्ना य ॥ ३४९ ॥ पढमं दिट्ठीजुद्धं वायाजुद्धं तहेव बाहाहिं । मुट्ठीहि अ दंडेहि अ सवत्थवि जिप्पए भरहो ॥ ३२ भा. ॥ सो एव जिप्पमाणो विहरो अह नरवई विचितेह। किं मन्ने एस चकी । जह दाणिं दुब्बलो अहह्यं । ॥३३भा. ॥ ••• मूल संपादने अत्र भाष्य गाथा ३२ लिखितं, हारिभद्रिया वृत्ताँ अपि भाष्य गाथा क्रम ३२ एव अलिखित. मलयगिरिजी वृताँ भाष्य-गाथा क्रम ५-३१ न दृश्यते. ताः गाथा: निर्युक्तिरुपेण प्रदर्शिताः | 187 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [३४९], वि०भा गाथा , भाष्यं [३२-३७], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक अपोदार-18|संवच्छरेण अं अमृहलक्खो उ पेसए अरहा। हत्थीओओ अरत्ति अ वुत्ते चिंता पए नाणं ॥ ३४ भा.॥ बाहुबलि नियुक्ति उत्पन्ननाणरयणो तिन्नपइण्णो जिणस्स पयमूले । गंतुं तित्थं नमिर्ड केवलिपरिसाइ आसीणो॥ ३५ भा.॥ नो दीक्षा ३२ काऊण एगछत्तं, भरहोऽवि अ मुंजए विउलभोए। मरिईवि सामिपासे विहरह तवसंजमसमग्गो ॥३६भा.॥ केवलंच सामाइअमाई इकारसमा उ जाव अंगाओ। उज्जुत्तो भत्तिगओ अहिन्जिओ सो गुरुसगासे ॥ ३७ भा.॥ | आसामभिहितार्थानामसम्मोहार्थमक्षरगमनिका प्रदर्श्यते, भरतसंदेशाकर्णने सति वाहुबलिनः कोपकरणं, तनिवेदनं | चक्रवर्तिभरताय दूतेन कृतं, 'देवयत्ति युद्धे जीयमानेन भरतेन किमयं चक्रवर्ती न त्वहमिति चिन्तिते देवता आग-18 तेति, 'कहणीति बाहुबलिना परिणामदारुणान् भोगान् पर्यालोच्य कथनं कृतम्-अलं मे राज्येनेति, तथा चाह-नाध-1 दार्मेण युध्य इति, दीक्षा तेन गृहीता, अनुत्पन्नज्ञानः कथमई ज्यायान् लघीयसो द्रक्ष्यामीत्यभिसन्धाय प्रतिमा अङ्गी कृता, प्रतिज्ञा च कृता नामादनुत्पन्नज्ञानो यास्वामीति नियुक्तिगाथा । शेषास्तु भाष्यगाथाः, तयोश्च भरतबाहुबलिनोः131 प्रथमं दृष्टियुद्धं पुनर्वाग्युद्धं तथैव बाहुम्यां मुष्टिमिश्च दण्डैश्च, सर्वत्रापि सर्वेषु युद्धेषु जीयते भरता, स एवं जीवमानो| दाविधुरोध नरपतिर्विचिन्तितवान-किं मन्ये एष चक्रवची यत इदानी दुर्बलोऽहमिति, कायोत्सर्गावस्थिते भगवति बाहु-17 बलिनि संवत्सरेण घूतां अमूढलवस्तु प्रेषितवानईन्-यादितीर्थकरः, हस्तिनः अवतरत इति चोके चिन्ता तस्य जाता, यामीति सम्पपार्य 'पद' इति पदोत्येपे ज्ञानमुत्पन्न मिति । उत्पन्नज्ञानरलस्तीर्णपतिज्ञो जिनस्य पादमूले मत्वा केवलिपर्षदं गत्वा वीर्षजत्वा यासीनः । बत्रान्तरे कृत्वा एकच्छचं, भुवनमिति वाक्यशेषः, भरतोऽपि च.मुळे विपुलभोगान्, दीप अनुक्रम actim ForFive Persanamory ... अथ बाहुबले: दीक्षा एवं केवलज्ञान-अधिकार: ~188 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३५०-३५३], वि०भा०गाथा , भाष्यं [३२-३७], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: D प्रत सत्रांक मरीचिरपि स्वामिपाचे विहरति तपःसंवमसमग्र, सच सामाविवादिकं एकादशमहं यावत् उद्युक्त क्रियायां भकि गतो भगवति श्रुते वा अघीतवान् स गुरुसकाश इत्युपन्यस्तगावाः ॥ अह अन्नया कयाइ गिम्दे उण्हेण परिमयसरीरो। अण्डाणएण चहओ इमं कुलिंग विचितेह ॥ ३५॥ | गमनिका-'अथे त्यानन्तये कदाचिद-एकस्मिन् काले श्रीमे उष्णेन परिगतशरीरः अस्त्रानेनेति-अस्वानपरीपहेण त्याजितः संयमात् एतत्कुलिङ्ग-चक्ष्वमा विचिन्तयतीति गाथार्थः॥ मेरुगिरीसमभारे न हुवि समत्वो मुहुत्तमवि वोढुं । सामन्नए गुणे गुणरहिओ संसारमणुकंखी ॥३५१॥ 12 गाथागमनिका-मेरुगिरिसमो मारो येषां वे तथाविधास्तान् नैव समर्थों मुहूर्तमपि वोढुं, कान -श्रमणानामेते श्रामणाः, के ते?-गुणाः-विशिष्टक्षान्त्यादयस्तान्, कुतो !, यतो घृत्यादिगुणरहितोऽहं संसारानुकाङ्क्षीति गाथार्थः ।। सततच किं मम युज्यते !, गृहस्थत्वं तावनुचितं, श्रमणगुणानुपालनमप्यशक्यम् , . एवमणुचिंतयंतस्स तस्स निमा मई समुप्पना । लदो मए उवाओ जाया मे सासया बुद्धी ॥ ३५२ ॥ "एवं'मुक्केन प्रकारेणानुचिन्तयतवस निजामतिः समुत्पन्ना, न परोपदेशेन, सोवं चिन्तयामास-लब्धो मया वर्चमानकालोचितः खलूपायो, जावा मम शान्यता बुद्धिः, 'शान्यते' त्याकालिकी, प्रायो निरवद्यजीविकाहेतुत्वादिति गाथार्थः॥ यदुक्तमिदं कुलिनं अचिन्तयत् तत्प्रदर्शनायाहसमणा तिदंडविरया भगवंतो निहुअसंकइनामंगा। अजिइंदिअदंडस्स होउ तिमहं चिंध ॥ ३५३ ॥ दीप अनुक्रम BACCALCALCACCESS SCRECRACANOAAS.SAKC Jan Sywsanelionary.org ... अथ मरिचे: परिव्राजकत्व-अधिकार: विस्तार्यते ~189~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३५४-३५६], विभागाथा ], भाष्यं [३७...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्धातनियुक्तिः प्रत A गाथागमनिका-श्रमणा मनोवाक्कायलक्षणत्रिदण्डविरताः ऐश्चयोंदिभगयोगाद्भगवन्तः निभृतानि-अन्तःकरणान्य- मरीचे शुभव्यापारपरित्यागात् सङ्कचितानि-अशुभकायव्यापारपरित्यागादङ्गानि येषां ते तथोच्यन्ते, अहं तु नैवंविधो, यतः|| पारिव्रज्य 'अजितेन्द्रियेत्यादि न जितानि इन्द्रियाणि-चक्षुरादीनि दण्डाश्च-मनोवाकायलक्षणा येन स तथोच्यते, तस्याजितेन्द्रियदण्डस्य तु त्रिदण्डं मम चिन्हं अविस्मरणार्थमिति गाथार्थः ॥ तथा लोइंदियमुंडा संजया उ अहयं खुरेण ससिहो अ । थूलगपाणिवहाओ रमणं मे सया होउ ।। ३५४ ॥ गाथागमनिका-मुण्डो हि द्विधा भवति-द्रव्यतो भावतश्च, तत्रैते श्रमणा द्रव्यभावमुण्डाः, कथं लोचेनेन्द्रियैश्च मुण्डाः संयतास्तु, अहं पुनर्नेन्द्रियमुण्डः यतः अतोऽलं द्रव्यमुण्डतया, तस्मादहं क्षुरेण मुण्डः सशिखश्च भवामि, IN तथा सर्वप्राणिवधविरताः श्रमणा वर्तन्ते, अहं तु नैवंविधो यतः अतः स्थूलप्राणातिपाताद्विरमणं मे सदा भवविति गाथार्थः। निर्षिचणा य समणा अकिंचणा मज्झ किंचणं होउ । सीलसुगंधा समणा अहयं सीलेण दुग्गंधो ।। ३५५ ॥ ___ गाथागमनिका-निर्गतं किश्चन-हिरण्यादि येभ्यस्ते निष्किञ्चनाश्च श्रमणाः, तथाऽविद्यमान किश्चन-अल्पमपि येषां तेषां 81 अकिश्चना जिनकल्पिकादयः, अहं तु नैवंविधो यतोऽतो मागोविस्मृत्यर्थं मम किञ्चनं भवतु, पवित्रिकावि, तथा शीलेन शोभनो गन्धो येषां ते तथाविधाः श्रमणाः अहं तु शीलेन दुर्गन्धः अतो गन्धनन्दनग्रहणं मे युक्तमिति गाथार्थः ॥ तथावषगयमोहा समणा मोहच्छन्नस्स छत्तयं होउ । अणुवाणहा य समणां मज्झं तु उवाणहे हुन्तु ॥ ३५६ ॥ दीप अनुक्रम ctors Jand K a msannlinrary.orm ~190~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्ति: [३५७-३५९], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [३७] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education International गाथागमनिका - व्यपगतो मोहो येषां ते व्यपगतमोहाः श्रमणाः, अहं तु नेत्थं यतः अतो मोहाच्छादितस्य छत्रके भवतु, अनुपानत्काश्च श्रमणाः मम चोपानहौ भवत इति गाथार्थः ॥ तथा- सुकंवरा य समणा निरंबरा मज्झ धाउरत्ताहं । हुंतु हमे वत्थाई अरिहो मि कसायकलुसमई ॥ ३५७ ।। गाथागमनिका - शुक्लान्यम्बराणि येषां ते शुक्लाम्बराः श्रमणाः, तथा निर्गतमम्बरं येषां ते निरम्बराः-जिन कल्पिकादयः, 'मज्झति मम च एते श्रमणा इत्यनेन तत्कालोत्पन्नतापसश्रमणव्युदासः, धातुरक्तानि भवन्तु मम वस्त्राणि, किमिति १, अर्होऽस्मि योग्योऽस्मि तेषामेव, कषायैः कलुषा मतिर्यस्य सोऽहं कपायक लुपमतिरिति गाथार्थः ॥ ववभीरू बहुजीवसमाउलं जलारंभं । होउ मम परिमिएणं जलेण पहाणं च पिअणं च ॥ ३५८ ॥ गाथागमनिका - वर्जयन्त्यवद्यभीरवो बहुजीवसमाकुलं जलारम्भं तत्रैव वनस्पतेरवस्थानात्, अवधं पापं, अहं तु नेत्थं यतः अतो भवतु मे परिमितेन जलेन स्नानं च पानं चेति गाथार्थः ॥ एवं सोरुमईनिअगमविगप्पिअं इमं लिंगं । तद्विअहेउसुजुत्तं पारिवज्जं तओ कासी ॥ ३५९ ॥ स्थूलमृषावादादिनिवृत्तः, एवमसौ रुचिता मतिर्यस्य असौ रुचितमतिः, अतो निजमत्या विकल्पितं निजमतिविकल्पितम्, इदं लिङ्गं विशिष्टं, तस्य हितास्तद्धिताः तद्धिताश्च हेतवश्चेति समासः तैः सुष्ठु युक्तं श्लिष्टमित्यर्थः परिब्राजानामिदं पारिव्राजं प्रवर्धयति, शास्त्रकारवचनात् वर्त्तमाननिर्देशोऽप्यविरुद्ध एव, पाठान्तरं वा 'पारिवज्जं ततो कासित्ति पारिव्राजं ततः कृतवानिति गायार्थः ॥ भगवता च सह विजहार, तं च साधुमध्ये विजातीयं दृष्ट्वा कौतुकालोकः पृष्टवान्, तथा चाह Far Pavoce & Personal Use Ony ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३६०-३६१], विभागाथा ], भाष्यं [३७...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्घात प्रत सत्राक दीप अनुक्रम अह तं पागडरूवं दर्दु पुच्छेइ बहुजनो धम्म । कहा जणं तो सो विआलणे तस्स परिकहणा ॥३८८ स्वामिना नियुक्तिः अथ तं प्रकटरूपं विजातीयत्वात् दृष्ट्या पृच्छति बहुर्जनो धर्म, कथयति यतीनां सम्वन्धिभूतं शान्त्यादिलक्षणं । सहविहार ततोऽसाविति, लोका भणन्ति-बद्यवं श्रेष्ठो भवता किं नाङ्गीकृत इति विचारणे, तस्य परिः-समन्तात् कथना लोकानां ॥२३४॥ परिकथना-श्रमणाः त्रिदण्डविरता इत्यादिलवाया, पृच्छतीति त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थत्वादेवं निर्देशः, पाठा- बोधः न्तरं वा 'अह तं पागडत्वं दई पुछि बहुजणो धम्म । कहती सुजतीणं सो वियालणे तस्स परिकहणा ॥ प्रवर्चत इति गाथार्थः, धम्मकहाअक्खित्ते उवट्ठिए देह भगवनो सीसे। गामनगरागराई विहरइ सो सामिणा सद्धिं ॥ ३०॥lel धर्मकथाक्षितान् उपस्थितान् ददाति भगवतः शिष्यान् , ग्रामनगरादीन् विहरति स स्वामिना सार्द्ध, भावार्थः सुगमः ॥ इत्थं निर्देशप्रयोजनं पूर्वक्द्, अन्यकारवचनत्वाद्वा अदोष इति गाथार्थः ॥ अन्यदा भगवान् विहरमाणो अष्टापदमनुप्राप्तवान् , तत्र च समवस्तः, भरतोऽपि धातृप्रवज्याकर्णनात् सातमनस्तापोऽधृतिं चक्रे, कदाचिगोगादीन् दीयमानान पुनरपि गृहन्तीत्वालोच्य भगवत्समीपं चागम्य निमन्त्रयंश्च तान् भोगैर्निराकृतश्चिन्तयामास एतेषामेवेदानी परित्यक्तसङ्गानां बाहारदानेऽपि तावद्धर्मानुष्ठानं करोमीति पञ्चभिः शकटशतैर्विचित्रमाहारमानाय्योपK निमच्याधाकर्माहतं च न कल्पते बतीनामिति प्रतिषिद्धेकृतकारितेनान्येन निमन्त्रितवान, राजपिण्डोऽप्यकल्प नीय इति प्रतिषिद्धः, सर्वप्रकारैरहं ममवता परिलक इति सुतरामुन्मावितो. बमूक, तमुन्माषितं विज्ञाय देवराद र G ॥२३४॥ EIN wwsannlinrary.orm ... मूल संपादने अत्र गाथा-क्रमांक ३८८ इति मुद्रितं, तत् किञ्चित् मुद्रण स्खलना संभाव्यते | क्रमानुसार अत्र गाथा-क्रम ३६० वर्तते, हारिभद्र्य वृत्ती '३६०' एव अलिखित | ~192 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३६०-३६१], विभागाथा ], भाष्यं [३७...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक है तच्छोकोपशान्तये भगवन्तमवप्रहं पप्रच्छ-कतिविधः अवग्रह इति, भगवानाह-पञ्चविधोऽवग्रहः, तद्यथा-देवेन्द्रावग्रहो । राजावग्रहो गृहपत्यवग्रहः सागारिकावग्रहः साधम्मिकावग्रहश्च, तत्र देवेन्द्रः-सौधर्माधिपतिः, राजा भरताधिपो गृह्यते, गृहपतिः-माण्डलिको राजा, सागारिक:-शय्यातरः, साधम्मिकः संयत इति, एतेषां चोत्तरोत्तरेण पूर्वः पूर्वो बाधितो द्रष्टव्य इति, यथा राजावग्रहेण देवेन्द्रावग्रहो बाधित इत्यादि प्ररूपिते देवराडाह-भगवन् ! य एते श्रमणा मदीयावग्रहे विचरन्ति तेषां मयाऽवग्रहोऽनुज्ञात इत्येवमभिधायाभिवन्द्य च भगवन्तं तस्थौ, भरतोऽचिन्तयद्-अहमपि स्वकीयमवग्रहमनुजानामीत्येतावताऽपि नः कृतार्थता भवतु, भगवत्समीपेऽनुज्ञातावग्रहः शक्र पृष्टवान्-भक्तपानमिदमानीतम् अनेन किं कार्यमिति, देवराडाह-गुणोत्तरान् पूजयस्व, सोऽचिन्तयत्-के मम साधुव्यतिरेकेण जात्यादिभिरुत्तराः!, पोलोचयता ज्ञात-श्रावका विरताविरतत्वाद् गुणोत्तराः, तेभ्यो दचमिति, पुनर्भरतो देवेन्द्ररूपं भास्वरमाकृतिमत् दादृष्ट्वा पृष्टवान-किं यूयमेवभूतेन रूपेण देवलोके तिष्ठतेति ? उत नेति, देवराट् आह-नेति, तन्मानुपैट्रेष्टुमपि न सापायेंते, भास्वरत्वात्, पुनरप्याह भरत:-तस्याकृतिमात्रेणास्माकं कौतुकं तन्निदश्यतां, देवराज आह-स्वमुत्तमपुरुष ठा इतिकृत्वैकमावयवं दर्शयामीत्यभिधाय योग्यालङ्कारविभूषितामङ्गुलीमत्यन्तभास्वरामदर्शयत्, दृष्ट्वा च तां भरतोदावीव मुमुदे, शक्राङ्गुली च स्थापयित्वा महिमाष्टाहिका चक्रे, ततः प्रभृति शकोत्सवः प्रवृत्त इति, भरतश्च श्रावकाना योक्तवान्-भवद्भिः प्रतिदिनं मदीयं भोक्तव्यं १ कृप्यादि चन कार्य २ स्वाध्यायपरैरासितव्यं ३ भुक्के च मदीय|| गृहद्वारासन्नव्यवस्थितैर्वतव्यम्-जितो भवान् बर्द्धते भयं तस्मान्मा हनमा हनेति ४, ते तथैव कृतवन्तः, भरतश्च रतिसा-15 दीप अनुक्रम H टकटकर-CA आ.स.४० iwsaneliterary.com ~1937 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३६२], वि०भा०गाथा , भाष्यं [३७...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत र- दीप अनुक्रम उपोदात-सुगरावगाढत्वात् प्रमत्तत्वात् तच्छन्दाकर्णनोत्तरकालमेव केनाहं जित इति !, आ ज्ञात-कषायैः, तेभ्य एव वर्द्धते भय-18||अवगृहदानियुक्ति मित्यालोचनापूर्वक संवेग यातवानिति, अत्रान्तरे लोकवाहुल्यात् सूपकाराः पाकं कर्तुमशक्नुवन्तो भरताय निवेदि- नं शकी तवन्तः नेह ज्ञायते का श्रावकः? को वा नेतीति, लोकस्य प्रचुरत्वात् , आह भरत:-पृच्छापूर्वकं देयमिति, ततस्तान्त्स ॥२३५॥ वः वा. पृष्टवन्तस्ते-को भवान् !, श्रावकः, श्रावकाणां कति व्रतानि !, स आह-श्रावकाणां न सन्ति व्रतानि, किन्तु अस्माकं 8|| हाणा पञ्चाणुव्रतानि, कति । शिक्षाब्रतानि, ते उत्तवन्तः-सप्त शिक्षाब्रतानि, य एवंभूतास्ते राज्ञो निवेदिताः, स च काकणीरलेन तान् लाञ्छितवान्, पुनः षण्मासेन योग्या भवन्ति तानपि लाञ्छितवान्, पण्मासकालाननुयोगं कृतवान्, एवं ब्राह्मणाः सञ्जाता इति, ते च स्वसुतान् साधुभ्यो दत्तवन्तः, ते च प्रव्रज्यां चक्रुः, परीषहभीरवस्तु श्रावका एवासन्निति । इयं च भरतराज्यस्थितिः, आदित्ययशसस्तु काकणीरलं नासीत्, सुवर्णमयानि यज्ञोपवीतानि कृतवान् , महायशःप्रभृतयस्तु केचन रूप्यमयानि केचन विचित्रपट्टसूत्रमयानीत्येवं यज्ञोपवीतप्रसिद्धिः।। अमुमेवार्थ समोसरणेत्यादिगाथया प्रतिपादयति समुसरण भत्त उग्गह अंगुलि झय सक सावया अहिया। जेया बद्धइ कागिणिलंछण अणुसज्वणा अह ॥ ३६२॥ समवसरणं भगवतोऽष्टापदे खल्वासीत्, भकं भरतेनानीतं, तदग्रहणोन्माथिते सति भरते देवेशो भगवन्तमवग्रह पृष्टवान, भगवांश्च तस्मै प्रतिपादितवान्, 'अंगुलिय'त्ति भरतनृपतिना देवलोकनिवासिरूपपृच्छायां कृतायामिन्द्रेणालिदर्शिता, तत एवारम्य ध्वजोत्सवः प्रवृत्तः, 'सक्कति भरतनृपतिना किमनेनाहारेण कार्यमिति पृष्टः शक्रोऽमिहित XXCCCC ॥२३५॥ ForPaves Poranaatmory M ainsannlinrary.org ~194 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३६३-३६६], विभागाथा ], भाष्यं [३७...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक वान्-खदधिकम्यो दीयतामिति, पर्यालोचयता ज्ञात-श्रावका अधिका इति, 'या वहईति प्राकृतशैस्या जितो भवान् वर्द्धते भयं भुक्तोत्तरकालं च ते रक्तवन्ता, 'कागणिलंछणत्ति' प्रचुरत्वात् कोकणीरतेन लाञ्छन-चिहं तेषां कृतमासीद, 'अणुसजणा अट्ठति अष्टौ पुरुषान् यावदयं धर्मः प्रवृत्ता, अष्टौ वा तीर्थकरान् यावदिति गाथार्थः ।। तत ऊर्ध्व मिथ्यात्वमुपगता इति । राया आइचजसे महाजसे अइबले अबलभरे । बलविरिअ कत्तविरिए जलविरिए दंडविरिए अ॥ ३१ ॥ भावार्थः सुगम एव, इति गाधार्थः॥ एएहिं अद्धभरहं सयलं भुत्तं सिरेण धरिओ अपवरो जिर्णिदमउडो सेसेहिं न चाइओ पोडं ॥ ३६४ ॥ एभिरर्द्धभरतं सकलं भुकं, शिरसा धृतश्च, कोऽसावित्याह-प्रवरो जिनेन्द्रमुकुटो देवेन्द्रोपनीतः, शेषैर्नरपतिभिर्न शकितो वोढुं, महाप्रमाणत्वादिति गाधार्थः।। | अस्सावगपडिसेहो छट्टे छटे अमासि अणुओगो। कालेण य मिच्छत्तं जिणंतरे साहुबुच्छेओ ॥ ३६५ ॥ अश्रावकाणां प्रतिषेधः कृतः, ऊर्ध्वमपि षष्ठे षष्ठे मासेऽनुयोगो बभूव, अनुयोगः-परीक्षा, कालेन गच्छता मिथ्यात्वमुपगताः, कदा, नवमजिनान्तरे, किमिति !, यतस्तत्र साधुव्यवच्छेद आसीदिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमनुकाप्रतिपादनपरां सङ्ग्रहगाथामाहदाणं च माहणाणं वेए कासी अ पुच्छ निषाणं | कुंडा यूम जिणधरे कविलो भरहस्स दिक्खा य ॥३६॥ दीप अनुक्रम CALCCC ~195 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सत्राक “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३६७-३६८], विभागाथा ], भाष्यं [३७...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: I उपोदात-13 दानं च माहनानां लोको दातुं प्रवृत्तो, भरतपूजितत्वात् , 'वेदे कासी यचि' आर्यान् वेदान् कृतवांश्च भरत एव, वेदोत्पति नियुक्तिः तत्स्वाध्यायनिमित्तमिति, तीर्थकरस्तुतिरूपान् श्रावकधर्मप्रतिपादकांच, अनार्यास्तु पश्चात्सुलसयाज्ञवल्कादिभिः कृता यादी इति, 'पुच्छत्ति भरतो भगवन्तमष्टापदसमस्तमेवं पृष्टवान् यादृग्भूता यूयमेवंविधाः तीर्थकृतः कियन्तः खल्विह ॥२३६॥ नां पृच्च भविष्यन्तीत्यादि, 'निबाण'त्ति भगवानष्टापदे निर्वाणं प्राप्तो, देवरग्निकुण्डानि कृतानि, स्तूपाः कृताः, जिनगृहं भरतश्च कार, कपिलो मरीचिसकाशे निष्क्रान्तः, भरतस्य दीक्षा च संवृत्तेति समुदायाः ॥ अवयवार्थ उच्यते-आद्यावयवद्वयं है व्याख्यातमेव, पृच्छावयवार्थ पुणरवियेत्यादिनाऽऽहपुणरवि अ समोसरणे पुच्छीअ जिणं तु चक्विणो भरहे । अप्पुट्ठो अ दसारे तित्ययरो को इहं भरहे ? ॥३६७ ॥ पुनरपि च समवसरणे पृष्टवांश्च जिनं तु चक्रवती भरतः, चक्रवचिन इत्युपलक्षणं तीर्थकृतश्चेति, भरतविशेषणं वा, चक्री भारतांस्तीर्थकरादीन् पृष्टवान्, पाठान्तरं वा 'पुच्छी य जिणे य चक्विणो भरहे' पृष्टवान् जिनांश्चक्रवर्तिनश्च भरतः, चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, भगवानपि तान् कथितवान्, तथा अपृष्टश्च दशारान्, तथा तीर्थकरः क इह । भरतेऽस्यां परिषदीति पृष्टवान् , भगवानपि मरीचिं कथितवानिति गाथाक्षरार्थः ॥ तथा चाह नियुक्तिकारः ॥२३६॥ जिण-वकि-दसाराणं वण्ण-पमाणाई नामगुत्ताई । आउपुरमाह पिअरो परिआय गई च साही ॥३६८॥ जिनचकिदशाराणां-जिनचक्रवर्तिवासुदेवानामित्यर्थः वर्णप्रमाणानि, तथा नामगोत्राणि, तथा आयु:पुराणि माता दीप अनुक्रम 6 Hatantra ForPrvices Poranaatmory ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३६९-३७३], विभा गाथा -1, भाष्यं [३८], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक BARAMAKAKAR पितरौ यथासम्भव पर्यायं गतिं च, चशब्दाजिनानामन्तराणि च पृष्टवानिति द्वारगाथासमासार्थः, अवयवार्थ तु वक्ष्यामः ॥ तत्र प्रश्नावयवमधिकृत्य तावदाह भाष्यकार:जारिसया लोअगुरू भरहे वासम्मि केवली तुम्हे। एरिसया कइ अन्ने ताया! होहिंति तित्थयरा ? ॥३८ मा. | यादृशा लोकगुरवो भारते वर्षे केवलिनो यूयमीदृशाः कियन्तोऽन्येऽत्रैव तात ! भविष्यन्ति तीर्थकरा इति गाथार्थः॥ अह भणइ जिणवरिंदो भरहे वासम्मि जारिसो उ अहं । एरिसया तेवीसं अन्ने होहिंति तित्ययरा ॥ ३६९ ॥ निगदसिद्धा ॥ ते चैते होहिह अजिओ संभव अभिनंदण सुमइ सुप्पह सुपासो। ससि पुष्पदंत सीअल सिजंसो वासुपुज्जो अ॥ ३७॥ विमलमणतइ धम्मो सन्ती कुंधू अरो अ मल्ली । मुणिमुखय नमि नेमी पासो तह वद्धमाणो अ॥ ३७१ ॥ | भावार्थः सुगम एव । अह भणइ नरवरिंदो भरहे चासम्मि जारिसो उ अहं । तारिसया कइ अन्ने ताया होहिंति रायाणो ? ॥३७॥ सा अथ भणति नरवरेन्द्रो भरतः-भारते वर्षे यादृशस्त्वहं तादृशाः कत्यन्ये तात | भविष्यन्ति राजान इति गाथार्थः॥ ४ अह भणइ जिणवरिंदो जारिसओ तं नरिंदसलो । तारिसया उइगारस अन्ने होहिंति रायाणो ॥ ३७३ ॥ दीप अनुक्रम NAGACCOCALCCACHAR ... अथ भावि तीर्थकर-आदीनां वर्णनं क्रियते ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३७४-३७५], विभा गाथा H, भाष्यं [३९-४१], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्घात प्रत ॥३७॥ दीप अनुक्रम अथ भणति जिनवरेन्द्रो यादृशस्त्वं नरेन्द्रशार्दूला, शार्दूल:-सिंहपर्यायः, ईदृशा एकादश अन्ये भविष्यन्ति/जिनचक्रिराजानः ॥ते चैते वासुदेव होही सगरो मघवं सणकुमारो य रायसद्दलो। संती कुंथू य अरो हवइ सुभूमो य कोरयो ॥ ३७४॥ लदेवादिनवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसलो। जयनामो अ नरवई बारसमो यंभदत्तो अ॥ ३७॥ निर्देशः गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव ॥ यदुक्तमपृष्टश्च दशारान् कथितवान् , तदभिधित्सयाऽऽह भाष्यकार:होहिंति वासुदेवा नव अन्ने नील-पीअकोसिज्जा । हलमुसलचकजोही सतालगरुलज्झया दो दो॥३९ भा.॥ भविष्यन्ति वासुदेवा नव,नव बलदेवाश्चानुक्का अप्यत्र तत्सहचरत्वात् द्रष्टव्याः, यतो वक्ष्यति 'सतालगरुलद्धया दो दो, ते च सर्वे बलदेवा वासुदेवा यथासङ्ख्यं नीलानि पीतानि च कौशेयानि वस्त्राणि येषां ते तथाविधा, यथासङ्ख्यमेव हलमुशलचक्रयोधिना, हलमुशलयोधिनो बलदेवाः, चक्रयोधिनो वासुदेवा इति, सह सालगरुडध्वजाभ्यां वर्तन्त | इति सतालगरुडध्वजाः, एते च भवन्तो युगपद् द्वौ द्वौ भविष्यतः बलदेववासुदेवाविति गाथार्थः॥ वासुदेवानामभिधानप्रतिपादनायाह तिविट्ठो प दुविट्ठो य सयंभु पुरिसुत्तमे पुरिससीहे। तह पुरिसपुंडरा दत्ते नारायणे कण्हे ॥४.भा.॥ INT॥२३७० निगदसिद्धा ॥ अधुना बलदेवानामभिधानप्रतिपादनायाह अपले विजए भरे, सुप्पमे य सुदंसणे । आणंदे नंदणे पड़मे, रामे यावि अपच्छिमे ॥ ४१ भा.॥ ACTOR ForFive Persanamory Priwsannlionary.orm. ~198~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ३७६-३७९ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित . आगमसूत्र [४०], Jan Education Irenabonal वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ ४२-४३], मूल [- / गाथा-] मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः निगदसिद्धा ॥ वासुदेवशत्रुप्रतिपादनायाह आसग्गीवे तार मेरय महुकेढवे निसुंभे य । बलि पल्हाए तह रावणे य नवमे जरासिंधू ॥ ४२ भा. ॥ निगदसिद्धा एव ॥ एए खलु पाडसत्तू कितीपुरिसाण वासुदेवाणं । सवेऽवि चक्कजोही सवेऽवि हया सचकेहिं ॥ ४३ भा. ॥ गमनिका - एते खलु प्रतिशत्रवः, एत एव, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, नान्ये, कीर्त्तिपुरुषाणां - वासुदेवानां सर्वे च चक्रयोधिनः सर्वे च हताः स्वचक्रे रिति, यतस्तान्येव चक्राणि वासुदेवव्यापत्तये क्षिप्तानि तैः पुण्योदयाद्वासुदेवं प्रणम्य | तानेव व्यापादयन्तीति गाथार्थः ॥ एवं तावत्प्रागुपन्यस्तगाथायां वर्णादिद्वारोपन्यासं परित्यज्य असम्मोहार्थमुत्क्रमेण जिनादीनां नामद्वारमुक्तम्, पारभविकं चैषां वर्णनाममातापितृपुरादिकं प्रथमानुयोगतोऽवसेयम्, इह विस्तरभयान्नोकमिति । साम्प्रतं तीर्थकरवर्णप्रतिपादनायाह पउमाभ वासुपूज्लो रत्ता ससिपुप्फदंत ससिगोरा । सुइयनेमी काला पासो मल्ली पिगंगाभा ॥ ३७६ ॥ वरणगत विघगोरा सोलस तित्थंकरा मुणेयवा । एसो वण्णविभागो चवीसाए जिणवराणं ॥ ३७७ ॥ गाथाद्वयं सूत्रसिद्धम् ॥ साम्प्रतं तीर्थकराणामेव प्रमाणाभिधित्सयाह पंचे अपंचम चत्तारजुङ तह तिगं चेव । अहाइजा दुनि य दिवहुमेगं धणुस च ॥ ३७८ ॥ म असी सतरि सट्ठी पन्नास होइ नायवा । पणपाल चत्त पणतीस तीस पणवीस वीसा य ॥ ३७९ ॥ For Peace & Personal Use Ony ~ 199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३८०-३८८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [४३...], मूलं /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत जिनानां वर्णप्रमाणगोत्रपुर मातापितरः सत्राक उपोद्घात-13 पन्नरस दस घणि य नव पासो सत्तरयणिओ वीरो।नामा पुवुत्ता खलु तित्थयराणं मुणेयत्वा ।। २८०॥ नियुक्तिः पतास्तिस्रोऽपि पाटसिद्धा एव ॥ साम्प्रतं भगवतामेव गोत्राणि प्रतिपादयन्नाह मुणिसुबओ य अरिहा अरिहनेमी य गोयमसगुत्ता । सेसा तित्थयरा खलु कासवगुत्ता मुणेयवा ।। ३८१॥ ॥२३८॥ निगदसिद्धा ॥ आयुष्कानि प्राक् प्रतिपादितान्येवेति न तन्यन्ते, भगवतामेव पुरप्रतिपादनाय गाथात्रितयमाहइक्खागभूमी उज्झा सावत्थी विणीअ कोसलपुरं च । कोसंबी वाणारसि चंदाणण तह य कायंदी॥ ३८२॥ भद्दिलपुरं सीहपुरं चंपा कंपिल्ल उज्ज्ञ रयणपुरं । तिन्नेव गयपुरम्मी मिहिला तह चेव रायगिहं ॥ ३८३ ॥ | मिहिला सोरियनयरं वाणारसि तह य होइ कुंडपुरं । उसभाईण जिणाणं जम्मणभूमी जहासंखं ॥ ३८४ ॥ निगदसिद्धाः ॥ भगवतामेव मातृप्रतिपादनायाहपरुदेवि विजया सेणा सिद्धत्था मंगला सुसीमा य । पुहवी लक्खण रामा नंदा विण्हू जया सामा ॥ ३८५। सुनसा सुखप अइरा, सिरिदेवी य पभाव३ । पउमावई य वप्पा, सिव वम्मा तिसलया इज ॥ ३८३ ॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव ॥ भगवतामेव पितृप्रतिपादनायाहन.भी जिअसत् अ, जिआरी संवरे इन। मेहे घरे पट्टे अ, महासेणे अ खत्तिए ॥ ३८७ ।। सूरे सुदंसणे कुंभे सुमित्त विजए समुद्दविजए अ। राया य अस्ससेणे सिदत्येवि अ खत्तिए । ३८८॥ निगदसिद्धा। पर्यायो-गृहस्थादिपर्यायो भगवतामुक्त एव तथैव द्रष्टव्यः। साम्प्रतं भगवतामेव गतिप्रतिपादनायाह दीप अनुक्रम २३८॥ Jan de Miwsansliterary.org ... अथ जिनेश्वराणां माता, पिता इत्यादीनां वर्णनं ~200~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्ति: [३८९-३९७], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ४३...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः sa गया मुक्खं जाइ-जरा-मरणबंधणविमुक्का । तित्थयरा भगवंतो सासयसुक्खं निरावाहं ॥ ३८९ ॥ निगदसिद्धा ॥ एवं तावत् तीर्थकरानङ्गीकृत्य प्रतिद्वारगाथा व्याख्याता, इदानीं चक्रवर्त्तिनोऽङ्गीकृत्य व्याख्यायते, एतेषामपि पूर्वभववक्तव्यतानिबद्धं च्यवनादि प्रथमानुयोगादवसेयम्, साम्प्रतं चक्रवत्तिवर्णप्रमाणप्रतिपादनायाह saraar निम्मलकणगप्पभा मुणेअधा । छक्खंडभरहसामी तेसि पमाणं अओ पुच्छं ॥ ३९९ ॥ पंचसय अद्धपंचम वायालीसा य अद्धघणुअं च । इगुआलघणुस्सद्धं च चउत्थे पंचमे सत्त ॥ ३९२ ॥ पणतीसा तीसा पुण अट्ठावीसा य वीसइ घणूणि । पन्नरस बारसेव य अपच्छिमो सत्त य घणूणि ॥ ३९३॥ निगदसिद्धाः ॥ नामानि प्राक् प्रतिपादितान्येव, साम्प्रतं चक्रवर्त्तिगोत्रप्रतिपादनायाह- कासवत्ता सधे चउदसरयणाहिवा समक्खाया। देविंदवंदि एहिं जिणेहिं जिअराग दोसेहिं ॥ ३९४ ॥ सूत्रसिद्धा ॥ साम्प्रतं चक्रवर्त्त्यायुष्कप्रतिपादनायाह चउरासीई यावत्तरी अ पुद्दाण सयसहस्साई । पंच य तिन्निय एवं च सयसहस्सा व वासाणं ॥ ३९५ ॥ पंचाणइ सहस्सा चउरासीई अ अट्टमे सट्ठी । तीसा य दस य तिन्निय अपच्छिमे सत्त वाससया ॥ ३९६ ॥ गाथाद्वयं पठितसिद्धम् ॥ इदानीं चक्रवर्त्तिनां पुरप्रतिपादनायाहजम्मण विणी उज्झा सावत्थी पंच हत्थिणपुरस्मि । वाराणसि कंपिल्ले रायगिहे चैव कंपिल्ले ॥ ३९७ ॥ निगदसिद्धा एव ॥ साम्प्रतं चक्रवर्तिगातृप्रतिपादनायाह ין For Peace & Personal Use Ony ~ 201~ wanlibrary.org Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [३९८-४०४], विभागाथा ], भाज्यं [४३...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्घातनियुक्तिः प्रत ॥३९॥ सुमंगला जसवई महा सहदेवि आइर सिरिदेवी। तारा जाला मेरा य वप्पगा तहय चुल्लणी अ॥३९८॥ जिनानां निगदसिद्धा ॥ साम्प्रतं चक्रवर्तिपितृप्रतिपादनायाह गतिः च. उसभे सुमित्तविजए समुद्दविजए अ अस्ससेणे य । तह वीससेण सूरे सुदंसणे कत्तविरिए अ॥ ३९९॥ क्रिणां वर्णपउमुत्सरे महाहरी विजए राया तहेव चंभे य । ओसप्पिणी इमीसे पिउनामा चक्कवहीणं ॥४०॥ प्रमाणगो गाथाद्वयं निगदसिद्धं ॥ पर्यायः केपाश्चित्प्रथमानुयोगतोऽवसेयः, केषांचित्प्रव्रज्याऽभावान्न विद्यते एवेति ॥ साम्प्रतंत्रायुःपुर|चक्रवर्तिगतिप्रतिपादनायाह मातृपितृपअहेव गया मुक्खं मुहुमो भो य सत्तर्मि पुढर्वि। मघवं-सर्णकुमारा सणकुमारं गया कप्पं ॥४०१॥ 12 निगदसिद्धा ॥ एवं तावच्चक्रवर्तिनोऽप्यधिकृत्य व्याख्याता प्रतिद्वारगाथा, इदानी वासुदेवबलदेवाङ्गीकरणतो व्याख्यायते, एतेषामपि च पूर्वभववकव्यतानिवद्धं च्यवनादि प्रथमानुयोगत एवापसेयं, साम्प्रतं वासुदेवादीनां । वर्णप्रमाणप्रतिपादनायाह घण्णेण वासुदेवा सन्चे नीला बला य सुकिलया। एएसि देहमाणं घुच्छामि अहाणुपुबीए ॥ ४०२ ॥ पढमो घणूणऽसीई सत्तरि सट्ठी य पन्न पणयाला । अउणत्तीसं च धणू छवीसा सोलस दसेव ॥४०॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धम् ॥ नामानि प्रागभिहितान्येव, साम्प्रतं वासुदेवानां गोत्रप्रतिपादनायाहबलदेव-वासुदेवा अढेव हवंति गोअमसगुत्ता । नारायण-पउमा पुण कासवगुत्ता मुअवा ।। ४०४ ॥ दीप अनुक्रम JanEducatani ~202 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ४०५-४१३ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], Jan Education International वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ४३...], मूलं [- / गाथा-] मूलसूत्र - [१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः निगदसिद्धा ॥ वासुदेवबलदेवानां यथोपन्यासमायुःप्रतिपादनायाह sais बिसरि सट्टी तीसा य दस य लक्खाई । पन्नट्ठिसहस्साइं छप्पन्ना बारसेगं च ॥ ४०५ ॥ पचासी पनतरी अ पन्नट्टि पंचबन्ना य । सप्तरस सयसहस्सा पंचमए आउअं होइ ॥ ४०६ ॥ पंचासह सहस्सा पट्टी चैव तह य पन्नरस । बारस सयाइँ आउँ बलदेवाणं जहासंखं ॥ ४०७ ॥ निगदसिद्धाः ॥ साम्प्रतममीषामेव पुराणि प्रतिपाद्यन्ते, तत्र पोशण बारवइतिगं अस्सपुरं तह य होइ चक्कपुरं । बाणारसि रायगिहं अपच्छिमो जाउ महुराए ॥ ४०८ ॥ निगदसिद्धा । एतेषां मातृपितृप्रतिपादनायाह मिगाव उमा चैव पुहवी सीआ प अम्मया । लच्छिमई सेसमई, केगई देवई इज ॥ ४०९ ॥ महा सुभद्द सुष्पभ सुदंसणा विजय वैजयंती अ । तह य जयंती अपराजिआ य तह रोहिणी चैव ॥ ४१० ॥ हवह पयावह बंभो रुद्दो सोमो सिवो महसिवो य । अग्गिसीहे अ दसरहे नवमे भणिए अ वसुदेवे ॥ ४११ ॥ निगदसिद्धाः ॥ एतेषामेव पर्यायवक्तव्यतामभिधित्सुराहू परिआओ पाभावाओ नत्थि वासुदेवाणं । होइ बलाणं सो पुण पढमणुओगाओ नायको । ४१९ ।। निगदसिद्धैव ॥ एतेषामेव गतिप्रतिपादनायाह एगो सत्तमा पंचय छुट्टीह पंचमी एगो । एगो अ चउत्थीए कण्हो पुण तबपुढव ॥ ४१३ ॥ For Peace & Personal Use Only ~203~ www.sanelibrary.org Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक H दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ २४० ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्ति: [४१४-४१५], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ४३...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः गाथागमनिका एकञ्च सप्तम्यां पञ्च च षष्ट्यां पञ्चम्यामेकः एकश्चतुर्थ्या, कृष्णः पुनस्तृतीयपृथिव्यां यास्यति गतो वेति सर्वत्र क्रियाध्याहारः कार्यः, भावार्थः स्पष्ट एव || वलदेवगतिप्रतिपिपादयिषयाऽऽह--- • अतकडा रामा एगो पुण बंभलोगकप्पम्मि । उववन्नो तत्थ भोए भुत्तुं अयरोवमा दस उ ॥ ४१४ ॥ गमनिका - अष्टान्तकृतो रामाः, 'अन्तकृत' इति ज्ञानावरणीयादिकर्म्मान्तकृतः सिद्धिं गता इत्यर्थः एकः पुनः ब्रह्मलोककल्पे उत्पत्स्यते, उत्पन्नो वेति क्रिया, ततश्च ब्रह्मलोकात् च्युत्वा सेत्स्यति - मोक्षं यास्यति, भारते वर्ष इति गाथार्थः ॥ आह- किमिति सर्वे वासुदेवाः खल्वधोगामिनो रामाचोर्ध्वगामिन इत्याह अनियाणकडा रामा सचेऽवि य केसवा नियाणकडा । उहंगामी रामा केसव सबै अहोगामी ॥ ४१५ ॥ गमनिका -अनिदानकृतो रामाः सर्वेऽपि च केशवा निदानकृतः ऊर्ध्वगामिनो रामाः केशवाः सर्वे अधोगामिनः, भावार्थ: सुगमः, नवरं प्राकृतशैल्या पूर्वापरनिपाते अनिदानकृतो रामा इति, अन्यथाऽकृतनिदाना रामा इति द्रष्टव्यम्, केशवास्तु कृतनिदाना इति गाथार्थः ॥ एवं तावदधिकृतद्वारगाथा 'जिणचक्चिदसाराण' मित्यादिलक्षणा प्रपञ्चतो व्याख्याते १ 'तचो य चचाणं सिज्झिस्सइ भारहे वासे' इति कस्याप्यादर्शस्य पाठमपेक्ष्य व्याख्येयम्, मुद्रित आवश्यके तु 'उववन्नु ततो चइड | सिज्झिस्सइ भारदे वासे' इति व्याख्यातः पाठः, पाठान्तरं तु “डववन्नु तत्थ भोए मोतुं अयरोवमा दस उ ॥ वचो अ चहचाणं इहेव | उस्सप्पिणीइ भरइंमि । भवसिद्धिया ये भयवं सिन्सिस्स कण्टुतित्यंमि ॥ १ ॥” इति सार्धगाथारूपम् तत्रैव । For Pevce & Personal Use Only ~204~ र्यादीनां वर्णप्रमाण गोत्रायु: पुरमाता पितृगति द्वाराणि ॥ २४० ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४१४-४१५], विभागाथा , भाष्यं [४३...], मूलं गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक ति, साम्प्रतं यश्चक्रवती वासुदेवो वा यस्मिन् जिने जिनान्तरे वाऽऽसीत् तत्प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेन जिनान्तरागमनं, तत्रापि तावत् प्रसङ्गत एव कालतो जिनान्तराणि निर्दिश्यन्तेउसमो वरवसभगती ततियसमापच्छिमंमि कालंमि । उप्पन्नो पढमजिणो भरहपिया भारहे वासे ॥१॥ पन्नासा लक्खेहिं कोडीणं सागराण उसभाओ। उप्पन्नो अजियजिणो ततिओ तीसाऍ लक्खेहिं ॥२॥ जिणवसभसंभवाओ दसहि लक्खेहिं अयरकोडीणं । अभिणंदणो उ भगवं एवइकालेण उप्पन्नो ॥३॥ अभिनंदणाउ सुमती नवहिं उ लक्खेहिं अयरकोडीणं । उप्पन्नो सुहपुण्णो सुप्पभनामस्स बोच्छामि ॥४॥ णउती य सहस्सेहि उ कोडीणं सागराण पुण्णाणं । सुमतिजिणाओ पउमो एवति कालेण उप्पन्नो ॥५॥ पउमप्पभनामाओ नवहिं सहस्सेहिं अयरकोडीणं । कालेणेवइएणं सुपासनामो समुप्पन्नो ॥६॥ कोडीसएहिं नवहि उ सुपासनामो जिणो समुप्पन्नो। चंदप्पभो पभाए पभासयंतो उ तेलोकं ॥७॥ णउतीय वि कोडीहिं ससीउ सुविही जिणो समुप्पन्नो । सुविहिजिणाओ नवहि उ कोडीहिं सीयलो जाओ॥८॥ सीयलजिणाओ भगवं सेजंसो सागराण कोडीए । सागरसयऊणाए वरिसेहि तहा इमेहिं तु ॥९॥ छचीसाऍ सहस्सेहिं चेव छावहिसयसहस्सेहि। एतेहिं ऊणिया खलु कोडी मग्गिल्लिया होई ॥१०॥ चउप्पण्णा अपराणं सेज्वंसाओ जिणोज वसुपुजो। वसुपुज्जाओ विमलो तीसहि अपरेहिं उप्पन्नो ॥ ११ ॥ विमलजिणा उप्पनो नवहिं अयरेदि शंतइजिणोऽविचउसागरनामेहिं अणंतईओ जिणो धम्मो ॥१२॥ C+- दीप अनुक्रम E मा.स.४१ JanEducatomireerna FrPivesPersana tumory ~205 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४१४-४१५], विभागाथा ], भाज्यं [४३...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 4- अयोद्धा-16 नियुकि 1. राषि प्रत दीप अनुक्रम धम्मजिणाओ संती तिहि उतिचउमागपलियऊणेहिं । अयरेहिं समुप्पन्नो पलियदेणं तु कुंजिणो।१३॥ जिनान्तपलियचउम्भाएणं कोडीसहस्सूणएण वासाणं । कुंथूओ अरनामा कोडिसहस्सेण मल्लिजिणो ॥१४॥ मल्लिजिणामो मुणिमुवओवि चउप्पन्न वासलक्सहिं । सुब्बयनामाउ नमी लक्खेहि छहिउ उत्पनो ॥१९॥ पंचहि लक्खेहि समो अरिहनेमी जिणो समुप्पन्नो । तेसीई सहस्सेहिं सरहिं अट्ठमेहिं च ॥१६॥ नेमीयो पासजिणो पासजिणाओ य होइ वीरजिणो। अड्डाइजसएहिं गएहिं चरिमो समुप्पन्नो ॥१७॥ उसभा कोडिलक्ख ५०, अजियाओ कोडिलक्स ३०, संभवा कोडिलक्ख १०, अभिनंदणा कोडिलक्स ९, सुमति- ।। ओ कोडीणाईसहस्सेहिं ९०, पदमपभा कोडीण नवसहस्सेहिं ९ सुपासा कोडीनवसएहिं ९००, चंदप्पभा कोडीओ| पणवती ९०, पुप्फर्दता कोडीउणवहि र ९, सीयला कोडी १ उणा १०० सागर० ६६२६००० वरिसाई, सेजंसा सागरो पम ५४, वासुपुणा तीस सागराई ३० विमला सागरोवमाई ९, अणंता सागरोवमाई ४, धम्मा सागरोचमाई ३ जणाइ पलियचभागेहिं । संतिओ पलियद्धं, कुंथुओ पलियचउन्माओ जणाओ वासकोडीसहस्सेणं १, अरा पासकोडी सहस्सं १, मलिओ परिसलक्सचउप्पन्ना ५४, मुणिसुक्या वरिसलक्ख ६, नमीओ परिसलक्ख ५, अरिहनेमियो MIR४१॥ परिससहस्स ८१७५०, पासा वाससयाई २५० बद्धमाणो जिणंतराइं । साम्प्रतं चक्रवर्जिनोऽधिकृत्य जिनान्तराण्येव प्रतिपापन्त, त्र CACAष्ट Jan Ede ForFive Persanamory ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४१४-४१५], विभागाथा ], भाज्यं [४३...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: सभी 52. सति प्रत इयमत्र स्थापनाअमय विजय, मुमति पा सुपास | सति पुष्पदंत चीयल सेवंस वासुपुत्र बिमल अनंत | धम्म । dhodhakamananesava R-522:52:29:52:52:52:52 . . . . . . . तिमि । दुपिए । पर्यम् | पुरिसोत्त सत्राक यमकुमार मरहो HIN दीप अनुक्रम CSC मरो ( Cocon मा निमुख०० मि 500 भरोभमा पठमोरिसण अयनामो . . रुपपुरी. दत्तो . . नारायण . . [१५९ ८ २५२०१५ १२ | anelibrary.com ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४१६-४१८], विभागाथा ], भाज्यं [४३...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्धातनियुक्तिः प्रत ॥२४२॥ सुत्राक उसमे भरहो अजिए सगरो मघवं सणकुमारो अ। धम्मस्स य संतिस्स य जिणंतर चकवद्विगं ॥ ४१६॥ जिनर्चा संती कुंथू अ अरो अरिहंता चेव चक्कवद्दीआ। अरमल्लिअंतरे पुण हवइ सुभूमो अ कोरबो॥ ४१७॥ मुणिसुचए नमिम्मि य हुति दुवे पउमनाभ-हरिसेणा। नमि-नेमिसु जयनामा अरिट्ट-पासंतरे बंभो॥४१॥ इह चासम्मोहार्थ सोपामेव चक्रवर्तिवासुदेवानां यो यस्मिन् कालेऽन्तरे वा चक्रवर्ती वासुदेवो वा भषिष्यति बभूव । वा तस्यानन्तरच्यावर्णितप्रमाणायुःसमन्वितस्य सुखपरिज्ञानार्थमयं प्रतिपादनोपायःबत्तीसं घरपाई का तिरियायताहिं रेहाहि । उहाययाहि काउं पंच घराई तओ पढमे ॥१॥ पन्नरस जिण निरंतर सुन्नदुगं तिजिण सुन्नयतिगं च। दो जिण सुन्न जिर्णिदो सुन्न जिणो सुन्न दोणि जिणा ॥२॥ बितीयपंतिठवणा-दो चक्कि सुन्न तेरस पण चक्की सुन्न चक्कि दो सुन्ना। चक्की सुन्न दु चक्की सुन्नं चक्की दु सुन्नं च ॥३॥ ततियपंतिठवणा-दस सुन्न पंच केसव पण सुन्न केसि सुन्न केसी य । ॥२४२ दो सुन्न केसवोऽविय सुन्नदुर्ग केसव तिसुन्नं ॥४॥ प्रमाणान्यायूवि चामीषां प्रतिपादितान्येव, तानि पुनर्यथाक्रममूर्ध्वायतरेखाऽधो गृहद्वये स्थापनीयानीति । तत्रेयं I स्थापना साम्प्रतं प्रदर्यते । उक्तसम्बन्धगाथात्रयगमनिका-ऋषभे तीर्थकरे भरतश्चक्रवर्ती, तथा अजिते तीर्थकरे सगरश्चक दीप अनुक्रम JanEdientan imml ForFive Persanamory X a nationary.org. ... अथ चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव-आदीनां संक्षिप्त परिचय ~208 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४१९-४२०], विभागाथा ], भाज्यं [४३...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम वती भविष्यति, एवं तीर्थकरोकानुवादः, सर्वत्र भविष्यकालानुरूपः क्रियाध्याहारः कार्य:, त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थों वा भूतेनापि न दुष्यति, तथा चावोचत्-'मघवसणंकुमारा सणंकुमारं गया कप्पमित्यादि, एवं सर्वत्र संयोज्यमिति, मघवा सनत्कुमारश्च एतञ्चक्रवर्तिद्वयं धर्मश्च शान्तिश्च अनयोरन्तरं जिनान्तरं तस्मिन् जिनान्तरे उक्तलक्षणं चक्रवर्तिद्वयं भविष्यत्यभवद्वेति गाथार्थः । द्वितीयगाथागमनिका-शान्तिः कुन्थुश्च अरः एते त्रयोऽप्यशोकायष्टमहापातिहार्यादिरूपां पूजामहतीत्यर्हन्तश्चैव चक्रवर्तिनश्च, तथा अरमझ्यन्तरे तु भवति सुभूमश्च कौरव्यः, तुशब्दोऽन्तरविशेषणे, नान्तर|मात्रे, किन्तु पुरुषपुण्डरीकदत्तवासुदेवद्वयमध्य इति गाथार्थः । तृतीयगाथागमनिका-मुनिसुव्रते तीर्थकरे नमौ च भवतः द्वौ, की द्वौ! पद्मनामहरिसेनौ, 'नभिनेमिसु जयणामो अरिद्वपासंतरे बंभों'त्ति नमिश्च नेमिश्च नमिनेमी, अन्तरग्रहण-| मभिसम्बध्यते, ततश्च नमिनेम्यन्तरे जयनामा अभवत् , अरिष्ठग्रहणादरिष्टनेमिः पार्थेति पार्श्वस्वामी, अनयोरन्तरे || ब्रह्मदत्तो भविष्यत्यभवद्वेति गाथार्थः ॥ इदानीं वासुदेवो यो यत्तीर्थकरकालेऽन्तरे वा खल्वासीदसौ प्रतिपाद्यते । पंचरहते वंदंति केसवा पंच आणुपुबीए । सिज्जस तिविट्ठाई धम्म पुरिससीहपेरंता ॥ ४१९॥ __ अरमल्लिअंतरे दुन्नि केसवा पुरिस-पुंडरिअदत्ता । मुणिसुवय-नमिअंतरे नारायण कण्ह नेमिम्मि ॥२०॥ गमनिका-पञ्चाहतो वन्दन्ते केशवाः, एतदुक्कं भवति-पञ्च केशवा अर्हतो वन्दन्ते, वन्दन्त इत्येतेषां सम्यक्त्वख्या-1 पनार्थमिति, कियन्तोऽर्हन्तः किमेकः द्वौ वा वयो वा, नेत्याह-पश्च, पश्चेति पश्चैव, किं यथाकथञ्चिदित्याह-'आनु-IN पूर्ध्या' परिपाट्या, 'सेजंस तिविद्वाइ धम्म पुरिससीहरंता' श्रेयांसादीन तिपृष्ठादयः धर्मपर्यन्तान पुरुषसिंहपर्यन्ता इति, CACACAMAK omsanelibrary.orm ~209~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनियुक्तिः ॥२४३॥ Jan Education In “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ४२१], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [४४], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः विन्दंत इति शास्त्रकारवचनत्वाद्वर्त्तमाननिर्देशः, पाठान्तरं या 'पंच रहते बंदिसु केसवेत्यादि, गाथार्थः । द्वितीयगाथागमनिका-अरश्च मलिश्च अरमल्ली तयोरन्तरम् - अपान्तरालं तस्मिन् द्वौ केशवौ भविष्यतः, कौ द्वावित्याह- पुरुषपुण्ड रीकदन्तौ, 'मुणिसुद्ययणमिअंतरे नारायणो' मुनिसुव्रतश्च नमिश्च मुनिसुव्रतनमी तयोरन्तरं २ तस्मिन् नारायणो नाम वासुदेवो भविष्यत्यभवद्वा, तथा 'कण्हो य नेमिम्मि'त्ति कृष्णाभिधानश्च नवमो वासुदेवो नेमितीर्थकरे भविष्यति बभूव | वेति गाथार्थः । एवं तावच्चक्रवर्त्तिनो वासुदेवाश्च यो यज्जिनकालेऽन्तरे वा स उक्तः, साम्प्रतं चक्रवर्त्तिवासुदेवान्तराणि प्रतिपादयन्नाह - चकिदुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की । केसब चक्की केशव दु चक्कि केसी अ चक्की अ ॥ ४२१ ॥ गमनिका -- प्रथममुक्तलक्षणकाले चक्रवर्त्तिद्वयं भविष्यत्यभवद्वा, ततस्त्रिपृष्ठादिहरिपञ्चकं पुनः पञ्चकं मघवादीनां चक्रवर्त्तिनां, पुनः पुरुषपुण्डरीकः केशवः, सुभूमाभिधानश्चक्रवर्त्ती, पुनर्दत्ताभिधानः केशवः, पुनः पद्मनामा चक्रवयैव, ॥ पुनर्नारायणाभिधानः केशवः, पुनः हरिसेनजयनामानौ द्वौ चक्रवर्त्तिनौ, पुनः कृष्णनामा केशवः, पुनः ब्रह्मदत्ताभिधानश्चक्रवर्तीति, क्रियायोगः सर्वत्र प्रथमपदवद् वक्तव्य इति गाथार्थः ॥ उक्तमानुषङ्गिकं प्रकृतं प्रस्तुमः, तत्र यदुक्तम् - 'तित्थगरो को इहं भरहे'ति, तद् व्याचिख्यास वाऽऽहू अह भइ नरवरिंदो ताय । इमीसित्तिआइ परिसाए । raise aisa होही भरहे वासम्मि तिस्थयरो | ॥ ४४ ॥ ( मू० भा० ) For Peace & Personal Use Only ~210~ चक्रिदशारान्तराणि ॥२४३॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४२२-४२५], विभागाथा , भाज्यं [४४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक IRI गमनिका-अत्रान्तरे अथ भणति नरवरेन्द्रः-तात् । अस्याः एतावत्याः परिषदः अन्योऽपि कश्चिद्भविष्यति तीर्थकर 18 अस्मिन् भारते वर्षे, भावार्थस्तु सुगम एवेति गाथार्थः॥ है तत्थ मरीई नामा आइपरिचायगो उसमनत्ता । सज्झायज्झाणजुओ एगते शायइ महप्पा ॥ ४२२ ॥ तत्र भगवतः प्रत्यासन्ने भूभागे मरीचिनामा आदौ परिव्राजकः आदिपरिमाजका प्रवकत्वात्, ऋषभनमा पौत्रक इत्यर्थः, स्वाध्याय एव ध्यानं २ तेन युक्तः एकान्ते ध्यायति महात्मेति गाथार्थः॥ तं दाएइ जिणिदो एव नरिंदेण पुच्छिओ संतो। धम्मवरचकवट्टी अपच्छिमो वीरनामुत्ति ॥ ४२३ ॥ गमनिका-भरतपृष्ठो भगवान् 'त' मरीचिं दर्शयति जिनेन्द्रः एवं नरेन्द्रेण पृष्टः सन् , धर्मवरचक्रवती अपश्चिमो वीरनामा भविष्यतीति गाथार्थः ॥ तथा-आइगरु दसाराणं तिविदु नामेण पोअणाहिवई । पियमित्तचक्कवही मूआइ विदेहवासम्मि ॥४२४॥ गमनिका-आदिकरो दसाराण (दशाराणां) त्रिपृष्ठनामा पोतना नाम नगरी तस्या अधिपतिर्भविष्यतीति क्रिया, तथा प्रियमित्रनामा चक्रवर्ती मूकायां नगर्यो 'विदेहवासंमि'त्ति महाविदेहे भविष्यतीति गाथार्थः॥ तं वयणं सोऊणं राया अंचिअतणूरुहसरीरो । अभिवंदिऊण पिअरं मरीइमभिवंदओ जाइ ॥ ४२५ ॥ गमनिका-तद्वचनं तीर्थकरवदनविनिर्गतं श्रुत्वा राजा अञ्चितानि तनूरुहाणि शरीरे यस्य स तथाविधा, अभिवन्द्य पितरं तीर्थकर मरीचिं अभिवन्दको याति, पाठान्तरं वा 'मिरीई अभिवंदिउं जाईति, मरीचिं याति, किमर्थम् - CASSES दीप अनुक्रम JanEdientaminent mysannlinrary.om ~211 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तिः ॥ २४४ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्ति: [४२६-४२९], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ४४...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः 'अभिवंदिउँ' अभिवन्दनायेत्यर्थः, यातीति वर्त्तमानकालनिर्देशस्त्रि कालगोचर सूत्रप्रदर्शनार्थ इति गाथार्थः ॥ सो विएण उबगओ काऊण पयाहिणं च तिक्खुत्तो। बंद अभिधुणंतो इमाहिं महराहिं वग्गूहिं ॥४२६॥ स भरतः विनयेन करणभूतेन मरीचिसकाशमुपगतः सन् कृत्वा प्रदक्षिणां च 'तिक्खुत्तोत्ति त्रिकृत्यः, तिम्रो बारा इत्यर्थः, वन्दते, अभिष्टुतवान्, एताभिर्मधुराभिर्वल्गुभिर्वाग्भिरिति गाथार्थः ॥ लाभा हु ते सुद्धा जंsसि तुमं धम्मचक्कवट्टीगं । होहिसि दसचउदसमो अपच्छिमो वीरनामुत्ति ||४२७|| 'लाभा' अभ्युदयप्राप्तिविशेषाः, हुकारो निपातः स चैवकारार्थः तस्य च व्यवहितः सम्बन्धः, 'ते' तत्र सुन्धा एव, यस्मात् त्वं धर्म्मचक्रवर्त्तिनां भविष्यसि दशचतुर्दशः, चतुर्विंशतितम इत्यर्थः, अपश्चिमो वीरनामेति गाथार्थः ॥ तथा आइगरो दसाराणं ( ४२४ ) गाथा पूर्ववत् नेया । एकान्तसम्यग्दर्शनानुरञ्जितहृदयो भावितीर्थकर भक्त्या च तमभिवन्दनायोद्यतो भरत एवाइ 1 नावि अ ते पारिवज्रं वंदामि अहं इमं च ते जम्मं । जं होहिसि तित्थयरो अपच्छिमो तेण वंदामि ||४२८ ॥ गमनिका - नापि च परित्राजामिदं पारिव्राज्यं वंदामि अहं, इदं च ते जन्म, किन्तु यद् भविष्यसि तीर्थंकरः अपश्चिमस्तेन वंदामीति गाथार्थः ॥ एव पहं थोऊणं काऊण पर्यााहिणं च तिक्खुसो । आपुच्छिऊण पियरं विणीअणगरिं अह पविट्ठो ॥ ४२९ ॥ For Peace & Personal Use Ony ~212~ मरीचिव कव्यता भरतस्तुतिः गोत्र. मदः ॥२४४ ॥ wjansliter Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education In “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्ति: [४३०-४३३], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ४४.] मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः गमनका एवं स्तुत्वा हमिति निपातः पूरणार्थो वर्चते, कृत्वा प्रदक्षिणां च त्रिकृत्वः, आपृच्छय पितरं - ऋषभदेवं विनीतनगरीम् - अयोध्यामथ-अनन्तरं प्रविष्टो भरत इति गाथार्थः । अत्रान्तरे hari सोडणं तिवई अप्फोडिऊण तिक्खुत्तो । अन्भहिअजायरिसो तत्थ मरीई इमं भणइ ॥ ४३० ॥ मनका - तस्य भरतस्य वचनं तद्वचनं श्रुत्वा तत्र मरीचिः इदं भणतीति योगः, कथमित्यत आह-त्रिपदीं दत्त्वा रङ्गमध्यगतमलवत्, तथा आस्फोटा त्रिकृत्वः, तिस्रो द्वारा इत्यर्थः, किंविशिष्टः संस्तत आह-अभ्यधिको जातो हर्षो यस्येति समासः, तत्र स्थाने मरीचिरिदं वक्ष्यमाणं भणति, वर्त्तमाननिर्देशप्रयोजनं प्राग्वदिति गाथार्थः ॥ जह वासुदेव पढमो मूआइ विदेह चक्कवहित्तं । चरिमो तित्थयराणं होउ अलं इत्तिअं मज्झ ॥ ४३१ ॥ गमनिका - यदि वासुदेवः प्रथमोऽहं, मूकायां विदेहे चक्रवर्त्तित्वं प्राप्स्यामि, तथा चरमः - पश्चिमः तीर्थकराणां भविष्यामि, एवं तर्हि भवतु एतावन्मम, एतावतैव कृतार्थ इत्यर्थः, अलं पर्याप्त मन्येनेति पाठान्तरं वा 'अहो मए एत्तियं लद्धं'ति गाथार्थः ॥ अहयं च दसाराणं पिया य मे चक्कवहिवंसस्स । अज्जो तित्थयराणं अहो कुलं उत्तमं मज्झ ॥ ४३२ ॥ गमनिका - अहमेव चशब्दस्यैवकारार्थत्वात् किं १ - दसाराणं, प्रथमो भविष्यामीति वाक्यशेषः, पिता च 'मे' मम चक्रवर्त्तिवंशस्य, प्रथम इति क्रियाध्याहारः, तथा 'आर्यकः' पितामहः स तीर्थकराणां प्रथमः, यत एवमत अहो विस्मये | कुलमुत्तमं ममेति गाथार्थः ॥ पृच्छाद्वारं गतम्, इदानीं निर्वाणद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह अह भगवं भवमहण पुवाणमणूणयं सयसहस्सं । अणुपुवि विहारिणं पत्तो अह्नावयं सेलं ॥ ४३३ ॥ ... मरिचेः 'गोत्र-मद- उत्पत्ति प्रसंग वर्णयते For Peace & Personal Use Ony ~213~ sanlibrary.org Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४३४-४३५], विभा गाथा , भाष्यं [४४...], मूलं । गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: एपोदात नियुक्तिः प्रत ॥२४॥ 30- 40 गमनिका-अथ भगवान् भवमथनः पूर्वाणामन्यून शतसहस्र आनुपूळ विहत्व प्राप्तोऽष्टापदं शैलं, भावार्थः सुगम श्रीऋषभएवेति गाथार्थः॥ अट्ठावयम्मि सेले चउदसभत्तेण सो महरिसीणं । दसहिं सहस्सेहिं समं निचाणमणुसरं पत्तो॥ ४३४॥ हनुमादि गमनिका-अष्टापदले चतुर्दशभक्तेन स महषीणां दशभिः सहस्रः समं निर्वाणमनुत्तरं प्राप्तः, अस्या अपि भावार्थःपात्या सुगम एव, नवरं चतुर्दशभक-पदरात्रोपवासः॥ भगवन्तं चाष्टापदप्राप्तमपवर्गजिगमिषू श्रुत्वा भरतो दुःखसन्तप्तमानसः तपा: पयामेवाष्टापदं ययौ, देवा अपि भगवन्तं मोक्षजिगमिषु ज्ञात्वाऽष्टापदशैलं दिव्यविमानारूढाः खल्वागतवन्तः, उक्त च भगवति मोक्षगमनायोद्यते, "जाव य देवाचासो जावय अट्ठावो नगवरिंदो। देवेहि य देवीहि य अविरहियं संचर-1 | तेहिं ॥१॥" तत्र भगवान् त्रिदशनरेन्द्रः स्तूयमानो मोक्षं गत इति गाथार्थः ॥ साम्पतं निर्वाणगमनविधिप्रतिपादनाय । एतां द्वारगाथामाह|निवाणं चिहगागिई जिणस्स इक्खाग-सेसगाणं च । सकहा थूम जिणघरे जायग तेणाऽहिअग्गित्ति ॥४३५॥ | व्याख्या-निर्वाणमिति भगवान् दशसहस्रपरिवारो निर्वाणं प्राप्तः, अत्रान्तरे च देवाः सर्व एवाष्टापदमागताः, 'चितकाकृति रिति ते तिनश्चिताः वृत्तव्यनचतुरखाकृतीः कृतवन्त इति, एका पूर्वेण अपरां दक्षिणेन तृतीयामपरेणेति, Al॥४५॥ तत्र च पूर्वा तीर्थकृतः दक्षिणा शश्वाकूणां अपरा शेषाणामिति, ततः अग्निकुमारा बदनैः खल्वनिं प्रक्षिप्तवन्तः, तत एव निवन्धनालोके 'अग्निमुखा वै देवा' इति प्रसिद्ध, वायुकुमारास्तु वातं मुक्तवन्त इति, मांसशोणिते च ध्यामिते सति मेपकु दीप अनुक्रम CCC CARRC I !! ... अथभगवन्त ऋषभस्य निर्वाण तथा भरतस्य केवलज्ञानस्य कथनं ~214 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४३४-४३५], विभा गाथा -1, भाष्यं [४५], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम XXXC माराः सुरभिणा क्षीरोदजलेन निर्वापितवन्तः, 'सकथेति सकथा हनुमोच्यते, तत्र दक्षिणां हनुमां भगवतः सम्बन्धिनी शको जमाह, वामामीशानः, अधस्त्यदक्षिणां पुनश्चमरः, अधस्त्योत्तरां तु बलिः,शेषास्तु त्रिदशाः शेषाङ्गानि गृहीतवन्तः, नरेश्वरादयस्तु भस्म गृहीतवन्तः, शेषा लोकास्तु तदस्मना पौण्डुकाणि चक्रुः, तत एव च प्रसिद्धिमुपगतानि, 'स्तूपानि | जिनगृहं चेति भरतो भगवन्तमुद्दिश्य वर्द्धकीरलेन योजनायाम त्रिगन्यूतोच्छूितं सिंहनिषद्यायतनं कारितवान् , निजवर्ण-14 प्रमाणयुक्ताश्चतुर्विंशति जीवाभिगमोकपरिवारयुक्ताः तीर्थकरप्रतिमाः तथा भ्रातृशतप्रतिमा आत्मप्रतिमां च स्तूपशतं च, मा कश्चिदाक्रमणं करिष्यतीति, तत्रैकं भगवतः शेषानेकोनशतस्य भ्रातृणामिति, तथा लोहमयान यन्त्रपुरुषांस्तद्वारपालांच चकार, दण्डकरतेनाष्टापदं च सर्वत्र छिन्नवान , योजने योजने तु अष्टौ पदानि च कृतवान् , सगरसुतैस्तु वंशानुरागाद्यथा परिखां कृत्वा गङ्गाऽवतारिता तथा ग्रन्थान्तरतो विज्ञेयमिति । याचकास्तेनाहिताग्नयः इत्यस्य व्याख्या-देवैर्भगवत्सकथादौ गृहीते सति श्रावका देवानतिशयमच्या याचितवन्तः, देवा अपि तेषां प्रचुरत्वाम्महता यलेन याचनाभिदुता आहुः-अहो ! याचका इति, तत एव याचका रूढाः, ततः अग्निं गृहीत्वा स्वगृहेषु स्थापितवन्तस्तेन कारणेनाहिताग्नयः इति तत एव च मसिद्धाः, तेषां चाग्नीनां परस्परतः कुण्डसङ्कान्तावयं विधिः-भगवतः सम्बन्धिभूतः (अग्निः) सर्वकुण्डेषु | सञ्चरति, इक्ष्वाकुकुण्डाग्निःशेषकुण्डाग्नौ सञ्चरति, न भगवत्कुण्डानाविति, शेषानगारकुण्डाग्निस्तु नान्यत्र सङ्कमत इति गाथार्षः।। साम्पतमभिहितद्वारगाथायाद्वारद्वयव्याचिख्यासया मूलभाष्यकार आहधूमसप भाजआणं चवीस व जिणघरे कासी।सबजिणाणं पडिमा षण्णपमाणेहिं निभएहिं॥४५॥ ( F remton ~215 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४३६], वि०भा०गाथा , भाष्यं [४५...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: भरतख कैवल्यम् प्रत उपोदात-13 स्तूपशतं श्रावणां भरतः कारितवानिति, तथा चतुर्विंशतिश्चैव जिनगृहे-जिनायतने 'कासि चिकृतवान्, नियुकिः इत्याह-सर्वजिनानां प्रतिमाः, वर्णप्रमाणैर्निजैः, आरमीयैरिति गाथाः ॥ साम्प्रतं भरतवकव्यतानिवद्धां सङ्ग्रह- गाथां प्रतिपादयन्नाह॥२४६॥ आपसघरपवेसो भरहे पडणं च अंगुलीअस्स । सेसाणं उम्मुअणं संवेगो नाण दिक्खा य॥४३६ ॥ अस्या भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-भगवतो निवाणं गयस्स आययणं कारावियं, भरहो अवज्झमागमओ, कालेण य अप्पसोगो जाओ, ताहे पुणरवि भोगे अँजि पवत्तो, एवं तस्स पंच पुवसयसहस्सा अतिर्कता भोगे मुंजतस्स, अह अन्नया कयाइ सवालंकारभूसिओ आदंसघरमतिगतो, तत्थ य सबंगिओ पुरिसो दीसइ, तस्स एवं पेच्छमाणस्स अंगुलेजयं पडियं, तं च तेण न नायं पडियं, एवं तस्स पलोयंतस्स जाहे अंगुली दिदिमि पडिया ताहे असोभतिया दिवा, ततो कडगंपि अवणेइ, एवं एकेकमवणेतेण सबमाभरणमवणीयं, ताहे अप्पाणं उच्चियपउम व पउमसरमसोभंत पेच्छिय संवेगावण्णो परिचिंतिउं पयत्तो-आगंतुगदबेहिं विभूसियं मे सरीरगंति, न सहावसुंदरं, एवं चिंतेतस्स अपुवकरणज्झाणमुवट्टियस्स केवलनाणं समुप्पन्नति । सक्के देविंदे देवराया आगओ भणति-दवलिंग पडिवजा आहे निक्खमणमहिमं करेमि, ततो तेण पंचमुढिओ लोओ कओ, देवरायाए रओहरणपडिग्गहादि उवकरणमुवणीयं, दसहि रायसहस्सेहिं समं पधइओ, सेसा णव चक्किणो सहस्सपरिवारा निक्खंता, सक्केणं वंदिओ, ताहे भगवं पुवसयसहस्सं केवलिपरियागं पारणिता परिनिव्वुडो। या आइच्चजसो सकेणाभिसिचो, एवमह पुरिसजुगाणि अभिसिचानि, रको भावार्थ: दीप अनुक्रम ॥२४६ ॥ Jan Eden ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आ.सू. ४२ Jan Educaton Iren “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ४३७] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ४५] मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः साम्प्रतमक्षरगमनिका, आदर्शकगृहे प्रवेशः, कस्य ? - 'भरहेचि भरतत्वं, प्राकृतशैल्या पायें सभी, तथा पतनं चाङ्गुलीयस्य बभूव, शेषाणां तु कटकादीनां मोचनमनुष्ठितं, ततः संवेगः सञ्जातः, तदुत्तरकालं ज्ञानमुत्पन्नमिंति, दीक्षा च तेन गृहीता, आदिशब्दान्निवृत्तश्चेत्यक्षरार्थः ॥ उक्तमानुषङ्गिकमिदानीं प्रकृतां मरीचिवक्तव्यतां 'पृच्छतां कथयती' त्वादिना प्रतिपादयति, तत्र -- पुच्छंताण कहेई उवद्विए देइ साहुणो सीसे । गेलन्नेऽपडियरणं कविला ! इत्यंपि इयंपि ॥ ४३७ ॥ गमनिका - पृच्छतां कथयति, उपस्थितान् ददाति साधुभ्यः शिष्यान्, ग्लानत्वेऽप्रतिजागरणं, कपिल ! अत्रापि इहापि । भावार्थ:- स हि प्राग्वर्णितस्वरूपो मरीचिर्भगवति निर्वृत्ते साधुभिः सह विहरन् पृच्छतां लोकानां कथयति धर्म्म जिनप्रणीतमेव, धर्म्माक्षिष्ठांश्च प्राणिनः उपस्थितान् ददाति साधुभ्यः शिष्यानिति, अन्यदा स ग्लानः संवृत्तः साधवोऽप्यसंयतत्वान्न प्रतिजाग्रति, स चिन्तयति-निष्ठितार्थाः खल्वेते, नासंयतस्य कुर्वन्ति, नापि ममैतान् कारयितुं युज्यते, तस्माउत्कंचन प्रतिजागरकं दीक्षयामीति, अपगतरोगस्य च कपिलो नाम राजपुत्रो धर्म्मशुश्रूषया तदन्तिकमागत इति कथिते साधुधम्मै स आह-यद्ययं मार्गः किमिति भवतैतदङ्गीकृतं ?, मरीचिराह - पापोऽहं 'लोए इंदिये 'त्यादि विभाषा पूर्ववत्, कपिलोऽपि कम्मोदयात् साधुधर्म्मानभिमुखः खल्वाह - तथापि किं भवद्दर्शने नास्त्येव धर्म्म इति १, मरीचिरपि प्रचुरकम्म खल्वयं न तीर्थकरोकं प्रतिपद्यते, वरं मे सहायः संवृत इति सञ्चिन्त्याह- 'कपिला एत्यंपित्ति अपिशब्दस्यैव कारार्थत्वान्निरुपपरि सत्वत्रैव-साधुमार्गे, 'इहइंपित्ति स्वल्पस्त्वत्रापि विद्यत इति मायार्थः । स क्षेत्रमाकर्ण्य वत्सकाश एव प्रवजिता, Far Pavoce & Personal Use Only ~ 217~ vanelibrary.org Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४३८-४३९], विभागाथा , भाज्यं [४५...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तांत प्रत सत्राक दीप अनुक्रम उपोदात-18 मरीचिनाऽप्यनेन दुर्वचनेन संसारोऽभिनिर्वत्र्तितः, त्रिपदीकाले च नीचैर्गोत्रकर्म बद्धमिति, अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह-18 मरीचि. नियुक्तिः दुम्भासिएण इकेण मरीई दुक्खसागरं पत्तो । भमिओ कोडाकोडिं सागरसरिनामधिज्जाणं ॥ ४३८ ॥ ॥२४॥ तमूलं संसारो नीआगुत्तं च कासि तिवइम्मि । अपडिकतो बंभे कविलो अंतद्धिओ कहए ॥ ४३९॥ प्रथमगाथागमनिका-दुर्भाषितेन एकेन उक्तलक्षणेन मरीचिदुःखसागरं प्राप्तः, भ्रान्तः कोटीकोटीना, केषामि18 त्याह-'सागरसरिनामघेज्जा'ति सागरसदृशनामधेयानां, सागरोपमाणामिति गाथार्घः। द्वितीयगाथागमनिका-'तन्मूलं' || दुर्भाषितमूलं संसारः सञ्जातः, तथा स एव नीचैर्गोत्रं च 'कृतवान्' निष्पादितवान् त्रिपां-प्राग्वर्णितस्वरूपायामिति, |'अपडिकतो बभेति स मरीचिश्चतुरशीतिपूर्वशतसहस्राणि सर्वायुष्कमनुपाल्य तस्मात् दुर्भाषिताद् गच्चाप्रतिक्रान्त: अनिवृत्तः ब्रह्मलोके दशसागरोपमस्थितिर्देवः सञ्जात इति ॥ कपिलोऽपि ग्रन्थार्थपरिज्ञानशून्य एव तद्दर्शितक्रियारतो | विज़हार, आसुरिनामा च शिष्योऽनेन प्रत्राजित इति, तस्य स्वमाचारमात्रं दिदेश, एवमन्यानपि शिष्यान् स गृहीत्वा | || शिष्यप्रवचनानुरागतत्परो मृत्वा ब्रह्मलोक एवोत्पन्नः, स झुत्पत्तिसमनन्तरमेवावधि प्रयुक्तवान् , किं मया हुतं वेष्टं वा R ॥२४७॥ दानं वा दत्तं येनैषा दिच्या देवर्द्धिः प्राप्तेति, स्वं पूर्वभवं विज्ञाय चिन्तयामास-मम शिष्यो न किश्चिद्वेत्ति, तत्तस्योप-10 दिशामि तस्त्वमिति, तस्मै आकाशस्थपञ्चवर्णमण्डलकस्थः तत्त्वं जगाद, आह च-कपिलो अंतद्धिओ कहए' कपिलः से अन्तर्हितः कथितवान्, किं1, अव्यक्ताद् व्यकं प्रभवति, ततः षष्टितन्त्रं जातं, तथा चाहुस्तन्मतानुसारिण:-"प्रकृते -9001484 and on ForFive Persanamory Kaviewsanelibrary.com ... मरिचे: शेष वृतान्त तथा भगवन्त महावीरस्य अन्य भवानां वर्णनं ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४४०-४४२], वि०भा०गाथा ], भाष्यं [४५...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 5+ प्रत सत्रांक महांस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद् गणश्च पोडशकः । तस्मादपि पोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानी ॥१॥" त्यादि, अलं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तुम इति गाथार्षः। | इक्खागेसु मरीई चउरासीई अबंभलोअम्मि । कोसिअ कुल्लागम्मी असीहमाउं च संसारो ॥ ४४०॥ | गमनिका-इक्ष्वाकुषु मरीचिरासीत् , चतुरशीतिं च पूर्वशतसहस्राण्यायुष्कं पालयित्वा 'बभलोयमि' ब्रह्मलोके कल्पे देवः |संवृत्तः, ततश्चायुष्कक्षयात् च्युत्या 'कोसिय कोलाएसु(यंमी)त्ति कोल्लाकसभिषेशे कौशिको नाम ब्राह्मणो बभूव, 'असीतिमा च संसार'त्ति स च तत्राशीतिपूर्वशतसहस्राण्यायुष्कमनुपाल्य 'संसार'चि तिर्यनरनारकामरभवानुभूतिलक्षणे संसारे पर्यटित इति गाथार्थः ॥ संसारे कियन्तमपि कालमटित्वा स्थूणायां नगर्या जात इति, अमुमेवार्थे 'घृणा येत्यादिना प्रतिपादयति थूणाई पूसमित्तो आई यावत्तरिं च सोहम्मे । चेइअ अग्गिजोओ चोबडी चेव ईसाणे ॥४४१॥ स्थूणायां नगर्या पुष्पमित्रो नाम ब्राह्मणः सञ्जातः, 'आउं वावत्तरिं च सोहम्मे 'त्ति तस्यायुष्कं द्विसप्ततिपूर्वशतसहस्राण्यासीत्, परिव्राजकदर्शने च प्रव्रज्यां गृहीत्वा तांपालयित्वा कियन्तमपि कालं स्थित्वा सौधर्मे कल्पेऽजघन्योत्कृष्टस्थितिः समुत्पन्न इति । 'चेइय अग्गिजोतो चोयट्ठीसाणकप्पंमि'(चेव ईसाणे)त्ति सौधर्माच्युतः चैत्यसन्निवेशे अग्निद्योतो ब्राह्मणः सञ्जातः, तत्र चतुःषष्टिपूर्वशतसहस्राण्यायुष्कमासीत् , परिव्राट् सञ्जातो, मृत्वा चेशाने देवोऽजघन्योत्कृष्टस्थितिः संवृत्त इति गाथार्थः॥ मंदिरे अग्गिमूई छप्पनाउं सणकुमारम्मि । सेअवि भारदाओचोआलीसं च माहिदे ॥ ४४२ ॥ गमनिका-ईशानायुतो 'मन्दिर' इति मन्दिरसन्निवेशे अग्निभूतिनामा ब्राह्मणो बभूव, तत्र षट्पश्चाशत् पूर्वशत %AA%% दीप अनुक्रम * Farver Hoversanelibrary.orm ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सत्राक "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४४३-४४५], विभागाथा , भाज्यं [४५...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: EVI उपोदात-1 सहस्राणि जीवितमासीत्, परिव्राजकश्च बभूव, मृत्वा 'सर्णकुमारंमिति सनत्कुमारे कल्पे विमध्यस्थितिदेवः समुत्पन महावीरनियुक्तिः इति, 'सेतवि भारदाए चोयालीसं च माहिंदि ति सनत्कुमाराच्युतः श्वेताम्व्यां नगर्या भारद्वाजो नाम ब्राह्मण उत्पन्ना इति, तत्र च चतुश्चत्वारिंशत्पूर्वशतसहस्राणि जीवितमासीत्, परिव्राजकश्चाभवत्, मृत्वा च माहेन्द्रे कल्पेजघन्योत्कृष्ट॥२४॥ स्थितिर्देवो बभूवेति गाथार्थः। संसरिय थावरो रायग्रिहे चउतीस वंभलोगम्मि । छस्सुवि पारिबळ भमिओ तत्तो अ संसारे ॥४४॥ गमनिका-माहेन्द्राच्युतः संमृत्य कियन्तमपि कालं संसारे स्थावरो नाम ब्राह्मणो राजगृहे समुत्पन्न इति, तत्र व चतुस्त्रिंशत्पूर्वशतसहस्राण्यायुष्कं, परिव्राजक आसीत्, मृत्वा ब्रह्मलोकेजघन्योत्कृष्टस्थितिर्देवः सञ्जातः, एवं षट्स्वपि वारास परिव्राजकत्वमधिकृत्य दिवमवाप्तवान्, 'भमिओ तत्तो य संसारे ततःब्रह्मलोकायुत्वा वान्तः संसारे प्रभूतं कालमिति गाथार्थः॥ रायगिह विस्सनंदी विसाहमूई अतस्स जुवराया। जुवरणो विस्समूई विसाहनंदी जइजरस्स ॥४४॥ रायगिह विस्सभूई विसाहभूइसुअ खत्तिए कोडी। वाससहस्सं दिक्खा संमूअजइस्स पासम्मि ॥ ४४५। भावार्थः खल्वस्य गाथादयस्य कथानकादक्सेयः, तच्चेदम्-रायगिद्दे नगरे विस्सनंदी राया, तस्स भाया विसाहभूती, २४८॥ सो व जुवराया, तस्स जुवरण्णो धारिणीए देवीए विस्सभूती नाम पुत्तो जातो, रण्णोऽवि पुचो विसाहनंदित्ति, तस्स [विस्समूतिस्स बासकोडी आउँ, तत्व पुष्फकरंडकं नाम उजाणं, वत्य सो विस्तभूती अंनेउरवरगतो सच्छंदमुहं पवियरइ दीप अनुक्रम Jan 1 ForFive Persanamory ~220 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४४३-४४५], विभागाथा , भाज्यं [४५...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक 8 तो जा सा विसाहनंदिस्स माया तीसे दासचेडीओ पुष्फकरंडए उबाणे पत्चाणि पुष्पाणि व आ(विति, पेच्छति य विस्सभूतिं कीडतं, तासि अमरिसो जाओ, ताहे साहति जहा एवं कुमारो ललइ, किं अम्ह रखेण वा बलेण वा, जह विसाहनंदी न भुंजइ एवंविहे भोए, अम्ह नामं चेव, रज पुण जुवरन्नो पुत्तस्स जस्सेरिसं ललियं, सा तार्सि अंतिए सोउं देवी ईसाए कोवघरं पविठा, जइ ताव रायाणए जीवंतए एसा अवत्था , जाहे राया मतो भविस्सइ ताहे इत्व अम्हे को गणेहित्ति, राया गमेइ, सा पसायं न गिण्हइ, किं मे रजेणं तुमे वत्ति, पच्छा तेण अमञ्चस्स सिई, ताहे अमबोऽवि तं गमेति, तहवि न ठाइ, ताहे सो अमचो भणइ राय-मा देवीए वयणातिकमो कीरउ, मा मारेहिति अप्पाणं, राया भणति-को उवाओ होज्जा!, ण य अम्हं वंसे अन्नंमि अतिगते उजाणे अण्णो अतीति, तत्थ वसंतमासं ठिो मातग्गेसु अच्छइ, अमचो भणइ-उवाओ कजउ, जहा अमुगो पर्चतराया ओबट्टो, अणजंता पुरिसा कूडलेहे उवणेतु, एवमेतेण कयकेण ते कूडलेहा रचा उपविया, ताहे राया जत्तं गिण्हेइ, तं विस्सभूतिणा सुयं, ताहे भणति-मए जीवमाणे तुन्भे किं निग्गच्छह , ताहे सो गओ, ताहे चेव इमो अइयो, सो गओ तं पञ्चंतं जाव न किंचि पेच्छइ उडुमरेतं, ताहे आहिंडित्ता जाहे नत्थि कोइ अतिकमइ ताहे पुणरवि पुष्फकरंडयं उज्जाणमागओ, तत्ध दारवाला दंडगहिअग्गहत्या भणंति-मा अईह सामी1, किं निमित्तं , एत्थ विसाहनंदी कुमारो रमइ, ततो एवं सोऊणं कुविओ विस्सभूती, तेण नार्य-कयकेण ४ अहं निम्गच्छाविओत्ति, तत्थ कविठ्ठलता अणेगफलभरसमोसया, सा मुट्टिप्पहारेण आया, ताई तेहिं कविद्वेहि भूमी अनुया, ते भणाति-पवं अई तुई सीसाणि पार्डितो जइ अहं महल्लफ्तिये गोस्वं न करेंतो, अई भे उम्मेण नीणिो दीप अनुक्रम wsanelibrary.com ~221 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [४४३-४४५], विभा गाथा , भाष्यं [४५...], मूलं F/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम उपोद्धात- ४ सम्हा अलाहि भोगेहि, तओ निग्गओ, भोगा अवमाणमूलत्ति अजसंभूयाणं घेराणं अंतिए पथइओ, तं पपइयं सोउं ताहे| महावीरनियुकिः दीराया संतेउरपरियणो जुवराया य निग्गओ, ते ते खमाति,णेव तेर्सि सो पसत्तिं गेहइ, ततो बहुहिं छद्रुट्ठमादिपहि|| भवाः अप्पाणं भावमाणो विहरति, एवं सो विहरमाणो महुरनगरिं गओ। ॥२४॥ ४। इओय विसाहनंदी कुमारो तत्थ महुगए पिउच्छाए रन्नो अग्गमहिसीए धूया लद्धेलिया, तस्थ गतो, तत्थ से रायमग्गे|" है| आवासो दिन्नो, सो य विस्तभूती अणगारो मासखमणपारणगे हिंडतो तं पएसमागतो जत्थ ठाणे विसाहनंदीकुमारो || अच्छइ, ताहे तस्स पुरिसेहिं कुमारो भण्णइ-सामि ! तुम्भे एयं न याणह !, सो भणति-न याणामि, तेहिं भण्णइ-एस || सो विस्तभूतीकुमारो, ततो तस्स तं दहण रोसो जाओ, इत्थंतरे सूइयाए गावीए पणोल्लिओ पडिओ, ताहे तेहिं उकुडिकलयलो कओ, इमं चऽणेहिं भणियं-तं वलं तुझ कविट्ठपाडणं च कहिं गये ?, ताहे तेण तत्तो पलोइयं, दिट्ठो यऽणेण सो पावो, ताहे अमरिसेणं तं गार्वि अग्गसिंगेहिं गहाय उडमुवहइ, सुदुब्बलसावि सिंधस्स किं सियालेहिं बलं लंघिजइ ?, प्रताहे चेव नियत्तो, इमो दुरप्पा अजवि मम रोसं वहइ, ताहे सो नियाणं करेइ-'जइ इभस्स तवनियमवंभचेरस्स फलमधि तो आगमेस्साणं अपरिमियचलो भवामि' तत्थ सो अणालोइयपडिकतो महासुके उववण्णो, तत्थुक्कोसहितीओ देयो जातो, ततो चइऊण पोयणपुरे नगरे पुत्तो पयावइस्स मिगावईए देवीए कुच्छिंसि उववण्णो, तस्स कहं पयावती नाम, 1॥२४॥ तस्स पुर्षि रिउपडिसनुत्तिनाम होत्या, तस्स य भद्दाए देवीए अयले नाम कुमारे होत्था, तस्स य अयलस्स भगिणी| | मियावती नाम दारिया, अतीव रूववती, सा य उम्मुक्कबालभावा सबालंकारविभूसिया पिउपायबंदिया गया, तेण सा ॐ JanEducatan imTEN Farvey Ho msannlinrary.orm ~222 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्ति: [ ४४३-४४५] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ४५...], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education International उच्छेने निवेसिया, सो तीसे रूवे जोवणे य अंगफासे व मुच्छिओ, तं विसज्जेता पउरजणवयं बाहरइ, ताहे भणइ-जं एत्थ रयणं उप्पज्जइ तं कस्स ?, ते भति-तुभं, एवं तिन्नि वारा साहिते सा चेडी उबडि (वि) या, ताहे लज्जिया निग्गया, तेसिं सचेसिं कृबमाणाणं गंधवेण विवाहेण सयमेव विवाहिया, उप्पाइयाऽणेणं भारिया सा, भद्दा पुत्तेण अयलेण समं दक्खिणापहे माहिस्सिरि पुरिं निवेसे, महंतीए इसरीएत्ति माहेस्सरी, अयले मायं ठवेऊण पिउमूलमागओ, ताहे लोएण पयावती नामं कर्य, पया अणेण पडिवण्णा पयावतिसि, वेदेऽप्युक्तम् - "प्रजापति+ स्वां दुहितरमकामयत" ताहे महासुक्काओ चइऊणं तीए मियावतीए कुच्छिसि उबवण्णो, सत्त सुविणा दिट्ठा, सुमिणपाढगेहिं पढमवासुदेवो आइट्ठो, कालेण जातो, तिष्णि य से पिट्ठिकरंडका तेण से तिथि नामं कयं मायाए पडिमक्खिओ उण्हतेल्लेणंति, जोबणगमणुप्पत्तो । इओ य महामंडलिओ आसग्गीवो राया, सो निमित्तियं पुच्छर-कतो मम भवति १, तेण भणियं-जो चंडमेहदूयं आधरिसेहित्ति, अवरं ते य महाबलवगं सीहं मारेहिति, ततो ते भयंति, तेण सुयं, जहा पयावतिपुत्ता महाबलबगा, ताहे तत्थ दूयं पेसेइ, तत्थ य अंतेपुरे पेच्छणयं वट्टइ, तत्थ य दूओ पविट्टो, राया उट्ठओ, पेच्छणयं भर्ग, कुमारा पेच्छणगेण अक्खित्ता भणति को एस १, तेहिं भणियं-जहा आसग्गीवरण्णो दूओ, ते भणंति- जाहे स वजा ताहे कहेजह, सो राइणा पूर्वद्वारा विसज्जिओ, पधाविओ अप्पणो विसयस्स, कहियं कुमाराणं, तेहिं गंतूण अद्धप्पहे हओ, तस्स जे सहाया ते सर्वविदितोदिसिं पलाया, रण्णा सुयं जहा आहरिसिओ दूओ, संभंतेणं नियत्तिओ, ताहे रण्णा चिणतिणं दाऊण मा हु रण्गो साहिजसु जं कुमारेहिं कर्य, तेण भणियं-न साहेमि, ताहे जे ते पुरओ गया तेहिं सिहं Pevate & Personal Use Ony 223~ sanlibrary.org Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४४३-४४५], विभागाथा , भाज्यं [४५...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक उपोदात-18जहा आधरिसिओ दूओ, ताहे सो राया कुविओ, तेण दूएण नायं-जहा रसो पुर्व कहियलय, जहाव सिद्वं, ततो अस्स- महावीरनियुक्ति गीचेण अनो दूओ पेसिओ, वञ्च पयावई गंतूण भणाहि-मम सालिं रक्खाहि कसिजमाण, गतो दूओ, रन्ना कुमारा भवा: उबलद्धा-किह अकाले मजू खवलिओ, तेण अम्ह अवारए चेव जत्ता आणता, राया पहाविओं, ते भणति-अम्हे ॥२५०॥ बच्चामो, ते रुभता मड्डाए गता, गंतूर्ण खेत्तए भणंति-किह अने रायाणो रक्खियाइया!,ते भणति-आसहत्थिरहपुरिसपा-1 गारं काउणं, केचिरं ?, जाव करिसणं पविहूं, तिवद् भणति-को एचिरमच्छइ १, मम तं पएसंदरिसेह, तेहिं कहियं-एयाए गुहाए, ताहे कुमारो रहेण तं गुहं पविट्ठो, लोगेण दोहिवि पासेहिं कलयलो कओ, सीहोऽविय असंभतो निग्गओं कुमारो चिंतेइ-एस पादेहिं अहं रघेण, विसरिसं जुद्ध, असिखेडगहत्थो रहाओ उइन्नो, ताहे पुणोऽवि चिंतेइ-एस दाढाणखायुधो अहमसिखेडगेण, एवमवि असमंजसं, तंपिऽणेण असिखेडगं छडियं, सीहस्स अमरिसो जाओ-गं ता रहेण गुहमतिगतो एगागी, बितियं भूमि ओइण्णो, ततियं आयुधाणि विमुक्काणि, अजणं विणिकाएमित्ति महया अ-5 तालिएणं वयणे उकंदं काऊण संपत्तो,ताहे कुमारेण एगेण हत्येण उवरिल्लो उट्ठो एगेणं हेढिल्लो गहिओ, तो तेण जुन्नपडगोविव दुहा काऊण मुक्को, ताहे लोगेण कलयलो कओ, अहासन्निहियाए देवयाए आभरणवत्थकुसुमवरिसं वरिसियं, ताहे. सीहो तेण अमरिसेण फुरफुरेंतो अच्छइ, एवं नाम अहं कुमारएण जुद्धेण मारिओत्ति, तं च किर कालं भगवओ|" गोयमसामी रहसारही आसि, तेण भण्णति-मा तुम अमरिसं वहाहि, पस नरसीहो तुम मियाधिराओ, वा जति सीहो| सीहेण मारिजो को पत्य अवमाशो', वाणि सो वयणाणि मधुमिव पिबति, सो मरिचा नरए उववष्णो, सो कुमारो दीप अनुक्रम ॥२५॥ Jan E HU ForFive Persanamory KA msannlinrary.orm. ~224 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education Intern “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्ति: [४४३-४४५], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ४५...], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः V तं धम्मं गहाय नगरस्स पहाविओ, ते य गामेलए भणइ गच्छह भो ! तस्स घोडयग्गीवस्स कहेह, जहा अच्छसु बीसत्थो, तेहिं गंतूज सिहं, रुट्ठो, दूयं बिसज्जेइ एए पुसे तुमं मम ओलग्गाए पटुवेहि, तुमं महल्लो, जाहे पेच्छामि सकारेमि रजाणि य देमि, तेण भणियं- अच्छंतु कुमारा, सयं चेव णं ओठग्गामित्ति, ताहे सो भणति किं न पेसेसि ?, पेसेहि आउ जुज्झसज्जो निग्गच्छेति, सो दूओ तेहिं आधरिसित्ता धाडिओ, ताहे सो आसग्गीवो सबवलेण उवडिओ, इयरेऽबि देसंते ठिया, सुबहुं कालं जुज्झिण हयगय रहनरादिक्लयं च पिच्छिऊण कुमारेण दूओ पेसिओ, जहाऽहं च तुमं च दोन्निवि जुद्धं संपलग्गामो, किं च बहुएण अकारिजणेण मारिएण ?, एवं होउत्ति, त्रिइयदिवसे रहेहिं संपलग्गा, जाहे आउहाणि खीणाणि ताहे चकं मुयइ, तं तिविश्स तंत्रगउरे पडियं, तेणेव सीसं छिन्नं देवेहिं च घुई जहेस तिविद्द पढमो वासुदेवो उप्पन्नोत्ति, ता सबै रायाणी पणिवायमुवगया, ओवतियं अद्धभरहं, कोडियसिला दंडवाहाहिं धारिया, एयं रहावत्तपत्रयसमीचे जुद्धमासि, एवं परिहायमाणे वले कण्हेण किर जण्णुगाणि जात्र किहवि पानिया, तिविट्टू चुलसीतिं वास सय सहस्साई सदाउयं पादइत्ता कालमासे कालं काऊण सत्तमाए पुढवीए अप्पतिद्वाणे नरए तेत्तीस सागरोवमट्टितीओ नेरइओ उयो : अयमासां भावार्थः, अक्षरार्थस्त्वभिधीयते - राजगृहे नगरे विश्वनन्दिनाम राजा अभूत्, विशाखभूतिश्च तस्य युवराजः, तस्य धारिणीदेव्या विश्वभूतिनाम पुत्र आसीत्, विशाखनन्दिश्चेतरस्य राज्ञ इत्यर्थः, तत्रेत्थमधिकृतो मरीचिजीवः 'रायगिह विस्सभूइत्ति' राजगृहे नगरे विश्वभूतिर्नाम विशाखभूतिसुतः क्षत्रियोऽभवत्, तत्र च वर्षकोटी आयुष्कमासीत्, तस्मिंश्च भवे वर्षसहस्रं दीक्षा-प्रत्रज्या कृता, सम्भूतयतेः पार्श्वे ॥ तत्रैव For Peace & Personal Use Only 225~ janelibrary.org Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४४६-४४९], विभा गाथा , भाष्यं [४५...], मूलं । गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोद्घात- गुत्तासिओं महुराए सनिआणो मासिएण भत्तेण । महसुके उववन्नो तओ धुओ पोअणपुरम्मि ॥ ४४६॥ महावीरनियुकि पुत्तो पयावहस्सा मिगावईदिवि कुच्छिसंभवो भयवं । नामेण तिविद्रुत्ति आई आसी दसाराणं ॥ ४४७॥ भवाः गाहागमनिका-पारणकप्रविष्टो गोत्रासितो मथुरायां निदानं चकार, मृत्वा च सनिदानोऽनालोचिताप्रतिक्रान्तः ॥२५॥ | अन्ते मासिकेन भक्केन महाशुने कल्पे उपपन्न उत्कृष्टस्थितिर्देव इति, ततो महाशुक्रात् च्युतः, पोत्चनपुरे नगरे पुत्रः प्रजापते राज्ञः मृगावतीदेवीकुक्षिसम्भूतो, नाम्ना त्रिपृष्ठः, आदि:-प्रथम आसीत् दसारार्णा ॥ तत्र वासुदेवत्वं च चतुरशीति-(ग्रंथागं० ९६००) वर्षशतसहस्राणि पालयित्वा अधः सप्तमनरकपृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिरिकः सञ्जात इति, अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह चुलसीइमप्पइहे सीहो नरएम तिरिअमणुएमु । पियमित्तचक्कवट्टी मुगा विदेहाइ चुलसीइ ॥ ४४८॥ गाहागमनिका-चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि वासुदेवभवे खल्वायुष्कमासीत् , तमनुभूय अप्रतिष्ठाने नरके समुत्पन्नः, तस्मादप्युद्धत्य सिंहो बभूव, मृत्वा च पुनरपि नरक एवोत्पन्न इति, 'तिरियमणुएसुत्ति पुनः कतिचिनवग्रहणानि #तियेडपनुष्ये पूत्पद्य 'पियमित्तचकवही मुया विदेहाए चुलसीति'त्ति अपरविदेहे मूकायां राजधान्यां धनञ्जय-1 नृपतेधारणिदेव्याः प्रियमित्राभिधानश्चक्रवर्ती समुत्पन्नः तत्र चतुरशीतिपूर्वसहस्राण्यायुष्कमासीदिति गाथार्थः।। पुत्ता धणंजयस्सा पुहिल परियाउ कोडि सबढे । नंदण छत्तग्गाए पणवीसाउं सयसहस्सा ॥ ४४९ ॥ तत्रासौ प्रियमित्रः पुत्रो धनञ्जयस्य धारणिदेव्याच भूत्वा चक्रवर्तिभोगान् भुक्त्वा कश्चित् सञ्जातसंवेगः सन् 21॥२५॥ पोहिल'इति प्रौष्टिलाचार्यसमीपे प्रवजितः, 'परियाओ कोडि सबढे'त्ति मनग्यापर्यायो वर्षकोटि बभूव, मृत्वा महा KXXXXXXX दीप अनुक्रम %25%20-%2560% Janin iwsansliterary.orm ~226~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५०-४५७], वि०भा०गाथा , भाष्यं [४५...], मूलं F/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 62-6--07 प्रत सत्रांक - शुके कल्पे सर्वार्थविमाने सप्तदशसागरोपमस्थितिर्देवोऽभवत्, 'णंदण छत्तग्गाए पणवीसाउं सयसहस्से ति सार्यसिद्धाच्युत्वा छत्रायां नगर्यो जितशत्रुनृपतेर्भद्रादेव्या नन्दनो नामकुमार उत्पन्न इति पञ्चविंशतिवर्षशतसहस्राण्यायुष्कमासीदिति गाथार्थः । तत्र च बाल एव राज्यं चकार, चतुर्विशतिवर्षशतसहस्राणि राज्यं कृत्वा तत:पहज पुहिले सयसहस्स सवत्थ मासभत्तेणं । पुप्फुत्सरे उववन्नो तओ चुओ माहणकुलम्मि ॥१५॥ गाहागमनिका-राज्यं विहाय प्रव्रज्यां कृतवान् 'पोटेल'त्ति पोष्टिलाचार्यान्तिके, 'सयसहस्सत्ति वर्षशतसहस्त्रं यावदिति, कथं ?- 'सर्वत्र मासभक्तेने ति अनवरतमासोपवासेनेति, अस्मिन् भवे विंशतिभिः कारणैस्तीर्थकरनामगोत्रं कर्म निकाचयित्वा मासिकया उल्लेखनयाऽऽत्मानं क्षपयित्वा षष्टिं भक्तानि विहाय आलोचितप्रतिक्रान्तो मृत्वा 'पुप्फुत्तरे उववन्नो' ति प्राणतकल्पेषु पुष्प्पोत्तरावतंसके विंशतिसागरोपमस्थितिर्देव उत्पन्न इति, 'ततो चुतोमाहणकुलंमिति ततः*पुष्पोत्तरात च्यतो ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे सोमिलस्य ब्राह्मणस्य देवानन्दायाः पल्याः कुक्षौ समुत्पन्न इति गाथार्थः कानि पुनस्तानि विंशतिकारणानि यैस्तीर्थकरनामगोत्र कम्मे तेनोपनिवद्धमित्यत आहअरिहंता०॥ ४५१ ॥ दंसण०॥ ४५२ ॥ अप्पुव०॥४५३ ॥ पढम०॥४५४ ॥तंच०॥४५॥ नियमा०॥४५॥ एता ऋषभदेवाधिकारे व्याख्यातत्वान्न विनियन्ते ॥ माहणकुंडग्गामे कोडालसगुत्तमाहणो अस्थि । तस्स घरे उचवन्नो देवाणंदाइ कम्छिसि ॥ ४५७ ॥ अस्या व्याख्या-पुष्पोत्तराच्युतो ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे कोडालसगोत्रो ब्राह्मणः सोमिलाभिधानोऽस्ति, तस्स रहे| ४. उत्पन्नः देवानन्दायाः कुक्षाविति गाथार्थः ॥ - दीप अनुक्रम - E - - को- Jan Education ~227~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [४५...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: महावीरभवा प्रत उपोद्घात-18 औं नमो वीतरागाय. नियुको साम्प्रतं वर्द्धमानस्वामिवक्तव्यतानिवद्धां द्वारगाथामाहश्रीवीर सुमिणऽवहार १ मभिग्गह २ जम्मण ३ मभिसेय ४ बुद्धि ५ सरणं ६ च । चरिते भेसण ७ विवाह ८ ऽबच्चे ९ दाणे १० संबोह ११ निक्खमणे १२॥ ४५८॥ ॥२५२॥ प्रथमं स्वमा वक्तव्याः, यान् तीर्थकरजनन्यः पश्यन्ति, यथा च देवानन्दया प्रविशन्तो निष्कामन्तश्च दृष्टाः, त्रिश लया च प्रविशन्त इति, 'अवहार त्ति अपहरणमपहारः स वक्तव्यो, यथा भगवान् अपहृत इति, 'अभिग्गहोत्ति अभिग्रहो वक्तव्यो, यथा भगवता गर्भस्थेन गृहीतः, 'जम्मण'त्ति जन्मविधिर्वतव्यः, 'अभिसेय'ति अभिषेको वाच्यः, यथा विबुधनाथाः कुर्वन्ति, 'बुद्धिति वृद्धिर्वक्तव्या भगवतो, यथाऽसौ वृद्धिं जगाम, 'सरणीति जातिस्मरणं वक्तव्यं, 'भेसण'त्ति यथा देवेन भेषितस्तथा वक्तव्यं, तथा विवाहविधिर्वाच्यः, 'अवचति अपत्यं वकव्यं, 'दाण'त्ति निष्क्रमणकाले दानं वक्तव्यं, 'संयोह'त्ति सम्बोधनविधिर्वतव्यो, यथा लोकान्तिकैः सम्बोधितः,'णिक्खमणे ति निष्क्रमणे च यो विधिरसौ वक्तव्यः ।। अवयवार्थ तु भाष्यकार एव वक्ष्यति, तत्र स्वमद्वारमभिधीयते-"भयवं तिनाणोवगए चुए, सो चइस्सामित्ति जाणइ, चयमाणे न जाणइ, समयस्य छद्मस्थोपयोगाविषयत्वात् , चुएमित्ति जाणइ, जरयाणि देवाणंदाए कुञ्छिसि गम्भचाए उववन्ने त रयणि सा सयणिजसि सुत्तजागरा इमे चोद्दस महासुमिणे पासइ, तथा चाह दीप अनुक्रम २५२॥ Janne Farivate Persana tumory vsanelibrary.com ... अथ भगवन्त महावीरस्य वक्तव्यता संबंध: स्वप्न, अपहार, अभिग्रह आदि द्वादश-द्वाराणाम् वर्णनं क्रियते| ~228 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५८], वि०भा०गाथा . भाष्यं [४६-४७], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक गय १ वसह २ सीह ३ अभिसेय ४ दाम ५ ससिदिणयरं ७ सयं कुंभ ९। पउमसर १० सागर ११ विमाणभवण १२ रयणुच्चय १३ सिहि १४ च ४६ ॥ भा० ... गर्ज वृषभं सिहं अभिषेक, स चाभिषेकः श्रियः परिगृह्यते, दाम-पुष्पदाम रसविचित्रं, शशिनं दिनकर वज|| कुम्भं पद्मसरः, पद्मभूषितं सरः पद्मसर इति समासः, सागरं च, तथा विमानं च तद्भवनं च विमानभवनं, वैमानिक देवनिवास इत्यर्थः, अथवा सर्वतीर्थकरविषया सामान्येयं गाथा, ततोऽयमय:-वैमानिकपच्युतमातरो विमानं पश्यन्ति, हा अधोलोकोत्तमातरो भवन, न तूभयमिति ॥ एए होइस सुमिणे पासइ सा माहणी सुहपसुत्ता। जरयणि उववन्नो कुञ्छिसि महायसो वीरो ॥४७॥ भा० एतान् चतुर्दश महास्वमान् पश्यति सा ब्राह्मणी सुखप्रसुप्ता यस्यां रजन्यामुपपन्नः कुक्षी महायशा वीरः, पश्यतीति | वर्तमान निर्देशः पूर्ववत् , पाठान्तरं वा 'एए चोद्दस सुमिणे पेच्छिय सा माहणी', ततश्च दृष्टचतीति गाथार्थः ॥ तए णं | सा पासिचा पडिबुद्धा हट्टतुट्ठा उसभदत्तस्स माहणस्स कहेइ, से य एवं वयासी-उराठा गं तुमे देवाणुप्पिए। सुमिणा दिहा, तं अस्थलाभो देवाणुप्पिए ! भोगलाभो देवाणुप्पिए! पुचलाभो देवाणुप्पिए ! सोक्खलाभो देवाणुप्पिए, एवं दखलु तुम देवाणुप्पिए! नवण्हं मासाणं अट्ठमाणं राइंदियाणं वइकंटाणं सुकुमालपाणिपावं अहीणपडिपुण्णपंचेंदियसरीरं है। सवलक्खणोववेयं दारयं पयाहिसि, से य उम्मुकत्रालभावे सबविजागणपरिनिद्विप भविस्सइ, तए णं सा देवानंदा एयमई। सोचा हतुट्ठा एवं वयासी-एवमेवं देवाशुप्पिया! अवितहमेयं देवाणुपिया! जहेयं तुम्भे वयह इति । गतं स्वमद्वारम् | आ.सू ४३ दीप अनुक्रम ACC E JanEdication Internama ForFive Persanamory ~229 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ४५८ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ४६-४७], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ॥२५३॥ उपोद्घात| अधुनाऽपहार द्वारमभिधीयते- तेणं कालेणं तेणं समएणं सके नामं देविंदे देवराया बज्जपाणी सोहम्मे कप्पे सोहम्मवहिंसए निर्युको विमाणे सभाए सुहम्माए सर्कस सीहासणंसि मुहनिसने दिवाई मोगाई भुंजमाणे इमं जंबुद्दीवं दीत्रं कहंचि आभोएर, श्रीवीर है तत्थ समर्ण भयवं महावीरं देवाणंदाए कुच्छिसि गन्भत्ताए वर्कतं पासिता हट्टतुट्ठे हरिसवसविसप्पमाणहियए सीहासचरिते णाओ अच्भुट्टे, अन्भुट्टेत्ता पायपीढातो पचोरुहइ, पश्चोरुहित्ता नाणामणिरयण मंडियातो पाउयातो ओमुयइ, ओमुइता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ, करिता तित्थयराभिमुहे सत्तटु पयाई अणुगच्छा, अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ, उत्पाटय| तीत्यर्थः, दाहिणं जाणुं धरणितलं सि निहट्ट तिक्खुतो मुद्धाणं धरणितलंस निवाडे, निवाडित्ता पज्जुनमद, ततो करयलपरि*ग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं व्यासी-नमोत्यु णं अरहंताणं भगवंताणं आइगराणं जाव सिद्धिंग इनामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमोत्थु णं समणस्स भगवतो महावीरस्स (आइगरस्स ) तित्थगरस्स जाव सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविजकामस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इहगतेत्तिक बंदर नमसइ, वंदित्ता नर्मसित्ता सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमु संनिसण्णे । तए णं सकस्स देविंदस्स देवरनो अयमेयारूवे संकप्पे समुप्पण्णे-उप्पण्णे खलु समणे भयवं मद्दात्रीरे देवाणंदाए माहणीए कुच्छिसि तन एयं भूयं वा भवइ वा भविस्सइ वा जण्णं अरहंता वा चकवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा तुच्छकुलेसु वा दरिद्दकुलेसु वा भिक्खागकुलेसु वा आयाइंसु वा आयायंति वा आया| इस्संति वा, एवं खलु अरहंता वा जाव वासुदेवा उग्गकुलेसु वा भोगकुलेसु वा रायनकुलेसु वा इक्खागुकुलेसु वा अन्न||यरेसु वा तहप्पगारेषु विसुद्धजाइएस कुठेसु महंतं रज्जसिरिं कारेमाणेसु गन्भं वक्कमिंसु वा वक्रर्मति वा वक्कमिस्संति वा, Jan Education Ire For Peace & Personal Use Ony ~ 230~ देवानन्दा स्वप्ताः श ऋस्तुतिः गर्भसंक्रम विचारः ॥ २५३ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५८], विभा गाथा H, भाष्यं [४६-४७], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक ४ अस्थि पुण एस भावे लोगच्छेरयभूए अणताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं वइकताहिं समुप्पज्जा, जहा नीयागोयस्स कम्मस्स | उदएणं अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु जाव भिक्खागकुलेसु वा आयाईसु वा आयायंति वा आयाइस्संति वा, नो चेवणं जोणीतो निक्वमिंसु वा निक्खमंति वा निक्खमिस्संति वा, तं जीयमेयं तीतपचुप्पन्नअणागयाणं सकाणं देविंदाणं देवराईणं अरहते भगवते तहप्पगारेहितो अंताइकुलेहितो तहप्पगारेसु उम्गकुलेसु जाव विसुद्धजाइएसु कुलेसु साहरावेत्तए, तं सेयं खलु समणं भयवं महावीरं चरमतिस्थयरं माहणकुंडग्गामातो नगरातो खत्तियकुंडग्गामे नयरे सिद्धत्धस्स खत्तियस्स कासवगोत्तस्स भारियाए तिसलाए खत्तियाणीए वासिङगोत्साए कुच्छिसि गन्भताए साहरावेत्तए, जेऽविय णं से तिसलाए गम्भे तं देवानंदाए कुच्छिसि, एवं संपेहित्ता हरिणेगमेसिं पायत्ताणिवाहिवई देवं सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-एवं खलु समणं भय महावीरं देवानंदाकुच्छीतो तिसलाए कुञ्छिसि साहरह, तए णं से हरिणेग| मेसी पायत्ताणीयाहिर्वइ एयमद्वै हतुढे विणएणं सम्म पडिसुणित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागमवक्कम्म एकंपि दोच्चपि वेववियसमुग्धारण समोहणित्ता उत्तरवेउधियं रूवं विउचाइ, विउवित्ता तुरियाए गईए जेणेव देवाणंदा तेणेव उवागच्छइ, उवा. गच्छित्ता आलोए भगवतो महावीरस्स पणाम करेइ, करिता अणुजाणउ में भयवंतिकट्ठ देवाणंदाए सपरियणाए ओसोयणि दटेइ २ ता दिवेण पभावेणं करयलपुडेहिं अबाबाहं गेण्हइ गेण्हत्ता बासीईए राइदिएसु वइकंतसु तेसीइमे राइदिए वहमाणे जे से वासाणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे आसोयबहुलतेरसी संमि देवाणंदाए माहणीए कुच्छीतो तिसलाए खत्तियाणीए कुषिसि अवाबाई साहय, से तिसलाए गम्भे तं देवाणंदाप कुहिसि साहरा, साहराचा साणे गतो Pr दीप अनुक्रम -+ व JanEdientaminor singanaliorary.orm ~231 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [४८-४९], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत -1 उपोद्धात- सकस्स कहेइ । भयपि तिनाणोवगए साहरिजिसामीति जाणइ, साहरिजमाणे जाणइ, संहरणस्यानेकसामायिकतया गर्भसंक्रमः नियुक्ती छिद्मस्थोपयोगविषयत्वात् , साहरिएमित्ति जाणइ, जरयणि चणं भयवं देवाणंदाए कुच्छीतो तिसलाए कुच्चिसि साहरिए 8 त्रिशलाश्रीवीर- तरयणि सा देवाणंदा ते सुमिणे तिसलाए हडे पासित्ताणं पडिबुद्धा, तिसलावि य णं मणोरमंसि सयणिजसि सुत्तजागरा। स्वमा चरिते ते चोद्दस महासुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धा, ततो सिद्धत्यस्स साहइ, सोऽवि साभाविएणं बुद्धिपगरिसेणं तेसिं सुमिणाणं| अत्थं परिभाषइत्ता एवं बयासी-उराला णं तुमए देवाणुप्पिए ! सुमिणा दिवा, तं अम्हं कुलकरं कित्तिकरं सुकुमालपाणि-1 ॥२५॥ पायं अहीणपडिपुन्नपंचिंदियसरीरं दारगं पयाहिसि, ततो तिसला एवं वुत्ता समाणा हड्तुहा तं वयणं सम्म पडिसुणइ, सए णं सिद्धत्थे खत्तिए पञ्चूसकालसमए सुमिणपाढए सद्दाविचा आपुच्छइति, तेवि सुमिणसत्यत्वं परिभाविऊण भणति-19 चाउरंतचक्वट्टी राया वा भविस्सइ, जिणे वा तेलोकनायए धम्मवरचकवट्टी वा ॥ अमुमेवार्थ सह्याहअह दिवसे बासीह वसइ तर्हि माहणीइ कुञ्छिसि। चितेइ सुहम्मवई साहरि जे जिणं कालो ॥४८॥ भा०1। __ अथ दिवसान बशीतिं वसति तस्यां ब्राह्मण्याः कुक्षी, 'अर्थ' अनन्तरमेतावत्सु दिवसेष्वतिक्रान्तेषु चिन्तयति सौधर्मपतिः संहत्तुं, जे इति निपातः पादपूरणार्थः, तया चाह वररुचिः स्वप्राकृतलक्षणे-'इजेराः पादपूरणे इति, जिनं ॥२५४॥ कालो वर्तते । किमिति संहियते इत्याह अरहंत चक्कवट्टी बलदेवा चेव वासुदेवा य । एए उत्तिमपुरिसान हुतुच्छकुलेसु जायन्ति ॥ ४९॥ भा० सुगमा । नवरं तुच्छकुलेषु-असारकुलेषु ॥ पुनः केषु कुळे जावन्त इत्याह M-0- दीप अनुक्रम Jan Education wwsanelibrary.com ~232 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [५०-५३], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक % % उग्गकुलभोगखत्तियकुलेसु इक्खागनायकोरचे । हरिवंसे य विसाले जायंति तहिं पुरिससीहा ॥५०॥ भा० । उपकुलेषु भोगकुलेषु क्षत्रियकुलेषु इक्ष्वाकुकुलेषु ज्ञातकुलेषु कौरव्यकुलेषु हरिवंशे च विशाले आयान्ति-आगच्छन्ति उत्पद्यन्ते तत्र-उग्रकुलादौ पुरुषसिंहा:-तीर्थकरादयः ॥ यस्मादेवं तस्माद्भुवनगुरुभक्त्या चोदितो देवराजो हरिणेगमेषिमभिहितवान-एष भरतक्षेत्रचरमतीर्थकृत् प्रागुपात्तकमशेषपरिणतिवशानुच्छकुले जातस्तदयमितः संहृत्य क्षत्रिये स्थाप्यतामिति, स हि तदादेशात्तथैव च ॥ अमुमेवार्थ भाष्यकार एवाहअह भणइ णेगमेसिं देविंदो एस इत्य तित्थयरो। लोगुत्तमो महप्पा उववन्नो माहणकुलम्मि ॥५१॥ भा. ___ अथानन्तरं भणति 'णेगमेसि' हरिणेगमेषि देवेन्द्रः एषः' भगवान् 'अत्र' ब्राह्मणकुले लोकोत्तमो महात्मा उत्पन्नः। इदं चासाधु, ततश्चेदं कुरुसत्तियकुंडग्गामे सिद्धत्थो नाम खत्तिओ अत्थि । सिद्धत्यभारियाए साहर तिसलाए कुच्छिसि ॥२२॥ भा० क्षत्रियकुण्डग्रामे सिद्धार्थो नाम क्षत्रियोऽस्ति, तत्र सिद्धार्थभार्यायाः संहर त्रिशलायाः कुक्षौ ॥ । बादंति भाणिऊणं वासारत्तस्स पंचमे पक्खे । साहरइ पुवरते हत्थुत्तरतरसीदिवसे ॥५३॥ भा० | सहरिणैगमषिः वादमित्यभिधाय-अत्यर्थ करोम्यादेशं, शिरसि स्वाम्यादेशः इति उक्त्वा, वर्षारात्रस्य पश्चमे पक्षे | मासद्वये अतिक्रान्ते (संहरति ) अश्वयुगबहुलत्रयोदश्यां पूर्वराने-प्रथमप्रहरद्धयान्ते हस्त्रोचरायाम्-उचरायामुत्तरफाल्गुनीनक्षत्रे त्रयोदशीदिवसे । % काटकर दीप अनुक्रम * %* E% % Ciwsannlinrary.orm ~233 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५८], विभा गाथा भाष्यं [५४-५७], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम उपोद्घात- गय सीह बसह अभिसेय दाम ससि दिणयरं झयं कुंभं। पउमसर सागर विमाणभवण रयणुचय सिहिं च ॥५४॥ हरिणैगनियुको एए चोहस सुमिणे पासह सा माहणी पडिनियत्ते । जरयर्णि अवहरितो कुच्छीउ महायसो वीरो॥वाभा मेपिगमन श्रीवीर इदं गायाद्वयं पूर्ववत् , नवरं इदं नानात्वं-पश्यति सा ब्राह्मणी प्रतिनिवृत्तान् यस्यां रजन्यामपहृतः कुक्षितो स्वप्माः नाचरिते महायशा वीरः ॥ मकरणगयसीहवसहअभिसेयदामससिदिणयरं झयं कुंभं । पउमसर सागर विमाणभवण रयणुच्चय सिहि च ॥५६॥ विचारः ॥२५५॥ एए चोइस सुमिणे पासइ सा तिसलया सुहपसुत्ता । जरयणिं साहरिओ कुञ्छिसि महायसो वीरो ॥१७॥ | गाथाद्वयमपि सुगम, गतमपहारद्वारम् , अधुनाऽभिग्रहद्वारम्-ततोणं सा तिसला व्हाया कयकोउयमंगलोवयारा तं गम्भ | नातिउण्हेहिं नाइसीएहिं नातितितेहिं नातिकडुएहिं नातिकसाएहिं नातिअंबिलेहिं नाइमहुरेहिं जं तस्स गम्भस्स हियं पत्थं ] तं देसे काले य आहारमाहारेमाणी विवित्तमउएसु सयणासणेसु सुहंसुहेण चिट्टइ, जरयणिं भय तिसलाए गम्भे साहरिते तं रयणि सकवयणेणं तिरियजंभगा देवा विविहाई मणिनिहाणाई सिद्धत्वरायभवणंसि साहति, तं च नायकुलं हिरण्णेणं | सुवणेणं धनेणं रजेणं बलेणे वाहणेणं कोडागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं जणवयपुत्तेहिं पसूहिं सावइजेण य अतीव २ अभिवडइ. सिद्धत्थरायस्सविय सामंतरायाणो सधे वसमागया, तते णं भगवतो अम्मापिऊणमयमेयारूचे संकप्पे जाते-जप्पभिचणं ॥२५ ॥ | अम्हं एस दारए कुञ्छिसि समागर तंप्पभिई च णं अम्हे हिरण्णेण वहामो जाव सावइजेण वडामो, तं जया णं अम्हा * एस दारए जाते भविस्सइ तया पयस्स एयाणुरुवं गोष्णं नामधेनं करिस्सामो वडमाण इति, एवं ते मणोरहसहस्साई - - Frivate Persana tumory iewsanelibrary.orm ~234 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ४५८ ] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [५८-५९], मूल [- /गाथा ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education International पकरेंति । भयवंपि माऊए अणुकंपाए निश्चलं अच्छर, तप णं सा तिसला किं मे गम्मे हडे ? किं मे गब्मे मए ? अं एस मे गन्भे पुर्वि एजइ इयाणिं नो एजइत्तिकट्टु ओहयमणसंकप्पा चिंतासोगसागर संपविट्ठा करयउपहत्थियमुही अट्ट झाणोवगया भूमिगयदिट्ठीया शियाई, तंपि य सिद्धत्थरायभवणं उपरयमुइंगतंतीतलतालनाडइजं जायं, ततो भगवया चिंतितं किं मुगादिसदो न सुम्मइ ?, ततो ओहिणा नायवृत्तंतेण अंगुट्टेगदेसो चालिओ, ततो सा तिसला हट्ठतुट्ठा जाया, सिद्धत्थरायभवणंपि पमुइयपक्कीलियं विहरइ, ततो भयवं चिंतेइ - ममं गन्भत्थेऽवि माउपितूणमेवं पडिबंधो तो जइ | उम्मुकबालभावो देवदाणवपरियरिओ पवज्जं गिहिस्सामि ततो महंतमदृज्झाणमेयासि भविस्सइत्ति चिंतिऊण माडपिऊणमणुकंपाए सत्तमे मासे गन्भत्थो चेव अभिग्गहं गेव्हइ- 'जाव एयाणि जीवति ताव नाहं समणो भवामि ॥ एतदेवाह - तिहिं नाणेहिं समग्गो देवीतिसलाए सो य कुच्छिसि । अह वसइ सन्निगन्भो छम्मासे अद्धमासं च ॥ ५८ ॥ अह सत्तमम्मि मासे गन्भत्थो चेवऽभिग्गहं गेहे । नाहं समणो होहं अम्मापियरंमि जीवंते ॥ ५९ ॥ भा० ॥ 'अर्थ' अपहारानन्तरं वसति, संज्ञी वासौ गर्भश्च संज्ञिगर्भः, क्व ? - देव्यास्त्रिशलायाः, स च कुक्षौ, आह-सर्वोऽपि गर्भस्थः संश्येव भवति, ततो विशेषणमिदमनर्थकं न दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञित्वविशेषणात् स च ज्ञानद्वयवानपि भवति तत आह-त्रिभिर्ज्ञान:-मति श्रुतावधिरूपैः समग्रः कियन्तं कालं यावद्वसतीत्यत आह- षण्मासान् अर्द्धमासं च । अथ गर्भादारम्य सप्तमे मासे तयोर्मातापित्रोर्गर्भप्रयत्न करणेनात्यन्तं स्नेहमवबुद्ध्य अहो ममोपर्यतीवानयोः स्नेहो, यद्यहमनयोर्जी वतोः प्रव्रज्यां गृहामि नूनं न भवत एवैतावित्यतो गर्भस्थ एवाभिग्रहं गृह्णाति, ज्ञानत्रयोपेतत्वात्, किंविशिष्टमित्याह For Pavate & Personal Use Ony ~ 235~ www.sanelibrary.org Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [६०-६२], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत चरिते उपोदात-18/नाहं श्रमणो भविष्यामि मातापित्रोजींवतोरिति ॥ गतमभिग्रहद्वार, साम्पतं जन्मद्वारम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं नवण्हं 8 गृहखाकनियुक्ती दिमासाणं अट्ठमाणं राईदियाणं वइकंताणं चेत्तसुद्धतेरसीदिवसे निष्फण्णसस्साए मेइणीए पमुइयपकीलिएसु जणवएसुस्थानाभिश्रीवीर- सोमासु विसुद्धासु दिसासु अणुकूलंसि मारुयंसि पवायंसि अड्डरत्तकालसमए हत्युत्तराहिं नक्खत्तेण आरोगा अरोगं दारयं 18| पसूया, तरयणि च णं बहहिं देवेहिं देवीहिं ओवयमाणेहिं उप्पयमाणेहिं एगालोए देवुजोए जाए, बहवे य वेसमणवयण चोइया तिरियजंभगा देवा सिद्धत्यरायभवणंसि हिरण्णवासं सुवण्णवास रयणवासं आभरणवासं पत्तवासं पुष्फवास, २५६॥ गंधवासं चुण्णवासं वासंति ॥ अमुमेवार्थमाह दोण्हं वरमहिलाणं गम्भे वसिऊण गम्भसुकुमालो। नवमासे पडिपुग्ने सत्त य दिवसे समइरेगे ॥३०॥ भा॥ है। द्वयोर्वरमहिलयोर्ग, उपित्वा गर्भे सुकुमारो गर्भसुकुमारः, प्रायोज्यातदुःख इत्यर्थः, कियन्तं कालं यावदित्याह नव मासान् परिपूर्णान् सप्त दिवसान् सातिरेकान-समधिकान् ॥ अह चेत्तसुद्धपक्खस्स तेरसी पुवरत्तकालम्मि । इत्युत्तराहि जातो कुंडग्गामे महावीरो॥३१॥ भा०॥ | अथानन्तरं चैत्रस्य शुद्धपक्षस्तस्य त्रयोदश्यां पूर्वरात्रकाले, प्रथममहरद्वयान्ते इत्यर्थः, हस्तोत्तरासु जातः, हस्त | उत्तरा यासां ता हस्तोत्तराः, उत्तरफाल्गुन्य इत्यर्थः, कुण्डमामे महावीरः जातः, जातकर्मादि दिकुमार्यादिनिर्चितं पूर्ववदव २५६॥ सेयम् । तथापि किश्चित्प्रतिपादयन्नाहआभरणरयणवासं वुटुं तित्थंकमि जायंमि । सोऽवि देवराया उवागतो आगया निहओ ॥ १२॥ भा०॥ CACAN दीप अनुक्रम ForFive Persanamory ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education Ind “आवश्यक”- मूलसूत्र- १ (निर्युक्तिः + वृत्ति भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [४५८ ], वि० भा० गाथा [-1. भाष्यं [ ६३-६७ ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः आभरणानि - कटककेयूरादीनि रत्नानि इन्द्रनीलादीनि तद्वर्ष वृष्टं तीर्थकरे जाते, शक्रश्च देवराजस्तत्रैवोपागतः, तथा आगता महापद्मादयो निधयः ॥ तुडातो देवीतो देवा आनंदिया सुपरिसागा । भयवंमि षद्धमाणे तेलुकसुहावहे जाए ॥ ६३ ॥ भा० ॥ तुष्टा देव्यो देवा आनन्दिताः सह पर्षदो यैर्येषां वा ते सपर्षत्काः, भगवति वर्द्धमाने त्रैलोक्यसुखावहे जाते सति ॥ गतं जन्मद्वारम् अधुनाऽभिषेकद्वारं तच्च ऋषभस्वामिवद्भावनीयं, तथापि किञ्चित्प्रतिपादयति, भवणवइवाणमंतरजोइसवासी विमाणवासी य । सविहीए सपरिसा चउद्विहा आगया देवा ॥ ६४ ॥ भा० ॥ भवनपतयश्च व्यन्तराश्च ज्योतिर्वासिनःश्चेति द्वन्द्वः, तथा विमानवासिनश्च च सर्व सपर्पदश्चागताश्चतुर्विधा देवाः । देवेहिं संपरिवुडो देविंदो गिव्हिऊण तित्थयरं । नेऊण मंदरगिरिं अभिसेअं तत्थ से कासी ॥ ६५ ॥ भा० ॥ देवैः संपरिवृतो देवेन्द्रो गृहीत्वा तीर्थकरं नीत्वा मन्दरगिरिं तत्राभिषेकं 'से' तस्य भगवतोऽकार्षीत् ॥ काऊण य अभिसेयं देविंदो देवदाणवेहिं समं । जणणीऍ अप्पत्ता जम्मणमहिमं च कासीय ॥ ६६ ॥ भा० ॥ देवेन्द्रो देवदानवैः सार्द्ध देवग्रहणाजयोतिष्कवैमानिकपरिग्रहः, दानवग्रहणाद् भवन पतिव्यन्तरग्रहणम्, अभिषेकं कृत्वा वतो जनन्याः समर्थ जन्ममहिमां नन्दीश्वरे स्वर्गे च कृतवान् ॥ साम्प्रतं यदिन्द्रादयो भुवननाथेम्यो भक्त्या प्रयच्छन्ति तत्प्रदर्शयन्नाह - खोमं कुंडलजुयलं सिरिदामं चैव देह सको से। मणिकणगरयणवासं उबच्छुभे जंभगा देवा ॥ ६७ ॥ भा० ॥ For Pevate & Personal Use Ony ~ 237~ wanlibrary.org Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घात निर्युकौ श्रीवीर चरिते ॥ २५७ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्ति: [ ४५८ ], वि० भा० गाथा [-], भाष्यं [ ६८ ], मूलं [- /गाथा - ] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः क्षौमं देववस्त्रं कुण्डलयुगलं - कर्णाभरणं श्रीदाम अनेकरलखचितं दर्शनसुभगं ददाति शक्रः 'से' तस्मै भगवते, | मणयः- चन्द्रकान्तायाः कनकं प्रतीतं रलानि - कर्केतनादीनि तद्वर्षमुपक्षिपन्ति जृम्भकाः व्यन्तरविशेषा देवाः ॥ एतदेवाहवेसमणवयणसंचोइया उ ते तिरियजंभगा देवा । कोडिग्गसो हिरण्णं रयणाणि य तत्थ उवर्णेति ॥ ३८ ॥ भा०॥ वैश्रमणवचनसञ्चोदितास्ते तिर्यग्लोके जृम्भकाः तिर्यग्जुम्भका देवाः कोव्यग्रशः- कोटीपरिमाणेन हिरण्यमघटितं (स्वर्ण) रानि - इन्द्रनीलादीनि तत्रोपनयन्ति ॥ सिद्धत्थोऽवि राया भयवंमि तिहुयणनाहे जाते कोडुंचियपुरिसे सहावित्ता दसदेवसिय उस्सुकं उकरं अदेजं अमेजं अभडप्यवेसं सवत्थ सियपडागातिपडागं नाडगसहस्ससंकुलं महइमहो रसवं निद्यत्तावेइ, तते णं अम्मापियरो दारगस्स तइयदिवसे चंदसूरदंसणं करोति, छट्ठदिवसे जागरियं करेंति, एक्कारसमे दिवसे अइकंते निवत्ते असुइजायकम्मकरणे संपत्ते वारसमे दिवसे विजलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडावित्ता | मित्तनाइसयणपरिजणं नायए य खत्तिए य भोयणवेलाए आमंतित्ता भोयणमंडवंसि तेहिं सद्धिं सुहासणवरगया विउलं असणं | जाव साइमं परिभुंजेमाणा विहरंति, तए णं भुतत्तरकालं ते दिउलेण वत्थगंधमलालंकारेण सकारेति संमार्णेति सकारिता सम्माणित्ता एवं वयासी - पुर्विपिय णं देवाणुप्पिया ! अम्हं एयारूवे संकपे समुप्पने-जप्यभि च णं अहं एस दारए कुच्छिसि समुप्पन्ने तप्पभिरं च णं अम्हे हिरणेणं वडामो जाव एयस्स एयाणुरुवं गोण्णं नामधेर्ज करेस्सामो वहुमाण इति, सं होउ णं अज मणोहरसंपती कुमारे नामेणं वद्धमाण इति नामधे करेंति । गतमभिषेकद्वारम् अधुना |वृद्धिद्वारं प्रतिपादयति For Pivote & Personal Use Only ~ 238~ जन्माभिपेकः ना मकरण ॥ २५७ ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [६९-७१], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 4 प्रत सत्रांक % k अह वहइ सो भयवं दिवभोग चुओ अणुवमसिरीओ। वासीवासपरिवुद्धो परिकिण्णो पीढमदेहि ॥१९॥ अथ वर्द्रते भगवान् देवलोकाश्युतः अनुपमश्रीको दासीदासपरिवृतः, तथा परिकीर्णों व्याप्तः, पीठं मई यित्वा ये प्रत्यासन्ना उपविशन्ति ते पीठमी-महानृपतिसुतास्तैः ।। असियसिरओ सुनयणो बियोहो धवलदंतपंतीओ। वरपउमगम्भगोरो फुल्लुप्पलगंधनीसासो ॥ ७० ॥ भा०॥ इयं गाथा ऋषभदेवाधिकार इव व्याख्येया ॥ गतं वृद्धिद्वारम् , सम्प्रति जातिस्मरणद्वारमाहजाईसरो उ भयवं अप्परिवडिएहिं तिहि उ नाणेहिं । कंतीए वुद्धीए व अन्भहिओ तेहिं मणुएहिं ॥७१॥ भा० ___ इयमपि गाथा पूर्ववत् । उक्तं जातिस्मरणद्वारम्, अधुना भीषणद्वारम्-तए णं एवं वडमाणे भयवं अहवासे जाते, सया भद्दए विणीए सूरे धीरे महापरक्कमे, तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया ओहिणा भयवतमालोइय पणमिय भयवतो सत्तगुणुकित्तणं करेइ-अहो भयवं बाले अबालभावे अबालपरकमे अवुढे वुडसीले महावीरे, न सको देवेण वा दाणवेण वा भेसेतुं परकमेण वा पराजिणित्तुं छलेण वा छलितुं, तत्थ एगो देवो सक्कस्स एयमहमसद्दहतो जेणेव भयवं महावीरे तेणेव उवागतो, भयवं च पमयवणे चेडरूवेहि समं सुंकलिखेडएण अभिरमइ, तत्थ | | तेसु रुक्खेसु मझे जो विवक्खियं रुक्खं पढम विलम्गइ छिवई वा सो चेडरूवाणि बहेइ, सो य देवो आगंतूण हेढ| तो रुक्खस्स सामिभेसणहूँ एग महं उग्गविसं महाकार्य अंजणपुंजनियरप्पगासं वियडफडाडोबकरणदच्छं चंडतिवरोसं दिवं दिहीविससम्परूवं बिउबिया अच्छा, सामिणा अमूढेष वामहत्षेण सत्ततले उहमुच्छूढो, ताहे वो चिंतेइ -एत्थ ताव न दीप अनुक्रम Kaviewsanelibrary.orm ~239 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ४५८ ] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [७२-७५], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घात निर्युकी श्रीवीरचरिते ॥ २५८ ॥ Jan Educaton Intern छलितो, अह पुणरवि सामी तेंदूसगेण अभिरमइ, सो य देवो चेडरूवं विउविऊण सामिणा समं अभिरमइ, तत्थ । सामिणा सो जितो, तस्स उवरिं सामी विलग्गो, तते णं से देवे सामिभेसण एगं महं तालपिसायरूवं विविता पव| हिउं पयत्तो, सोऽवि सामिणा दट्टूण अभीएण ( तहा) तलप्पहारेण आहतो जहा तत्थेव निवुड्डो, ताहे भीतो देवो चिंतेइ एत्थवि न तिष्णो छलिडंति, पच्छा सामिं वंदित्ता गतो । अमुमेवार्थमाह अह ऊणअट्ठवासस्स भयवतो सुरवराण मज्झमि । संतगुणुकित्तणयं करेइ सक्को सुहम्माए ॥ ७२ ॥ भा० ॥ बालो वालभावो अवालपरकमो महावीरो । नहु सको भेसेडं देवेहिं सइंदरहिंपि ॥ ७३ ॥ भा० ॥ अथानन्तरमूनाष्टवर्षस्य भगवतः सुरवराणां मध्ये सन्तश्च ते गुणाञ्च सद्गुणास्तेषामुत्कीर्त्तनं - संशब्दनं करोति शक्रोदेवराजः सभायां व्यवस्थितः किम्भूतमित्याह - बालः अबालभावः - अवालस्वरूपः, भावशब्दः स्वरूपवाची, तथा न वालपराक्रमोऽवालपराक्रमः, पराक्रमः- चेष्टा, वीरः- कषायादिशत्रुजयं प्रति विक्रान्तो महांश्वासौ वीरश्च महावीरः, 'नहु' नैव शक्यते भीषयितुं देवैः सेन्द्रैरपि ॥ तं वयणं सोऊणं अह एगो सुरो असदहंतो य । एइ जिणसंनिगासं तुरियं सो भेसणट्ठाए ॥ ७४ ॥ भा० ॥ तत् सद्गुणोत्कीर्चनरूपं शकवचनं श्रुत्वाऽथानन्तरमेकः सूरो- देवोऽश्रद्दधान 'पति' आगच्छति 'जिनसकाशं ' जिनसमीपं 'तुरियं सो भेसणडाए' स्वरितं शीघ्रं 'स' विवक्षितो 'भीषणार्थ' भीषणनिमित्तं ॥ स चागत्येदं चक्रे - | सप्पं च तरुवरम्मी १ काउं हिंदूसणएण डिंभं च २ । पट्टीए मुट्ठीए इतो बंदिय वीरं पडिनियतो ॥७२॥ भा० ॥ For Pivate & Personal Use Ony ~ 240 ~ शक्रप्रशंसा देवागमः ॥ २५८ ॥ wsanelibrary.org Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५८], विभा गाथा H, भाष्यं [७६-७७], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक है सर्प-वर्णन'तरुवरे' तरुवरस्वाधः कृत्वा, तथा तिदूसकेन-क्रीडाविशेषरूपेण हेतुना तिदूसकरूपया क्रीडया भग बता सह रमिध्ये इत्येवमधे 'डिम्भ डिम्भरूपं च, कृत्वेत्यनुवात, पिशाचरूपेण प्रवर्दितुं लय हरि शेषा, ततः पृष्ठे मुया हतो वन्दित्वा वीर प्रतिनिवृत्तः एषोऽक्षरार्थों, भावार्थः प्रागेवोकः। अन्यदा भगवम्तमधिकाष्टवर्ष कलाग्रहणयोग्य विज्ञाय मातापितरौ लेखाचार्यायोपनीतवन्तौ, तथा चाह अहतं अम्मापियरो जाणित्ता अहियअट्ठवासं तु । कयकोउअलंकारं लेहायरियस्स उवणेति ।। ७६ ॥ भा०॥ 8 'अर्थ' भीषणानन्तरं कियत्कालातिक्रमे भगवन्तमधिकाष्टवर्ष मातापितरौ ज्ञात्वा कृतानि रक्षादीनि कौतुकादीनि समकाराश्च-केयूरादयो यस्य स तथा तं प्रवरहस्तिस्कन्धवरगतमुपरि समुक्काजालशाल्यदाना उत्रेण प्रियमाणेन चाम राभ्यां वीज्यमानं मित्रज्ञातिपरिजनसमेत लेखाचार्याय-उपाध्यायाय उपनयतः, पाठान्तरं वा 'उवर्णिमु' उपनीतवन्ती। उपा-1 साध्यायस्य महत् सिंहासनं रचितम् , अत्रान्तरे देवराजस्य खल्वासनकम्पो बभूव, अवधिना च प्रयोजनविधि विज्ञाय अहो खस्वपत्यस्नेहविलसितं भुवनगुरुं प्रति मातापित्रोः येन भगवन्तमपि लेखाचार्यायोपनेतुमम्युद्यताविति सम्मघायोगत्य च* उपाध्यायपरिकल्पिते बृहदासने भगवन्तं निवेश्य शब्दलक्षणं पृष्टवान् ॥ अमुमेवार्थ प्रतिपादयति-... द्र सो य तस्समक्खं भयवंतं आसणे निवेसित्ता। सहस्स लक्षणं पुच्छे वागरणं अवयवा इदं ॥७॥ मा०॥ शको-देवराजः तत्समक्षं-लेखाचार्यसमक्षं भगवन्तं-तीर्थकरमासने निवेश्य शब्दस लक्षणं पृच्छति, भगवता च व्याकरणमभ्यधायि, व्याक्रियन्ते लौकिका सामयिकाच शब्दा अनेनेति व्याकरण-अन्दशा, तदवयवाः केचन SACAR दीप अनुक्रम -काव.. ForFive Persanamory ~241 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५८], वि०भा०गाथा , भाष्यं [७८-८०], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत दर दीप अनुक्रम उपोद्धात-1 उपाध्यायेन गृहीतास्ते च सन्दर्भिताः, तत ऐन्द्रं व्याकरणं सञ्जातं, लोकश्च सर्वोऽपि विस्मयमुपागतः, शक्रेण च कथितं पाणिग्रहण नियुक्ती यथा भगवान् सर्व जानाति, त्रिज्ञानोपेतत्वात् ।। सम्प्रति विवाहद्वारमाहश्रीवीर-INउम्मुशवालभावो कमेण अह जुवणं समणुपत्तो। भोगसमत्धं नाउं अम्मापियरोउ वीरस्स ।। ७८॥ भा०॥ क्रमेण उक्कप्रकारेण उन्मुक्तो वालभावो येन स उन्मुक्तबालभावः, 'अर्थ' अनन्तरं यौवनं वयोविशेषलक्षणं सम्यक् बालादिभावात्पश्चात् प्राप्तः समनुप्राप्तः, अत्रान्तरे भुज्यन्ते इति भोगा:-शब्दादयस्तेषु समर्थों भोगसमर्थ स्तं भगवन्तं २५९017 ज्ञात्वा, को ज्ञात्वेत्यत आह-मातापितरौ, भगवतो वीरस्य, तिहिरिक्खमि पसत्थे महंतसामंतकुलपसूयाए । कारेंति पाणिगहणं जसोयवररायकपणाए ॥ ७९ ॥ भा०॥ | तिथिश्च ऋक्षं च तिथिऋक्ष, ऋक्ष-नक्षत्र, तस्मिन् तिधिऋक्षे, प्रशस्ते-शोभने, महच्च तत् सामन्तकुलं तस्मिन् प्रसूतेति समासः, तस्याः कस्या इत्याह-यशोदा चासौ वरराजकन्या च यशोदवरराजकन्या तस्याः, पाणिग्रहणं मातापितरौ भगवन्तं कारयतः, अत्र महासामन्तकुलप्रसूताया इत्यनेनान्वयमहत्त्वमाह, परराजकन्याया इत्यनेन तत्कालराजसंपद्यकत्वमाह। गतं विवाहद्वारम् , अधुना अपत्यद्वारमाहपंचविहे माणुस्से भोगे भोत्तूण सह जसोदाए । तेयसिरिं व सुरूवं जणइ य पियदसणं धूयं ॥८॥ भा०॥10॥२५९॥ पञ्चविधान-पश्चप्रकारान् मनुष्याणामेते मानुषास्तान् भोगान्-शब्दादीन् भुक्त्वा सह यशोदया भार्यया तेजसः श्री तेज श्रीस्तामिव-तेजःनियमिव सुरूपं जनयति प्रियदर्शनां-प्रियदर्शनाभिधा धूता-दुहितरम् । पाठान्तरं-'जणिंसु CLASS JanEentaries Farve Personal Wirsannlionary.org ~242 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Educaton “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्ति भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ४५९ ४६० ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [७८-८० ], मूलं [- /गाथा -] मूलसूत्र -[१] “आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पियदंसणं धूयं' as जनितवानित्यर्थः, गतमपत्यद्वारम् । एवं भगवान् वर्धमानोऽष्टाविंशतिवर्षो जातः, अत्रान्तरे भगवतो मातापितरौ कालगतौ, भगवानपि तीर्णप्रतिज्ञः प्रब्रज्याग्रहणाहितमतिर्नन्दिवर्द्धनपुरस्सरं स्वजनमापृच्छति स्म, स पुनराह - भगवन् ! मा क्षारं क्षते निक्षिप कियन्तमपि काले प्रतीक्षस्व, भगवानाह कियन्तं १, स्वजन | आह-- वर्षद्वयं भगवानाह — यद्येवं तर्हि भोजनादौ मम व्यापारो न वोढव्यः एवं प्रतिपन्ने समधिकं वर्षद्वयं | प्रासुकैषणीयाहारः शीतोदकमप्यपिवन् तस्थौ न च प्राशुकेनापि जलेन सर्वस्नानं कृतवान् केवलं लोकस्थित्या हस्तपादमुखमात्र प्रक्षालनं प्राशुकेन जलेन चकार, निष्क्रमणमहोत्सवे तु सचित्तोदकेन स्नातवान् ब्रह्मचर्ये च सुविशुद्धं ततः प्रभृति यावज्जीवं परिपालितवान्, इह यदा भगवान् जातस्तदैवं लोके प्रसिद्धिरभूत्, यथा-एप चतुर्दशस्वप्नसूचितो जात इति चक्रवर्ती भविष्यति, तत. एनां प्रसिद्धिमाकर्ण्य स्वस्वमातापितरैः श्रेणिकचण्ड प्रद्योतादयो भगवत्पर्युपासनाय कुमारभूपाः प्रेषिताः, सम्प्रति तु भगवति घोरानुष्ठानमनुष्ठातुं प्रवृत्ते न एप चक्रवर्त्ती भविष्यतीति स्वं स्वं स्थानं प्रति गताः, भगवानपि तथा तिष्ठन् संवत्सरातिक्रमे महादानं दत्तवान्, लोकान्तिकैश्च प्रतिबोधितः, ततः पूणाविधिः प्रब्रजितः ॥ अमुमेवार्थं लेशतः प्रतिपादयति निर्मुक्तिकृत् - हत्थुत्तरजोगेणं कुंडग्गामंमि खन्तिओ जचो । वज्जरिसभसंघयणो भवियजणविवोहतो वीरो ।। ४५९ ।। सो देवपरिग्गहिओ तीसं वासाई बस गिहवासे । अम्मापिईहिं भगवं देवत्तएहिं पढइतो ॥ ४६० ॥ हस्तोत्तरायोगेन - उत्तरा फाल्गुनीयोगेन कुंडनगरप्रामे जात्यः- उत्कृष्टः क्षत्रियो बज्रर्षभसंहननो भव्यजनविबोधको For Pavoce & Personal Use Ony ~243~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति© भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [४५९-४६०], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [८१-८५], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत 0k उपोदात- IPावीरो भगवान् मातापितृम्यां देवत्वगताम्या प्रमजिता, अथ सकियन्तं काळ सर्वसङ्कलनया गृहवासे वसति !, तत| नियुको आह-स त्रिंशद्वर्षाणि वसति गृहवासे, किं सामान्येन स्वजनमात्रपरिवृत एव!, नेत्याह-देवपरिगृहीतः। सम्पति है। अपत्याद्वारे श्रीवीर- I भाष्यकारो दानद्वारं सम्बोधनद्वारं निष्कमणद्वारं च व्याख्यातुकामः प्रथमतो दानद्वारं व्याख्यानयति धातासांवत्सरिचरिते संवच्छरेण होहिइ अभिणिक्खमणं तु जिणवरिदाणं । तो अत्थसंपयाणं पवत्तए पुबसूरम्मि ॥८१॥ मा०॥ 21 कदानं एगा हिरण्णकोडी अद्वैव अणूणगा सपसहस्सा । सूरोदयमाईयं दिजा जा पाषरासो उ ॥ ८२॥ भा०॥ ॥२६॥ संघाडगतियचउपचचरचउम्मुहमहापहपहेसु । दारेसु पुरवराणं रत्थामुहमज्झकारेसु।। ८३ ॥ भा०॥ वरवरिया घोसिवह किमिच्छिय दिबइ बहुविहीयं । सुरअसुरदेवदाणवनरिंदमहियाण निक्खमणे ॥८४ाभा० सिनेय कोडिसया अट्ठासीई यहोति कोडीवो। असियं च सयसहस्सा एवं संवच्छरे दिलं ॥८५ ॥ भा०॥ इदं च माथापश्चकमृषभदेवाधिकार एव व्याख्यातमिति न भूयो व्याख्यायते । गतं दानद्वारम् । अधुना सम्बोपनद्वारम् , तत्र बदा भगवान् निष्क्रमियामीति मनः सम्पधारयति तदा ये लोकान्तिका देवाः सारस्वतादयो ब्रह्मलोके कल्पे रिहे विमानप्रस्तटे स्वकीये स्वकीये विमाने खकीवे स्वकीये प्रासादावतंसके प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकसहस्रस्तिभिः पनिःसप्तभिरनीः सप्तभिरनीकाधिपतिभिः पोडशभिरात्मरक्षकदेवसहस्ररन्यैश्च स्वस्खविमानवास्थव्यैर्देवैर्देवीभिश्व सम्प- * ६on रिश्ता दिव्यान् भोगान् भुञ्जमा(आ)ना आसते, पामासनानि प्रचन्ति, ततोऽवधि प्रयुजवे, प्रयुन्य चाभोगयन्ति, ततो बानन्ति यथा-खामी निष्क्रमियामीति मना सम्पधारितवान्, तश्चिन्तयन्ति-कल्प एष लोकान्तिकानां देवानां भगवता दीप अनुक्रम *% 2 Jan vsanelibrary.com ... जिनेश्वरस्य संवत्सर-दानानां वर्णनं ~244 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ४५९-४६० ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], Jan Education Inters वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [८६-८८ ], मूल [- / गाथा-] मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मईतां निष्क्रमणकाले सम्बोधनं कर्त्तव्यमिति, तत एवं चिन्तयित्वा उत्तरपूर्वी दिशमवक्रम्य द्विकृत्वो वैक्रियसमुद्घातेन | समवहत्योत र वैक्रियाणि रूपाणि विकुर्वते, विकुर्वित्वा भगवतः समीपमागत्याकाशे स्थिता मधुराभिर्वाग्भिरेवमवादिषुः- 'जय जय नंदा ! जय जय भद्दा !, जय जय मुणिवरबसभा !, बुज्झाहि भगवं ! लोगनाहा !, पवत्तेहि भयवं । धम्मतित्थं, हियसुहनिस्सेसकरं जीवाणमेयं भविस्सइति, ततो वन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्थित्वा यत आगतास्तत्र गताः । एतदेवाहसारस्सयमाइचा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अवाबाहा अग्गित्वा चेव रिट्ठा य ॥ ८६ ॥ भा० ॥ एए देवनिकाया भयवं योर्हिति जिनवरिंदं तु । सङ्घजगज्जीवहियं भयवं ! तित्थं पवतेहि ॥ ८७ ॥ भा० ॥ एवं अभिधुतो बुद्धो बुद्धारविंदसरिसमुहो । लोगंतियदेवेहिं कुंडग्गा मे महावीरो ॥ ८८ ॥ भा० ॥ इदमपि गाथाश्रयं सुगमत्वात् प्राग्व्याख्यातत्वाच्च न प्रतन्यते ननु पूर्वमृषभदेवाधिकारे पूर्वं सम्बोधनमुक्तं पश्चाद्दानं 'संबोहणपरिच्चाए इति पाठक्रमात् इह तु पूर्व दानं पश्चात्सम्बोधनं 'दाणे संबोह निक्खमणे' इति वचनात् ततः कथं परस्परं न विरोधः १, नैष दोषो, न सर्वतीर्थकराणामयं नियमो यदुत - सम्बोधनोत्तर कालभाविनी महादानप्रवृत्तिः, किन्तु केषांचिदेवमपि भवति -- पूर्वं महादानं पश्चात्सम्बोधनमिति, 'दाणे संत्रोह निक्खमणे' इति वचनात्, अथवा भवतु नियमः, स च द्विधा घटते- पूर्व सम्बोधनं पश्चान्महादानभथवा पूर्वं महादानं पश्चात्सम्बोधनं, तत्र पूर्वनियमेन सम्बोधनद्वारादिह दानद्वारस्य प्रागुपन्यासो बहुतरवतव्यत्वाददुष्टः, पश्चात्तने तु नियमे पूर्वमृषभ ... भगवन्त महावीरस्य दीक्षा- अवसरस्य विस्तृत वर्णनं क्रियते For Peace & Personal Use Only ~245~ wanelibrary.org Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [४५९-४६०], विभागाथा , भाष्यं [८९-९१], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पोद्धात- नियुक्ती श्रीवीर- प्रत * चरिते 4.4%% दीप अनुक्रम देवाधिकारे दानद्वारात्माक् सम्बोधनद्वारोपन्यासोऽल्पवतम्यत्वाद्, एवं तावत् सम्भविनः पक्षा उपन्य स्वाः, व तु संबोधन विशिष्टभुतविदो डानन्तीति कृतं प्रसङ्गेन । गतं सम्बोधनद्धारम्, अधुना निष्क्रमणद्वारमाह 18चतुर्विपदे मणपरिणामो उकतो अभिनित्वमणमि जिणवरिंदेण। देवेहि य देवीहि य समततो उत्थुयं गयणं । म वागमः मनःपरिणामश्च कृतोऽभिनिष्क्रमणे-अभिनिष्क्रमणविषयो जिनवरेन्द्रेण, तावत् किं सातमित्याह-देवैर्देवीमिक्स सम-14 न्ततः-सर्वासु दिक्षु सर्व अवस्तृत-च्याप्तं गगचं ॥ भवणवइवाणमंतरजोइसवासी विमाणवासी य । धरणियले गयणयले विजुजोओ कतो खिप्पं ॥१०॥भा० थैर्देवैर्गगनतलं व्याप्तं ते खल्बमी वर्तन्ते-भवनपत्तयश्च न्यन्तराश्च ज्योतिर्वासिनश्चेति द्वन्दः समासः, तथा विमा-1 नवासिनश्च, अमीभिरागच्छद्भिर्धरणितले गगनतले च विद्युत् उद्योतो विधुदुद्योतः कृतः क्षिप-धीनम् । जाव य कुंडग्गामो जाय य देवाण भवणावासा । देवेहि य देवीहि य अविरहियं संचरंतेहिं ॥९१सभा०॥ यावत् कुण्डग्रामो यावच्च देवानां भवनावासा अत्रान्तरे व्ययनतलं धरणितलं स्त्र देवीभिश्च अविरहितच्याप्तं सञ्चरदिः, एतत्सामान्येनोक्तम् , विशेषमक्रिया त्वेवा-यदा भगवान् लोकान्तिकदेवैः सम्बोधिसस्त्रदा खामी ॥२६१॥ नन्दिवर्द्धनप्रमुखस्वजनवर्गसमीपमुपागतवान् , उपायत्य चैवमवादीत्-इच्छामि युष्मदनुज्ञातः प्रवज्यां ग्रहीतुम्मिति, ते चाकामा अप्येवमवादिषुः यद्भगवतः प्रतिभासते तत्पमा, ततः स नन्दिवर्द्धनः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दापयित्वा निक-14 * CAX. *** 23 JanEdication in FAPivesperantumory viewsanelibrary.orm ... अत्र मूल संपादने यत् भाष्य-गाथा क्रम- '८८ मुद्रितं तत् मुद्रणदोष: मात्र, तत् गाथा-क्रम '८९' वर्तते ~246 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ४५९ ४६० ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [८९-९१], मूल [- / गाथा-] मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः मणाभिषेकसामग्री कारितवान् तत्राष्टाधिकं सहस्रं सौवर्णिककलशानां १ अष्टसहस्रं रूप्यमयानां २ अहसहस्रं मणिमयानां ३ अष्टसहस्रं सुवर्णरूप्यमयानां ४ अष्टसहस्रं सुवर्णमणिमयानां ५ अष्टसहस्रं रूप्यमणिमयानां ६ अष्टसहस्रं | सुवर्णरूप्यमणिमयानां ७ अष्टसहस्रं भौमेयानां : निष्पन्नं । तदनन्तरमासनं शक्रस्य चलितं, ततो यथा प्राक् ऋषभदेवजन्माभिषेकद्वारे शक्रा गमनमुपवर्णितं तथैवात्राप्यन्यूनातिरिकमुपवर्णयितव्यं यावतेन दिव्येन यानविमानेन स्वामि* भवनस्य त्रिकृत्वः प्रदक्षिणां कृत्वा भगवतो भवनस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि चतुरङ्गुलैर्धरणित लमसंप्राप्तं तत् दिव्यं यातविमानं स्थापयति, ततो दिव्ययानविमानाद्विनिर्गत्य सर्वसामग्रीपरिकलितो भगवन्तं पर्युपासीन आस्ते, एवं पूर्वक्रमेण ईशानेन्द्रादयो ऽच्युतेन्द्रपर्यवसाना इन्द्राः सपरिवारा वक्तव्याः, तथा भवनपतिव्यन्तरज्योति केन्द्रा अपि सपरिच्छदाः, ततो यथा प्राग् ऋषभस्वामिनो जन्माभिषेकमध्युतेन्द्रादयः कृतवन्त उक्तास्तथाऽत्रापि वक्तव्या पावत् शक्रेण कृतोऽभिषेकः, ततो येऽच्युतेन्द्राद्याभियोग्यदेवकृताः सौवर्णादिकलशास्ते नन्दिवर्द्धनकौटुम्बिक पुरुषनिर्बर्त्तितसौवर्णादिकलशेषु दिव्यानुभावतः प्रविष्टाः, ततस्ते अधिकतरं शोभितवन्तः, ततः स नन्दिवर्द्धनो राजा स्वामिनं सिंहासने पूर्वाभिमुखं निवेश्य देवानीतक्षीरोदसमुद्रादिपानीयैः सर्वतीर्थमृत्तिकाभिः सर्वकषायैः सौवर्णादिकल शैरभिषेकं कर्तुमारब्धवान् तस्मिंश्चाभिषेकं | कुर्वति सर्वे इन्द्राः सपरिवाराः केचित् कृताञ्जलिपुटाः केचित्कल शहस्तगताः केचित् भृङ्गार हस्तगताः केचिदादर्शहस्तगता जयजयशब्दं प्रयुञ्जानाः स्वामिनः पुरतोऽवतिष्ठन्ते, शेषं सर्वे हिरण्यवर्षादि ऋषभनाथजन्माभिषेकवद्वाच्यं ततो जन्मा|भिषेकाचन्तरमखङ्कारसभायां केशालङ्कारेण वखालङ्कारेण माझ्यालङ्कारेण आभरणालङ्कारेण भगवन्तमलङ्कारितवान्, | For Peace & Personal Use Only Jan Educaton Ironl ~ 247~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५९-४६०], वि भागाथा , भाष्यं [९२-९३], मूलं । गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोदात- नियुक्ती प्रत श्रीवीरचरिते ॥२६२॥ यावच्च निष्क्रमणाभिषकोऽलङ्कारश्च क्रियमाणो वर्त्तते तावद्धरणितलं गगनतलं चागच्छद्भिर्गच्छद्भिश्च देवदेवीभिश्च निर- अभिनेकी न्तरं व्याप्तमुद्योतितं चावतिष्ठते, तत उक्तम्-'धरणियले गयणतले विजुजोओ कतो खिप्पं ॥ जाव य कुंडग्गामो'इत्यादि, तत एवं निष्क्रमणाभिषेकेणाभिषिक्त सर्वालङ्कारविभूषिते च भगवति नन्दिवर्द्धनराज्ञा उपदिष्टाः कौटुम्बिकपुरुषाः-अनेक-11 स्तम्भशतसन्निविष्टां मणिकनकविचित्रां पञ्चाशद्धनुरायामां पञ्चविंशतिधनुविस्तीर्णा षट्त्रिंशद्धनुरुच्चां चन्द्रप्रभाभिधानां शिविकामुपस्थापयतेति, तेऽपि तथैवोपस्थापयन्ति (एवं शक्रोऽपि शिबिकां कारयति) नवरं तस्याः प्रागुतविमानस्येव । वर्णको वकव्यः, केवलं सा शिविका तामेव नन्दिवर्द्धनकारितां शिविकां दिव्यानुभावतः प्रविष्टा, ततः सास्तीव सुन्दरतरा जाता, ततस्तस्यां शिविकायामुपस्थापितायां भगवान् सिंहासनादुस्थाय अलङ्कारसभातो विनिर्गच्छति, विनिगत्य यत्र चन्द्रप्रभा शिविका तत्रागच्छति, ततस्तां प्रदक्षिणीकृत्य समारोहति, आरुह्य च सिंहासनवरगतः पूर्वाभिमुखः। सन्निषण्णः । आह चचंदप्पभा य सीया उवणीया जम्ममरणमुक्कस्स । आसन्नमल्लदामा जलथलयं दिवकुसुमेहिं ।।९२॥ भा०॥ चन्द्रप्रभाभिधाना शिविका या उपनीता-आनीता, कस्येत्यत आह-जन्ममरणाभ्यां मुक्त इव मुक्तस्तस्य, बढ़ेंमानस्येत्यर्थः ॥ किंभूता सेत्याह-आसक्तानि माल्यदामानि यस्यां सा तथा, तथा जलस्थलजैश्च दिव्यकुसुमैरर्चितेति | वाक्य शेषः ॥ संप्रति शिबिकाप्रमाणदर्शनार्थमाह | ॥२६॥ पंचासहआयामा घणूणि विच्छिपण पण्णवीसं तु । छत्तीसं उबिद्धा सीया चंदप्पभा भणिया॥१३॥ भा०॥ दीप अनुक्रम JanEducatani ~248 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५९-४६०], वि भागाथा , भाष्यं [९४-९६], मूलं । गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: % 5 प्रत %A सत्रांक % % पञ्चाशद्धनूंषि आयामो-दैर्घ्य यस्याः सा पञ्चाशदायामा, धनूंषि पञ्चविंशतिविस्तीर्णा, तथा पत्रिंशद् धनूंषि सद्विद्धा-उच्चा शिविका चन्द्रप्रभाभिधाना गणधरैर्भणिता, अनेन शास्त्रस्य पारतन्यमाह ॥ सीयाएँ मज्झयारे दिवं मणिकणगरयणचिंचइयं । सिंहासणं महरिहं सपायपीई जिणवरस्स ॥९४॥ भा०॥ शिविकाया मध्य एव मध्यकारस्तस्मिन् दिव्यं सुरनिर्मितं मणयः-चन्द्रकान्तादयः कनकं-देवकाञ्चनं रखानिमरकतेन्द्रनीलादीनि तैः "चिंचइयं' देशीपदमेतत् भूषितमित्यर्थः, सिंहप्रधानमासनं सिंहासनं, महान्तं-भुवनगुरुमहतीति महाई, सह पादपीठं यस्य येन वा तत् 'सपादपीठ' जिनवरस्य कृतमिति वाक्यशेषः॥ आलइयमालमउडो भासुरबोंदी पलंबवणमालो । सेययवत्थनियत्यो जस्स य मोल्लं सयसहस्सं ॥९॥ भा०॥ छट्टेणं भत्तेणं अज्झवसाणेण सोहणेण जिणो । लेस्साहि विसुज्झतो आरुहई उत्तमं सीयं ॥ ९६ ॥ भा०॥ आलइयं-आविद्धमुच्यते, माला-अनेकसुरकुतुमग्रथिता बरः प्रसिद्ध व, माला च मुकुटश्च मालामुकुटौ आविद्धौ मालामुकुटौ यस्य स आविद्धमालामुकुटः, तथा भास्वरा-छायायुक्का बोन्दिः-तनुर्यस्य स तथाविधः, प्रलम्बा वनमाला देवद्रुमप्रवालकिशलयादिमयी यस्य स प्रलम्बवनमालः, तथा नियत्थं-परिहितमुच्यते, नियसितं श्वेतम्-आकाश-1| स्फटिकसमप्रभं नासानिःश्वासवातवाह्यमपूर्वस्पर्शोपेतं कनकखचितान्तप्रदेशं वस्त्रं येन स निवसितश्वेतवस्त्रः, सुखादिदर्शनानिवसितशब्दस्य पाक्षिकः परनिपातः, यस्य वस्त्रस्य मूल्यं शतसहस्र दीनाराणामिति ॥ स एवंभूतो भगवान् मार्गशीर्षबहुलदशम्यां सुबते दिवसे हस्तोत्तरानक्षत्रयोगे पठौ विजये मुहः षष्ठेन भक्केन, दिनद्वयोपवासेनेत्यर्थः, % दीप अनुक्रम H %A-% % e% Pariwsannlinnary.orm ~249 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५९-४६०], विभा गाथा -1, भाष्यं [९७], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत दीप अनुक्रम सपोद्धात- अध्यवसानम्-अन्तःकरणसव्यपेक्षं विज्ञानं तेम सुन्दरेण-शोभनेन जिनो-भगवान् वर्द्धमानस्वामी, तथा लेश्याभि-IA अलंकारः नियुको विशुामानो, मनोचाकायपूर्विकाः कृष्णादिद्रव्यसम्बन्धजनिताः खस्वात्मपरिणामा लेश्याः, कंच-"कृष्णादि- लेश्यानि. श्रीवीर- द्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव सत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥९॥" ताभिर्विशुद्धयमान आरो- क्रमणाय चरिते हत्युत्तमा शिविकाम् ॥ सिंहासणे निसन्नो सक्कीसाणा य दोहिं पासेहिं । वीयंति चामरहिं मणिकणगविचित्तदंडेहि ॥९७ ॥मा०॥ ॥२६॥ तत्र भगवान सिंहासने निषण्णः, स च पूर्वाभिमुखः, ततो भगवतो दक्षिणपाधै कुलमहत्तरिका हंसलक्षणं पटसाटकमादाय भद्रासने निषण्णा, अम्बधात्री भगवतो वामपार्चे उपकरणमादाय भद्रासने उपविष्टा, भगवतः पृष्ठे एका वरतरुणी कृतङ्गारचारवेषा धवलमातपत्रं धरन्ती समवतिष्ठते, उत्तरपूर्वस्यां दिशि पुनः एका वरतरुणी विमलजलप्रतिपूर्ण भृङ्गारं गृहीत्वा तिष्ठति, आग्नेयकोणे तु एका वरतरुणी कनकदण्डं मणि विचित्रं तालवृन्तं, अन्ये पुनरेवमाहुःएताः सर्वा अपि देव्यः प्रतिपत्तव्याः, ततः स्वामिन उभयोः पार्श्वयोर्व्यवस्थितौ शक्रेशानौ देवनाथो चामराभ्यां मणिरत्नविचित्रदण्डाभ्यां वीजयतः, एवं भगवति शिबिकान्तवेर्तिनि सिंहासनारूढे सति नन्दिवर्द्धनो राजा निजाभियोग्यपुरुषानाज्ञापयति-परिवहत यूयं शिधिकामिति, ततस्ते एवमुक्काः समाना हर्षापूरितमनसो यावत् शिविकामुत्पादयन्ति तावदत्रान्तरे शक्रो देवराजश्चन्द्रप्रभायाः शिविकाया दाक्षिणात्यामुपरितनी बाहां गृह्णाति, ईशानो देवेन्द्र औतराहामुपरितनी बाहां, चमरोऽसुरराजोऽधस्तनीं दाक्षिणात्यां बाहां, बलिवैरोचनेन्द्रोऽधस्तनीमौत्तराहां बाहाम्, अवशेषा 4%AECAR Jan Farve Personal ~250 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४५९-४६०], विभा गाथा , भाष्यं [९८-९९], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत totke सत्रांक दीप अनुक्रम भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका देवा यथाऽहै चन्द्रप्रभा शिबिकामुत्पाटयन्ति, उत्पाव्य च शकेशानेन्द्रवर्जान शेषा देवा यथायोगं परिवहन्ति, शक्रेशानेन्द्रौ तु चामराभ्यां वीजयतः ॥ एतदेवाहपुछि उक्खित्ता माणुसेहिं सा हट्ठरोमकूवेहिं । पच्छा वहंति सीयं असुरिंदसुरिंदनागिंदा ॥९८ ॥ भा०॥ पूर्व-प्रथममुक्षिप्ता-उत्पाटिता मानुषैः सा शिक्षिका, किंविशिष्टैरित्याह-दृष्टानि रोमकूपानि येषां ते तथा तैः, पश्चाद्वहन्ति शिबिकामसुरेन्द्रसुरेन्द्रनागेन्द्राः, असुरेन्द्राः-चमरादयः सुरेन्द्रा-ज्योतिरिन्द्रादयः नागेन्द्रौ-धरणभूतानन्दी। असुरेन्द्रादिस्वरूपव्यावर्णनार्थमाहचलचवलभूसणधरा सच्छंदविउबियाभरणधारी । देविंददाणविंदा वहति सीयं जिणिदस्स ॥ ९९ ॥ भा० ॥ चलाच ते चपलभूषणधराश्चेति विशेषणसमासः, तत्र चला गमनक्रियायोगात्, चपलमूषणघरा हारादिवपलमूपणयोगात् , तथा स्वच्छन्देन-स्वाभिप्रायेण विकुर्वितानि-देवशक्त्या कृतानि आभरणानि-कुण्डलादीनि धारयन्तीस्येवंशीलाः स्वच्छंदविकुर्विताभरणधारिणः, अथवा चलचपलभूषणधरा इत्युक्तं, तानि च भूषणानि किं ते परनिर्मितानि धारयन्ति रत स्वनिर्मितानीति संशयसम्भवे व्यवच्छेदार्यमाह-स्वच्छंदविकुर्विसाभरणधारिणः, क एते इत्याह-देवेन्द्रदानवेन्द्राः, किं ?-वहन्ति शिविकां जिनेन्द्रस्य ॥ एवं भगवति शिविकारूढे गन्तुं प्रवृत्ते तत्पथमतया सर्वात्मना रत्नमयान्यमून्यष्टौ मङ्गलकानि पुरतः क्रमेण सम्पस्थितानि, तद्यथा-स्वस्तिकः श्रीवत्सः नन्दावः वर्द्धमानकं भद्रासनं | and remona ~251 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [४५९-४६०], विभा गाथा [-], भाष्यं [१००], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत नंच उपोदात- कलशो मत्स्ययुगं दर्पणश्च, तदनन्तरमालोकदर्शनीयानि क्रमेण पूर्णकलशभृङ्गारचामराणि, ततो गगनतलमनुलिखन्ती देववर्णन नियुको वातोद्भता महन्ती वैजयन्ती, तदनन्तरं विमलवैडूर्यमणिदण्डं प्रलम्वमानकोरण्टमाल्यदामोपशोभितं चन्द्रमण्डलनिभं निर्गमवर्णश्रीवीर- | विमलमातपत्रं, तदनन्तरं मणि कनकविचित्रं सपादपीठं सिंहासनं, तदनन्तरमष्टशतमारोहरहितानां वरतुरगाणां, तदनचरिते |न्तरमष्टशतं वरकुञ्जराणां, ततोऽनन्तरमष्टशतं सघण्टानां सपताकानां सनन्दीघोषाणामनेकपहरणावरणसंभृतानांडू रथानां, ततोऽष्टशतं वरपुरुषाणां, तदनन्तरं हयानीकं, तदनन्तरं गजानीकं, ततोऽप्यनन्तरं रथानीकं, ततः पदात्यनीकं, ।।२६४॥ तदनन्तरमाकाशतलमुल्लिखन् लघुपताकासहस्रपरिमण्डितो योजनसहस्रोच्छायो रत्नमयोऽतिमहान महेन्द्रध्वजः, तदनन्तरं । दाबहवः खड्गग्राहाः कुन्तग्राहाः पीठफलकपाहाः, तदनन्तरं हासकारका नर्मकारकाः कान्दपिका जयजयशब्दं प्रयुञ्जाना, तदनन्तरं बहब उग्रा भोगा राजन्याः क्षत्रियास्तलवरा माडंबिकाः कौटुम्बिकाः श्रेष्ठिनः सार्थवाहा बहवो देवा देव्यश्च स्वामिनः पुरतः पृष्ठतः पार्श्वतो व्यवस्थिताः सम्पस्थिताः, ततो देवरुह्यमाना भगवतः शिविका गच्छति, भगवतश्च पृष्ठतो हस्तिस्कन्धवरगतः सकोरण्टमास्यदाना प्रियमाणेन छत्रेण श्वेतवरचामराम्यां वीज्यमानश्चतुरङ्गिण्या सेनया परिकलितो नन्दिवर्द्धनोऽनुगच्छति ॥ कुसुमाणि पंचवण्णाणि मुंचंता दुंदुहीउ ताडता । देवगणा य पहहा समततो उच्छुयं गयणं ॥१०॥ भा० भगवति सिंहासनाधिरूढे शक्रेशानदेवराजाभ्यां वीज्यमाने दीक्षार्थ प्रचलति प्रदृष्टा भक्तिप्रमोदापूरितमनसो देव दीप अनुक्रम JanEdicatonireer ForFive Persanamory T wsannlionary.com ~252 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ४५९ ४६० ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१०१-१०४], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः खा.स. ४५ Jan Education in गणा' देवसङ्घाताः चशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, स च दर्शविष्यते, कुसुमानि शुक्लादिपञ्चवर्णानि मुञ्चन्तः तथा दुन्दुभींश्च ताडयन्तो, गच्छन्ति इति क्रियाध्याहारः, तैरेवं गच्छद्भिर्देवैः समन्ततः- सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च सर्व गगनमवस्तृतं व्याप्तम् ॥ वणसंडोव कुसुमितो पउमसरोवा जहा सरयकाले । सोहइ कुसुमभरेणं इप गयणतलं सुरगुणेहिं ॥ १०१ भा. ॥ बनखण्ड इव कुधुमितः, पद्मसरो वा यथा शररकाले शोभते कुसुमभरेण-पुष्पसमूहेनेति, एवं गगनतलं शोभते सुरगणैः । सिद्धत्थवर्ण व जहा असणवणं सणवणं असोगयणं । चूपवणं व कुसुमियं इय गयणलं सुरगणेहिं ।। १०२ भा. ।। सिद्धार्थकवनमिव यथा असनवनं, असना-बीजकाः, सणवनमशोकवनं चूतवनं या कुसुमितमिति, एवं गगनतलं सुरगणैः शुशुभे । | अयसिवर्ण व कुसुमियं कणियारवणं व चंपगवणं वा । तिलगवणं द कुसुमियं इय गयणवलं सुरगणेहिं ॥ १०३ भा. ।। अतसीवनं वा यथा कुसुमित, अतस्यो - मालव देवप्रसिद्धाः, कर्णिकारवनं वा चम्पकवनं वा तिलकवनं वा यथा कुसुमितमिति, एवं गगनतलं सुरगणैः शोभितम् । वरपड भेरिल्लरिड्दु हिसंखसहिएहि तूरेहिं । घरणियले गयणयले तूर बिनाओ परमरम्मो ॥ १०४ भा. ॥ परपटहमेरीझहरी दुन्दुभिशङ्खसहितैस्तूयैः करणभूतैः किं । परमितले गगनतले सूर्यनिनादः सूर्यनिर्घोषः परमरम्योऽभवत् । For Pivote & Personal Use Ony ~ 253~ sanlibrary.org Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ४५९ ४६० ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [१०५-१०६], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्धात निर्युकौ एवं सदेवमणुपासुराए परिसाए परिवुडो भयवं । अभिधुवंतो गिराहिं संपत्तो नायसंडवणं ॥ १०५ भा. ॥ एवम् उकेन विधिना सह देवमनुष्यासुरा यथा सा सदेवमनुष्यासुरा तया, कयेत्याह-पर्षदा, परिवृतो भगवान् श्रीवीर ४ गीर्भिः षाग्भिः अभिष्ट्रयमानः, क्षत्रियकुण्डपुरमध्येन नरनारीदेवदेवीसावानां नयनमालासहस्रैः प्रतीक्ष्यमाणः हृदयचरिते मालासहस्रैरभिनन्द्यमानो मनोरथमालासहस्रैः संस्पृश्यमानोऽङ्गुलि सहस्रैर्दर्यमानो भवनपङ्क्तिसहस्राणि समतिक्रामन् तावद् गतो यावत् सम्प्राप्तो ज्ञानखण्डवनमिति ॥ ॥२६५॥ उज्जाणं संपत्तो ओरुहिउं उत्तमाउ सीयाओ । सयमेव कुणइ लोयं सको सि परिच्छए केसे ॥ १०६ भा. ॥ उद्यानं सम्प्राप्तः सन् यत्रैवाशोकबरपादपस्तत्रैवागच्छति, आगत्य च तस्या उत्तमायाः शिविकाया अवतरति, अचतीर्य व स्वयमेवाभरणान् मुश्चति, तानि कुलमहत्तरिका छिन्नमुक्तावलिप्रकाशान्यभ्रूणि विनिर्मुञ्चन्ती हंसलक्षणेन पटचाटकेन प्रतीच्छति, प्रतीच्छय भगवन्तमेवमवादीत् - इक्खागुकुलसमुप्पणे सि णं तुमं जाया!, कासवगोते सिणं लुमं जाया ! उदितोदितनाय कुलनय लमियंक सिद्धत्थजञ्चखत्तियसुते सि णं तुमं जाया ! जचखत्तियाणीए तिसखाए अत्तप सि णं तुमं जाया । देवनरिंदपहिय कित्ती सि णं तुमं जाया 1, सुहोसिए णं तुमं जाया !, एत्थ निरवेक्खं चंकमियां, गरुयं आलंबेय, असिधारं महवयं परिययं तं घडियवं जाया !, परकमियवं जाया, अस्सि च अद्वे नो पमाइयति, अण वरयपडतंसुपवद्दनंदिवरणपमुहसयण वग्गसमेया अंसूणि विणिम्मुयंती बंदति नमखति वंदिता मर्मसिता प Jan Education or Peyote & Personal Use Ony ~ 254 ~ श्रीवीरस्व प्रव्रज्या ॥२६५॥ www.sanlibrary.org Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) । “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [४५९-४६०], विभा गाथा , भाष्यं [१००-१०९], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: k प्रत सत्राक asex अवकमति, सामीवि संपर एवमेवंति पयासी, तता स्वयमेव भगवाम् पञ्चमुष्टिक लोई करोति, सश्च देवराजो हंस-1154 लक्षणेन पटशाटकेन केशा दीन प्रतीच्छति ॥ जिणयरमणुण्णवित्ता अंजणघणरुगधाविमलसंकासा केसा खणेण नीया खीरसरिसमामय पदहि ॥१०७भा.॥ शक्रेण जिनवरं-भगवन्तं बर्द्धमानस्वामिनमनुज्ञाप्य भञ्जनं प्रसिद्धं धनो-मेघा रुचका-कृष्णमणिविशेषः तेषामित्र विमला छाया येषां अञ्जनघनरुपकविमलसङ्काशा, के ते इत्याह-केशाः, किं-क्षणेन नीताः क्षीरसदृशनामानमुदर्षि, धीरोदपिमित्यर्थः । अत्रान्तरे चारित्रप्रतिपसुकामे भगवति सुरासुरमनुजवृन्दसमुद्तो ध्वनिस्तूर्यमिनादबशकादेशा-1 द्विरराम, तथा पाहदियो मणुस्सघोसो तुरियनिनादो उ (य) सपवयणेणं । खिप्पामेव निलुको जाहे पडिवजा परितं ॥१०८ मा.॥ | दिन्यो-देवसमुत्थो, घोष इति गम्यते, मनुष्यघोषा, पशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धा, सथा तूर्यनिनादश्च शक्रवचनेन विप्रमेव-शीघ्रमेव 'निलुको' इति देशीवचनमेतत् , विरत इत्यर्थः, बदाम्यस्मिन् काले प्रतिपद्यते चारित्रम् ॥स प्रथा चारित्रं प्रतिपद्यते तथा प्रतिपादयतिकाकण नमोकारं सिद्धाणामभिग्गहं तु सो गिण्हे । सर्च मे उकरणिज्जं पार्वति चरित्तमारूदो ॥१०९ मा.॥ कृत्वा नमस्कार सिद्धेश्यो, यथा 'नमोत्धु णं सिद्धाण'मिति, अभिग्रहमसौ एहाति, किंविशिष्टमित्याहन्धर्व ये-मण मकरणीयं पापमित्येवं चारित्रमाख्दा, किमुकं भवति -भदन्तशब्दरहित सामायिकमुच्चारयति, तद्यथा-'करेमि सामाइयं दीप अनुक्रम * Kaviewsanelibrary.orm ~2550 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [४५९-४६०], विभा गाथा [-], भाष्यं [११०], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोदात- नियुक्ती श्रीवीर- चरिते ॥२६६॥ माय जो पायाखामि जावजीचाए जाव वोसिरामि, भदन्तेति न भणति, तधाकल्पत्वात्, आह निदानयनं "भदंतत्ति न भणड, जीयमिति" चारित्रप्रतिपत्तिकाले च स्वभावतो भुवनभूपणस्य भगवतो निर्भूपणस्य सत इन्द्रो देव- पापाकरदृप्यं वस्त्रमुपनीतवान्, अत्रान्तरे कथानकम्-एगेण देवदूसेणं पञ्चइए, तं आहे असे करेइ एत्यंतरा पिउवयं सो धि- वाभिप्रहा जाइतो उवद्वितो, सो य दाणकाले कहिंपि य गतेलतो, पच्छा आगतो भजाए अंबाडितो-सामिणा एवं दाणं दत्तं, ४ तुमं पुण कहिंचि हिंडसि, जइ पुण एत्थंतरेवि लभेजासि, ततो सो मागतो भणइ-जहा मम सामि! न किंचि तुभहिं| दिनं, इयाणिपि देहित्ति, ताहे सामिणा तस्स देवदूसस्स अद्धं दिवं, अन्नं सर्व परिचत्तंति नस्थि, तेण तुन्नागस्स उबबाणीयं, जहा एयस्स दसिया बंधाहि, तेण पुच्छितो-इमं कतो उद्धं, सो भणइ-भगवता दिन्नं, तुन्नागो भणइ तपि से अद्धं आणेहि जया पडिहिइ भयवतो अंसातो, तो णं अहं तुम्नामि ताहे लक्सं मोल्लं भविस्सइत्ति, ता तुम्झवि अद्धं मञ्झवि अद्धं, पडिवनं, ताहे पओलग्गितो, सेसमुचरि भणीहामि ॥ तस्य भगवतश्चारित्रप्रतिपत्तिममनन्तरमेव मनःपर्यायज्ञानमुदपादि, सर्वतीर्यकृतां चायं क्रमः, यत आहतिहिं नाणेहिं समग्गा तित्थयरा जाव होति गिहवासे। पडिवनंमि चरित्ते चउनाणी जाच उडमत्था ॥११०भा०॥ विभिनि-मतिश्रुतावधिभिः समग्राः-सम्पूर्णास्तीर्थकरा यावद् गृहवासे भवन्ति, बसन्तीत्यर्थः, प्रतिपन्ने पुन- २६६॥ चारित्रे चतुर्गनिनो भवन्ति, कियन्तै कालं यावदित्याह-यावच्छमस्थास्तावच्चतुज्ञानिनः, एवमसी भगवान् प्रतिपन्नचारित्रः समासादितमनःपर्यायानो'शातखण्डादापृच्छच स्वजनान् कारग्राममगमत् । तथा चाह दीप अनुक्रम Farvey ~256~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [४५९-४६०], विभा गाथा [-], भाष्यं [१११], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक % -% | बहिया य नायसंडे आपुच्छित्ताण णायए सके। दिवसे मुहुत्तमेसे कमारगाम समणुपत्तो। १२१॥ भा०॥ बहिः कुण्डपुरात् ज्ञातखण्डे उधाने आपृच्छच ज्ञातकान् सर्वान् यथासन्निहितान् तस्मानिर्गतः, कर्मारपामगमनाप्रियेति वाक्यशेषः, तत्र च पथद्वयम्-पको जलेनापरः पाल्या, तत्र च भगवान् पाख्या गतवान्, गच्छंच दिवसे मुह-11 शेषे कारग्राममनुप्राप्तः, तत्र च प्रतिमायां स्थितः॥ सो भगवं दिवेहिं गोसीसाइएहिं चंदणेहिं चुन्नेहि य वासेहि य पुप्फेहि य वासियदेहो निक्खमणाभिसेएण य| अभिसित्तो, विसेसेण इंदेहिं चंदणाइगंधेण वासितो, तस्स पवइयस्सवि सतो चचारि साधिए मासे गंधो न फिडितो, अतो से सुरभिगंधेण भमरा बहवे दूरातो पुष्फितेऽवि कुंदाइवणसंडे चइत्ता दिहिं गंधेहिं आगरिसिया भगवतो देह मागम्म विंधति, केइ पुण मग्गतो गुमगुमायता समल्लियंति, जया पुण न किंचिवि पावंति तया आरुसिया तुंडहिं| द्वितयं भिंदिऊण खायंति, जेऽवि केई अजिइंदिया तरुणपुरिसा तेऽवि गंधे अग्याइऊण गंधमुच्छिया भयवंतं भिक्लाय रियाए हिंडतं गामाणुगार्म दूइज्जंतं अणुगच्छंता अणुलोम जायंति, देहि अम्हवि एवं गंधजुतिंति, ततो भयजाते तुसिणीए अच्छमाणे पहिलोमे उवसग्गे करति, तहा इस्थियातोवि भयवतो देहं सेयमलरहियं निस्साससुगंधमुहं है। प्राण्डीणि य निसग्गेण व नीलुप्पलपलासोवमाणि दह बहुविहमणुलोमुवसम्गं करेंति, एवं सामन्त्रेण भणियं, विसेसो।।। भण्णइ-तत्य जया भगवं कम्मारगामबाहिं पडिमं ठितो तया एगो गोवो दिवसं वइल्ले वाहित्ता गामसमीवं पत्तो; ताहे चिंतइ-एए गामसमीवे परंतु, अपि ता गावीतो दुहामि, ततोऽसौ जान मा पले पपिसित्ता यावीतो दुहइ ताव 95 दीप अनुक्रम Jan E rcan ... अथ भगवन्त महावीरस्य उपसर्गाणां वर्णनं ~257 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [४५९-४६०, वि०भा०गाथा H, भाष्यं [१११], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोद्घात-1 ते बाला चरंता अडविं पविट्ठा, सो गोवो गामातो निग्गतो बइले म पेच्छा, तसो सामिपुछा-कहिं वइलाकमोरे कानियुक्ती |सामी तुहिको अच्छद, सो चिंतइ-एस न याणइ, ताहे मग्गि पयत्ती, सवरसिपि से बहला सुधिरं भमित्ता गामसमी- योत्सर्गः श्रीवीर- बमागया माणुसं इष्टण रोमर्थतः अच्छति, ताहे सो आगतो, ते पहले तत्थेव निविटे पेच्छइ, ताहे आसुरुचो, एएणगोपोपद्रव लिदामएण आहणामि, एएण मम बल्ला हरिया, पभाए घेत्तण वच्चीहामित्ति, साहे सक्को देवराया चिंतिइ-किं बज सामी ४ा पारणं च पढमदिवसे करेइ , जाव पेच्छइ तं गोवं धावतं, ताहे सो तेण थंभिओ, पग्छा आगतो तंतजेइ- दुराम याणसि ॥२६७॥ सिद्धस्थरायपुत्तो एस पवइतो, एयंमि अंतरे सिद्धत्थो सामिस्स माउस्सियापुस्तो चालतबोकम्मेण वाणमंतरो जातो, साहे सको भणइ-भयवं तुज्झ स्वसग्गबहुलं, अहं वारस परिसरणि तुझ वेषाव करेमि, ताहे सामिणा भणियं-चो खलु देविंदा! एवं भूयं वा भवइ वा भविस्सइ वा गं अरहंता देविदाण वा असुरिंदाण वाणीसाए केवलनाणमुपा-1 है| इस सप्पायति सप्पाइस्संति वा, तवं या करिसुवा करेंति वा करिस्संति था, अरईता सएण उड्डाणबलवीरियपुरिस कारपरकमेणं केवलनाणमुप्पाईसु उपायंति उप्पाइस्संति था, ताहे सक्केण सिद्धत्यो भण्णइ-एस तव नियल्लतो, पुणोऽवि मम धयणं, सामिस्स जो मारणांतियउपसगं करेइ तं वारेहि, तेण पडिस्सुयं-एवं होउ, सको पडिगतो, सिद्धस्थो ठितो, तद्दिवसं सामिस्स छट्ठभत्ते पारणगं, ततो भयवं कोल्लागे संनिवेसे भिक्खापविष्टो पयमहुसंजुत्तेणं परमण्णेण बहु-IN॥२६॥ लेण माहणेण पडिलाभितो, तत्थ पंच दिखाई पाउम्भूयाई । एतदेवाह गोवनिमित्तं सकस्स आगमो वागरेइ देविंदो। कुल्लाग पहुल छहस्स पारणे पयस वसुहारा ॥५६१ ॥ दीप अनुक्रम an ForFive Persanamory viewsanelibrary.com ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४६१], विभा गाथा , भाष्यं [१११...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक | ताडनायोचतगोपनिमित्तं प्रयुक्तावधेः शनस्य-देवराजस्य आगमनभागमोऽभवत्, विनिवार्य व मोपं देवेन्द्रो | भगवन्तमभिवन्ध व्याकरोति-अभिधते-भगवन् ! तवाहं द्वादश वर्षाणि वैयावृत्त्वं करोमीत्यादि, पाठान्तरं 'वागरिंसु देविंदो' व्याकृतवानित्यर्थः, सिद्धार्थ वा तत्कालप्राप्त व्याकृतवान् देवेन्द्रः-भगवान् त्वया न मोक्तव्य इति । गते देवराजे | भगवतोऽपि कोलाके सन्निवेशे बहुलो नाम ब्राह्मणः षष्ठस्य-तपोविशेषस्य पारणके पायसमुपनीतवान् 'वसुहारेति तद्गृहे वसुधारा पतिता, एष गाथाक्षरार्थः । कथानकम्-ततो सामी विहरमाणो गतो मोरागसंनिवेस, तत्थ मोराए दुइजंता नाम पासंडत्था, तेर्सि तस्थ आवासो, तेसिं च कुलवती भयवतो पिउमित्तो, ताहे सौ सामिस्स सागरण ! साउवहितो, सामिणा प्रवपयोगेण पाहा पसारिया, सो भणह-अस्थि कुमारवर | एत्थ घरा, अच्छाहि तत्थ, सामी दएमराई च वसित्ता पच्छा गतो विहरइ, गच्छत्तस्स य तेण भणिय-विवित्ता वसहीती जइ वासारत्तो कीरइ तो आग-1 कारख, अणुग्गहीया होजामो, ताहे सामी अट्ठ उउबद्धिए मासे विहरित्ता वासावासे संपत्ते तं देवं दूइज्जंतगगाम: पह, तत्थगंमि उडए वासावासं ठितो, पढमपाउसै य गोरूवाणि चारिं अलभंताणि जुन्नाणि तणाणि खायंति, ताणि य पराणि उबेलेंति, पच्छा ते तावसा वारेति, सामी न निवारेह, परछा दूरसगा तस्स कुलषइस साहिति-जहा एस एयाणि न पारेइ, ताहे सो कुलवई अणुसासइ, जहा-कुमारवर सधणीवि ताव नेहूं रक्खइ, तुमपि वारिज्जासिति सप्पि-। वासं भणइ, ताहे सामी अघियत्तोग्गहोति कार्ड निरगतो, इमेण तेण पंच अभिम्गहा गहिया, संजहा-अचियत्तोगहे | बसिय १ निचं बोसट्टे काए २ मोणं च पाणीसु भोत्तवं ४, गिहत्थी न दियघो-न अन्भुद्धेययो ५, एए पंच दीप अनुक्रम te Farvey ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४६१], विभा गाथा H, भाष्यं [१११...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत अभिग्रहपञ्चकं झूलपाणिपूर्वभवः I उपोदात- भनिगहा गहिया, इह सपात्रो धम्मों मया प्रज्ञापनीय इति प्रथमपारणकं गृहस्थपात्रे वभूव, ततः पाणिपात्रभोजिना नियुकामया भवितव्यमित्यभिग्रहो गृहीतः, तथा च गोशालकेन तन्तुवायझालायां किलेदमुक्तम्-भगवनहं तव भोजनमा- श्रीवरि- नयामि गृहस्थपात्रे कृत्या, भगवता न प्रतिपन्नम्, उत्पन्न केवलज्ञानस्य तु लोहार्य आनीतवान् , तथा चोक्तं- चरिते "धन्नो सो लोहजो खंतिखमो पवरलोहसरिवन्नो। जस्स जिणो पत्ताओ इच्छइ पाणीहिं भोत्तुं जे ॥१॥" अयोत्पन्नेऽपि दिकेवलज्ञाने कस्मान्न भिक्षार्थ भगवानटति, उच्यते, तस्यामवस्थायां भिक्षाटने प्रवचनलाघवसम्भवात्, उक्तं च॥२६८॥ "देविंदचक्कवट्टी मंडलिया ईसरा तलवरा य । अभिगच्छति जिणिंदं गोयरवरियं न सो अडइ ॥१॥" एतत्यसङ्गत उक्तम् , एवं तत्र भगवान् अर्द्धमास स्थित्वा ततो पच्छा अट्ठियगामं गतो, तस्स पुण अद्वियगामस्स पदम बद्धमाणय-1 मिति नाम होत्था । सो य किह अद्वियगामो जातो?, भण्णइमाधणदेवो नाम वाणियओ, पंचहिं सगडसएहिं गणिमपरिममेजभरिएहिं तस्संतेणागतो, तस्त समीचे वेगवई नाम नदी, तं सगडाणि उत्तरंति, तस्स एगो बइलो सो मूलधुरे जुष्पइ, तस्स बलेण ताणि सगडाणि उत्तिन्नाणि, पच्छा सो तुहो। दापडिओ, सो बाणियतो तस्स तणपाणियं पुरतो छड्डेऊण तं अवहाय गतो, सोऽवि तत्व वालुगाए जेट्ठामूलमासे अईव || उहाए तन्हाए हाए य परिताविजइ, बद्धमाणवस्थवगो य लोगो तेपातेणं पाणियं तणं च वहइ, न य तस्स कोइवि देवा ततोऽसौ गोणो तस्स पदोसमावन्नो, अकामतण्हाए छुहाए य मरिऊणं तत्थेव गामे अरगुजाणे सूलपाणी जक्सो उप्पण्णो,? उपउत्तो पासइ बहसरीरं, बाहे रूसितो मारि. विजबइ, सो गामो मरिउमारद्धो, तो अपना को उगसया णि दीप अनुक्रम ॥२६॥ andre ~260~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४६१], विभा गाथा H, भाष्यं [१११...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: । प्रत सत्राक करेंति, तहवि न ठाइ, ताहे भिसो गामो, अनगामेसु संकतो, तत्थवि न मुंचइ, ताहे तेसिं चिंता जाया-अम्हेहिं तत्थ ना नज्जा कोऽवि देवो वा दाणवो वा विराहितो, तम्हा तहिं चेव ठामो, आगया समाणा नगरदेवयाए विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, बलिं दाऊण समन्ततो उम्मुहा सरणं सरणं सरणंति भणंति, जं अम्हेहिं संमं न चेट्ठियं । तस्स खमह, ताहे अंतलिक्खपडिवनो सो देवो भणइ-तुम्भे दुरप्पा निरणुकरा तेणंतेण एहह जायह, तस्स तणं वा पाणियं वा न दिन्नं, अतो नस्थि भे मोक्खो, ततो ते व्हाया पुष्फबलिहत्थगया भणति-दिट्ठो कोवो, पसायमिच्छामो, ताहे भणइ-एयाणि माणुसद्रियाणि पुंज काऊण उवरि देवलं कारेह, सूलपाणि च तत्थ जक्खं बलिवई च एगपासे, अने भणति-तं बइल्लरूव करेह, तस्स य हेडा ताणि से अद्विगाणि निणह, ताहे अचिरेण कयं, तत्थ इंदसम्मो नाम पडियरगो कओ, ताहे लोओ पंथिगाई पेच्छति पंडरहियं गाम देवकुलं च, ताहे अने पुच्छंति-कयरातो गामातो आगया', भणंति-जत्थ ताणि अद्वियाणि, एवं सो अद्रियग्गामो जातो, तथ पुण वाणमंतरघरे जो रात्तिं परिवसइ। सो तेण सूलपाणिणा वाहिता पच्छा रचि मारिजइ, वाहे तत्थ दिवस 'लोगो अच्छइ, पच्छा अन्नत्थ गच्छइ, इंदसम्मोऽपि पूर्व दीवगं च दार्ड दिवसतो जाति. इतोय तत्थ सामी आगतो दूइजंतगाण पासातो, तत्थ या सबो लोगो पिंडितो अच्छइ, सामिणा देवकुलितो अणुण्णवितो, सो भणइ-गामो जाणइ, सामिणा गामो मिलितो काचेव अणुचवितो, गामो भणह-पत्थ न सका चसिड, सामी भणइ-तुज्झे ताव अणुजाणह, ते भणति-ठाह, तत्थेकेको वसहिं दंश सामी नेच्छद, जाणइ सो संबुझिद्दिद, ततो गंता एगे कृणे पदिम ठितो, वाहे सो इंदसम्मो चिढ़ते चेव। दीप अनुक्रम JanEdientan imes ForFive Persanamory viewsanelibrary.com ~261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४६२-४६३], वि०भा०गाथा ], भाष्यं [१११...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत श्रीवीर सत्राक दीप अनुक्रम उपोद्घात- सूरे धुवपुष्पं दाऊण कप्पडियकरोडिया सधे पसीइत्य भणति-आह, मा विणसह, तपि देवजन भणइ-तुम्झेवि नीह, अखिक नियुक्ती मा मरिजिहिह, भयवं तुसिणीतो चिहा, ताहे सो सरी चिंतेइ-देवकुलिएण व मामेण व भग्नंतोऽविन जाइ यामंठामकाजं से करेमि, ताहे संझाए भीमं अट्टहास मुयंतो श्रीहायड । अभिहितार्थोपसंहारायेदै मायाद्वयमाह निरंकीचरिते का दूइज्जतग पिउणो पयंस तिथे अभिग्गहे पंच । अचियग्गहऽनिवसण निचं वोसह मोणेणं ॥ ४६२॥ रस्यका॥२६॥ पाणीपत्तं गिहिवंदणं च तह वट्ठमाण वेगवई । वणदेव सूलपाणिंद्रसम्म हासऽटियग्गामे ॥ ४३३॥ योत्सर्गः a विहरतो मोराकसंनिवेश प्राप्तस्त्र सन्निवासी दूइज्जतकाभिधानपाषंडस्या दूइज्जतका एयोच्यते, पितुः-सिद्धार्थन वयस्यो-मित्रं स भगवन्तमभिवाद्य वसतिं दसवानिति वाक्यशेष, विहृत्य चान्पत्र वर्षाकालगमनाय पुनस्तथैवागतेन विदितः कुलपत्यभिप्रायः, तीव्रा-ौद्रा अभिग्रहाः पञ्च, गृहीता इति शेषः, ते चामी-अचियत्त'ति देशीवचममग्रीत्यभिधायकं, ततस्तत्स्वामिनो न प्रीतिर्यस्मिन्नवग्रहे सोऽप्रीत्यवग्रहस्तस्मिन् न वसन-न वस्तव्यं तत्र मवेत्येकोऽभिमहा। निच्चं घोसट्ट मोणेणीति नित्यं सदा व्युत्सृष्टकायेन स्थातव्यमिति द्वितीयः, सदा मौनेन विहर्तव्यमिति तृतीयः, यदि पर तथाविधे प्रयोजने एकं वे वा वचने वक्तव्ये, 'पाणीपत्तंति पाणिपात्रभोजिना भवितव्यमिति चतुर्थः, 'गिहिवंदणं पेविका १ गृहस्थस्य वन्दनं चशम्दादभ्युत्वानं च न कर्त्तव्यम्, एतान् पशाभिग्रहान् गृहीत्वा तथा तस्मानिर्गस्य 'चास अहि-| कोयम्गामेत्ति वर्षाकालमस्थिकग्रामे, स्थित इत्यध्याहारः, स चास्थिकमामः पूर्व चईमाचाभिषः खस्वासीत्, पश्चाद 6 Jan E ren ForFive Persanamory ~262~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 0 4- प्रत +% सत्राक Xxxhot 8 4+ स्थिप्रामसंज्ञामित्वं प्राप्तः, तत्र हि वेगवती नाम नदी, ता धनदेवाभिधः सार्थवाहः प्रधानमवामेकाकटसहितः समुपत्तीर्णः, तस्य च गोरनेकशकटसमुत्तारणतो हृदयच्छेदो बभूव, सार्थवाहस्तं तत्रैव परित्यज्य गतः, स बर्द्धमाननिवासिलो कापतिजागरितो मृत्वा तत्रैव शूलपाणिनामा यक्षो बभूव, दृष्टमयलोककारितायतने स प्रतिष्ठिता, इन्द्रशर्मनामा प्रतिजागरको निरूपित इत्यक्षरार्थः । कथानकशेषम् जाहे सो अट्टहासाइणा भयवंत खोभेउ पयत्तो ताहे सबो लोओ सई सोऊण भौती, अज सो देवजओ मारिबइ। तत्थ उप्पलो नाम पुराणो पासावचिजो परिषायशो गईगमहानिमित्तजाणगो जणपासाजो सोऊण मा तित्थगरो होजा, अद्धिई करेइ, बीमेड य रतिं गंतुं, ताहे सो वाणमंतरो जाहे सद्देण न बीहेइ ताहे हस्थिरूवेणुवसग्नं करेइ, पिसायरूवेण नागरुषेण य, एएहिवि जाहे न तरह खोभे ताहे सत्सविहं वेयणं उदीरेइ, तंजहा-सीसवेयणं नासवेवणं दसवेयणं कण्णवेयणं अपिछवेयण नहवेयणं पिट्टिवेयणं, एकेका वेयणा पागयजणस्स जीवियं संकामिकं समस्था, किं पुण सप्तवि समेथातो, तातो भयवं धजलातो अहियासेइ, ताहे सो देवो जाहे न सरइ चालेड ताहे परिस्सेतो पायवाटतो| सामेइ-लमह महारगा इति, ताहे सिद्धत्थो कुतोवि आगतो उद्धाइतो भणति- भो सूलपाणी अपस्थियषत्वचा न चाणसि सिद्धत्थरायपुत्तं भय सिस्थयर, जा एवं सको माणइ सो तुम मिधिसवं करेइ, ताहे सो भीतो दुगुणं सामेह, सिद्धत्थो से धम्मं कहेइ, तत्थ उवसंतो महिमं करेइ सामिस्स, तस्य लोगों चिंतेइ सो तं देवजयं मारिता झ्याणि कीलइ, तत्य सामी देसूणे चत्वारि जामे अतीव परितावितो पभायका मुहुचमेत निदापमा गतो, सत्यिमे ५+ दीप अनुक्रम +1 7 - wwwviewsanelibrary.com ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४६२-४६३], वि०भा०गाथा H], भाष्यं [१११...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: dir प्रत HEIG पोदात-दिस महासुमिणे पासइ, तंजहा-तालपिसातो हतो, सेयसउणो चित्तकोइलो य दोषि एए परजुवासंता दिडा, दामदुर्ग च शूलपाकि नियुक्ती सुरभिकुसुममयं, गोवग्गो पजुवासंतो, परमसरो विबुद्धपंकजो, सागरो य मे नित्थिन्नो, सूरो य पइन्नरस्सिमंडलो उग्ग-2 कृता एफ श्रीवीर- मंतो, अंतेहि य मे माणुसुत्तरो पवतो वेढितो, मंदरं चारुढो मिचि, एए सुमिणे पासित्ताणं पडिबुद्धो, लोगो पभाए आगतो, ४सर्गाः दश चरिते चप्पलो य इंदसम्मो य, ते य अञ्चणियं दिवगंधचुनपुप्फवासं च पासंति, भट्टारगं च अक्खयसबंगं, ताहे सो लोगो सबो सामिस्स उक्कद्विसीहनायं करेंतो पाएसु पडितो भणइ-जहा देवजएण देवो उवसामितो, महिमं पकतो, उप्पलोवि ॥२७॥ सामि दद्वण बंदिय भणियाइतो-सामी! तुम्भेहिं अंतिमराईए दस सुमिणा दिट्ठा, तेसिमं फलं-जो तालपिसातो हतो तमचिरेण मोइणिज उम्मूलेहिसि १ जो य सेयसउणो तं सुक्कझाणं काहिसि २ जो विचित्तो कोइलो तं दुवालसंग पण्णवेहिसि ३ गोवग्गफलं ते चउषिहो समणो समणी सावग साविगा संघो भविस्सइ ४ पउमसरामओ य चउबिहदेव-12 संघातो भविस्सइ ५ जं च सागरो तिनो तं संसारमुत्तरिहिसि ६ जो य सूरो तमचिरा केवलनाणं ते उप्पिजिहिइ, ७ जं8 हाअन्तेहिं माणुसुत्तरो चेढितो तं ते निम्मलजसकित्तिपयायो सयलतियणे भविस्सइ ८ जंच मंदरमारूढो सितं सीहासणत्यो सदेवमणुयासुराए परिसाए धर्म पनवेहिसि ९ दामगदुर्ग पुण न याणामि, सामी भणइ-हे उप्पल । जण्णं तुमं न याणसि तणं अहं दुविहं सागाराणगारियं धम्मं पण्णवेहामि १०, ततो उप्पलो वंदित्ता गतो, तत्थ सामी अद्धमासंअद्धमासेण खमइ, एस पढमो वासारत्तो ।ततो सरए निग्गंतूण मोरागसंनिवेसं गतो, तत्थ सामी बाहिं उजाणे ठितो, तत्य मोरागसंनिवेसे अच्छंदो कुंटलबेंटलेणं जीवइ, कुंटलविंटलं नाम खडियाचुप्पडियादि, सिद्धत्थो एकल्लतो दुक्खं दीप अनुक्रम and remains ForPivate Permaneumony ~264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ४६४ ] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ १११...], मूल [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः आ. सू ४६ Jan Education Inerna अच्छाई, भचवतो पूर्व च चिंते, ताहे सो तेणंतेणं एवं गोवं वोलंतगं सहाविद्या भणइ, जहिं पहावितो जहिं जिमितो जं च जिमितो पंथे य जं च दिट्ठ, दिट्ठो य जारिसो रसीए सुमिणो, तं सवं वागरे, सो आउट्टो गंतुं गामे परिचियाणं कहेइ, तेहिं गामे पकासियं --- एस देवज्जतो उज्जाणे तीयाणागयवट्टमाणं जाणइ, ताहे सबो लोगो आगतो, समस्त सिद्धत्थो भयवंतमुहेण बागरेह, लोगो आउट्टो महिमें करेइ, लोगेण अविरहितो अच्छा, ताहे सो लोगो भणइएत्थ अच्छंदगो नाम जाणगो, सिद्धत्थो भणइ-सो न किंचि जाणा, ताहे लोगो गंतुं भणइ-तुमं न किंचि जाणासि, देवज्जतो जाणइ, सो लोयमज्झे अप्पाणं ठावेडकामो भणइ एह जामो जइ मज्झ पुरतो जाणइ तो जाणइ, साहे लोगेण परिवारितो एइ, भववतो पुरतो ठितो तणं गहाय भणइ एयं तणं छिजिहि न वा १, सो चिंतेइ जड़ भणइ न छिजिहि तो णं छिंदिस्सं, अह भणइ-छिजिहि तो ण छिंदिस्सं, ततो सिद्धत्थेण भणियं-न छिजिहिइ, सो छिंदिउमाढतो, पत्थंतरे सक्केण उवओगो दिनो, वज्रं पक्खितं, अच्छंदगस्स अंगुलीतो दसवि भूमीए पडियातो, ताहे लोगेण खिंसितो, सिद्धत्यो य से रुट्ठो ॥ अमुमेवार्थ समासेनाभिधित्सुराह हापसत वेषण र दस सुमिणुप्पलऽद्धमासे य । मोराप सकारं सको अच्छंदर कुवितो ।। ४६४ ॥ अक्षरगमनिका - रौद्राः सप्त वेदनाः शूलपाणिना यक्षेण कृताः, तदनन्तरं तेनैव स्तुतिः कृता, ततो दश स्वप्ना भगबता दृष्टाः, उत्पला तेषां फलं जगाद, 'अद्धमासे यति भगवान् तत्रार्द्धमासमर्द्धमास क्षपणमकार्षीत्, ततो भगवतो Far Pavoce & Personal Use Ony ~265~ www.sanlibrary.org Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [४६४], वि०भा०गाथा [-], भाष्यं [११२-११४], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सगोः HEIG C4 २७॥ उपोदात- 1मोरायां गतस्य लोकः सत्कारं चकार, शकोऽच्छन्दके तीर्थकरहीलनापरे कुपितः । इयं नियुक्तिगाथा, एतास्त्वस्या एवं शूलपाणिनियुक्ती व्याख्यानभूता मूलभाष्यकारगाथा: कृता श्रीचीर भीमबहास हत्थी पिसाप नागेय वेयणा सत्तासिरकननासदंते नहऽछि पिट्ठी य सत्तमिया ॥११२मू.भा०॥ चरिते तालपिसायं दो कोइला य दामदुगमेव गोवग्गं । सर सागर सूरंतो मंदर सुमिणुप्पले चेव ॥११।। मू.भा.॥ मोहे य झाण पचयण धम्मे संधे य देवलोगे य । संसारं नाण जसे धम्म परिसाए मज्झम्मि ॥१९॥ मू.भा.॥ मोराए संनिवेसे बाहिं सिद्धत्थ तीयमाईणि । साहइ जणस्स अच्छंद पओसा छेयणे सको ॥१९॥प्र.॥2 | प्रथमतः शूलपाणिना भीमोऽट्टहासः कृतः, तदनन्तरं हस्ती विकुर्वितः ततः पिशाचः ततो नागः, तदनन्तरं सप्त वेदना उदीरिताः, तद्यथा-'सिर'त्ति शिरोवेदना, एवं कर्णवेदना नासावेदना दन्तवेदना नखवेदना अक्षिवेदना पृष्ठवेदना च सप्तमिका ॥ यदुक्तम्-'दस सुमिण'त्ति तान् दश स्वप्नानाह-'तालपिसाउ'इत्यादि, प्रथमं तालपिशाचं रहतवान्, तदनन्तरं द्वौ कोकिलो, तद्यथा-एकः श्वेतोऽपरो विचित्रः, ततो दामदयं, तदनन्तरं गोवर्ग, ततः सर, तदनन्तरं सागरं, ततः सूर्य, ततोऽन्त्रं, तदनन्तरं मन्दरं, 'सुविणुप्पले वत्ति एतान् स्वमान् दृष्टवान् , उत्पलश्च फलं कथितवान , तच्चदम्-योऽसौ तालपिशाचः स किलं मोहः, श्वेतकोकिलः शुक्लध्यान, यस्तु विचित्रः कोकिलस्तत् किल द्वादशाङ्गं प्रवचनं, यद् दामद्विकं स यतिश्रावकभेदेन द्विप्रकारो धमा, गोवर्गश्चतुर्विधः श्रीश्रमणसङ्गः, पद्मसरश्चतुर्विधोन | देवसहातः, सागरः संसारः, सूर्यो ज्ञान-केवलज्ञानं,अन्त्रेण मानुषोत्तरपर्वतवेष्टनं निर्मलयशाकीर्तिप्रतापः, मन्दरारोहणं धर्म | दीप अनुक्रम 6 Jan Edmont ... अत्र 'मोराए संनिवेसे.' इति एका प्रक्षेपा गाथा वर्तते ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं , नियुक्ति: [४६५], विभा गाथा -1, भाष्यं [११२-११४], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक १. प्रज्ञापयितुकामेन सदेवमनुजायाः पर्षदो मध्ये सिंहासने उपवेशनं ॥ ततो भगवान् मोराकसंनिवेशे गत्वा तत्र बहिरुयाने स्थितः, सिद्धार्थस्तत्र एकाकी स्थातुमशक्को भगवतः पूजार्थ च जनस्य-लोकस्यातीतादीनि साधयति-कथयति, ततः प्रद्वेषात्-मात्सर्यादच्छन्दकः समागतः, स तृणस्य छेदने प्रश्नं कृतवान-किमिदं त्रुटिष्यति न वा ?, सिद्धार्थेनोकं१|न श्रुटिष्यति, अत्रान्तरे च शक्र उपयुक्तवान् ॥ कथानकशेषम् ततो सिद्धत्थो तस्स पदोसमावन्नो तं लोग भणइ-एस चोरो, लोगो भणति-कस्स तेण चोरियं !, सिद्धत्यो भणइअस्थि एत्थ वीरघोसो नाम कम्मकरो ?, सो पाएसु पडितो, अहं सुत्ति, अस्थि तुम्भं अमुए काले दसपलपमाणं वट्टयं है नट्ठपुर्व !, आमं अस्थि, तं एएण हरियं, तं पुण कहिं !, एयस्स पुरोहडे महिसेंदुरुवखस्स पुरथिमेणं हत्थमेतं गंतूण निक्खित्तं, वह तत्थ, खणि गेण्हह, ताहे ते गया, दिदै, आगया कलकलं करेमाणा, अन्नपि सुणेह-अस्थि इह हैइंदसम्मो नाम गहवती, तेहिं भणियं-अस्थि, ताहे सो सयमेव उट्टितो भणइ-अहं, आणवेह, अस्थि तुझं ऊरणओ अमुके काले नटूपुषो, सो एएण मारित्ता खइओ, अद्वियाणि से बदरीए दाहिणपासे उकुरुडियाए नियाणि, ते| गया जाव दिहाणि, ततो उक्कुटिकलयलं करेंता आगया, ताहे भणइ-एयं विइयं । अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह नियुक्तिकारःतणयंगुलि कम्मारवीरघोस महिसिंदु दसपलिए । बिइयेदसम्मऊरणग बयरीए दाहिणुकुरुडे ॥ ४३५ ॥ अच्छंदकस्तृणं जग्राह, छेदोऽङ्गुलीनां खलु देवराजेन कृतः, कारः-वीरघोषो नाम कर्मकारस्तत्सम्बंध्येतेन दश दीप अनुक्रम E Jan Erol ForFive Persanamory wwwviewsanelibrary.com ~267~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४६५], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक ---- स्पोद्धात- पलप्रमाणं करोटकं गृहीत्वा महिपेन्दुवृक्षस्याधः स्थापितं, एकं तावदिदं, द्वितीयमिन्द्रशर्मण उरणकोऽनेन भक्षितः, अच्छन्दनियुक्तो तस्यास्थीनि चाद्यापि बदर्या अधो दक्षिणे पाचे उत्कुरटिकायां तिष्ठन्ति ॥ ततो सिद्धत्थो भणइ-तइयं पुण अवशंकाधिकार श्रीवीर- अलाहि तेण कहिएण, ताहे ते निव्बंध करेंति, पच्छा भणइ-भज्जा से कहिहेइ, सा पुण तस्स चेव छिद्दाणि मग्गचरित माणी अच्छद, ताहे ताए सुयं-जहा सो विधमितो अंगुलीतो से छिन्नातो, सा य तेण तद्दिवसं पिट्टिया, सा चिंतेह नवरि एउ गामो ताहे साहामि, आगया ते, गामपुरिसा पुच्छिति, सा भणइ-मा से नाम गिण्हह, भगिणीए पइत्तणं ॥२७॥ करेइ, ममं नेच्छइ, ताहे उक्कुडिं करेमाणा तं भणंति, एस पावो, एवं तस्स उड्डाहो जातो जहान कोऽपि भिक्खंपि देइ ताहे सो अप्पसागारियं आगतो भणइ-भयवं! तुन्भे अन्नत्थवि पुज्जा, अहं कहिं जामि!, ताहे अचियत्तोग्गहोत्तिकाऊण सामी निग्गतो, ततो वच्चमाणस्स अंतरा दो वाचालातो-दाहिणवाचाला य उत्तरा चावाला य, तासिं दोण्हवि अंतरा पादो नदीतो, तंजहा-सुवण्णवालुगा रुप्पवालुगा य, ताहे सामी दाहिणचावालातो संनिवेसातो उत्तराचावालं वञ्चइते तत्थ सुवण्णवाल्याए नदीए पुलिणे कंटियाए तं वत्थं विलग्गं, सामी गतो, पुणो अवलोइयं, किं निमित्तं !, केइ भणंति-जहा ममत्तीए, अवरे भणंति-फि थंडिल्ले पडियं अथंडिल्ले वा !, अपणे भणति-सहसाकारेणं, कई पुण एवंह वयंति-सुलभ वत्थपत्तं सिस्साणं भविस्सइ दुलहं वा, एयनिमित्तमवलोइयं, तं च भगवया तेरस मासे अहाभावेण धरियं, २७या ततो वोसिरियं, ततो सामी अचेलए विहरइ, तं च तेण पिउवयंसधिजाइएण गहियं, तुण्णागस्स उवणीयं, सयसहस्समोलं ४ जायं, इमस्सवि पण्णासं सहस्साई पण्णासं सहस्साई जायाई ॥ अमुमेवार्थमाह दीप अनुक्रम * * ForPivate Permaneumony Nirwwsanelibrary.com ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [४६६ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [११४... ], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः तहयमवचं भला कहए नाहं ततो पिडवयंसो । दक्खिणचावाल सुवन्नवालुया कंटए वत्थं ॥ ४६६ ॥ तृतीयं पुनः पदमवाच्यं तत् तस्यैव भार्या कथयिष्यति, नाहं, सा कथितवती, ततो भगवान् निर्गतः, ततः पितृवयस्यो दक्षिणचावालात् सन्निवेशादुत्तरचावालं प्रति प्रस्थितस्य भगवतो वस्त्रं सुवर्णवालुकाया नद्याः पुलिनं कण्टके लग्नं गृहीतवान् ॥ ताहे सामी उत्तरबाचालं वच्चइ, तत्थ अंतरा कनकखलं नाम आसमपदं, तत्थ दो पंधा-उज्जुगो वंको य, जो सो उज्जुमो सो कणकखलमज्झेणं वचइ, वंको परिहरंतो, सामी उज्जुगेण पहावितो, गोवालेहिं वारितो देवजगा ! मा एएण मग्गेण गच्छह, एत्थ दिट्ठीविसो सप्पो अच्छइ, सामी जाणइ-जहा स भवितो संबुज्झिहि, ताहे गतो, गंतूण जक्खघरमंडवियाए पडिमं ठितो, सो पुण सप्पो को पुवभवे आसि १, भण्णइ-खमगो, पारणगे खुड्डुएण समं वासियभत्तस्स गतो, तेण मंडुकिया विराहिया, सो खुड्डएण पडिचोइतो, ताहे सो अन्नं मतेल्लियं दरिसे, भणइ - इमावि मए मारिया १, जातो लोएण मारियातो तातो सवातो दरिसेइ, ताहे खुडुएण नायं वियाले आलोहिह, सो वियाले आव रसग आलोयणाए आलोइता निविट्ठो, खुडुगो चिंतेइ नूणं से विस्सरियं, ताहे संभारियं, रुट्ठो खुड्डुगस्स आहणामित्ति उद्धारतो, तत्थ खंभे आवडितो मतो, विराहियसामन्नो जोइसिएस स्ववन्नो, ततो चुतो कणगखले पंचण्डं तावससयाण कुलबइस्स भारियाए तावसीए उयरे आगतो, दारगो जातो, तत्थ से कोसिउत्ति नामं कथं, सो अईवपुवभवसहावेण चंडकोवो, तत्थ य अन्नेऽवि अत्थि कोसिया, ततो तस्स चंडकोसिउति नामं कथं, सो य कुलवती मतो, पच्छा सो For Peace & Personal Use Only ~ 269~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ४६६ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [११४... ]. मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घातनिर्युकौ श्रीवीर चरिते ॥२७३॥ कुचलती जातो, सो तत्थ वणसंडे मुच्छितो, तेर्सि तावसाणं ताणि फलाणि न देइ, ते अलभेता गया दिसोदिसिं, जेऽवि तत्थ गोवालाई एइ तंपि हंतूण धाडेइ, तस्स य अदूरे सेयविया नाम नगरी, ततो रायपुत्तेहिं आगंतूण विरहिए सो वणसंडो पडिनिवेसेण भग्गो विणासिओ य, तस्स गोवालएहिं कहिये, सो तथा कंटियाणं गतो आसि, ततो कंटियातो हड्डित्ता परसुहत्थो रोसेण धमधमं तो गतो, कुमारेहिं दिट्ठो आगच्छंतो, तं दद्रूण पठाया, सो परसुहत्थो पघावंतो + खड्डे आवडिऊण पडितो, सो कुहाडो उद्घो ठितो, तत्थ से सिर दोभागे कथं, तत्थ मतो तम्मि वणसंडे दिट्ठीविसो सप्पो ॐ जातो, तेण रोसेण लोमेण य तं घणसंडं रक्खइ, ते ताबसा सधे दहा, जे अद्दडगा ते नहा, सो विसंझं वणसंडं परिभं चिऊण जं सउणगमचि पासइ तं दद्दइ, ताहे सामी तेण दिट्ठो, ततो आसुरुतो ममं न जाणसि ?, सूरं निश्झाएत्ता पच्छा * सामि पढोएइ, सो न उज्झइ जहा अन्नो, एवं दो तिन्नि बारे, ताहे गंतूण डसर, अवकमइ मा मे उवरिं पडिहिइ, तहवि न मरइ, एवं तिनि वारे, ताहे पलोयंतो अमरिसेणं अच्छइ, तस्स भगवतो रूवं पेच्छतस्स ताणि विसभरियाणि | अच्छीणि विज्झाइयाणि सामिणो कंतिसोम्मयाए, ताहे सामिणा भणियं उबसम ! भो चंडकोसिया !, ताहे तस्स ईहापोहमभ्गणगवेसणं करेंतस्स जाईसरणं समुप्पण्णं, ताहे तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेंतों मणसा भक्षं पश्चक्खाइ, तिरथगरो जाण, ताहे सो बिले तुंडं छोडून ठितो, माऽहं रुहो संतो लोग मारेहं, सामी तत्थ अणुकंपणट्टाए अच्छइ, सामिं दहूण गोवालवच्छवाला अलियंति, रुक्खेहिं आवरित्ता पाहाणे खिवंति, न चलइत्ति अल्लीणा, कट्ठेहिं घट्टितो, तहवि न फंदइ, ताहे लोगो आगंतुं सामिं वंदित्ता तंपि सप्पं वंदति महति अ, अन्नाओ य घयविकणियातो तं सप्पं घण Jan Education International For Peace & Personal Use Only ~ 270~ चण्डकीशिकाधि कारः ॥ २७३॥ www.sanlibrary.org Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४६७-४६८], वि०भा०गाथा H], भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम मक्खंति, ततो सो पिवीलियाहिं गहितो, तं वेयणं सम्म अहियासेइ, अद्धमासे कालगतो सहस्सारे उचवन्नों ॥ अमु-। मेवार्थमुपसंहरनाह उत्तरचावालंतर वणसंडे चंडकोसिओ सप्पो । न डही चिंता सरणं जोइस कोवाहि जाओऽहं ॥४६७ ॥ उत्तरचावालान्तरवनखण्डे चण्डकोशिक: सर्पः, स भगवन्तं न ददाह, ततश्चिन्ता बभूव, तदनन्तरं जातिस्मरणं | यथाऽहं ज्योतिष्कः क्रोधादहिर्जातोऽहमिति अक्षरगमनिका, भावार्थः प्रागुक्त एव ।। उत्सरचावाला नागसेण खीरेण भोयणं दिन्नं । सेयवियाए पदेसी पंचरहोणेजरायाणो ॥ ४६८॥ उत्तरचावालो नाम सन्निवेशः, तत्र भगवान् पक्षक्षपणपारणके गतः, तत्र नागसेनेन क्षीरभोजनेन प्रतिलाभितः, पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, ततः श्वेताम्ब्यां नगर्या गतः, तत्र प्रदेशी राजा, स भगवतो महिमां कृतवान्, तथा | पञ्चभी रथैरागता ये प्रदेशिपाचे निजा एवं निजका-नैयकगोत्रा राजानस्तेऽपि महिमां कृतवन्तः ॥ एषोऽक्षराथों, भावार्थः कथानकादबसेयः, तच्चेदम् ततो सामी उत्तराचावालं गतो, तत्थ पक्खक्खमणपारणे नागसेणेण गाहावइणा खीरभोयणेण पडिलाभितो, पंच आदिवाणि पाउम्भूयाणि, ततो सेयवियं गतो, तत्थ पएसी राया समणोबासतो भयवतो महिमं करेइ, ततो भयवं सुरअभिपुरं वञ्चइ, तत्थ अंतराए णिज्जया रायाणो पंचहिं रहेहिं एंति पएसिरन्नो पासं, तेहिं तत्थ सामी वंदितो पूइतो य, ततो सामी सुरभिपुरं गतो, तस्थ गंगा उत्तरियबा, तत्थ सिद्धजत्तो नाम नावितो, खेमिलो नाम सउणजाणतो, तत्व 6 14 wiewsanelibrary.orm ~271 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४६७-४६८], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत HEIG प्रपोदात- नावाए लोगो विलागइ, एत्यंतरे कोसिएण महासउणेण वासियं, कोसिनो नाम उलूगो, खेमिलेण भणिय-जारिस नियुक्तहसउणेण भणिय तारिसं अम्हेहिं मारणतियं पावियचं, किंतु इमस्स महारिपिस्स पहावेण मुच्चीहामो, सा य नावा पहा-दा TPानाम श्रीबीर- विया, सुदाण नागकुमारराएण भयवं! नावाए ठितो दिहो, तस्स कोवो जातो, सो य किर जो सो सीहो वासुदेव-11 चरिते | IBाचणे मारितो सो संसारं भमिऊण सुदाढो नागो जातो, सो संवट्टगवायं विउवित्ता नावं उन्बोलेउं इच्छइ, इतो य3 कंबलसंबलाण आसणं चलियं । का पुण कंबलसंबलाणं उप्पत्ती! २७४॥ | महराए नयरीए जिणदासो वाणियओ सद्धो, सामीदासी साविया, दोऽवि अहिगयतत्ताणि, परिग्गहियपरिग्गहप-11 जि.हिं चउप्पयस्स पच्चक्खायं, ततो दिवसदेवसियं गोरसं गेण्हंति, तत्थ आभीरी गोरसं गहाय आगया. सा।। दवाए सावियाए भन्नइ-मा तुम अन्नत्य भमाहि, जत्तियं आणसि तत्तियं गेण्हामि, एवं तासिं संगयं जायं, इमावि से गंधप-16 डियाइ देइ, इयरी कूइयातो दुद्धं दहिं वा देइ, एवं तार्सि दडं सोहियं जायं, अन्नया तासि गोवालाणं वीवाहो जातो, ४ाताई ताणि निमंसेंति, ताणि भणंति-अम्हे बाउलाणि न तरामो गंतुं, जं तत्थ उवजुजइ भोयणे कडुगभंडाइ वत्थाणि आभरणाणि धूवपुष्पगंधमलाइ वा तं तेहिं दिन्नं, तेहिं अतीव सोहाविय, लोगेण सलाहियाणि, तहिं तुहिं दो तिव रिसा गोणपोयया दढसरीरा उवट्ठविया कंबलसंबलेत्ति नामेणं, ताणि नेच्छंति, बलावि घिऊण गयाणि, ताहे तेण||॥२७४॥ 5सावपण चिंतिय-बइ मुश्चीहंति तो लोगो वाहिह, ता एत्व चेव अच्छंतु, फासुगारी किणिकणं दिज्जइ, एवं पोसि-18 अति. सोऽवि सावतो अडमिचउद्दसीK उपवास करेइ, पुत्थर्य च वापइ, तेऽवि तं सोऊण भद्दया जाया, सणिणो।। दीप अनुक्रम RSSC Kaviewsanelibrary.orm ~272 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४६९-४७१], वि०भा०गाथा H], भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: ITI प्रत सत्राक 15य, जहिवसं साक्गो न जेमेइ तदिवस न जेमेति, तस्स सावगस्स भावो जातो-जहा इमे भविया स्वसंता, अभदहिओ य नेहो जातो, ते स्वस्सिणो, तस्स य सावगस्स मिचो, तत्थ भंडीरमणजत्ता, तारिसा नत्थि अन्नस्स बइल्ला, ताहे ते भंडीए जोइता णीया अणापुच्छाए, तत्थ अण्णेणवि अन्नेणवि समं वादं कारिया, ताहे छिन्ना, तेण ते आणे बद्धा, न चरंति न य पाणियं पियंति, जाहे सबहा नेच्छंति ताहे सो सावतो भत्तं पञ्चक्खाइ नमोकार च देइ, ते का:गया नागकुमारेसु उववन्ना, ओहिं पउंजंति, जाव पेच्छंति तित्थगरस्स उवसर्ग कीरमाणं, ताहे णेहिं चिंतियं-अलाहि ता असेण, सार्मि मोएमो, आगया, एगेण नावा गहिया, एगो सुदाढण समं जुन्झइ, सो महिडिगो, तस्स पुण पाचवणकालो, इमे णु अहणोषवन्नया, सो तेहिं पराइतो, ताहे ते नागकुमारा तित्थयरस्स महिमं करेंति, सत्तं रूवं च गायंति, एवं लोगोऽवि । ततो सामी उत्तिन्नो, तत्थ देवेहिं सुरहिंगंधोदयवासं पुष्फवासं च बुढे, तेऽवि पडिगया ॥ अमु| 1मेवार्थमुपसंहरबाह सुरभिपुर सिद्धदत्तो गंगा कोसिप विऊ य खेमलतो । नागसुदाडे सीहे कंबलसवलाण जिणमहिमा ॥४९॥6 महुराए जिणदासो आभीर विवाह गोण उववासो। भंडीरमणमित्त बच्चे भत्ते नागोहिआगमणं ॥४७॥ वीरवरस्स भगवतो नावारुबस्स कासि वसग्गं । मिच्छादिद्विपरद्धं कंवलसपला समुत्तारे ॥४७१ ॥ सुरभिपुर भगवान् गतः, तत्र गङ्गा नाम नदी, सिद्धयात्रो नाम नाविकः, तत्र नाचमारोहति, जने कौशिको महाशकुनापरपोयो वासितवान्, खेमलकश्च शकुन विद्वान् अवादीत्-यदि परमेतस्य भगवतः प्रभावेन जीवाम इति, दीप अनुक्रम CACackereCheck Jan Eros Kaviewsanelibrary.orm ~273 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४६९-४७१], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: बलो पु प्रत दीप सपोद्धात-18| अन्नान्तरे नागो-नागकुमारः, सुदंष्ट्रनामा सिंहजीवो, भगवत उपसर्ग कर्तुमारब्धवानिति शेषः, कम्बलशयलौ च नाग-II कम्बलशनियुको कुमारी तं वारयित्वा जिनस्य भगवतो महिमा चक्रतुः । कम्बलशवलोत्पत्तिं दर्शयति-'महुराएं' इत्यादि, मथुरायां जिनश्रीचौर- दासः श्रावकः, तत्परिचितस्याभीरस्यान्येन आभीरेण सह विवाहस्तस्मिन् जिनदासेनोपष्टम्भे कृते परितोषवशात् आभी व्यश्च चरिते सारेण जिनदासस्य गौणौ-बलीवहौं समर्पितौ, तयोः श्रायकसंसर्गतोऽष्टमीचतुर्दश्योरुपवासः, तो चान्यदा 'भंडीर'त्ति भण्डीरवटयक्षयात्रानिमित्तं मित्रेणानापृच्छया नीती, तत्र 'धत्ति धावितो, त्रुटिती चेति शेषः, ततो भक्त प्रत्याख्याते | ॥२७५॥ सति नागकुमारेषुत्पन्नौ, तदनन्तरमवधिप्रयोजन, ततो भगवतः समीपे आगमनं, किमर्थमित्यत आह-'वीरवरस्से'त्यादि। वीरवरस्य भगवतो नावारूढस्य मिथ्यादृष्टिः सुदंष्ट्रनामा नागकुमारोऽकार्षीत् , (उपसगै) ततो भगवन्तमुपसर्गयितुं प्रारब्धं, कम्बल शबली नावमुत्तारितवन्तौ ॥ ततो भयवं दगतीराए ईरियावहियं पडिक्कमि पत्थितो, ततो नइपुलिणे भयवतो मधुसित्यचिक्खले पादेसु लक्खणाणि दीसंति, तस्थ पूसो नाम सामुदितो, सो ताणि पासिऊण चिंतइ-एस चक्कवट्टी १एगागी, बञ्चामि णं वागरेमि, तो मम एत्तो भोगा भविस्संति, सेवामि णं कुमारत्ते, सामीवि थूणागसंनिवेसस्स वाहिं पडिम |ठितो, तत्थ सो सामी पेच्छिऊण चिंतेइ-अहो में पलालं अहिज्जियं, एएहिं लक्खणेहिं जुत्तो कि एयारिसो समणोx होइ ?, ता अलाहि, चयामि एयं, इतो य सको देवराया पलोएइ-अज कहिं सामी विहरइ !, ताहे पेच्छति सामि ॥२७॥ च पूस, ततो आगतो सामि वंदित्ता भणइ-भो पूसो! तुम लक्खणं न याणसि, एसो अपरिमियलक्खणो, ताहे सको। अम्भितरं लक्खणं वण्णेइ, 'रुधिरं गोक्षीरगौर मित्यादि, शास्त्रं न भवत्यलीक, एस धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी देविंद अनुक्रम andre ~274 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ ११४... ], मूल [- / गाथा-] मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ४७२-४७३ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], Jan Education International नरिंदमहितो भवियजण कुमुयाणंदकारओ भविस्सइ, ततो सामी रायगिहं गतो, तस्थ नालंदाएं बाहिरियाए तंतुवाय| सालाए एगंनि पदेसे अहापडिरूवं उत्साहमणुण्णवित्ता पढमं मासकखमणमुपसंपज्जित्ताणं विहरइ । तेर्ण कालेणं तेणं समर्पणं खली नाम मंखे, तस्त भद्दा भारिया गुबिणिया, सरवणे सन्निवेसे बहुलस्स माहणस्स गोसालाए पसूया, गोनं नामं कथं गोसालोति, संवद्धितो मंखसिप्पं अहिजितो, चित्तफलयं करेइ, एकलतो विहरततो रायगिहे तंतुवायसालाए पट्टितो, जत्थ सामीट्ठितो तत्थ वासावासमुवागतो, भयवं मासखमणपारणे अम्भितरे बिज| यस्स घरे विलाए भोयणविहीए पडिलाभितो, पंच दिचाणि पाउन्भूयाणि, गोसालो सुणित्ता आगतो, दिट्ठाणि पंच | दिखाणि पाउञ्भूयाणि, भणइ भयवं ! अहं तुज्झ सीसोति, सामी तुसिणीतो निग्गतो, विइयमासक्खवणंमि ठितो, बिइयपारणगे आणंदस्स घरे खजविहीए, तइए सुदंसणस्स घरे सवकामगुणिएणं, ततो चउत्थं मासकखमणमुपसंपजित्ताणं विहरइ ॥ अभिहित सङ्ग्रहणायेदमाह थूणाए बहिं पूसो लक्खणममितरे य देविंदो । रायगिहतंतुसाला मासक्खमणं च गोसालो ॥ ४७२ ॥ मंखलिमंख सुभद्दा सरवण गोबहुलगेह गोसालो । विजयानंद सुनंदे भोयण खज्जे य कामगुणे ॥ ४७३ ॥ सन्निवेशे बहिर्भगवान् प्रतिमास्थितः, पुष्पो लक्षणं निरीक्षितवान् अभ्यन्तरं च लक्षणं देवेन्द्रोऽच कथत्, ततो भगवान् राजगृहे तन्तुवायशालायां मासक्षपणमकार्षीत्, गोशालोऽपि तत्रागतः, गोशालोत्पत्तिं कथयति| 'खली' त्यादि, मङ्गलिर्नाम मङ्गः, तस्य सुभद्रा भार्या, शरवणं सन्निवेशः, तत्र गोबहुलगृहे - गोवहुलनामक ब्राह्मण For Pevote & Personal Use Ony ~275~ www.sanelibrary.org Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४७२-४७३], वि०भा०गाथा H], भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्धात- नियुको श्रीवीरचरिते प्रत सत्राक गोशालायां प्रसूता, दारकस्य गुणनिष्पनं नाम गोशाल इति, भगवतः प्रथमं पारणकं विजयस्व गृहे विपुलमो-गोशालकजनविधिना, द्वितीयमानन्दस्य गृहे खाद्यविधिना, तृतीयं सुनन्दस्य गृहे सर्वकामगुणं, भावार्थः शेषः प्रागेवोक्तः॥ मीलनं गोसालोवि कत्तियपुन्निमाए दिवसतो पुच्छइ-किमहं अज भत्तं लभेजा, सिद्धत्थेण भणियं-कोहवकूर अंविलेण कूडगरूवं च दक्खिणं, सो नवरिं सबायरेण हिंडितो, एवं तेण भंडीसुणएणेव न किंचि संभाइयं, ताहे भवरण्हे एकण 8 कम्मकारएणं अंबिलेण कूरो दिन्नो, ताहे जिमितो, रूवगो य से दक्षिणं दिनो, तेण परिक्खावितो जाव कूडगो, ताहे भणइ-जेण जहा भवियब न तं भवइ अन्नहा, लजितो आगतो, ततो भयवं चत्वमासक्खमणपारणगे नालंदातो निग्ग-12 तूण कोल्लागसन्निवेसं गतो, तत्थ बहुलो माहणो माहणे भोयावेइ घयमहुसंजुत्वेणं परमन्नेण, ताहे तेण सामी पडिलाभितो, |पंच दिवाई पाउम्भूयाई, गोसालोऽवि तंतुवायसालाए सामि अपेच्छमाणो रायगिहे सम्भितरवाहिरे गवेसेइ, जाहेन पेच्छइ ताहे नियगोवकरणं धीयाराण दाउं सउत्तरोठं मुंडणं काउं गतो कोल्लागं, तत्थ भयवतो मिलितो, ततो भयवं गोसालेण सम सुवण्णखलयं वच्चइ, तत्वंतरा गोवालगा वइयाहिंतो खीरं गहाय महल्लीए थालीए नवएहिं तंदुलेहि। पायसं उवक्खडंति, ततो गोसालो भणइ-पह भयवं! पत्थ भुंजाम, सिद्धत्यो भणइ-एस निम्माणं व न वचइ, एस. |॥२७६॥ भजिहिइ उल्लुहिजंती, ताहे सो असद्दहंतो ते गोवए भणइ-तीताणागयजाणतो भगइ-एसा थाली भजिहिइ, तो पयचेण सारक्खह, ताहे पयत्वं करेंति, वसविदलेहि सा बद्धा थाली, तेहिं अतिवहुया तंदुला छूढा, सा फुटा, पच्छा। दीप अनुक्रम *4X andre ~276~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४७४-४७५], वि०भा०गाथा H], भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: -- - प्रत - सत्राक - --- गोवालाणं जं जेण कवेल्लं आसाइयं सो तत्थ चेव पजिमितो, तेण न लद्धं, ताहे सुदुयरं नियतिं गेहइ ॥ अमुमेव कथानकोकमर्थमुपसंजिहीर्घराहकुल्लाग बहुल पायस दिवं गोसाल दट्ट पञ्चज्जा । बाहिं सुवण्णखलए पायसथाली नियइगहणं ॥ ४७४ ॥ कोल्लाका सन्निवेशः, तत्र भगवते बहुलो नाम ब्रामणः पारणके पायसं दत्तवान्, ततो दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, तानि! गोशालो दृष्ट्वा प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः, सोत्तरोष्ठं मुण्डनं कृतवान् इत्यर्थः, ततो भगवान गोशालेन सह सुवर्णखलं गतः, तस्य । बहिः पायसस्थाली भग्ना, ततो विशेषतो नियतेस्रहणं, भावार्थ उक एव ॥ | ततो सामी बंभणगामं गतो, तत्थ नंदो य उवर्णदो य दुवे भायरो, गामस्स दो पाडगा, एगो नंदस्स विडतो उवन-- दस्स, ततो सामी नंदस्स पाडयं पविट्ठो नंदघरं च, तत्थ दोसीणेण पडिलाभितो नंदेण, गोसालो उवणंदरस पाइयं पविद्वो उवणंदस्स घरं च, तेण उवनंदेण संदिटुं-देहि भिक्खं, तत्थ न ताव वेला, ताहे सीयलो कुरो नीणितो, सो तं न इच्छह, पच्छा सा तेण उवनंदेण दासी भणिया-एयस्स चेव उवरि छुहसु, छूढो, सो अप्पत्तिएण भणइ-जइ मम धम्मायVारियस्स अस्थि तवो वा तेओ वा तो एयरस घरं उज्झट, तत्थ अहासंनिहिएहिं वाणमंतरेहिं मा भयवतो (वओ) अलिया होउचितं घरं दह, ततो सामी निग्गतो, पं गतो, तत्थ वासावासं ठाइ, तत्थ दोमासिएणं खमणेणं खमइ, पडिम ताइठाणु फुहुगो, अमुमेवार्थमुपसंहरमाह मणगामे नंदोवणंद उवणंद तेय पहे। चंपा दुमासखमणो वासावास मुणी खमइ ॥ ४७५ ॥ दीप अनुक्रम H मा.स.४७ CCC andre ForFive Persanamory ~2770 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४७४-४७५], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत उपोद्धातनियुकी श्रीवीरचरिते ॥२७॥ दीप अनुक्रम ब्राह्मणग्रामे नन्दोपनन्दौ भ्रातरौ, तत्रोपनन्दस्य गृहे तेजसा 'पडुद्धे' दग्धे भगवान् चम्पां गतः, तत्र वर्षावासकोलाकसुकृत्वा द्विमासक्षपणेन मुनिः-भगवान् क्षपयति ॥ वर्गखल. ततो चरिमं दोमासियपारणय बाहिं पारित्ता कालार्य नाम सनिवेशं गतो गोशालेण सम, तत्व भययं मुन्नघरे पडिमंबामणमाठितो, गोसालोऽवि तस्स दारपहे ठितो, तत्थ सीहो नाम गामउडपुत्तो विग्जुमतीए गोविदासीए समं तं चेव सुन्नघरं मचंपासु पविट्ठो, तत्थ तेण भण्णइ-जइ एत्य समणो वा माहणो वा पहिको वा कोई ठितो सो साहा जा अन्नस्थ बच्चामो, सामी तुहिक्कतो अच्छइ, गोसालोऽवि तुहिको, ताणि अच्छित्ता निग्गवाणि, गोसालेण सा महिला +छिका, सा भणइ-एस एत्थ कोई अच्छइ, तेण अभिगंतूग पिट्टितो, एस धुत्तो अणायारं करिताणि पेच्छततो अच्छद, ताहे सामि भणइ-अहं एकलो पिट्टिज्जामि, तुम्भे न वारेह, सिद्धत्थो भणइ-कीस सीलं न रखसि ?, किं अम्हे हन्नामो ?, कीस वा अंतो न अच्छसि ?, जं दारे ठितो चेडसि, ततो निमंत्रण सामी पत्तकालयं नाम गामं गतो, तत्थवि तहेव सुण्णाघरे पडिमं ठितो, गोसालो तेणभएणं तद्दिवसं अंतो ठितो, तत्थ खंदो नाम गामउडपुत्तो अपणिज्जियाए दासीए दंतिल्लियाए समं नियमहेलाए लज्जतो तमेव सुण्णधरं गतो, तेहिवि तहेव पुच्छियं, तहेव तुहिको अच्छइ, जाव ताणि णिग्गच्छंति, ताहे गोसालेण हसियं, ताहे पुणोऽवि पिट्टिओ, ताहे सामि खिसइ-अम्हे हम्मामो तुझे ॥२७७|| न वारेह, किं अम्हे तुझे ओलम्गामो, ताहे सिद्धत्यो भणइ-अप्पदोसेण हम्मसि, किं तुंडं न रक्खसि ।।। अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह and remona ForFive Persanamory Kaviewsanelibrary.orm ~278 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४७६], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक -* कालाय सुन्नगारे सीहो विज्जुमा गुद्विदासीय । खंदो दत्तिलियाउ पत्तालग सुन्नगारम्मि ॥ ४७६ ॥ । कालाये सन्निवेशे गोशालकेन सह गत्वा शून्यागारे स्थिता, तत्र सिंहो नाम विद्युद्वत्या गोष्ठीदास्या सह रमणं कृतवान् , तेन गोशाला कदर्थित इति शेषः, ततो निर्गत्य द्वितीयदिवसे पत्रालये ग्रामे शून्यागारे गोशालकेन सह स्थितो भगवान् , तत्र स्कन्दको नाम ग्रामकूटपुत्रो दत्तिलिकया निजदास्या सह व्यापूतवान् , तेनापि गोशालकः कदर्थित इति । गम्यम् , एषोऽक्षरार्थः, भावार्थ उक्त एव ॥ ततो भगवं कुमाराए संनिवेसे गतो, तत्थ चपरमणिजे उजाणे पडिमं ठितो, इतो य पासावञ्चिजो मुणिचंदो नाम थेरो बहुसिस्सपरिवारो तम्मि संनिवेसे कृवणयस्स कुंभगाररस सालाए ठितो, सो य जिणकप्पपडिम (कम्म) करेइ, सीसं गच्छे ठाबित्ता सत्तभावणाए अप्पाणं भावेइ, जिणकप्पं हि पडिवजंतस्स पंच भावणातो भवंति, तद्यथा- तपोभावना सचभावना सूत्रभावना एकत्वभावना बलभावना च, उक्तं च-"तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगण बलेण य । तुलणा| पंचहा बुत्ता, जिणकप्पं पडिवज्जतो ॥१॥" सत्त्वभावनाऽप्युपाश्रयादिभेदात् पश्चधा, तथा चोक्तम्-“पढमा *स्वस्सयमी विझ्या वाहि तइया चाउमि । सुनहरंमि चउत्थी पंचमिया तह मसाणमि ॥१॥" सो बिइयाए तह सत्त-13 भावणाए अप्पाणं भावेइ, गोसालो सामि भणइ-एस देसकालो हिंडामो, सिद्धत्थो भणइ-अज अम्ह अंतरं, पच्छा। सो हिंडेतो पासावञ्चिजे पासइ, भणइ य-के तुझे, ते भणति-अम्हे सगणा निग्गंथा, सो भणइ-अहो निग्गंधा, इमो? मे एत्तिओ गंधो कहिं तुम्भे निग्गंथा ?, सो अप्पणो आयरिए वण्णेति, एरिसो महप्पा, तुम्भेश्य के !, ताहे तेहिं । दीप अनुक्रम E ForFive Persanamory Kaviewsanelibrary.orm ~279 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युको श्री वीर चरिते ॥२७८॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [४७६ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [११४... ], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः कालाकप भण्णइ-जारिसो तुमं तारिमो धम्मायरिओ ते सर्वगाहियलिंगो, ताहे सो रुड्डो मम धम्मायरियं सवहरू, जइ मम धम्मायरियस्स अस्थि तवो तो तुझं पडिस्सतो उज्झउ, ते भांति न तुग्भाणं भणिषणं अम्हे उज्झामो, ताहे सो बालकयोः गतो साहर सामिस्स अज मए सारंभा सपरिग्गद्दा समणा दिट्ठा, तं सर्व साहेइ, ताहे सिद्धत्थेण भणितो ते पासावचिज्ञा साह, न वे उज्झति, ताहे रती जाया, ते मुणिचंदा आयरिया उवस्मयस्स चाहिं पडिमं ठिया, सो कूवणतो तद्दिवसं सेणिपुरिसेहिं समं पाऊण बियाले एइ मतेलतो जाव पासइ तो मुणिचंदायरिए, सो चिंतेइ चोरत्ति, तेण ते गए गहिया, ते निरुस्सासा कथा, न य झाणातो कंपिया, तेसिं केवलनाणं उप्पर्श, आउं च निष्ट्टियं सिद्धो, तत्थ अहासंनि हिएहिं वाणमंतरेहिं महिमा कया, ताहे गोसालो बाहिं ठितो पेच्छइ देवे उप्पयनित्रयंते, सो जाणइ एस सो पडिस्सतो *डज्झइ, सो सामिस्स साहेइ भयवं ! तेसिं पडिणीयाणं परं उज्झइ, सिद्धत्यो भणइ-न तेसिं पडिस्सतो उज्झइ, तेसिं आयरियरस केवलनाणमुप्पन्नं, सो य सिद्धिं गतो, तस्स देवा महिमं करेंति, ताहे स चिंतेइ-जामि च्छामि गतो सो तं तेयपएसं, ताव देवा महिमं काऊण गया, ताहे तस्स तं गंधोदगं पुष्कवासं च दट्टण अव्भहितो हरिसो जातो, तो तस्स सीसे उट्टवेइ-अरे तुज्झे न किंचि जाणह, एरिसगा चेव बोडा हिंडह, आयरियंपि कालगयं न याणह, सर्व रतिं सुबह, वाहे ते जाणंति एस सञ्चयं चैव पिसाओ, रतिंपि हिंडइ, ततो तस्स सद्देण उडिया, गया आयरियसगासं, जावपेच्छति २७८॥ कालगयं, ताहे ते अद्धितिं करेंति-अम्हेहिं आयरिया न नाया कालगया, तो सोऽवि गोसालो ते चमदित्ता गतो, ताहे. सामी चोरागसंनिवेस गतो, तत्थं चारियचिकाऊण उंचालगा अगडे पक्तिविति, पुणोऽवि उत्तारिजंति, तस्थ ताव पढमं Jan Education International Far Pavoce & Personal Use Only 280~ www.sanlibrary.org Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४७७], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक IGI गोसाछो पकिसाचो, सामी न, ताव तत्थ सोमा जयंती य उप्पलस्स भगिणीओ पासावचिज्जा दो परिवाइयातो, न तरंति। |पवलं का ताहे परिवाइयत्तणं करेंति, ताहि सुर्य-केवि दो जणा ढेकुयादवरकेणं उद्धं लंबमाणा बद्धा बद्धा अगडे 8 पक्खिविनंति, पुणो उत्चारिजंति, तातो पुण जाणंति जहा घरमतित्थयरो पाइतो, तातो तत्थ मयातो, जाव पेच्छति, ताहि मोइतो, ते य उद्धंसिया-अहो विणस्सिउकामत्ति, तेहिं भएण खामिया महिया य ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह मुणिचंद कुमाराए कूवणय चंपरमणिजउजाणे । चोरा चारिअ अगडे सोम जयंती उवसमंति ॥ ४७७॥ । कुमारा नाम सन्निवेशः, तत्र चंपरमणीये उद्याने भगवान प्रतिमा प्रतिपन्नः, इतश्च मुनिचन्द्रो नाम पार्श्वनाथसन्तानवत्ती| आचार्यः, तं कूपनको नाम कुंभकारो मारितवान् , तदनन्तरं भगवान् चोराके सन्निवेशे, चारिकायेताविति गृहीत्वा अवटे-जलरहिते कूपे दवरिकया बद्धौ लम्बमानौ प्रक्षिप्येते, उत्तार्येते च, तत्र सोमाजयन्त्यो राजपुरुषान् उपशमयतः, एषोऽक्षरार्थो, भावार्थः प्रागेव कथानकेनोकः॥ । ततो भयवं पिद्विपं गतो, तत्थ वासारतं करेइ, तत्थ चाउम्मासिय खमणं करतो विचितं पडिमाइ करेइ, ततो बाहिं पारिचा कयंगलं गतो, तत्थ दरिद्दथेरा नाम पासंडत्था सारंभा समहिला, ताण वाडगस्स मज्झे देवउले तत्थ सामी पडिम ठितो, तद्दिवसं च सप्फुसियं (सीय) पडेइ, ताणं च तदिवस जागरओ,ते समहिला गायंति, तत्थ गोसालो भणइएसोऽपि नाम पासंडो भण्णइ सारंभो समहिलो य, सवाणि य एगसराणि गायति वायति य, ताहे सो तेहिं निच्छूढो, सो तत्थ माहमासे तेण सीएण सतुसारेण अच्छति संकुचितो, तेहिं अणुकंपतेहिं पुणोऽवि पविसितो, पुणोऽवि भणइ दीप अनुक्रम E raiwsanelibrary.org ~281 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४७८], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: 11 उपोदात- नियुको श्रीवीरचरिते कुमाराकपृष्ठचम्पा. कृतांगलेषु प्रत + २७९॥ दीप अनुक्रम पुणोऽवि नीणितो, एवं तिनि वारे निरछूढो पवेसितो य, तओ भणइ-जए अम्हे फईमणामो निच्छभामो, तत्थ अमेहि भन्नइ-एस देवजगस्त कोऽपि पीढियाचाहो छत्तधरो वा आसि तो तुहिका अच्छह, सवाणि आउजाणि खडखडावेह, ४ जहा से सहो न सुबह ॥ अमुमेवार्थ सविपन्नाहहै पिट्ठीचंपा वासं तत्थ चउम्मासिएण स्वमणेण । कयंगल देउलवरिसे दरिद्दथेराण गोसालो ॥ ४७८॥ भगवान् पृष्ठचम्पायामावासं ( वर्षावासं ) कृतवान् , तत्र चातुर्मासिकेन क्षपणेन क्षपितवान्, ततो पहिः पारयित्वा कृतागलसंनिवेशे देवकुले प्रतिमया स्थितः, तत्र वहिस्तुपारे वर्षति दरिद्रस्थ विराणां जागरके तान् प्रति विरूपभाषणेन । तेस्त्रीन् वारान् गोशालो बहिः क्षिप्तः, एषाऽक्षरगमनिका, भावार्थ उक्त एवं ॥ का ततो सामी सावस्थिं गतो, तत्थ सामी बाहिं पडिम ठितो, गोसालो सामि पुच्छइ-तुम्भे आगच्छह ?, सिद्धत्थो भणइ-अज्ज अम्ह अंतरं, सो भणइ-अज किं लभामि अहमाहारं ?, सिद्धरथो भणइ-तुमए अज्ज माणुसमंस खाइयचं, सो भण-तं अज्ज जेमेमि जत्थ मंससंभवो नस्थि, किंमंग पुण माणुसमंसं ?, सो हिंडतो तत्थ सावत्थीए नयरीए पिउदत्तो । नाम गाहावती, तस्स सिरिभद्दा नाम भारिया, सा य निंदू, निंदू नाम मरंतवियाइणी, सा सिवदत्तं नाम नेमित्तियं पुच्छइ| कहं नाम पुत्तभंडं जीवेजा!, सो भणइ-जो सुतवस्सी तस्स तं गम्भ अतीव पक्खालि ऊण सण्हखंडाणि काऊण पायसेण सह पइत्ता देह, तस्स य घरस्स अन्नतोहुतं दारं करेज, मा सो जाणित्ता डहिहिद, एवं ते विराणि पुत्तभंडाणि भविस्संति, ताए तहा कर्य, गोसालो य हिंडतो तं घरं पविट्ठो, तस्स सो पायसो घयमहुसंजुत्तो दिनो, तेण चिंतिय-एत्थ मंसं कतो ॥२७९॥ JanEducation in IPI ForFive Persanamory ~282 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४७९], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक दीप अनुक्रम हा भविस्सइ !, ताहे तुडेण भुत्तं, गंतु भणइ-चिरं ते नेमित्तियत्तणं करेंतस्स अजनवरि फिडितो, सिद्धत्थो भणइ-न विसंवयइ, जइ न पत्तियसि वमाहि, दिवा नक्खा वाला य अन्ने य अवयवा, ताहे रुट्ठो तं घरं मग्गइ, तेहिं तं बार ओहाडितं, तेण न जाणह, ततो आगमणगमणपरिवाडीतो करेइ, जाहेन लभर ताहे भणइ-अइ मम धम्मायरिहायस्स तवो तेओ वा अस्थि तो डझस, ताहे सबा बाहिरिया दहा, ताहे सामी हलेडको नाम गामो तं गतो, तत्व १. महप्पमाणो हलेदुगरुक्खो, तत्थ सावत्धीतो नयरीतो अन्नो लोगो निग्गच्छंतो पविसंतो य वसइ, तत्थ सत्यो नियसितो, सामी पडिम ठितो, तेहिं सथिएहि रत्तिं सीयकाले अग्गी जालितो, ते बट्टे पभाए उहित्ता गता, सो अग्गी तेहिं नई विज्झावितो, सो डहंतो सामिस्स पासं गतो, सो सामि परितावेइ, गोसालो भणइ-भयवं! नासह अग्गी एइ, सामिस्स । तपादा दहा, गोसालो नहो ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहसावत्थी सिरिभहा निंदू पिअदत्त पयस सिवदत्ते । दारगणी गहवाले हलिद्दपडिमाऽगणी पहिया ॥ ४७९ ॥8 भगवान् श्रावस्तीं गतः, तत्र पितृदत्तो नाम गृहपतिस्तस्य भार्या निन्दूः श्रीदत्ता, शिवदत्तो नाम नैमित्तिक, तद्वचनेन गर्ने प्रक्षाल्य श्लक्ष्णखण्डानि च कृत्वा पायसेन सह सा पक्तवती, तच्च पायसं तया गोशालाय दर्ग, तेन भुक्तं, ततः सिद्धार्थवचनाद्वामिते 'दारगणि नक्खवाले' इति नखान वालांश्च दृष्ट्वा कुपितः सन् द्वारस्य स्थगिततया तत् गृहमल-17 भमानः सकलस्य पाटकस्योपरि चापं दत्तवान्, ततोऽग्निः समस्त दग्यवान, भगवांस्ततो हरिद्रकग्रामे गतः, तत्र हरि viewsanelibrary.orm ~283 Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H नियुक्ति: [४८०], वि०भा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत .विहारः दीप अनुक्रम उपोद्घात- द्रकस्य वृक्षस्याधः प्रतिमया स्थितः, तत्र च पथिकाः शीतापनोदायाग्निं प्रचालितवन्तः, स चाग्निः प्रसरन् स्वामिनः श्रावस्त्यां नियुक्ती पादौ किश्चिद्दग्धवान् , एष गाधाक्षरार्थः, भावार्थ उक्त एव, श्रीवीर-18| ततो सामी नंगलानाम गामो तत्थ गतो, वासुदेवघरे सामी पडिम ठितो, तत्थ चेडरूवाणि खेलंति, सो य गोमालो। चरिते कंदप्पितो, ततो ताणि चेडरूवाणि अच्छीणि कहिउँ बीहावेइ, ताहे ताणि धावेंताणि पडंति, जाणूणि पच्छोडि नियम अप्पेगइयाणं लुंखुणगा भजति, पच्छा तासे अम्मापियरो आगंतूण पिटृति, भणंति-एयस्स देवजयस्स एसो नूगं ॥२८॥ न ठाइ अप्पणो धणे, अन्ने वारंति, अलाहि देवजयस्स खमियवं, पच्छा सो भणइ-अई हम्मामि तुम्भे नारहा | सिद्धत्थो भणइ-न द्वासि तुमं, अवस्स पिट्टिवासि, ततो सामी आवत्तानामगामो तत्थ गतो, बलदेवस्स घरे पडिमं ठितो, तत्थवि चेडरूवाणि मुहं अवयासे बीहाइ, पिट्टेइ य, ततो ताणि चेडरूवाणि रुयंताणि अम्मापिऊणं साहति, तेहिं गंतूण ठेवि(बंधि)तो, मुणिउत्ति काऊण मुक्को, मुणिओ-पिसाओ, भणति य-कि एएण मुणिएण हएण, एयं से | सामि हणामि जो एयं न वारेइ, ततो सा बलदेवपडिमा लंगलं बाहुणा हुक्खयिऊण उहिया, ततो ताणि पायवडियाणि सामि खामेति ॥ एतदेव सङ्केपेणाहतत्तो य नंगलाए डिंभमुणी अच्छिकढणं चेव । आवत्ते मुहतासे मुणिइत्ति य चाहि बलदेवो ॥४८॥ ततो हरिद्रकात् प्रामात् स्वामी नङ्गलायां ग्रामे वासुदेवगृहे प्रतिमया स्थितः, तत्र गोशालोऽक्षिकर्षणं कृत्वा पिशाचरूपः सन् डिम्भान भापितवान्, तत्र बहु कदर्थित इति शेषः, ततो भगवान् आवर्ने प्रामे बलदेवगृहे प्रतिमा ॥२८॥ Janhasanan imamta T wwjaimelibrary.org ~284~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ४८१] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ११४... ], मूल [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः प्रतिपन्नः, तत्र मुखेन विकृतीकृतेन डिम्भान् श्रासितवान् ततस्तन्मातापितरौ यंदा पिशाच इति परिभाव्य गोशालं | मुक्त्वा स्वामिन उपद्रवाय ढौकितवन्तस्तदा च बलदेवप्रतिमा नांगलमुत्पाव्य वाहितवान् एषोऽक्षरार्थः, भावार्थ उक्त एव, ततो सामी चोरागं नाम सन्निवेशं गतो, तत्थ गोडियभतं सिज्झइ, तत्थ भयवं पडिमं ठितो, गोसालो भणति - अज्ज एत्थ चरियवयं, सिद्धत्थो भणति - अज अच्छामो, सोऽवि तहिं उक्कुडनिकुडियाहिं पलोएइ, भिक्खा वेला हूया नवचि, तत्थ य चोरभयं ताहे ते जाणंति--एस पुणो पुणो पलोएर मन्ने एस चोरितो होजा, ताहे सो घेत्तूणं निसि हम्मद सामी पच्छ अच्छइ, ताहे गोसालो भणइ - जइ मम धम्मायरियस्त तवो अस्थि तो समंडवो डज्झउ, दहो, ततो सामी कलंबुयानाम संनिवेसो तत्थ गतो, तत्थ पचंतिया दो भायरो-मेहो काउहत्थी य, सो कालहत्थी चोरियानिमित्तं घोरेहिं समं उद्धाइतो, इमे य दुवे पेच्छइ, ते भांति के तुझे ?, सामी तुसिणीतो अच्छछ, ते तरथ हम्मंति, न य साहिति तेण ते बंधिऊण महहगस्त भाउस्स पेसिया, तेण जं भयवं दिट्ठो तं उडता पूइतो खामितो य, तेण सामी कुंडग्गामे द्विपुवो ॥ अमुमेवार्थं सहियन्नाह - चोरा मंडवभुद्धं गोसाले बहण तेयझावणया । मेहो अ कालहस्थी कलंबुआए उ उवसग्गा । ४८१ ॥ अक्षरगमनिका - चोराको नाम सन्निवेशस्तत्र कचित् मण्डपे गोष्ठि भोज्यं कर्तुमारब्धं, तत् गोशाल उत्कुडुको निष्कुडुकश्च भूत्वा निरीक्षितवान्, ततश्चौर इतिकृत्वा तस्य वधनं वाडनं, ततः शापप्रदानेन तेजसा तस्य मण्डपस्य ध्याम For Pevce & Personal Use Only ~ 285 ~ www.anlibrary.org Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४८२], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत क सपोद्घात-13ना-दाहः तदनन्तरं भगवान् कलम्वुकायो सन्निवेशे गतः, तत्र द्वौ धातरौ-मेघः कालहस्ती च, तत्र कालहस्तिना नंगलाssनिर्यतीत उपसगाः कृताः, मेघेन च भगवान पूजित इति शेषः। ४ वर्गचौरा श्रीवीर- ततो सामी चिंतेह-वह कम्मं निजरेयवं, लाढाविसयं वच्चामि, ते अणारिया तत्थ निजरेमि, तत्थ भयवं अत्था रियदिटुंतं हियए करेइ, ततो पविट्ठो लाढाविसर्य कम्मनिज्जरातुरितो, तत्थ होलणनिंदणाहिं बहु कम्मं निजरेइ, पच्छा साततो नीति, तत्थ पुण्णकलसो नाम अणारियग्गामो, तत्थंतरादो तेणा रादाविसयं पविसि फामा अवसउणो एयस्स चेव २८१॥ बहाए भवउत्तिक असि कहिऊण सीसं छिंदामित्ति पधाविया, ताहे सक्केण ओहिणा आभोइया, दोवि वजेण हया, अपणे भणति-सिद्धत्येण ते असी तेसिं चेव उपरि छूटा, तेसिं सीसाणि छिन्नाणि, एवं विहरता भद्दियनयरिं गया, तत्य पंचमो वासारत्तो, तत्थ सामी चाउम्मासखमणेण अच्छइ विचित्तट्ठाणाईहिं । अमुमेवार्थमुपसंहरबाह11 लाढेसु अ उवसग्गा घोरा पुन्नकलसीअ दो तेमा। वजहया सकेणं भदिय वासासु चउमास ॥ ४८२॥ १ ततो भगवान् लाढासु जनपदे गतः, तत्र घोरा उपसग्गो अभवन् , ततो लाढाभ्यो निर्गतोऽन्तरा पूर्णकलशो नाम ग्रामः, तत्र भगवतो द्वौ स्तेनी वधायोपस्थिती, तौ शक्रेण वज्रेण हती, ततो भगवान् भद्रिका नगरी गतः, तत्र चातु-टू सिक क्षपणं कृतवान् ।। 1१ ततो बाहिं पारेइ, विहरंतो कयलिसमागमो नाम गामो, तत्थ य सरयकाले अच्छारियभिचाणि दहिकूररुवाणि निसटुं| दिति, तत्थ गोसालो भणइ-बचामो, सिद्धत्यो भणइ-अम्हं अंतरं, सो तहिं गतो भुंजइ दहिकूर, सो बहुभक्खाको CANAKHABAR दीप अनुक्रम ॥२८॥ ~286 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ४८३ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [११४... ]. मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Educaton Irel नचैव घाति, तेहिं भणिर्य एयस्स बहुगं देह, दिनं बहुयं पच्छा न नित्थरइ, ताहे से उचरिं छूट, ततो उकीतो गच्छइ, ततो भयवं जंधूसंडं नाम गामं गतो, तत्थवि तहेव अच्छारियाभत नवरं तत्थ खीरकूरो तहेव जिमितो व घरिसितो व ॥ एतदेव सङ्क्षेपेणाह | कपलिसमागम भोपण मंखलि दहिकर भगवओ पडिमा । जंबूसंडे गुट्टिय भोअणं भगवओ पडिमा ॥ ४८३ ॥ कदलीसमागमो नाम ग्रामः, तत्र महले :- मंखलिसुतस्य गोशालस्य दधिसम्मिश्रं कूरं भोजनमभूत्, भगवतः प्रतिमा - कायोत्सर्गः, ततो भगवान् जम्बूखण्डो नाम ग्रामस्तत्र गतः, तत्र गोशालो गोठ्यां भोजनं क्षीरसम्मिश्रकूररूपं लब्धवान् भगवतस्तथैव प्रतिमा ॥ ततो भयवं तंचायं नाम गामो, तत्थ आगच्छति, तस्थ नंदिसेणा नाम थैरा बहुस्सुया बहुपरिवारा पासावञ्चिज्जा, तेऽवि जिणकष्परस परिकम्मं करेंति, सामी बाहिं पडिमं ठितो, गोसालो अतिगतो, तहेव पञ्चइए पेच्छ खिंसद् य, ते आयरिया तद्दिवसं चउके पडिमं ठिया, पच्छा तहिं आरक्खियपुत्त्रेण हिंडतेण चोरचिकाऊण भहरणाया, केवलनाणं, सेसं जहा मुणिचंदस्स जाव गोसालो वोहित्ता आगतो, ततो सामी कृवियं नाम संनिवेसं गतो, तत्थ चारियत्तिकाऊण घेप्पंति पिट्टिति य, तत्थ लोगसमुहाबो- अहो देवज्जगो रुवेण जुवणेण य अप्रतिमो चारियत्ति काउं गहितो, तत्थ विजया पगन्भा य दोनि पासनार्हतेवासिणीतो परिवाइयातो, लोगस्स पासे सोऊण तित्थगरी पद्यइयो वच्चामो ता पलाएंमो, को जाणइ होज्जा ?, ताहे तेहिं मोइतो, दुरप्पा न याणह चरमतित्थयरं सिद्धत्थरायपुते, अज्ज में सको उवालमिस्सइत्ति, ताहे मुको For Pavoce & Personal Use Only 287~ www.sanlibrary.org Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४८४], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्घात- नियुक्ती श्रीवीरचरिते प्रत ॥२८२॥ खामितो य, ततो मुक्का समाणा निग्गया, तत्थ वच्चंताण दुवे पंधा, ताहे गोसालो भणइ-तुझे मर्म हम्ममाणं न वारेह | तंबाकभतुम्झेहिं समं बहुवसग्गं, अन्नं च-अहं चेव पढम हम्मामि, तो वर एकल्लो विहरिस्स, सिद्धत्यो भणइ-तुम जाणसि, गवतोशा| ताहे सामी वेसालीमुहो पयाइ, इमो य गोसालो भयवतो फिडितो अन्नतो पट्टितो, अंतरा य छिन्नद्धाणं, तत्थ चोरो लविहारः | रुक्सविलग्गो पलोएइ, तेण दिट्ठो, भणइ-एको नग्गसमणतो एइ, ते भणंति-एसो न बीहेइ, नस्थि हरियवयंति, अज्ज से, नत्थि फेडतो, जं अम्हे परिभवति ।। अमुमेवार्थ सद्धिपन्नाहतंवाए मंदिसेणो पडिमा आरक्खि वहण भयऽडहणं । कूविय चारिय मुक्खो विजय पगन्भा य पत्तेअं॥४८॥ --भगवान् तम्बाके नाम प्रामे गतः, तत्र नन्दिषेणाः सूरयस्तेषां चतुष्के प्रतिमा, कायोत्सर्गः, तत आरक्षिकैर्वहणमिति मारणं, ततो भगवान् कृषिकानाम संनिवेशस्तं गतः, तत्र चारिकावेताविति ग्रहणं, ततो मोक्षो विजयाप्रगल्भा-1* वचनतः।-अनन्तरं भगवद्गोशालयोः प्रत्येकं विहारोऽभवत्, ततो गोशालो तेसिं घोराण सन्निगासमागतो, तेहि पंचहिवि चोरसएहिं पिसाओ(माउलओ)चिकाउं बाहितो, पच्छा चिंतेइ-वरं सामिणा समं, अविय कोइ मोएइक सामि तन्निस्साए ममवि मोयणं भवा, ताहे सामि मग्गिउमारद्धो, सामीवि वेसालिंगतो, तत्थ कम्मगारसालाए अणुग-2 वित्ता पडिमं ठितो, सा य साला साहारणा, जेसिं आधीना ते तत्थ अणुण्णविता, अन्नया तत्थेगो कम्मकारो छम्मास-४ रोगपीडितो सोहणे तिहिकरणे आउज्जाणि गहाय आगतो, सामिपासइ पडिमं ठियं, ततो अमंगलमेयन्ति घणं उग्गाहेऊण सामि आइणे पहावितो, सकेण ओही परत्तो जाव पेच्छह, ततो निमिसंतरेण आगतो, सकेण तस्स चेव उवरिं षणो दीप अनुक्रम AC% AC+++CCE ForFive Persanamory H- L a wsanelinary.orm ~288 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आ. सु.४८ Jan Education अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ४८५-४८६ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ ११४... ], मूल [- / गाथा-] मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः साहितो मयो, रातो को बंदिता गतो । एनमेवार्थमुपसंहर नाह- तेहि पहे महिओ गोसालो माउलुत्ति वाहणया । भगवं बेसालीए कम्मार घणेण देविंदो ॥। ४८५ ॥ - स्तेनैः पथि गोशालो गृहीतः मातुल इति-पिशाच इतिकृत्वा वाहनं, भगवांश्च वैशाल्यां गतः, तत्र कर्म्मकरो भगवन्तं घनेनाहन्तुं प्रवृत्तः, अत्रान्तरे देवेन्द्र आगतः तेन स मारितः ॥ ततो सामी गामागं नाम संनिवेसं गतो, तत्थ बिभेलए उखाणे बिभेळतो नाम जक्खो, सो य भयवतो पडिमं ठियरस पूयं करेइ, ततो सामी सालिसीसयं नाम गामं गतो, मृत्युज्जाणे पडिमं ठितो, माहमासो य वट्ट, तत्थ कडपूयणवाणमंतरी सामिं दण तेयं असहमाणी पच्छा तात्रसीरुवं वितवित्ता वकलनियस्था जडाभारेण य सबं सरीरं पाणिएण उल्लेत्ता सामिस्स उवरिं थाडे धुणइ, वायं च विउबइ, जइ अन्नो हुन्तो फुट्टो हुंतो, तिवं वेयणमहियासेंतस्स भयवतो ओही पसरितो, सबलोगं पासिउमारखो, सेसं कालं गग्भाओ आढवित्ता जाव सालिसीस ताव एक्कारस अंगा सुरलोयप्पमाणमेत्तो य ओही, जावश्यं देवलोगेसु पेच्छियाइतो तावतितो इति भावः, सावि वंतरी पराइया पच्छा उवसंता थुणइ पूर्व च करेइ ॥ अमुमेवार्थे सङ्क्षेपेणाहगामाग बिहेलग जक्ख तावसी उवसमावसाण धुई। छद्वेण सालिसीसे विसुज्झमाणस्स लोगोही ॥ ४८६ ॥ तो भगवान् ग्रमाकं नाम संनिवेशं गतः, तत्र विभेलके उद्याने भगवतः प्रतिमास्थितस्व विभेलकनामा यक्षः पूजां कृतवान् तदनन्तरं भगवान् शालिशीर्षे नाम ग्रामं गतवान्, तत्रोद्याने प्रतिमापनस्य कटपूतनाव्यन्तरी तापसीरूपं For Peace & Personal Use Ony 289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ निर्युक्तिः [४८७] अध्ययनं [-] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [११४... ]. मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घात निर्युक श्रीवीर चरिते ॥२८३ ॥ Jan Education विकुवित्वा शीतोपसगं कृतवती, अवसाने च रात्रेस्तस्या उपशमो बभूव स्तुतिं चाकार्षीत्, तदानीं च पष्ठेन-दिनद्वयोपवासेन तिष्ठतस्तीत्रवेदनामधिसहमानस्य शुभैरध्यवसायैर्विशुद्धयमानस्य लोकप्रमाणोऽवधिरभूज् ॥ ततो भयवं भद्दियं नाम नयरिं गतो, ततो छ वासमुवगतो, तत्थ वासारते गोसालेण सह मेटावगो, छडे मासे भयवतो गोसालो मिलितो, तत्थ च मासखमणं, विचित्ते य अभिग्गहे भयवं ठाणाइविसए करेइ, ततो वाहिं पारिता पच्छा मगहाविसए विहरह, निरुवसग्गं, अडमासे उडुबद्धिए ।। एतदेव सङ्क्षेपेणाह - पुणरवि भद्दियनगरे तवं विचित्तं तु छट्ठवासम्मि । मगहाइ निरुवसग्गं मुणि उबद्धम्म विहरिस्था ॥ ४८७ ॥ पुनरपि भगवान् भद्रिकनगरे गतः, तत्र षष्ठे वर्षारात्रे विचित्रं तपः स्थानादिविषयं कायक्लेशं च कृतवान् ततो मुनि:- भगवान् मगधेषु जनपदे ऋतुबद्धे काले निरुपसर्ग व्यहार्षीत् ॥ ततो भयवं आर्लभ नगरिं गतो, तत्थ सत्तमो वासारतो चाउम्मासक्खवणं करेइ, ततो वाहिं पारिता कुंडागो नाम संनिवेसो तं एइ, तत्थ वासुदेवघरे कोणे सामी पडिमं ठितो, गोसालोऽवि वासुदेवपडिमाए मुद्दे अहिद्वाणं काऊण ठितो, सो य पडियारगो आगतो, तं तहाठियं पेच्छर, ताहे चिंतेइ मा लोगो भणिहि धम्मितो रागद्दोसियति, गामे गंतूण कहेइ, एह पेच्छ मा भणिहिह धम्मिओ रागद्देसिउत्ति, ते आगता, दिडो तहाठितो, पिट्टितो य, पच्छा बंधिज्जर, अने भणति-एस पिसातो ताहे मुको, ततो निम्गया समाणा महणा नाम गामो तत्थ बलदेवघरे अंतो Pevoce & Personal Use Only ~ 290~ वैशाल्यां कर्मारः बिभेलके तापसी शालिशीर्षे अवधिः ॥२८३॥ www.sanelibrary.org Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [४८८ ] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [११४... ], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education International कोणे सामी पडिमं ठितो, सो गोसालो तरस मुद्दे सागारियं दाउ ठितो, तत्थवि तहेव कहियं, पिट्टितोय, मुणिउत्तिकाऊण मुको || अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह् आलभियाए वासं कुंडग तह देउले पराहुत्तो । मद्दण देउल सागारियं मुहे दोसुवि मुणिन्ति ॥ ४८८ ॥ भगवान् आलभिकां नगरीं गतवान्, तत्र सप्तमो वर्षारात्रस्तदा चातुर्मासक्षपणं कृतवान्, ततो भगवान् कुंडके सन्निवेशे गतः, तत्र देवकुले - वासुदेवायतने गोशालः पराहुत्तः - पराङ्मुखो वासुदेवप्रतिमामुखस्वाधिष्ठानं दत्तवान्, ततो भगवान् महणानाम्नि प्रामे गतः, तत्र गोशालो देवकुले -बलदेवायतने बलदेवप्रतिमामुखे सांगारिक - साधनं दत्त्वा स्थितवान् 'दोसुवित्ति द्वयोरपि पूर्वतरं वासुदेवगृहे अत्र च बलदेवगृहे कदर्शितः, केवलं मुणितो इति— | पिशाच इतिकृत्या मुक्तः ॥ ततो सामी बहुसालगो नाम गामो, तत्थ सालवणं नाम उज्जाणं, तत्थ गतो तत्थ सालज्जा वाणमंतरी, सा वाणमंतरी पूर्व करेइ, अन्ने भणति-सा कडपूयणा वाणमंतरी भगवतो पडिमागयस्स उवसग्गं करेइ, ताहे परिसंता महिमं करेइ, ततो निग्गया गया लोहग्गलं रायहाणिं, तत्थ जियसत्तू राया, सो अत्रेण राइणा समं विरुद्धो, तस्स चारपुरिसेहिं गहिया न साहति, ततो चारिएत्तिकाऊण रन्नो अत्थाणीवरगयस्स उवट्ठविया, तत्थ य उप्पलो अट्ठियगामातो पुवमेवागतो अच्छ, सो य ते य आणिजंते दद्रूण उट्टितो, तिक्खुत्तो बंदर, पच्छा सो भणइन एस चारितो, एस सिद्धत्थरायपुत्तो, धम्मवरचकवट्टी एस भयवं, लक्खणाणि य से पेच्छह, तत्थ सकारेऊण मुको ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह - For Pavoce & Personal Use Ony ~ 291~ www.sanlibrary.org Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४८९], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: वासुदेवबलमंदिरे प्रत श्रीवीर कटपूतनाचारिकाशंका उपोद्धात IMबहसालगसालवणे कडपूयण पडिम विग्घणोवसमे । लोहग्गलम्मि चारिय जियसत्तू उप्पले मुक्खो। ४८९॥ निर्यादा भगवान् बहुशालकं ग्रामं गतः, तत्र शालवने प्रतिमया स्थितः, कटपूतनायाश्च व्यन्तर्या विधन-विघ्नकरणं, तत उपशमः, ततो भगवान् लोहागेले नगरे गतः, तत्र जितशत्रू राजा, चारिकायेताविति द्वयोरपि ग्रहणं. तत 'उप्पल'। चरिते इति प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी उत्पलेन कथिते मोक्षः।। | ततो सामी पुरिमतालं गच्छद, तत्थ वग्गुरो नाम सेट्ठी, तस्स भद्दा भारिया वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाया, बहुणि ॥२८॥ देवसयोवाध्याणि का परिस्संता, अन्नया सगडमुहे उज्जाणे उज्जाणिया गया, तत्थ पासइ जुन्नं देवउलं सडियपडियं, तथा मल्लिसामिणो पडिमा,तं नमसंति, जइ अम्ह दारगो दारिगा वा जायइ तो एवं देवउलं करेस्सामो, एवं नमंसित्ता गयाणि, तत्थ अहासंनिहियाए वाणमंतरीए देवयाए पाडिहेरं कयं, आस्तो गम्भो, जंचेव आहूतो तं चेव देवकुलं कारमार, | अतीव तिसंझं पूर्व करेंति, पवइयगाण सगासं जंति, एवं सो सावगो जातो । इतो य सामी विहरमाणो सगडमुहस्स[. उखाणस्स नवरस्स य अंतय पडिमं ठितो, वग्गुरो य हातो उल्लपडसाडगो सपरिजणो महया इड्डीए विविहकुसुमहत्थगतो, तं ाययणं अञ्चतो जाति, ईसाणो य देविंदो पुवागयतो सामि वंदित्ता पजुवासइ, वग्गुरं च वइवयंतं पासइ, भणद| य-भो बग्गुरा! तुम पञ्चक्खतित्थगरस्स महिर्म न करेसि, तो पडिमं अञ्चओ जासि, एस महावीरवद्धमाणोत्ति, ततो आगतो मिच्छामिदुकडं का सामेइ महिमं च करेइ, ततो सामी उन्नागं बच्चइ, तत्धंतरा वर्वरं सपडिहुत्तं एइ, ताणि पुण दोवि विरूवाणि दंतुराणि स, तत्थ गोसालो भणइ, अहो इमो सुसंजोगो "तत्तिल्लो विहिराया जाणइ दूरेवि जो दीप अनुक्रम ॥२८॥ 2-1- F ForFive Persanamory % ~292 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४९०], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक जहिं वसइ । जं जस्स होइ सरिसं तं तस्स विइज्जवं देइ ॥ १॥ जाहे न हाइ ताहे तेहिं पिट्टितो बद्धो, ततो वंसीकुडंगे सो छूढो, तत्थ पडितो उचाणतो अच्छइ, वाहरइय सामि, सिद्धत्यो भणइ-सयं कयं ते, ताहे सामी अदूर दिगंतुं पडिच्छा, पच्छा ते भणति-एस एयरस देवजगस्स पीडियावाहो वा छत्तधारो वा आसि, ततो एस अदरे |ठितो, ततो मुक्को, अन्ने भणति-पहिएहिं वहिं उच्चारितो सामि दण अच्छंतं ॥ अमुमेवार्थ सोपत आहतत्तो अ पुरिमताले बग्गुर ईसाण अच्चए महिमं । मल्लिजिणायणपडिमा उन्नाए वंसि बहुगुट्ठी ॥४९॥ ततो भगवान् पुरिमतालपुरं गतः, तत्र वग्गुरः श्रेष्ठी मल्लिजिनायतनप्रतिमामर्चको गच्छन् 'ईसाण'इति प्राकृतवाद्विभक्तिलोप ईशानेन-ईशानदेवेन्द्रेण भणितः सन् महिमां-पूजां कृतवान् , भगवान् तुन्नाकं सन्निवेशं प्रति व्रजति, अन्तरा वधूगोष्ठी वधूवरं, तद् गोशालो निन्दितवान् , ततो 'वसित्ति वंशीकुडने क्षिप्तः॥ ततो विहरंतो सामी गोभूमि वच्चइ, तत्व अंतरा अडवी घणा, सया गावीउ चरंति तेण गोभूमी, तत्थ गोसालो गोवालए भणइ-अरे बजलाढा! एस पंधो कहिं वच्चइ !, वज्जलाढा नाम मेच्छा, ताहे ते गोवा भणंति-कीस अक्कोससि ?, असुयपुत्ता! मुटु अकोसामि, तुझे एरिसमा मेच्छा, वाहे तेहिं मिलित्वा पिट्टिऊण बंधित्ता वंसीए छूढो, तत्थ । अमेहिं मोइतो अणुकंपाए, ततो विहरतो सामी रायगिहं गतो,तत्य अट्ठमो वासारचो, चाउम्मासखमणेण खवेइ, विचित्ते व अभिग्गहे ठाणादिविसए करेइ, ततो चाहिं पारेइ २ चा सरए समतीते सामी चिंतेइ-बहु कम्मं न सका निजरे, वाहे सयमेव अस्थारियादिद्वैवं पहिकप्पेह, जहा एगस्स कुटुंबियस्स साली जाया, ताहे सो कप्पडियपंथिए भणइ-तुम्भं दीप अनुक्रम E JanEdication ireormat Kaviewsanelibrary.orm ~293 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४९१], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: हसन प्रत सत्राक दीप अनुक्रम पोटात-1 हियइच्छियं भत्तं देमि मम लुणह, एवं सो उवाएण लुणावेइ, एवं च ममवि बहुं कर्म अच्छड, एवं अच्छारिएहिं| वधुवरनियुक्ती निजरायचं, ते य अत्धारिया अणारिया देसेसु, ततो लाढावज्जभूमि [सुद्धभूमि ] वचइ, तत्थ विहरइ, ते अणारियाद श्रीवीर- जणा निरणुकंपा निद्दया सामि हीलेंति निंदति कुकुरे छुच्छुकारेंति, ततो ते कुक्कुरा डसंति, 'सर्य च ते भययं आहेसुगोपकोपः एवमाइ बहवसग्गा, तत्थ नवमो वासारत्तो कतो, तत्थन भत्तपाणं, नेव वसही लद्धा, एवं तत्थ छम्मासे अणिच्च-18 जागरियं विहरितो । अमुमेवार्थमाहगोभूमि बजलाढित्ति गोवकोवे ग वंसि जिणुवसमे । रायगिहऽहमवासं तु बजभूमी बहुवसग्गा ॥ ४९१ ॥ भगवान् गोभूमि प्रजति, तत्रान्तरा अटव्यां गोशालो गोपान् अरे वज्जलाहा इत्याष्टिवान् , ततस्तेषां गोपानां | कोपो बभूव, ततो 'वसित्ति वंशीकुडले गोशालस्तैर्ववा प्रक्षिप्तः, तदनन्तरमन्यैर्जिनस्योपशमोऽत्यद्भुतो दृष्ट इति मोचितः, ततो भगवान् राजगृहेऽष्टमं वर्षारानं कृतवान्, तदनन्तरं च वनभूमौ गतवान् , तत्र च बहव उपसगाँ अभवन् , नवमश्च वोरावस्तन्त्रैव गतः॥ ___ ततो अणारियदेसातो निग्गया पढमसरए सिद्धत्थपुराती कुम्मगाम संपस्थिता, तत्थ अंतरा एगो तिलथंभओ, तं दहण गोसालो भणइ-भयवं! एस तिलथंबतो निष्फजिहिइ ?, सामी भणइ-णिप्फजिहिद, एए सत्त पुष्फजीया उद्दाइत्ता प्रा एयस्स चेव तिलधंभस्स एगार तिलसंवलियाए पञ्चायाहिंति, ततो गोसालेण असहहतेण ऊसरिऊण सलिदगो तिलथंभो। उपाडितो, एगते एडितो, अहासंनिहिएहिं वाणमंतरेहिं मा भयवं मिच्छावाई भवउत्ति वासं वासियं, ततो सो तिल CHEM2424 Jan F PI R a nationary.org ~294 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H नियुक्ति: [४९२], वि०भा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक थंभो आसत्यो जातो, बहुला य गावी तेण पदेसेण आगता, तीए खुरेण निक्खित्तो सुप्पइद्वितो जातो, पुष्पा य पत्ता य ४ जाता ॥ एनमेवार्थ सझेपत आहहै। अनितयवासं सिद्धत्थपुरं तिलथंभ पुच्छनिष्फत्ती । उप्पाडेइ अणडो गोसालो वास बहुलाए ॥ ४९२ ॥ श अनियतं वासं भगवान् अनार्यदेशे कृतवान् , वसतेरलाभात्, ततः सिद्धार्थपुरं गतः, तस्मानिर्गत्य कूर्मग्राम प्रति प्रस्थितः, तत्रान्तरा गोशालेन तिलस्तम्वविषये पृच्छा कृता-किमेष तिलस्तंबो निष्पत्स्यते नवा?, भगवता निष्पत्तिरुदाहृता, ततोs नायों गोशालस्तं तिलस्तम्बमुत्पाटयति, 'वास'त्ति यथासन्निहितैय॑न्तरवर्ष कृतं, वहुलया गवा खुरेण निखात्य स्थिरीकृतः॥ 0 ततो दोऽवि कुम्मगाम संपत्ता, तस्स वाहिं वसियायणो बालतवस्सी आयावेइ, तस्स का उप्पत्ती?-चंपाए नयरीए रायगिहस्स य अंतरा गोबरगामो, तत्थ गोसंखीनाम कुथुवितो, सो आभीराण अहिवई, तस्स बंधुमई भज्जा अविया भारी, इतो य तस्स अदूरसामंते गामो चोरेहिं हतो, ते इंतूण चंदिग्गाहं च काऊण पधाविया, एगा अचिरप्पसूया। पइंमि मारिए चेडेण समं गहिया, सा तं चेडं छड्डाविया, सो चेडो तेण गोसंखिएण गोरूवाण गएण दिट्ठो, गहितो या अप्पणिजियाए महिलाए दिनो, तत्थ पगासियं, जहा-मम महिलाए गूढोगम्भो आसि, तत्थ छगलं मारित्ता लोहियगंधत्ता हैसूइयानेवत्थेण ठिया, सवं जं तस्स इतिकत्तवयं तं कीरइ, एवं सो तत्व संबड्डइ, सावि से माया चंपाए विक्कीया, वेसियाए धेरीए मम धूयत्ति तीए उवयारं सिक्खाविया, सा तत्थ पगासा गणिया जाया, सो य गोसंखियपुत्तो तरुणो। जातो, धयसगडेहिं पं गतो सवयंसो, तरथ पेच्छइ नागरं जणं जहिच्छियमभिरमंतं, तस्सवि इच्छा जाया, अपि दीप अनुक्रम For Five Porno wiewsanelibrary.orm ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] पद्धात नियुक्ती श्रीवीर चरिते ॥२८६ ॥ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ४९२ ] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [११४... ]. मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः ताव रमामि, सो तत्थ गतो वेसं, तत्थ से सा चैव माया अभिरुड्या, मोलं देइ, वियाले व्हायविलित्तो वच्चर, तत्थ | वञ्चतरस अंतरा पादो अभिज्झेण लित्तो, सो न याणइ केण विलित्तो ?, तस्थंतरा तस्स कुलदेवया मा अकिञ्चमायर बोहामित्ति तत्थ कोटुए गाविं सवच्छयं विउविऊण संठिया, ताहे सो तं पायं तस्स उवरिं फुसइ, ताहे सो वच्छतो भाइ एस मम उवरि अम्मो ! अमेज्झलित्तं पार्थ फुसइ, ताहे सा गावी माणुसिचाए वायाए भाइ- किं तुमं पुत्ता ! अधितिं करेसि ?, एसो अज्ज मायाए समं वासं गच्छइ, तं एस एरिसं अकिञ्चं ववसर, अन्नं किं न काहिइ ?, ताहे तं सोऊण तस्स चिंता जाया, भणइ-गतो पुच्छिहामि, ताहे पविठो पुच्छर का तुझं उप्पत्ती १, तीए भन्नइ किं तुझं उप्पत्तीए ?, महिलाभावं दाएइ, ताहे सो भणइ-अष्णं एत्तियं मोल्लं देमि साह सम्भावं, सबहसावियाए तीए सबं जहावतं सिद्धं, ताहे सो निग्गतो सगामं गतो, अम्मापियरो आपुच्छति, ताणि न साहति, ताहे सो तात्र अणसितो ठितो जाव से कहियं, ततोऽसौ तं मायं वेसाउ मोइचा पच्छा विरागं गतो, एयावत्था विसया इति पाणामाए पबजाए पत्रइओ, एसा उप्पत्ती, सो विहरंतो संकालं कुम्मगामे आयावेइ, तस्स छप्पयातो जडाहिंतो आइचकिरणतात्रियातो पडंति, जीवहियढयाए पडिवातो सीसे घुभइ, तं स गोसालो ओसरिता तत्थ गतो किं भवं मुणी मुणीतो उयाहु ज्यासेज्जायरो १, कोऽर्थः १-'मन ज्ञाने' किं भवान् मुनि:- ज्ञाता सन् मुनितः प्रब्रजित उत एवमेवेति, अहवा किं इत्थी पुरिसो वा ?, एवं दो तिनि वारे वयह, ताहे वेसियायणो को तेयं निसिरइ, ताहे सामिणा तस्स अणुकंपणद्वाए वेसि| यायणस्स प्रसिणतेयपढिसाहरणमेत्यंतरा सीयलिया तेजलेसा निसिरिया, सा भगवओ सीयलिया तेउलेसा जंबुद्दीव For Peace & Personal Use Ony ~ 296~ तिलस्तंत्रोपाटन | वैश्यायनः ॥२८६॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H नियुक्ति: [४९२], वि०भा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं - /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक मन्मितरतो वेढेइ, इबरा तं परिरयेण वेदंती जंबुद्दीव बाहिरतो वेढेइ, सा य एवं परिक्खिजमाणा २ निरवसेसा दिसीयलिवाए लेसाए विन्झविया, वाहे सो सामिस्स रिद्धिं पासिता भणइ-से गयमेयं 'भयवं! गयमेयं, न जाणामि * जहा तुज्झं सीसो, खमह, गोसालो पुच्छह-सामी! कि एस जूयासेजायरो भणइ !, सामिणा कहियं, ताहे भीतो पुच्छति-किह संखिचविउलतेयलेस्सो भवति !, भयवं भणइ-जेणं गोसाला! छटुंछठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं आयादेइ, पारणए सनहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासएणं जावेइ जाव छम्मासा से गं सखित्तविउलतेउलेसे भवइ । अन्नया सामी कुम्मगामातो सिद्धपुरं पत्थितो, पुणरवि तिलवंगस्स अदूरसामंतेणं वीइवयइ, ताहे सामि पुच्छइ, जहा न निष्फन्नो, भयवया कहियं-निप्फन्नो, तं एवं वणस्सईणं पउट्टपरिहारो कपितो, पउट्टपरिहारो नाम परिवृत्य २] दातस्मिन्नेव शरीरके यदुत्पद्यते जन्तवः एष परिवर्तपरिहारो, सो असइहमाणो गंतुण तिलसंगलियं हत्थे पप्फोडित्ता तिले गणेमाणो चिंतेइ-एवं सबे जीवा पउट्टे परिहरंति, नियतिवायं च नियगमवलंबित्ता तं करेइ जं भयवया नव18|इई जहा संखिचविउलतेउलेसे हवइ, ताहे सो सामिस्स पासातो फिट्टो सावत्थीए कुंभगारस्स सालाए ठितो, तेयनि सम्गं आयावेइ, छहिं मासेहिं संखित्तविउठतेउलेसो संजातो, कुवतडे दासीए विवासिय, तस्स घडो लेएणाहतो भग्गो, सा रुसिया अकोसइ, ततो मुक्कतेउलेसा दहा, जातो तस्स पञ्चतो जहा सिवा मे तेउलेसा इति, पच्छा तस्स* छहिसाचरा मिलिया, तेहिं निमित्तल्लोगो से कहितो, एवं सो अविणो जिणपलावी विहम, एसा से विभूई संजाया। अमुमेवार्य सलिपनाह %%-0-%20-%ार दीप अनुक्रम CACANCE % % % % anelibrary.com ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ४९३-४९४ ], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ ११४... ], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः उपोद्घात निर्युकी श्रीवीर चरिते २८७ ॥ Jan Education International महा गोगामे गोसंखी वेसियाण पाणामा | कुम्मागामायावण गोसाले कोवण पट्टे ॥ ४९३ ॥ मगधजनपदे चम्पाराजगृहयोरपान्तराले गोव्वरग्रामे गोशली कौटुम्बिकः, तस्योक्तप्रकारेण वैश्यायनो नाम पुत्रः, तस्य प्राग्व्यावर्णित कारणवशतः प्राणामानाम प्रत्रज्या, ततो यथासुखं विहरतस्तस्य तत्कालं कर्म्मग्रामे आतापनावतो | गोशालः कोपनं-कोपोत्पादनमकार्षीत् भगवता च गोशालस्यानुकम्पया रक्षा कृता, ततस्तेन भगवता सह कूर्म्मप्रामात् सिद्धार्थपुरं गच्छता अपान्तराले पूर्वोत्पाटितं तिलस्तम्बं भगवन्तमापृच्छय भगवता च सोऽयं तिलस्तम्बो निष्पन्न इति कथिते प्रवृत्तः प्रवृत्तपरिहारः प्रागुक्तस्वरूप उपकल्पितः ॥ ततो भगवं वेसालिं नगरिं पत्तो, तत्थ संखो नाम गणराया, सिद्धत्थस्स रण्णो मित्तो, सो तं पूएइ, पच्छा वाणियगामं पहावितो, तत्थ अंतरा गंडइया नदी, तं सामी नावाए उत्तिनो, ते नाविया सामिं भणति देह मोल्लं, एवं बार्हेति, तस्थ संखरण्णो भाइणिजो चित्तो नाम दूहत्ताए गएहतो नावाकडएण एइ, ताहे तेण मोइतो पूइतो य । एनमेवार्थ सङ्क्षेपेणाह - | बेसालीए पडिमं संखो गणराय पिउवयंसो य । गण्डइआसरि तिन्नो चित्तो नावाए भगिनिसुओ ॥ ४९४ ॥ शायां नगर्यां शङ्खो नाम गप्पराजः पितृवयस्यः - सिद्धार्थराजमित्रं भगवतः पूजामकरोत्, तथा भगवन्तं वणिग्रामं प्रति प्रचलितमन्तरा गण्डेकिकां सरितं नदीं तीर्ण नाविकैर्धृतं चित्रः शङ्खराजस्य भगिनीसुतो नावा समागच्छन् मोचितवान् पूजितवांश्च ॥ For Peace & Personal Use Ony ~298~ शीतलेश्या गंडकिको तारः ॥ २८७ ॥ www.sanelibrary.org Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४९५], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: Eroti प्रत सत्राक * | ततो भयवं वाणियगामं गतो, तस्स बाहिं पठिम तितो, तत्थ आणंदो नाम समणोवासतो छटुंछद्रेण आयावेइ, तस्स ओहिन्नाणं समुप्पन्नं जाव पेच्छइ तित्धयर, वंदइ, भणति य-अहो सामिणा परीसहा अहियासिजति !, एचिरेण कालेण तुभं केवलनाणमुप्पजिहिए, तहा पूएइ य, ततो सामी सावत्थिं गतो, तत्थ दसमं वासारत्तं विचित्तं तवोकम्म ठाणाई हिं, ततो साणुलट्ठियं नाम गामं गतो ॥ अमुमेवार्थ सञ्जिघृक्षुराह वाणियगामायावण आणंदोही परीसहसहित्ति । सावत्थीए वासं चित्ततवो साणुलहि यहि ॥ ४९५ ॥ | वणिग्ग्रामे आतापनमानन्दस्य, ततोऽवधिज्ञानं, तेन च स्वामिनं प्रेक्ष्योक्तवान्-अहो भगवान परीपहसह इति, तदन-1 न्तरं भगवान् श्रावस्त्यां वर्ष-दशमं वर्षारानं कृतवान् , तत्र च विचित्रं तपः, तदनन्तरं सानुलष्टिप्रामं गतः । तत्थ बाहिं| भइपडिभं ठितो, केरिसिया भद्दा पडिमा ?, भन्नइ, पुवाभिमुहो दिवसं अच्छद, पच्छा रत्तिं दाहिणहुत्तो, ततो बीए अहोरत्ते अवरेणं दिवसं उत्तरेणं रत्तिं, एवं छद्रेणं भत्तेणं निद्विया, तहविन चेव पारेइ, ततो अपारितो चेव महभईर पडिमं ठाइ, सा पुण एवं-पुवाए दिसाए अहोरतं, एवं चउसुवि दिसासु चत्तारि अहोरत्ता, एवमेसा दसमेण निहिआ, तहावि न पारेइ, ताहे अपारितो चेव सबतोभई पडिम ठाइ, सा पुण सवतोभद्दा एवं-इंदाए अहोरत्तं, एवम्-अग्गेईए जम्माए नेरईए वारुणीए वायबाए सोमाए ईसाणीए विमलाए [तमाए] तत्थ जाई उड्डलोइयाई दवाई ताई निज्झायइ, तमाए हेडिल्लाई, एयमेसा दसहिं दिसाहिं बावीसइमेण समप्पइ, एवं च प्रथमाया प्रतिमायां चत्तारि यामचतुष्काणि, तद्यथा-एकं पूर्वस्यामेकमपरस्यामेकं दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्यां, द्वितीय स्यामष्टौ यामचतुष्काणि, तद्यथा-द्वे यामचतुष्के * * दीप अनुक्रम ct-- - - ForFive Persanamory Kaviewsanelibrary.orm ~299~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] उपोदात निर्युको श्रीवीर चरिते ॥ २८८ ॥ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ४९६-४९७ ], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [११४... ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः पूर्वस्यामेवं यावत् द्वे यामचतुष्के उत्तरस्यां तृतीयस्यां विंशतिर्वामचतुष्कानि, वद्यथा - यामचतुष्के पूर्वस्यामेवं यावश् द्वे यामचतुष्कें तमायामिति, पच्छा तासु समतासु आणंदस्स गाहावइस्स घरे बहुलियाए दासीए महाणसिणीए भायगाणि खर्ण करेंतीए दोसीणं छड्डेतकामाए सामी पविट्ठो, ताए भण्णइ-किं भयवं । एएण अठो ?, सामिणा पाणी पसारितो, ताए परमाए सद्धाए दिनं, पंच दिवाणि पाउन्भूयाणि ततो पच्छा तीसे सिरं पक्खालियं, अदासीकया ॥ एनमेवार्थी सङ्केपेणाह पढिमा भद्द महाभद सहओभद्द पढमिया चउरो । अट्ठ य बीसाऽऽणंदे बहुलियतह उझिया दिवा ॥ ४९६॥ प्रतिमा पूर्व भगवता भद्रा कृता, तदनन्तरमकृतपारणकेनैव महाभद्रा, तथैव सर्वतोभद्रा, नत्र 'पढमिया चउरो' इति प्रथमायां चत्वारि यामचतुष्कानि, द्वितीयस्यामष्टौ तृतीयस्यां विंशतिः, तदनन्तरमानन्दे - आनन्दस्य गृहे बहुलिकया | दास्या 'तथेति' समुच्चये उज्झिता भिक्षा दत्ता, दिव्यानि पञ्च प्रादुरभवन् ॥ ततो भयं बहुमेच्छं दढभूमिं गतो, तस्स बहिं पोलासं नाम चेड्यं, तत्थ अमेण भत्तेण अपाणपण ईसीपन्भार- | गएण कारणं, इसीप भारगतो नाम ईसिं ओणतो कातो, एगपोग्गलनिरुद्धदिट्ठी अणिमिसनयणे, तत्थवि जे अवित्ता | पोग्गला तेसु दिहिं निवेरोइ, सचिचेहिं दिट्ठी अप्पाइज्जर, जहा दुचाए, अहापणिहिएहिं गत्तेहिं सबिंदिएहिं गुत्तेहिं दोवि पाए साइड वग्धारियपाणी एगराइयं महापडिमं ठितो । एतदेवाह दरभूमी बहुमिच्छा पेढालग्गाममागओ भयवं । पोलासचेइयम्मि डिएगराई महापडिमं ॥ ४९७ ॥ For Peace & Personal Use Ony ~ 300~ आनन्दावधिः भ द्रायाः प्रतिमाः ॥ २८८॥ sanelibrary.org Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [४९८-५०१], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [१९१४... ], मूलं [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः बा.सु. ४९ भूमिर्नाम बहुम्लेच्छा, तत्र पेढालग्राममागतो भगवान्, तस्य बहिः पोलाशे चैत्ये- व्यन्तरायतने एकरात्रिकीं महाप्रतिमां स्थितः ॥ इतो य-सको देवराया भगवंतं ओहिणा आभोएत्ता सभाए सुहम्माए अत्थाणगतो हरिसितो सामिस्स नमोकारं काऊण भणति - अहो भयवं । तेलोकमभिभूय ठितो, नहु सक्का केणइ देवेण वा दाणवेण वा चालेडं, तथा चाह सको य देवराया सहागओ भगइ हरिसिओ वयणं । तिन्निवि लोगऽसमत्था जिणवीर मिणं चलेडं जे ॥ ४९८ ॥ शको देवराजः सभागतो हर्षितो वचनमिदं भणति -त्रयोऽपि लोका अमुं जिनं वीरं चालवितुमसमर्थाः, जे इति पादपूरणे ॥ इतो य- संगमतो नाम सोहम्मकप्पवासी देवो सकस्स सामाणितो अभवसिद्धितो, सो भणइ देवराया अहो रागेण उलवेइ, को माणुसो देवेण न चालिजइ १, अहं चालेमि, ताहे सक्को तं न वारेइ, मा जाणिहिई परनिस्साए भयवं तवोकम्मं करेइति, एवं सो आगतो, तथा चाह सोम्मकप्पवासी देवो सकस्स सो अमरिसेणं । सामाजिय संगमओ बेह सुरिंदं पडिनिविट्ठो ॥ ४९९ ॥ तेलोकं असमत्थंति बेह एयस्स चालणं काउं । अव पासह इमं मम वसगं भट्टजोगतवं ॥ ५०० ॥ अह आगओ तुरंतो देवो सस्स सो अमरिसेणं । कासी य हउवसग्गं मिच्छादिट्ठी परिनिविट्टो ।। ५०१ ॥ कल्पवासी देवः शक्रस्य सामानिका को नाम, सोऽमर्षेण सुरेन्द्रं प्रति प्रतिनिविष्टः सन् प्रीति, यत् Jan Education treenato ••• अथ संगमदेवेन कृत् उपसर्गस्य विस्तृत वर्णनं आरभ्यते Far Pavoce & Personal Use Only ~301~ sanlibrary.org Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४९८-५०१], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत चरिते दीप अनुक्रम उपोद्धात-11वेह इति श्रूषे एतस्य चालनं कर्तुं त्रिलोकमसमर्थमिति, तन्न, अद्यैव प्रेक्षस्व इमं महावीर मम वशगम्-आय | संगमकोनियती भ्रष्टयोगतपसमिति, एवमुक्त्वाऽथानन्तरं शक्रस्योपरि अमर्षेण सङ्गमकनामा देवस्त्वरित आगतः, अकापींच्च स मिथ्या-IA पसर्गाः श्रीवार- दृष्टिः प्रतिनिविष्ट उपसर्ग, तद्यथा-सो अभवितो सामिस्स उवरिं वजधूलीवरिसं वरिसइ, जाव अच्छीणि कन्ना य|| सबसोयाणि पूरियाणि, निरुस्सासो जातो, तेण सामी तिलतुसभागमेपि झाणाओ न चालिओ १ ताहे संतोतं साहरित्ता कीडियाओ वजतुंडाओ विउवइ, तातो समंततो लग्गिऊण खायंति, अनेण सोएण सरीरगमणुपविसित्ता ॥२८॥ ४ अनेण सोएण निग्गच्छंति, एवं चालिणीसरिसो कतो, तहवि भयवं न चलितो २ ताहे उसे बजतुंडे विउबइ, जे लोहि सायमेगेण पहारेण णी0ति, तेवि सुबहुं खायंति, तहवि न सको चाले ३ ताहे उण्हेला विउवेइ, उण्हेला णाम तेल्लपाइ याओ, तातो तिक्तेहिं तुडेहिं अतीव दसंति, जहा जहा सो अभवितो उघसरगं करेइ तहा तहा सामी अतीव झाणेण* | अप्पाणं भावेइ, जहा 'तुमए चेव कयमिणं, न सुद्धचारिस्स दिस्सए दंडो' इच्चादि ४ जाहे न सका खोभेउं ताहे| बिच्छुए विउपद, तहवि न सकइ ५, ताहे नउले विउधइ, ते तिक्खाहिं दाढाहिं डसंति खंडखंडाई अवणेति ६ पच्छा सप्पे रोसपुग्ने उग्गविसे डाहजरकारगे विउवइ, तेहिवि न सकिओ चाले ७ ततो मूसए विउवा, ते तिक्खाहिं दाढाहिं डसंति, खंडाणि य अवणेत्ता तस्थेव मुत्तपुरीसाणि वोसिरंति, तो अतुला वेषणा पाउन्भवति ८, जाहे न सका। ताहे हस्थिरूवं विउबइ, तेण हस्थिरूवेण सुंडाए गहाय सत्तद्वतले आगासे उक्खिवित्ता पच्छा दंतमुसलेहिं पडिच्छा, पुणोऽवि भूमीए विधइ चलणतलेहि य मलेइ ९ जाहे एवमवि न सका चाले ताहे इत्थिणियारूवं विजवइ, सा हस्थि ॥२८९॥ Jan E U For Five Porno ~302 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [४९८-५०१], वि०भा०गाथा H], भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक णिया सुंडपहिं दंतेहिं विधइ फालेइ य, पच्छा काइएण सिंचइ, चलणेहिं मलइ १० जाहे न सका ताहे पिसायरूवं|| विउबइ, तेण उवसग्गं करेइ ११ जाहे न सक्कइ ताहे वग्घरवं करेइ, सो दादाहि नक्खेहिं फालेइ, खारकाइयाए सिंचेइ १२ जाहे एवमवि न सकइ ताहे सिद्धत्थरायरूवं विउवा, सो कलुणाणि विलवइ, एहि पुत्तगा! उज्झाहि । एमाइविभासा १३ ततो तिसलारूवं विउदइ, तत्थवि सा चेव विभासा १४ ततो जाहे एवमवि न सका ताहे सूर्य विउबड़, किह !, सो ततो खंधवारं विउबइ, सो परिपेरंतेसु आवासितो, तत्थ सूयो पत्थरे अलभंतो दोपहवि पायाण मज्झे अग्गिा जालित्ता पायाणं उरि उक्सलियं काउं पहउमारद्धो १५ जाहे एएणवि न सकइ ताहे पकणं विउवइ, सो पकणो ताणि । |पंजरगाणि वाहासु गले कण्णेसु य ओलयइ, ते सउणगा भयवंतं तुडेहिं खायतिं विधति सन्नं कायंचवोसिरंति १६ ततो, खरवायं विउचति, जेण सको मंदरोऽवि चालेउ, न पुण सामी चलइ, तेण आगासे उक्खिवित्ता उक्खिविचा पाडेइ १७ पच्छा कलंकलियावार्य विउवा, तेण जहा चक्काइद्धतो नंदिआवत्ते वा तहा भमाडिजाइ १८ जाहे एवमवि न सका ताहे| कालचकं विउबइ, तं विउविऊण ऊहुं गगणतलं गंतूण एचाहे मारेमित्ति मुयए वजसंनिभं, मंदरंपि चूरेजा, तेण पहारेण है भयवं ताव नियुडो जाव अग्गनहा हत्थाणं १९ जाहे तेणवि न सका ताहे चिंतह-न सफो एस मारिति अणुलोमे उपसग्गे करेमि, ताहे पभायं विधइ, लोगो सघो चंकमिडं पयत्तो, भणइ य-देवज्जगा! अजवि अच्छसि ?, भयवं नाणेण जाणाइ जहा न ताव पभाइ, ततो दिवं देविहि दंसेइ, भणड य विमाणगतो-तद्रोमि तम भयवं। किं देमिर हे सगं वा ते सरीरं नेमि तिमिवि लोए तुझ पाएसु पाडेमि । अन्ने भणति-दिवं देविहिं देसित्ता मणोरमसहरू SAXASSENCESSXCI दीप अनुक्रम and remona Kaviewsanelibrary.orm ~303 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक’- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [५०२-५०५], वि०भा०गाथा H], भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: है । संगमकोपसर्गाः प्रत पोद्धात- वरसगंधकासोक्वते छप्पि मणोणुकृले उऊ. दंसेइ, अच्छरातो गुरुवातो पेसेइ, ताहे दिवं वत्तीसइविहिं नहमुपदंसति, नियुकोसामी तहेव समदरिसी, जाहे न सकंति ताहे परिकं काऊण विविहष्पगारमालिंगगचुंबणाइयं मोहुप्पायगमित्थीभाव- श्रीवीर- मुपदंसंति, हा दइय! हा निकिव ! इन्चेवमाइ जंपंति, ततो परिसंता जामेव दिसं पाउन्भूता तामेव दिसं पहिगया, चरिते एस सबो वीसइमो उवसग्गो ॥ एतानेव गाथाचतुष्टयेनाह वाली पिवीलिआओ उइंसा चेव तह य उण्होला । विच्छुअ नउला सप्पा य मूसगा चेव अट्ठमया ॥५०२॥ ॥२९॥ हत्थी हस्थिणियाओ पिसाअए घोररूव वग्यो य । धेरो घेरी सूओ आगच्छइ पकणो अतहा ॥५०३ ॥ खरचाय कलंकलिया, कालचकं तहेव य । पाभाइयमुवसग्गे, वीसइमे होति अणुलोमे ।। ५०४ ॥ सामाणियदेविदि देवो दाएइ सो विमाणगओ । भणइ वरेह महरिसि! निष्फत्ती सग्गमोक्खाणं ॥५०५॥ 1 प्रथमतो धूली विकुर्विता १ ततः पिपीलिकाः२ तदनन्तरमुइंशाः ३ तत उण्होलाः ४ ततो वृश्चिकाः ५ तदनन्तरं नकुला 1 ततः सर्पाः ७ ततो मूषकाश्चैवाष्टमाः८॥ तदनन्तरं हस्ती ९ ततो हस्तिनिका १० तदनन्तरं पिशाचः ११ तदनन्तरं पोररूपो व्याघः १२ ततः स्थविर:-सिद्धार्थः १३ स्थविरा-त्रिशला १४ तदनन्तरं मूतो-रसवतीकारः १५ तत आगच्छति पक्षणः-शवरः १६ ॥ तथा खरयातः १७ तदनन्तरं कलंकलिका १८ तथा चैवं कालचक्र १९ विंशतितमः पुनरूपसर्गो भवत्यनुलोमा, स च प्रभातविकुर्वणारूपश्च, स दुर्गृहीतनामधेयो देवो विमानगतो भगवच्चित्तक्षोभनाय | सामानिकदेवद्धि दर्शयति, भपाति'च-वृणीष्व महर्षे! येन तव स्वर्गमोक्षयोर्निष्पत्तिर्भवति ॥ ५०२-५॥ दीप अनुक्रम ॥२९॥ Janet ForFive Persanamory ~304 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [H] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [५०६ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ११४... ], मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education Internat जाहे एवमपि न तीरइ चालेउं ताहे सहुयरं पडिनिवेखं गतो, कल्ले काहित्ति पुणोवि अणुकर, ताहे सामी वालुया नाम गामो तं पहावितो, सत्थंतरा पंच चोरसए विडवर वालुगं च, जत्थ बहुतरं खुप्पड़, पच्छा तेहिं पवयगुरुतरेहिं माउलोत्ति वाहितो, सागयं च वज्जसरीरा देति जेहिं पद्ययावि फुट्टेज्जा, ताहे बालुयागामं गतो, तत्थ भिक्खं हिंडितो, तत्थ भयवतो रूपमावरित्ता तरुणियाणं अविरइयाणं काणच्छि देइ, ततो हम्मइ, ताहे निम्गतो, भयत्रं सुभोमं वच्च तत्थवि गतो भिक्खायरियाए तत्थवि सामिणो रूपमावरिता महिलाणं अंजलिं करे, पच्छा तेहिंपि सामी विहिजड़, ततो भयवं निम्गंतूण सुच्छेत्ता नाम गामो तहिं वच्चर, तत्थ जाहे अभिगतो सामौ भिक्खाए ताहे भयवतो रुवमावरित्ता विरूवं विज्वर, तत्थ हसइ गायति य, अट्टहासे मुंचति, काणेच्छियाओ य जहा विडो तहा करेइ, असिद्वाणि य भासइ, तह विहम्मद || अमुमेवार्थं सङ्क्षिपन्नाह वालुयपंधे तेणा माउल पारणग तत्थ काणच्छि । तत्तो सुभूम अंजलि सुच्छित्ताए य विरूवं ॥ २०६ ॥ स भगवान् वालुकाप्रामं प्रति प्रधावितः तत्रापान्तराले पथि पञ्चशतसङ्ख्याः स्तेनास्तर्मातुल इति-पिशाच इतिकृत्वा वाहितः, ततस्तत्र वालुकाप्रामे पारण के पारणकनिमित्तं स्वामी भिक्षायां प्रविष्टः, ततो भगवतो रूपमावृत्य तरुणीनां काणाक्षि दर्शयति, ततस्तत्पुरुषर्भगवान् हन्यते, ततः सुभौमग्रामे गतः, तत्र तरुणीनामुक्तप्रकारेण दर्शितवान्, सुक्षेत्रायां तु ग्रामे विरूपं विकुर्वितवान् सर्वत्र भगवान् कदर्थ्यते ॥ ततो साभी सुच्छेचातो विनिग्गंतूण मलयं नाम गामं गतो, तत्थ भयवतो उम्मत्त रूवं करिता अविरश्यातो आलिंगे गेण्डइ य, ततो पेडरूचेहिं छारकयारण भरि For Peace & Personal Use Ony ~305~ anlibrary.org Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युकौ श्रीवीर चरिते ॥२९१॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [५०७] वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [११४... ]. मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र -[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः जर, लेदुएहिं बिहम्मद, ताणि य बीहावेइ, ताणि य अक्खुडंत पडताणि नासंति, ततो तेसिं अम्मापियरेहिं हम्मइ, ततो निग्गतो हत्थिसीसं नाम गामं गतो, तत्थवि भयवं भिक्खायरियाए अतिगतो, तत्थ भयवतो सिवारुवं दरिसेड़, किं भणियं होइ ? - सागारियं से कसाइयं करेइ, ततो जाहे अविरइयं पेच्छइ ताहे उडेइ पच्छा हम्मइ, ततो भययं चिंतेइ एस गाढमुडाहं करेइ अणेसणं च तम्हा गामं चैव न पविसामि बाहिं अच्छामि ततो वाहिं गामस्स निग्गतो, ततो जतो महेलाजू ततोहुतो सागारिएण कसाइएण अच्छर, तहाट्ठितो सामी सकेण पूइतो, ततो तप्पनि ढोंढसियो पवतो, ताहे सामी चिंते एस नितरामुड्डाहं करेइ, तम्हा गामं चैव न अतीमि, एगंते अच्छइ, ताहे संगमतो इसइ, न सकेमि * तुमं ठाणातो चालेडं, पेच्छामि ता गामं अतीहि, ताहे सको आगतो पुच्छइ-जत्ता भे १ जवणिजं च मे ! अबाबाई च भे १ इति, वंदिता परिगतो ॥ मलए पिसायरूवं सिवरूवं हत्थिसीसए कासी । ओहसणं पडिमाए मसाण सको जवणपुच्छा ॥ ५०७ ॥ मलये ग्रामे पिशाचरूपं भगवतः उन्मत्तकलक्षणमकार्षीत् तदनन्तरं हस्तिशीर्षके शिवरूपं प्रागुकस्वरूपं, ततः | श्मशाने प्रतिमायां कायोत्सर्गस्थितस्य अपहसनं यथा न शक्यसे त्वं स्थानाञ्चालयितुमिति पश्यामि यदि ग्राममागच्छतीति, ततः शक्र आगतस्तस्य यापनपृच्छाऽभवत् ॥ ताहे सामी तोसलिं गतो, तत्थ बाहिं पडिमं ठितो, ततो सो अभवितो चिंतेइ एस गामं न पत्रिसाइ, ता एत्थवि से ठियस्स करेमि उबसर्ग, तवो खुड्डुगरूवं विउबित्ता संधिं छिंदइ उबगरणेहिं गहिएहिं बतीए, तत्थ गहितो सो भणइ मा मं हणह, अहं न जाणामि, आयरिएण अहं पेसितो, कहिं सो ?, Jan Education International For Pivote & Personal Use Only ~ 306~ संगम कोपसर्गाः ॥ २९२ ॥ www.sanlibrary.org Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) “आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [५०८-५०९], वि०भा०गाथा H], भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: RECRA प्रत सत्राक एस बाहिं अमुगे उजाणे, तत्थ हम्मइ बज्झइ, मारिजउत्ति वरझो नीणितो, तस्थ महाभूइलो नाम इंदजालितो, सेण सामी कुंडग्गामे दिट्ठपुपो, ताहे सो मोएइ, साहइ य जहा एस सिद्धत्थरायपुत्तो, मुको खामितो, खुडतो मग्गितो, न | दिहो, नायं जहा देवो से उपसग्गं करेइ, तथा चाहतोसलि खुड्डगरूवं संधिच्छेदो इमोत्ति वझो य । मोएइ इंदजालित तत्थ महाभूइलो नामं ॥५०८॥ ततो भगवान् तोसलिग्रामं गतः, तत्र सजमकः क्षुलकरूपं विकुर्वितवान्, तेन च गृहीतैरुपकरणः सन्धिच्छेदो वृतेः18 कृतः, ततः स आरक्षकदृहीतः माह-अयं मां कारितवान्, ततः स्वामी वध्य आज्ञप्तः, तत्र महाभूतिलो नाम इन्द्रजालिकोट |मोचितवान् ॥ ततो सामी मोसलिं गतो, तस्थ बाहिं पडिमं ठितो, तत्थवि सो देवो खडगरूवर्य विउवित्ता संधिमग्ग12 पलोएड पडिलेड य, सामिस्स पासे सवाणि उवगरणाणि विउवा, ताहे सो खडगो गहितो. कीस पत्थ सोडसि!.x भणइ-मम धम्मायरितो रति खत्तं खणिहिइ, तो मा कंटए भंजिहीति मग्गं सोहेमि, सो कहिं 1, तेण कहियं-अमुगे| उजाणे चिट्ठइ, ते गया, ट्ठिो सामी, ताणि य उवगरणाणि समीवे, ततो गहितो, आणीतो, तत्थ सुमागहो नाम राद्वितो | सामिस्स पिउवयंसो, सो मोएइ, ततो सामी तोसलिं गतो, तस्थवि तहेव गहितो, नवरं उकलंबिउमाढतो, तत्थ से रज्जू/ छिन्नो, एवं सत्तवारा छिनो, ताहे सिट्ठ तोसलियस्स, सो भणइ-एस अचोरो निद्दोसो, तं खुडगं मग्गह, सो मम्गितो, न दीसह, नायं जहा से देवो उक्सग्गं करेइ ॥ अमुमेवार्थमाहमोसलि संधिसमागम मोएई रहिओ पिउवयंसो । तोसलिय सत्त रज्जू वावत्ती तोसली मुक्खो ॥ ५०९ ॥ दीप अनुक्रम TARSects FrPrivate Persana tumory wiewsanelibrary.orm ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [५१०], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: पसगाः प्रत ॥२९२॥ उपोद्धात ४ा भगवान् मोसलिं गतः, तत्र सन्धिमार्गशोधनाय क्षुल्लकस्य समागमः, ततो भगवतो ग्रहणं, राष्ट्रिकश्च पितृवयस्योसंगमकोनियुको दो भगवन्तं मोचयति, ततो भगवान् तोसलिकग्रामं गतः, तत्र पूर्वप्रकारेण गृहीतः, ऊर्ध्वमवलम्ब्यमाने च भगवति सप्त। श्रीयार- वारान् रज्या व्यापतिः, ततस्तोसलिकस्य क्षत्रियस्य कथनं, भगवतो मोक्षः॥ चरिते Il ततो सामी सिद्धत्यपुरं गतो, तत्थ तेण अभविएण तहा कयं जहा भगवं तेणोति गहितो, तत्थ कोसितो नाम ४ा हि आसवाणियओ, तेण कुंडपुरे सामी दिउलओ, तेण मोयावितो, ततो सामी गोउलं गतो, तत्थ य तद्दिवसं छणो, सवत्थ परमन्नं उवक्खडियं, चिरं च तस्स देवस्स उवसर्ग काउंठितस्स, सामी चिंतेइ-गया छम्मासा, सो गतो होजत्ति है भिक्खायरियाए अतिगतो, सो अणेसणं करेइ, सामी उवउत्तो पासइ, ताहे अद्धहिंडितो नियत्तो, वाहिं पडिम ठितो, सो सय पावो सामि ओहिणा आभोएइ-किं भग्गपरिणामो नवत्ति, ताहे सामी तहेव सुद्धपरिणामो छज्जीवहियं झायइ, तो तिहारूवं दर्दू आउद्दो, न तीरए खोभेउं, जो एश्चिरेणवि कालेण छहिं मासेहिं न चलितो सो दोहेणवि कालेण न सको। चाले, ताहे पाएसु पडितो भणइ-सच्चं जं सको भणइ, सर्व खामेइ, भय ! अहं भग्गपण्णो, तुज्झे सम्मत्तपतिण्णा ME 8 अमुमेवार्थ सझेपत आहहै सिद्धत्यपुरे तेणुत्ति कोसिओ आसवाणिओ मुक्खो। बयगाम हिंडणेसण वीयदिणे बेह उवसंतो॥१०॥ भगवान् सिद्धार्थपुरे गतः, तत्र पूर्वप्रकारेण स्तेन इति गृहीतः, तत्र च कोशिको नाम अश्ववणिक्, तेन मोक्षः कृतः, दीप अनुक्रम ॥२९॥ XX JanEdication iram ForPivate Permaneumony ~308 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ५११-५१२], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [११४... ], मूलं [- /गाथा -] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education Internabo ततो द्वितीयदिने प्रजप्रामे गोकुले भिक्षार्थी हिण्डते, तत्र अनेषणा, ततो भगवान् हिण्डनान्निवृतः, ततः स उपशान्तो त्रवीति ॥ किं ब्रवीति इत्यत आह वह हिंडह न करेमि किंचि इच्छा न किंचि यत्तहो । तत्थेव वच्छवाली थेरी परमन्न वसुहारा ॥ ५११ ॥ अत ऊर्ध्व ब्रज स्वेच्छया ग्रामनगरेषु, हिंडस्व भिक्षार्थं कुलेषु, न करोमि कमप्युपसर्ग, स्वामी वक्ति-भोः संगमक ! नाही कस्यापि वक्तव्योऽस्मि, इच्छया यामि नया, ततः स्वामी द्वितीयदिवसे तत्रैव भिक्षार्थं गोकुलेप्यदति, तत्र वत्सपाली स्थविरा, तया उत्सवदिवसे क्षीरं न लब्धं ततो द्वितीयदिवसे क्षीरं याचित्वा पायसं राद्धं तेन भगवान् प्रतिदाभितः, अन्ये वदन्ति- पर्युषितेन पायसेन प्रतिलाभितः, ततः पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतानि ॥ - छम्मासे अणुबद्धं देवो कासीय सो उ उवसग्गं । दद्रूण वयग्गामे वंदिय वीरं पडिनियत्तो ॥ २१२ ॥ एवं सोऽभविकः सङ्गमकनामा देवः षण्मासान् अनुबद्धं - सन्ततं उपसर्गमकार्षीत् दृष्ट्वा च व्रजग्रामे गोकुठे परिणाममभवं उपशान्तो वीरं महावीरं वन्दित्वा प्रतिनिवृतः ॥ इतो य-सोहम्मे कप्पे सधे देवा तद्दिवसं उबिग्गमणा अच्छंति, संगमतो य सोहम्मं गतो, तत्थ सको तं दण परम्मुहो ठितो भणइ देवे-भो ! सुबह, एस दुरप्पा, नं एएण ममवि चिचरक्खा कया, नवि अन्नेसिं देवाणं, जतो तित्थगरी आसातितो, न एएण अहं कर्ज, असंभासो, निविसतो उ कीरज, ततो निच्छूढो सह देवीहिं, सेसा देवा इंदेण वारिया, Pevate & Personal Use Ony ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घात निर्युकी श्रीवीर चरिते ॥ २९३ ॥ “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ५१३-५१५], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ ११४... ], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education International देवो तो महिही सो मंदरचूलियाए सिहरंमि । परिवारितो सुरवहहिं तस्स य अयरोवमं सेसं ॥ ५१३ ॥ स सङ्गमकनामा महर्द्धिको देवः स्वर्गात् च्युतः भ्रष्टः सन् परिवारितः सुरवधूभिर्गृहीताभिर्मन्दर चूलिकायाः शिखरे - उपरितनविभागे यानकेन विमानेनागत्य स्थितः, तस्य एकमतरोपमं सागरोपमं आयुषः शेषं ॥ ततो सामी आरंभियं गतो, तत्थ हरी विज्जुकुमारिंदो एइ, सो सामिं वंदित्ता पूइऊण य भणइ-भगवं । पियं पुच्छामो, निच्छिना उवसग्गा, बहुं गयं येवं सेसं, अधिरेण मे केवलनाणं समुप्पज्जिहिइ, ततो सेयवियं गतो, तत्थ हरिस्सहो पियपुच्छगो एइ, ततो सावत्थिं गतो, बाहिं पडिमं ठितो, तत्थ खंदपडिमाए लोगो महिमं करेइ, सक्को ओहिं परंज, जाव पेच्छइ खंदपडिमाए पूर्व कीरमाणं, सामिं नाढायंति, सको उइनो, सावि खंदपडिमा रहं विलग्गिहिए, ताहे सक्को तं पडिमं अणुपवेसिऊण भयवंतेण पट्टितो, लोगो तुट्ठो भणइ-देवो सयमेव विलग्गिहिर, जाव सामिं गंतून बंदर, ताहे लोगो आउट्टो, एसो देवदेवोत्ति महिमं करेइ जाव अच्छितो ॥ अमुमेवार्थं सङ्गिन्नाहआलभियाए हरिविज्जू जिणस्स भक्तीइ बंदिउं एह । भयवं पियपुच्छा जिय उवसग्गत्ति थेवमव से सं ॥ ५१४ ॥ हरिसह सेवियाए सावस्थी खंद ओयरिडं पडिमा । लोगो आउट्टिओ (त्थ) बंदे सको उ पडिमा ॥ ५१५ ।। भिकायां नगर्या भगवतः प्रियपृच्छ को हरिनामा विद्युत्कुमारेन्द्र आगच्छति, वदति च-जिता भगवन् ! सर्वे उपसर्गाः, स्तोकमवशेषं तिष्ठति, ततो भगवान् श्वेतम्यां नगर्या गतः, तत्र हरिस्सहनामा विद्युत्कुमारराजः प्रियपृच्छक आगतः, ततः श्रावस्तीं गतो भगवान्, तत्र स्कन्दप्रतिमां लोकेन पूज्यमानां शक्रोऽवलोक्य तां प्रतिमामनुप्रविश्य For Pivote & Personal Use Only ~310~ संगमकस्य निर्वासनं हर्यादिकृ ता सुखपृच्छा ॥ २९३ ॥ www.sanlibrary.org Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं न, नियुक्ति: [५१६-५१८], वि०भा०गाथा ], भाष्यं [११४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक 4. दीप अनुक्रम भगवन्तं वन्दितवान् ॥ ततो सामी कोसंविं गतः, तत्थ चंदसूरा सविमाणा महिमं करेंति पियं च पुच्छंति, वाणारसीए || सको पियं पुच्छइ, रायगिहे ईसाणो, मिहिलाए जणगो राया पूर्व करेइ, धरणो व पियकुछतो एइ, तथा चाहकोसंवि चंदसूरोअरणं वाणारसीइ सको उ । रायगिहे ईसाणो मिहिला जणओ अ धरणो अ॥५१६॥ कोशाम्ब्यां चन्द्रसूरावतरणं, वाराणस्यां शक्रः प्रियं पृच्छति, राजगृहे ईशानः-ईशान कल्पेन्द्र, मिथिलायां जनको राजा धरणश्च-नागकुमारेन्द्रः पूजां कृतवान्, वेसालिवास भूयाणंदो चमरुप्पातोय सूसुमारपुरे । भोगपुर सिंदिकंटक माहिंदो स्वत्तिओ कुणइ ॥ ५१७॥ ४। ततो वैशालीनगरीमगमत् , तत्रैकदेशे वर्षारात्रः, तत्र भूतानन्दो नागकुमारेन्द्रः प्रियं पृच्छति, ज्ञानं च व्यागृणोति, यथा भगवन् ! स्तोककालमध्ये केवलज्ञानमुत्पत्स्यते, तदनन्तरं च भगवान् सूसमारपुरं गतः, तत्र भगवन्निश्रया चमरोत्पातो यथा व्याख्याप्रज्ञप्तौ तथा वक्तव्यः, ततो भोगपुरं स्वामी गतवान्, तत्र माहेन्द्रो नाम क्षत्रिया, सिन्दीकन्देनाहन्मीति ४ भगवन्तं प्रति घावितः, सिन्दी नाम खजूरी, स एवं उपसर्ग करोति, एत्यंतरे सणंकुमारो देविंदो एइ, तेण धाडितो तासितो &ाय, पियं च पुग्छ। ॥ ततो सामी नंदिगाम गतो, तत्थ नन्दी नाम भगवतो पियमित्तो सो महिमं करेति, ततो मिढियगा ममेति, तत्थ गोवो स्वसगं काउमारद्धो, जहा कुमारगामे तहेव वालरजुपण आहणतो सकेण तासितो । एतदेवाह___ वारण सर्णकुमारे नंदियगामे पिउसहा वंदे । मेढियगामे गोवो विसासणयं च देविंद्रो ॥ ५१८ ॥ and remona ForFive Persanamory wiewsanelibrary.orm ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [५१६-५१८], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: चन्द्रसूर्यावतारादि प्रत उपोद्धात- बारणं-निषेधनं माहेन्द्रक्षत्रियस्य सनत्कुमारो देवेन्द्रोऽकात्, नन्दिग्रामे पितृसखा-पितृवयस्यो भगवन्तं वन्दते, नियुक्ती मिण्ढिकयामे गोपस्योपसर्ग कर्तुं प्रवृत्तस्य वित्रासनक देवेन्द्रः-शकोऽकरोत् ।। श्रीवीर-18 ततो सामी कोसंविं गतो, तत्थ सयाणितो राया मियावई देवी तच्चावादी धम्मपाढगो सुगुत्तो अमच्चो नंदा । चरिते से भारिया, सा य समणोवासिया, ततो सहिति मियावतीए वयंसिया, तत्थेव नगरे धणावहो सेट्टी, तस्स मूला भारिया, एवं ते सकम्मसंपउत्ता अच्छंति, सामी य पोसबहुलपाडिवए इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ चउधिह, ॥२९४॥ तंजहा-दवतो खेत्ततो कालतो भावतो, दवतो कुम्मासे सुप्पकोणेणं, खेत्ततो एलुगं विक्वंभइत्ता कालतो नियत्तेमु । भिक्खायरेसु भावतो जइ रायधूया दासत्तणं पत्ता नियलबद्धा मुंडियसिरा अट्ठमभत्तिया एवं कप्पड़, सेसं न कप्पइ, एवं अभिग्गहं घेत्तूण कोसंबीए अच्छइ, दिवसे २ भिक्खायरियं फुसइ, किंनिमित्तं ?, बावीसं परिसहा। |भिक्खायरियाए उदिजंति, एवं चत्तारि मासे कोसंबीए हिंडइ, ताहे नंदाए घरमणुपविट्ठो, सीए सामिणो परेण ? आयरेण भिक्खा नीणिया, सामी निग्गतो, सो अद्धितिं पकया, ताहे दासीतो भणति-एस देवजगो दिवसे दिवसे | एत्थ एइ, ताहे ताए नार्य-नूणं भयवतो अभिग्गहो कोइ, ततो निरायं चेव अद्धिती जाया, सुगुत्तो अमचो, आगओ, ताहे सो भणइ-किं अद्धिति करेसि, तीए कहियं, भणइ य-किं अम्हं अमञ्चत्तणेणं? एच्चिरं कालं है सामी भिक्खं न लहइ ? किंवा तेण विनाणेण जइ एवं अभिग्गहन याणसि; तेण आसासिया, कले दिवसे, जहा भिक्खं लन्भइ तहा करेमि, एयाए कहाए वहमाणीए विजया नाम पडिहारी मियावतीर भणिया सा केणइ दीप अनुक्रम ॥ २९४॥ Janel ForFive Persanamory ... अथ "चन्दना"या: कथानक एवं तन्मध्ये भगवन्त महावीरस्य अभिग्रःअस्य वर्णनं आरभ्यते ~312~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ५१६-५१८], वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ ११४... ], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूलसूत्र-[१] “आवश्यक” निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः आ.सु. ५० Jan Education International कारणेण आगया, सा तं उल्लावं सोऊण मियावतीए साहेइ, मियावईवि तं सोऊण महया दुक्खेण अभिभूया, सा चेडगस्स घूया, अतीव अद्धिति पकया, राया य आगतो पुच्छति, भणइ किं तुज्झ रज्जेण मए वा १, अज किर चउत्थो मासो सामिस्स हिंडतस्स भिक्खाभिग्गहो न नज्जइ, न वा जाणसि एत्थ विहरतं, तेण आसासिया, वह करेमि जहा कले लभइ, ताहे सुगुत्तं अमचं सहाये अंबाडेइ य, जहा- तुमं आगयं सामि न याणसि ?, अज किर चडत्थो मासो हिंडतस्स, ताहे तच्चावादी सद्दावितो, सो पुच्छितो सवाणिएण-तुझं धम्मसत्थे सबपासंडाण आयारा आगया, ते तुमं साह, इमोवि अमच्यो भणितो- तुमंपि बुद्धिबलतो ता साह, ते भांति - बहवे अभिग्गहा, न नज्जइ कोऽभिप्पाओ ?, | दवजुत्तो खित्तजुसो कालजुत्तो भाबजुत्तो सत्त पिंडेसणातो सच पाणेसणाओ, ताहे रण्णा सवत्थ संदिट्ठा पाणसणा भत्तेसणाओ य, लोगेणवि परलोकंखिणा कयातो, सामी आगतो, न य तेहिं पगारेहिं गेव्हइ, एवं ताथ इयं ॥ इतो य सयाणितो चंप पहावितो, दहिवाहणं गेपहामि, नावाकडएणं गओ एगाए रचीए, अचिंतिया नगरी बेढिया, तत्थ दहिवाहणो पलातो, रण्णा य जग्गहो घोसितो, एवं जग्गहे घुढे दहिवाइणस्स रण्णो धारिणी देवी तीसे धूया वसुमई, सा सह घूयाए एगेण उट्टिएण गहिया, राया नियचो, सो उट्टितो चिंतेइ भइ य- एसा मे भज्जा, इमं च दारियं विकेस्सं सा | देवी तेण माणसिएण दुक्खेण धूयादुक्खेण य एसा मे भूया न नजई किं पाविहिइत्ति अंतरा चैव कालगया, पच्छा तस्स उट्टियस्स चिंता जाया, दुहु मए भणियं-महिला ममें होहितित्ति, एयं धूयं भणामि, मा एसावि मरिहिइ, तो मे मोईपि न होहिइ, ताहे तेण अणुयत्तंतेण आणीया-बीहीए उड्डिया, घणावद्देण दिट्ठा, अणलंकियठावन्ना अवस्सं For Pivote & Personal Use Only ~313~ www.sanlibrary.org Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं न, नियुक्ति: [५१६-५१८], वि०भा०गाथा ], भाष्यं [११४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत चरिते णक दीप अनुक्रम उपोद्धात- रणो ईसरस्स वा धूया एसा मा आवई पावउत्ति जत्तियं सो भणइ तत्तिएण मोडेण गहिया, वरं तेण समं गमणागमणं चन्दनानियुक्तो मे होहिइत्ति, नीया नियधरं, कासि तुमति पुग्छिया न साहइ, पच्छा तेण धूयत्ति गहिया, एवं सण्णाणिया, मूलाविन कौशाश्रीवीर- तेण भणिया-एसा तुम्भं धूया, एवं सा तत्थ जहा नियघरे तहा सुहंसुहेणं अच्छइ, तीएवि सो सदासपरियणो लोगो कम्न्यां पार |सीलेण विणएण य सबो अप्पणिज्जो कतो, ताहे ताणि सवाणि भणंति-अहो इमा सीलचंदणत्ति, ताहे से विइयपि नाम: है कयं चंदणत्ति, एवं कालो बच्चाइ, ततो ताए परिणीए अवमाणो जातो मच्छरिजइ य, को जाणइ कयाइ एस एवं पडि बजे जा! ताहे अहं घरस्स असामिणी भविस्सामि, तीसे वाला अतीव दीहा रमणिज्जा किण्हा य, सो सेट्ठी मज्झण्हं जण|विरहिए आगतो जाव नस्थि कोऽवि जो पाए पक्खालेइ, ताहे सा पाणियं गहाय निग्गया, तेण वारिया, सा मड्डाए घोवि पबत्ता, ताए धोवंतीए वाला बद्धेल्लगा छुट्टा, मा चिक्खले पडिहिंतित्ति तस्स सेठिस्स हत्थे लीलाकट्ठ तेण| धरिया बद्धा य, मूला य ओलोयणगया पेच्छद, तीए णायं-विणहूँ कर्ज, जइ एयं कहवि परिणेइ तो मम एस णत्थि, जाव तरुणतो वाही ताव तिगिच्छामि, सेष्टुिमि विणिग्गए तीए पहावियं वाहरावित्ता सा चंदणा बोडाविता नियलेहि यद बद्धा पिट्टिया य, वारियतो अणाए परियणो-जो साहइ वाणियस्स सो मे णत्थि, सा परे छोण तस्स घरस्स दारं दिन्नं पतालयं च, सो सेट्ठी आगतो पुच्छइ-कहिं चंदणा, न कोइ साहइ भएण, सो जाणंइ-नूणं रमइ उपरि वा चिटइ, एवं ॥२९५॥ रतिपि पुच्छिया, जाणइ-सा नूणं सुत्ता, बिइयदिवसेवि न दिट्ठा, तइयदिवसे घणं पुच्छइ, साहेह मा मे मारेह, ततो है। धेरदासी एका चिंतेइ-किं मम जीविएण?, सा जीवउ वराई, ताए कहियं-अमुयघरे, तेण उग्घाडिया दारा, पेच्छइ छुहाहयं । KARAN and remona ~314 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं न, नियुक्ति: [५१६-५१८], विभा गाथा H], भाष्यं [११४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: २५.५** प्रत सत्राक चंदणं, ततो कूरं पमग्गितो, जाव समावत्तीए नस्थि, ताहे कुम्मासा दिवा, ते सुप्पकोणे घेत्तूण तीसे दिना, सेट्ठी लोहकारघरं गतो, नियलाणि छिदावेमि, ताहे साहस्थिणीव कुलं संभारिउमारद्धा एलगं विक्खंभइचा, तेहिं पुरतोकतेहिं अग्भतरतो रोयइ, सामी आगतो, ताए वितिय-सामिस्स देमि, मम एयं अहम्मफलं, भण-भय कप्पइ, सामिणा पाणी । पसारितो, चउचिहोऽवि पुन्नो अभिग्गहो, पंच दिवाणि पाउन्भूयाणि, ते वाला तदवत्था चेव जाया, नियलाणि फिट्टाणि, सोवन्नयाणि नेउराणि जायाणि, देवेहि य सबालंकारा कया, सको देवराया आगतो, वसुहाराए पमाणं अडतेरस ते हिरण्णकोडी, कोसंबीए य सवतो उग्घुटुं-केणइ पुण्णमंतेण अज सामी पडिलाहितो, ताहे राया संतेउरपरियणो । आगतो, तस्थ संपुलो नाम दहिवाहणस्स कंचुकी, सो रण्णा बंधित्ता आणीतो, सोऽवि रण्णा सह तत्थागतो, तेण ।। हसा चंदणा पञ्चभिजाणिया, पच्छा पाएमु पडिऊण परुनो, राया पुच्छति-का एसा, तेण से कहियं, जहा-एसा दहिवाहतणस्स रपणो दुहिया, मियावती भणइ-मम भगिणीधूया, अमच्चोवि सपत्तीतो आगतो, सामी वंदइ, सामी विनिग्गतो, ताहे राया तं वसुहारं पगहिओ, सक्केण वारितो, जस्स एसा देइ तस्स आभवइ, सा पुच्छिया भणइ-मम पिउणो, ताहे सकेण सयाणितो भणितो-एसा परमसरीरा एवं संगोवाहि जाव सामिस्स नाणं उपज, एसा पढमसिस्सिणी, ताहे कन्नतेउरे छुढा संचिट्ठइ, छम्मासा तया पंचहिं दिवसेहिं ऊणगा अभिग्गहस्स गहियस्स जाया जदिवसं सामिणा भिक्खा 1लद्धा, सावि मूला लोगेण अंबाडिया हीलिया य । अमुमेवार्थ सञ्जिघृक्षुराह- . कोसंबीह सयाणिअ अभिग्गहो पोसबहुलपाडिवए । चाउम्मासि मिगावद विजय सुगुत्तो अनंदा य ॥१९॥ RAMA दीप अनुक्रम ***%%*24..... 4 ForPivate Permaneumony ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्तिः ) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [५१९-५२०], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक % उपोद्घात- IIतचावाई चंपा दहिवाहण वसुमई अपीअनामा । धणवह मूलाऽऽलोअण संपुल दाणे अ पवजा ॥५२०॥ तचावा अभियान निर्यको ततो भगवान् कौशम्बी नगरी गतः, तत्र शतानीको राजा मृगापतिर्देवी, भगवता च पोपमासबहुलपक्षे प्रतिपदियो श्रीवीर अभिग्रहो गृहीता, प्रतिदिवसं च भिक्षामटतो भगवतश्चत्वारो मासा अतिक्रान्ताः, अन्यदा भगवान् नन्दाया गृहे गतः, चरिते तया आनीता भिक्षा न गृहीता, ततः सुगुप्तोऽमात्य आगतः, तयोश्च भगवद्भिक्षाविषये संलापे मृगापतिदेवीसका विजया प्रतीहारी समागता मृगापतिदेव्या अचकयत्, तया प्रोत्साहितेन राज्ञा तथ्यवादी धर्मपाटक आकारिता, ॥२९६॥ सोऽभिग्रहान् विचित्रान् कथितवान् । ततश्च चम्पायां दधिवाहनो राजा, तस्य मुता चन्दना द्वितीयनाम्ना वसुनती, सा कोशाम्ध्यामौष्ट्रिकेणानीता, धनावहेन गृहीता, अन्यदा धनावहस्य पादो प्रक्षालयन्ती तां तस्याः केशपाशं च। धनायहेन लीलाकम्बिकया संयम्यमानं मूला अवलोकनगता प्रलोकितबती, ततो मात्सर्यात तथा चन्दना निगडिता, ततो भगवतो दाने सम्पुलनामा कञ्चकी चन्दनाया मिलितः, ततो भगवतः समीपेऽनया प्रत्रग्चा गृहीष्यते इति शक्रवचनतो राज्ञा चन्दना सङ्गोपिता ॥ है। ततो सामी कोसंबीतो निग्गंतूण सुमंगल नाम गामं गतो, तत्थ सणंकुमारो एइ वंदति पियं च पुच्छइ, तत्थ पढम सिंदीकंदगनिवारणत्यमागतो संपर्य पुण पियपुच्छतोत्ति । ततो सामी सुच्छेत्तं गतो, तुत्थ माहिंदो पियपुच्छतो एप, ततो सामी पालगं नाम गामं गतो, तत्थ वाइलो नाम वाणिओ जत्ताए पधावितो सामि ग्रेच्छइ, ततो सो अमंगलंतिकाऊण असिं गहाय पधावितो एयरस फल उत्ति, तस्थ सहत्थेण सिद्धत्येण सीस छिन्नं । अमुमेवार्थमाह दीप अनुक्रम -0 %----%48 ANRNA-%- ॥२९६ KA4 and the ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [५२१-५२२], वि०भा०गाथा ], भाष्यं [११४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक HI तसो अ सुमंगल सणंकुमार सुच्छित एइ माहिदो। वालुय वाइल वणिए अमंगलं अप्पणो असिणा ॥ ५२१ ॥२ I ततो भगवान सुमङ्गलं नाम ग्रामं गतः, तत्र सनत्कुमारो देवन्द्रः प्रियपृच्छक आगतः, ततः सुक्षेत्रायां भगवान जगाम, सत्र माहेन्द्रः प्रियपृच्छक आगमत् , तदनन्तरं पालकं नाम ग्राम स्वामी गतः, तत्र वाइलो नाम वणिक् देशान्तरं गच्छन् अमङ्गलमितिकृत्वा भगवत उपरि खड्गमुद्गीर्य प्रधावितः, तत आत्मना स्वहस्तेन असिना विनाशितः॥ । । ततो सामी चंपं नयरिं गतो, तत्थ सोमदत्तमाहणस्स अग्निहोत्तसालाए वसहिं उवगतो, तत्थ चाउम्मासं खमइ, तत्य दुवे जक्खा पुनभद्दमाणिभद्दा रत्तिं पञ्जुवासंति, चत्तारि मासे रति रति पूर्य करेंति, ताहे सो चिंतेइ-किंपि। जाणइ एस तो देवा महेंति, ताहे विनासणनिमित्तं पुच्छइ-को ह्यात्मा, भगवानाह-योऽहमित्यभिमन्यते, स कीदृशः,, सूस्मोऽसौ, किंवत् सूक्ष्म 1, यदिन्द्रियैर्ग्रहीतुं न शक्यते इति, तथा किंतं ते पदेसणय ? किं पञ्चक्खाणं १, भगवानाह-11 साइदचा! दुविई पदेसणगं-पम्मियं अधम्मियं वा, पदेसणगं नाम उपदेशा, पञ्चक्खाणे दुविद्दे-मूलपचखाणे उत्तरपञ्चक्खाये य, पपहिं पाहिं तस्स नवगयं । अमुमेवार्थमाह चंपा वासावासं जक्खिदो साइदत्त पुच्छा य । वागरण दुह पएसण पचक्खाणे अ दुविहे अ॥ ५२२ ।। भगवान् चम्पायां वर्षावासं कृतवान्, तब द्वौ यक्षेन्द्रौ भगवतो महिमा कृतवन्तौ, ततः स्वातिदत्तस्य प्राह्मणस्य पा, भगवतो व्याकरणं, द्विषिर्ष प्रदेशनं विविध प्रत्याख्यानमिति ॥ ततो भयवं चंपातो निग्गतो जंभियगामं दीप अनुक्रम Jan Education a wavevsanelibrary.com ~317~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [५२३], विभा गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं F /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुमंगलादिविहारः शल्यक्षेपनिष्कासने सत्राक दीप अनुक्रम उपोद्धात- 1गतो, तत्व सक्को आगतो बंदित्ता पूइत्ता नट्टविहिं उवदंसित्ता वागरेर-जहा एत्तिएहिं दिवसेहिं केवल नाणमुप्पजिहिइ नियुक्ती तितो सामी मिडियगार्म गतो, तत्थ चमरो वंदतो पियपुच्छओ य एइ, वंदित्ता पुच्छित्ता य पडिगतो। अमुमेवार्थमाह- श्रीवीर- जंभियगामे नाणस्स उप्पया वागरेइ देविंदो । मिढियगामे चमरो वंदण पियपुच्छणं कुणइ ॥ ५२३ ॥ चरिते जम्भिकग्रामे देवेन्द्रः-शको ज्ञानस्योत्पादं व्यागृणाति, तथा मिण्ढिकग्रामे चमरो वंदनं प्रियपृच्छनं करोति ॥ ततो भयवं छम्माणिं नाम गामं गतो, तस्स बाहिं पडिमं ठितो, तत्थ सामिसमीवे गोयो गोणे छड्डेऊण गाम पविट्ठो, ॥१९७॥ दोहणाणि काऊण निग्गतो, ते य गोणा अडयिं पविट्ठा चरियनगरस निमित्तं, ताहे सो आगतो पुच्छइ-देवजग! कहिं ते । वाला ?, भयवं मोणेण अच्छइ, ताहे सो परि कुवितो भयवतो कण्णेसु कडसलागातो छुभइ, एगा इमेण कनेण एगा इमेण कन्नेण जाव दोनिवि मिलिया, ताहे मूले भग्गाओ, मा कोइ उक्खणिहिइ, केइ भणंति-एका चेव जाव इयरेण कण्णण निग्गया तओ भग्गा । कण्णेसु तऊ तत्तं गोवस्स कयं तिविद्गुणा रना । कन्नेसु बद्धमाणस्स तेण छुदा कडसलागा॥१॥ भयवतो तद्दारवेयणिज कर्म उइन्नं, ततो सामी मज्झिम पावं गतो, तत्थ सिद्धत्यो नाम वाणियतो, तस्स घरमागतो, तस्स य मित्तो खरतो नाम बेजो, ते दोऽवि सिद्धत्थघरे अच्छंति, सामी भिक्खस्स पविद्रो, वाणिकायतो वंदइ थुणइ य, बेजो तिस्थयरं पासिऊण भणइ-अहो भयवं सवलक्खणसंपुनो, किंतु ससलो, ततो सो वाणियतो संभंतो भणइ, पलोएहि कहिं सलो, तेण पलोयंतेण दिहो कण्णेसु, तेण वाणिपण भन्नइ-नीणेहि एवं महातवसिस्स, है।पुन होहिइ तववि मज्झवि, भणइ-निप्पडिकम्मो भयवं न इच्छइ, ताहे पडियरावितो जाव दिडो उजाणे ताव पडिम | ॥२९७॥ and remona wiewsanelibrary.orm ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [ ५२४ ], वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [११४... ], मूल [- / गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education International ठितो, ते ओसहाणि गहाय गता, तत्थ भयवं तेलदोणीए निघण्णावितो मक्खितो य, पच्छा बहुएहिं पुरिसेहिं जंतितो अकंतो य, पच्छा संडासरण गहाय कड्डियातो, तत्थ सरुहिरातो सलागातो अंछियातो, तासु य अच्छिजंतीसु भगवया आरसियं, ते य मणूसे उप्पाडित्ता उट्ठितो, महाभेरवं तत्थ उज्जाणं जायं, देउलं च पच्छा संरोहणी ओसड़ी दिण्णा, ततो ताहे चैव भवनं पउणो जातो, ततो वंदित्ता खामित्ताय गता । एतदेवाह छम्माणि गोवकडस पवेसणं मज्झिमाइ पावाए। खरओ विज्जो सिद्धस्थ वाणिओ नीहरावेह ।। ५२४ ।। भगवान् छम्माणियानाम ग्रामं गतः, तत्र गोपेन भगवतः कर्णयोः कटशलाका प्रवेशनं कृतं ततो भगवान् मध्यमपापायां गतः, तत्र खरको वैद्यस्तत्पार्श्वात् सिद्धार्धनामा वणिक् ते कटशलाके निर्धारयति । इह सधेसु किर उवसग्गेसु कयरे दुबिसहा १, उच्यते- कडपूयणासीयं कालचकं एयं च सलं निकहिज्जत, अहवा जह नगाण उवरिं कडपूयणासीयं, मज्झिमाण कालचके, उक्कोसगाणमुवरिं समुद्धरणं । गोवेण आरद्धा उवसग्गा गोवेण गिट्टिया । एसो गोवो सत्तमिं गतो, खरतो सिद्धच्यो य एए दोऽवि तिद्यमवि वेयणमुदीरंता विमुद्धता देवलोगं गता । ततो सामी जंभियगामं गतो, तस्स बहिया वैयावत्तस्स चेइयस्स अदूरसामंते उज्जुयालियाए नदीए तीरे उत्तरिले कूले | सामागस्स गाहावइस्स कटुकरणे, कटुकरणं नाम छेत्तं, सालपायवस्स अहे उकुडुयनिसजाए गोदोहियाए आयावणाए आयावेमाणस्स छण भत्तेणं अपाणएणं बारसहिं संच्छरेहिं वक्कतेहिं तेरसमस्स संच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स वइसा| हयुद्धदसमीए पाईणगामिणीए छायाए पमाणपत्ताए पोरिसीए सुधएणं दिवसेणं विजएणं मुहुत्तेणं इत्थुत्तरा नक्खत्तेणं ... अथ भगवन्त महावीरस्य केवलज्ञानोत्पत्ति वर्णनं आरभ्यते For Pivote & Personal Use Ony ~ 319~ www.sanelibrary.org Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं न, नियुक्ति: [५२५-५२८], वि०भा०गाथा ], भाष्यं [११४...], मूलं [- /गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीवीरख केवळ प्रत पोवात- जोगमुवागएणं झाणतरियाए वट्टमाणस्स एगंतवियर्फ वोठीणस्स सुहुमकिरियं झाणमपञ्चस्स अणुचरकेवळ नाणदसणं नियुकीतच समुप्पनं । एतदेव सझेपत आहश्रीवीर जंभिप बहि उजुवालिय तीरषिपावत्त सामसालअहे । छटेणुक्कुटुयस्स उ उप्पानं केवलं नाणं ५२५॥ चरिते जृम्भकग्रामस्य बहिः, 'वियावत्त'त्ति वियावृत्तं नाम अव्यकं, पतितराटितमप्रकटमिति भावः, तस्य चैत्यस्वादूरे राज पालिकानदीतीरे श्यामाकस्य गृहपतेः क्षेत्रे शालवृक्षस्याप उरकुडुकस्य भगवतः पठेन केवलज्ञानमुत्पन्न । तत्र तपसा। १२९८॥ केवलज्ञानं समुत्पन्नमिति यद्भगवता तपः सेवितं तदनिधित्मुराह18 जो अतवो अणुचिन्नो वीरवरेणं महाणुभावणं । छउमस्थकालियाए अहम कित्तास्सामि ॥५२॥ यच तप आचरितं वीरवरेण महानुभावेन छद्मस्थकाले, यत्तदोनित्याभिसम्बन्धात् तद् यथाक्रम-येन क्रमेणानुचरित। भगवता तथा कीर्चयिष्यामि ॥ तच्चेदम् नव फिर चाउम्मासे सिर दोमासिए उवासी । बारस य मासिपाई यावत्तरि अद्धमासाई॥ ५२७ ।। | नव किल चातुर्मासिकानि, षट् किल द्विमासिकानि उपोषितवान्, किलशब्दः परोक्षाप्तागमवादसंसूचका, द्वादश मासिकानि द्विसमतिमर्द्धमासिकानि उपोषितवानिति क्रियायोगः ॥ एर्ग किर छम्मासं दो किर तेमासिए उवासीय । अट्ठाइजा य दुवे दो चेव दिवड्डमासाई॥५२८॥ एक किल पण्मासं हे किल त्रैमासिकेचपोषितवान्, ग्धा अर्बतृतीयमासनिम्पनं तपोऽर्द्धतृतीयं ते अतृतीये के पशब्दः दीप अनुक्रम २९८॥ Jan Form Kaviewsanelibrary.orm ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ वि० भा० गाथा [-] भाष्यं [ ११४... ], मूल [- / गाथा-] मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः अध्ययनं [-] निर्युक्तिः [५२९-५३२ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०], क्रियानुकर्षणार्थः, द्वे एव च व्यर्द्धमासे, द्वितीयमर्द्ध ययोस्ती व्यद्धौं २ मासौ यस्य तद् व्यर्द्धमासं ते व्यर्द्धमासे तपसी कृतवान्, म च महाभ पडिमं तत्तो अ सहओमदं । दो चत्तारि दसेव य दिवसे ठासीयमणुबद्धं ॥ ५२९ ॥ भद्रां महाभद्रां सर्वतोभद्रां च प्रतिमां यथाक्रमं द्वौ चतुरो दश च दिवसान् अनुबद्धं-सन्ततमपान्तराले पारणकमकृत्वेति भावः स्थितवान् । गोमरमभिग्गहजुअं खमणं छम्मासिअं च कासी अ । पंचदिवसेहिं ऊणं अवहिओ वच्छनयरीए ॥ ५३० ।। गोचरे अभिग्रहः गोचराभिग्रहस्तेन युतं गोचराभिग्रहयुतं क्षपणकं पाण्मासिकं पञ्चभिर्दिवसैरूनमव्यथितः - अपीडितो वत्सनगर्या कोशाम्ब्यामकार्षीत् ॥ दस दो अरि महम्पा ठाइ मुणी एगराइयं पडिमं । अट्टममत्तेण जई इक्किकं चरमराई अ ।। ५३१ ॥ दश द्वे च सर्वसया द्वादश किल एकरात्रिकी प्रतिमा, सूत्रे चैकवचनं प्राकृतत्वात्, महात्मा मुनिः 'ठाति'त्ति स्थितवान् कथं स्थितवानित्याह-एकैकां च प्रतिमां अष्टमभक्तेन-त्रिरात्रोपवासेन चरमरात्रिकी- चरमरजनीनिष्पन्नां प्रतिवतिचि अयतिष्ट प्रयत्नवान् ॥ दो चैव य छुट्टसर अडणातीसे उवासिओ भयवं । न कयाह निवभत्तं चत्थभत्तं च से आसि ॥ ५३२ ॥ द्वे व ते एकोनत्रिंशे एकोनत्रिंशदधिके भगवान् उपोषितवान् एवं च न कदाचिन्नित्यभक्तं चतुर्थभक्कं 'से' तस्थासीत् ॥ For Pivote & Personal Use Ony ~321~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [५३३-५३७], वि०भा०गाथा H, भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: उपोद्धात नियुक्ती प्रत श्रीवीर चरिते [-] ।।२९९॥ बारस पासे अहिए उ8 भत्तं जहन्नयं आसि । सवं च तवोकम्मं अपाणयं आसि वीरस्स ॥ ५३३॥ श्रीवीरस्य द्वादश वरुण्यधिकानि भगवतश्छद्मस्थस्य सप्तः षष्ठं भक्तं-ब्यहोरात्रोपवासरूपं तपो जघन्यकमासीत्, सर्व च। तपः तपःकम अपानकमासीत् वीरस्य, न तपःकर्म कुर्वन् पानीयमभ्यवहतवान् भगवानिति भावः ॥ पारणककालमान-16 संकलना प्रतिपादनार्थमाह तिमि सए दिवसाणं अउणापने य पारणाकालो । उकडअनिसिजाए ठियपडिमाणं सए बहए ॥५३४॥ है। त्रीणि शतानि एकोनपश्चाशानि-एकोनपश्चाशदधिकानि दिवसानां पारणककालो भगवतः, तथा उत्कुटुकनिषद्यायां 4 स्थितप्रतिमानां बहूनि शतानि ।। पहनाए दिवसं पढम एत्थं तु पक्खिवित्ताणं । संकलियम्मि उ संते जं लद्धं तं निसामेह ।। ५३५ ॥ प्रवज्यायाः सम्बन्धिन दिवसं प्रथमं अत्र-उक्तलक्षणदिवसगणने प्रक्षिप्य सङ्कलिते सति यल्लब्धं तन्निशामयत-आकर्णयत॥ बारस चेव य वासा मासा छम्चेव अद्धमासो अ । वीरवरस्स भगवओ एसो छउमस्थपरियाओ॥५३६॥ वीरवरस्य भगवत एषः-एतावत्प्रमाणः छद्मस्थपर्यायस्तद्यथा-द्वादश वर्षाणि षण्मासा अर्द्धमासश्च ॥ एवं तवोगुणरओ, अणुपुत्रेणं मुणी विहरमाणो । घोरं परिसहचमू अहिआसित्ता महावीरो ॥५३७॥ दीप अनुक्रम wiewsaneliterary.cre ~322 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) "आवश्यक'- मूलसूत्र-१ (नियुक्ति:+वृत्ति:) भाग-२ अध्ययनं H, नियुक्ति: [५३८-५३९], वि०भा०गाथा H], भाष्यं [११४...], मूलं [-/गाथा-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०], मूलसूत्र-[१] "आवश्यक नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत * सत्राक * * ** | एवम्-उक्तेन प्रकारेण तपोगुणेषु रतस्तपोगुणरतः आनुपूर्येण-क्रमेण मुनिर्विहरन् घोरां रौद्रां परीषहचम-परिपहसेनामधिसह्य महावीरः॥ उप्पन्नंमि अर्णते नट्टम्मि अछाउमथिए नाणे । राईए संपत्तो महसेणवणम्मि उजाणे ॥ ५३८॥ उत्पन्ने-प्रादुर्भूते अनन्ते-अनन्तज्ञेयविषये, कस्मिन् ?-ज्ञाने-केवल ज्ञाने, नष्टे च छानस्थिके मत्यादिरूपे ज्ञाने, देशज्ञानव्यवच्छेदेन केवलज्ञानसभावाद्, भावितं चैतत् प्रथमपीठिकायां, रात्रौ सम्प्राप्तो महसेनवने उद्याने, किमिति चेत् । उच्यते,भगवतो ज्ञानरलोत्पत्चिसमनन्तरमेव देवाश्चतुर्विधा अप्यागता आसन , अत्यद्भुतां च प्रहर्षवन्तो ज्ञानोत्पादमहिमा चक्रुः, तत्र भगवान् अवबुध्यते-नात्र कश्चित्प्रव्रज्याप्रतिपत्ता विद्यते, तत एतद्विज्ञाय न विशिष्टधर्मकथनाय प्रवृत्तवान् , केवलं कल्प एषः-यत्र ज्ञानमुत्पद्यते तत्र जघन्यतोऽपि मुहर्त्तमात्रमवस्थातव्यं देवकृता च पूजा प्रतीच्छ नीया धर्मदेशना| हाच कर्तव्येति सहेपतो धर्मदेशनां कृत्वा द्वादशसु योजनेषु मध्यमा नाम नगरी, तत्र सोमिलाख्यो नाम ब्राह्मणः, सामा | यज्ञं यष्टुमभ्युद्यतः, तत्र चैकादशोपाध्यायाः खल्वागताः, ते च चरमशरीरा भवान्तरोपार्जितगणधरलब्धयश्च, तान् | विज्ञायासोयाभिर्देवकोटीभिः परिवृतो देवोद्योतेन दिवस इवाशेष पन्थानमुद्योतयन् देवपरिकल्पितेषु सहस्रपत्रेषु नवनीतस्पर्शेषु पोषु चरणन्यासं विदधानो मध्यमनगयाँ महसेनवनोधानं सम्प्राप्तः॥ अमरनररापमहिओ पत्तो वरधम्मचकवहितं । बीपि समोसरणं पावाए मजिझमाए उ ॥ ५३९ ॥ अमरा-देवाः नरा-मनुष्याः तेषां राजानस्तैर्महितः-पूजितः माधो धर्मवरचक्रवत्तित्व-धर्मवरप्रभुत्वं, द्वितीयं पुनः t% दीप अनुक्रम समककRSSIS - - ForFive Persanamory Kaviewsanelibrary.orm ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] उपोद्घातनिर्युक्तौ श्रीवीर चरिते ॥ ३००॥ Jan Education “आवश्यक”- मूलसूत्र-१ (निर्युक्तिः + वृत्तिः) भाग-२ वि०भा० गाथा [-] भाष्यं [ ११४... ], अध्ययनं [-], निर्युक्तिः [ ५४०-५४२ ], मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०], मूल [- / गाथा-] मूलसूत्र-[१] "आवश्यक" निर्युक्तिः एवं मलयगिरिसूरि-रचिता वृत्तिः समवसरणं, अपिशब्दः पुनरर्थे, पापायां मध्यमायां प्राप्त इत्यनुवर्त्तते । ज्ञानोत्पत्तिस्थानकृतपूजापेक्षया चास्य द्वितीयता ॥ श्रीवीरस्व तत्थ किर सोमलिजोति माहणो तस्स दिक्वकालम्मि । पउरा जणजाणवया समागया जन्नवाडम्मि ॥५४०॥ * महसेन सतत्र --- पापायां मध्यमायां किलशब्दः पूर्ववत्, सोमिलः आर्य इति ब्राह्मणः तस्य दीक्षाकाले - यागकाले पौरा - ९मत्रसरणं विशिष्टनगरनिवासिलोका जनाः- सामान्यलोका जानपदा - नानाजनपदभवा लोकाः समागता यज्ञपाटे । अत्रान्तरे एते अ विवित्से उत्तरपासम्मि जन्नवादस्स । तो देवदाणविंदा करिंति महिमं जिनिंदस्स ॥ ५४१ ॥ एकान्ते विविके यज्ञपाटस्योत्तरपार्श्वे ततो देवदानवेन्द्रा जिनेन्द्रस्य महिमां कुर्वन्ति, पाठान्तरं च- 'कासी महिमं जिनिंदस्स' कृतवन्त इत्यर्थः । अमुमेवार्थ सविशेषं भाष्यकार आह भवणवईयाणमंतर जोइसवासी विमाणवासी य । सबिडीह सपरिसा कासी नाणुप्पयामहिमं ॥ ५४२ ॥ भवनपतिब्वन्तरज्योतिर्वासिनो विमानवासिनश्च सपर्षदः सर्वर्षा ज्ञानोत्पत्तिमहिमामकार्षुः कृतवन्तः ॥ आवश्यक मलयगिरिजी वृत्तेः पूर्वार्धस्य द्वितीयो भाग समाप्तः तृतीय भागस्य आरंभ: निर्युक्तिः [५४३] कृतः अत्र या गाथा निर्युक्ति: ५४२ रूपेण दर्शिताः सा गाथा हारिभद्रिय वृतौ भाष्य ११५ रुपेण ख ॥ १०० ॥ आवश्यक- मूलसूत्र- [४० / १] निर्युक्ति एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ताः मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी | [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] ~324~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 40/2 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च "आवश्यक-मूलसूत्र” [नियुक्ति: एवं मलयगिरिसूरिजी-रचिता वृत्तिः] (किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "आवश्यक" नियुक्ति: एवं वृत्ति:” नामेण परिसमाप्तः Remember it's a Net Publications of 'jain_e_library's' ~325