Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
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छिपाने के प्रयत्न होते हैं, हितैषी श्रावक-श्राविका को उल्टी डांट पड़ती है, या समाज में उन्हें बहिष्कृत कराने तक के हथकंडे चलते हैं। यह श्रावक-श्राविका की आशातना नहीं तो क्या है? बल्कि कई बार तो हितैषी श्रावक-श्राविकाओं द्वारा प्रेम से साधु-साध्वियों को सावधान किये जाने पर या तो उन्हें डांटा जाता है कि “क्या तुममें अवगुण नहीं है? पहले तुम ही सुधर जाओ, आदि।"
इस प्रकार के शब्द या दुर्व्यवहार श्रावक-श्राविकावर्ग की अविनय-आशातना के ही लक्षण हैं। इसी प्रकार संघ में किसी श्रावक की परिस्थिति खराब हो, आर्थिक तंगी हो और उसके कारण वह अनीति की राह पर चलने को मजबूर हो रहा हो तो उस समय साधुवर्ग उपेक्षा कर दे, उसके लिए सम्पन्न श्रावकवर्ग को अपना धर्म न समझाए, कमजोर हालत वाले श्रावकों की बात को ठुकरा दे तो सचमुच वहाँ भी आशातना का दोष छिपा है।
मतलब यह है कि साधु-साध्वियों के लिए श्रावक-श्राविका की आशातना करना दोष है, वैसे ही श्रावक-श्राविकाओं द्वारा साधु-साध्वियों की आशातना करना दोष है। बाहर से तो 'मत्थएण वंदामि' या 'इच्छामि खमासमणो वंदिउं' कह कर साधु-साध्वियों को वन्दन किया जाता हो; लेकिन उपाश्रय की सीढ़ियों से उतरते ही उनकी निन्दा, चुगली, उनके अवर्णवाद, उनके प्रति घृणा फैलाने के कार्य शुरू किये जाते हों तो यह विनय का नाटक घोर कर्मबन्धन का कारण है, सरासर आशातना है, अविनय है । इसी प्रकार साधु साध्वियों द्वारा कही हुई हितकारी; सच्ची बात को श्रावक-श्राविका ठुकरा दें, उनकी तौहीन करने लग जायं, उनके बताए हुए शुद्ध धर्ममार्ग पर न चलें, युगबाह्य विकासघातक कुप्रथाओं, तथा हानिकर रुढ़ियों से साधु-साध्वी निकालना चाहें लेकिन श्रावकवर्ग टस से मस न हो; उलटे, उनके इस सुधार कार्य में रोड़े अटकाने का प्रयत्न करे तो यह भी साधु-साध्वियों की अविनय-आशातना है।
श्रावक की भी आशातना न करने के रूप में विनय का ज्वलन्त और प्रेरक उदाहरण हमें उपासकदशांगसूत्र के पन्नों पर मिलता है—गणधर गौतमस्वामी और आनन्द श्रमणोपासक का। ये दोनों ही भ. महावीर के संघ की शोभा थे। दोनों की जीवनभूमि पर धर्म साकार होकर उतरा था। दोनों ही भ. महावीर की कृपा के पात्र थे।
वाणिज्यग्राम के बाहर अपनी पौषधशाला में आनन्द श्रावक ने अपने जीवन के सन्ध्याकाल में संलेखनासंथारा किया। इस तप:साधना के कारण आनन्द का शरीर दुर्बल हो गया था। उठने-बैठने की शक्ति नहीं रही। धर्म-साधना करते-करते आनन्द को अवधिज्ञान हो गया था। गंभीर व्यक्ति सम्पत्ति पा कर कभी छलकता नहीं । आनन्द ने अपनी ऋद्धिसिद्धि का विनय के प्रकार
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