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छअनुस्सतिनिद्देसो
अत्वा तेसु निब्बिन्दन्तो विरज्जन्तो विमुच्चन्तो वुत्तप्पकारस्स इमस्स संसारचक्कस्स अरे हनि विहनि विद्धंसेसि। एवं पि अरानं हतत्ता अरहं।
अरा संसारचक्कस्स हता आणासिना यतो।
लोकनाथेन तेनेस अरहं ति पवुच्चति ॥ अग्गदक्खिणेय्यत्ता च चीवरादिपच्चये अरहति, पूजाविसेसं च। तेनेव च उप्पन्ने तथागते ये केचि महेसक्खा देवमनुस्सा, न ते अज्ञत्थ पूजं करोन्ति । तथा हि ब्रह्मा सहम्पति सिनेरुमत्तेन रतनदामेन तथागतं पूजेसि। यथाबलं च अजे देवा मनुस्सा च बिम्बिसारकोसलराजादयो। परिनिब्बुतं पि च भगवन्तं उद्दिस्स छन्नवुतिकोटिधनं विस्सज्जेत्वा असोकमहाराजा सकलजम्बुदीपे चतुरासीतिविहारसहस्सानि पतिट्ठापेसि। को पन वादो अजेसं पूजाविसेसानं ति पच्चयादीनं अरहत्ता पि अरहं।
पूजाविसेसं सह पच्चयेहि यस्मा अयं अरहति लोकनाथो।
अत्थानुरूपं अरहं ति लोके तस्मा जिनो अरहति नाममेतं ॥ यथा च लोके ये केचि पण्डितमानिनो बाला असिलोकभयेन' रहो पापं करोन्ति, एवमेस न कदाचि करोती ति पापकरणे रहाभावतो पि अरहं।
यस्मा नत्थि रहो नाम पापकम्मेसु तादिनो। रहाभावेन तेनेस अरहं इति विस्सुतो॥
ज्ञात होने के अर्थ में ज्ञान है, प्रकृष्टरूप से (=विशेषरूप से) जानने के अर्थ में प्रज्ञा है, इसलिये कहा जाता है कि "प्रत्यय का ग्रहण करने वाली प्रज्ञा धर्मस्थिति ज्ञान है।'' इस धर्मस्थितिज्ञान से भगवान् ने उन धर्मों को यथार्थरूप में जानकर, उनके प्रति निर्वेद रखते हुए उक्त दस प्रकार के इस संसार-चक्र के अरों का हनन किया, विनाश किया, विध्वंस किया। इस प्रकार भी अरों का हनन करने से वे अरहं हैं। - क्योंकि संसार-चक्र के अरों को लोकनाथ ने ज्ञान की तलवार से काट डाला, अत: ये अर्हन्त कहे जाते हैं।
___ अग्र दक्षिणेय (=सबसे प्रथम दक्षिणा देने योग्य) होने से, चीवर आदि प्रत्ययों के योग्य हैं, विशेष पूजा के भी। इसीलिये तो तथागत के उत्पन्न हो जाने पर, कोई भी महाप्रतापी देवता
और मनुष्य किसी अन्य की पूजा नहीं करते; अतएव ब्रह्मा सहम्पति ने सुमेरु के परिमाण की रत्नमाला से तथागत की पूजा की थी, और यथाशक्ति दूसरे देवों ने और (मगध के) राजा बिम्बिसार तथा कोशलराज ने भी। (भगवान् के) परिनिवृत हो जाने पर भी, भगवान् के लिये उद्देश्य कर, महाराज अशोक ने समस्त जम्बू द्वीप में चौरासी हजार विहारों का निर्माण करवाया था। फिर दूसरे बाकी छोटे-बड़े राजाओं के द्वारा की गयी विशेष पूजा की तो बात ही क्या है ! इस प्रकार पच्चयादीनं अरहत्तापि अरहं कहा गया है।
१. असिलोकभयेना ति। अकित्तिभयेन। २. पापहेतूनं बोधिमण्डे एव सुप्पहीनत्ता।