Book Title: Vijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Author(s): Navinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
Publisher: Vijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
View full book text
________________
उनके धर्मकार्यों में सहानुभूति रखना, सहयोग देना, अच्छा कार्य कोई भी साधु-साध्वी कर रहे हों उनकी तौहीन न करना, उनके कार्यों में रुकावट न डालना, हस्तक्षेप न करना, बल्कि श्रद्धापूर्वक चलना । इसका मतलब यह भी नहीं है कि दूसरे गणों और कुलों के प्रति अविनय करना, घृणा, द्वेष, संघर्ष या वैरविरोध करना । क्योंकि ऐसा करना संघ का अविनय करना होगा। संघ व्यापक है, उसमें तो सभी गणों और कुलों का समावेश हो जाता है। आज साम्प्रदायिक व्यामोह के कारण एक-दूसरे सम्प्रदायों में परस्पर संघर्ष, वैर-विरोध, नीचा दिखाने की वृत्ति, कलह आदि राग-द्वेषयुक्त कार्य हो रहे हैं; वीतरागता की वृत्ति के नहीं। यह सारे कार्य संघ एवं तीर्थंकर के प्रति अविनय के द्योतक हैं।
संघ-विनय साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका चारों मिलकर चतुर्विध संघ कहलाता है। इस चतुर्विध संघ का बहुमान, श्रद्धा-भक्ति, गुणगान, और अनाशातना आदि के रूप में विनय करना संघ-विनय है। संघ में परस्पर विचारभेद या आचारभेद हो तो उसको ले कर संघर्ष, क्लेश, या द्वेष या वैरविरोध पैदा न करना, बल्कि सहिष्णु बन कर परस्पर समन्वय स्थापित करने का प्रयल करना। मूर्तिपूजा-अमूर्तिपूजा; मुखवस्त्रिका, दण्डग्रहण-दण्ड का अग्रहण, तिथिचर्चा, सचित्त-अचित्तचर्चा, आदि छोटी-छोटी उत्तरगुण की बातों को लेकर बवण्डर मचाना, द्वेष बढ़ाना और एक दूसरे को मिथ्यात्वी कहना, गालीग़लौज पर उतर आना, परस्पर पर्चेबाजी करना ये सारे कृत्य संघ एवं संघस्थापक (तीर्थंकर) के प्रति अविनय के हैं। भ. महावीर के महापुत्र इस तरह परस्पर लड़ें, और कर्मबन्धन करें, यह संघ का अविनय है।
_ 'नमो लोए सव्वसाहूणं' मंत्र में किसी भी एक सम्प्रदाय (दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी या तेरापंथी) गच्छ, कुल अथवा धर्मसंघ के ही नहीं; वरन् साधुत्व की साधना में परायण जगत् के समस्त साधु-साध्वियों को नमस्कार करने का उल्लेख है। यहाँ किसी एक अमुक सम्प्रदाय या धर्मसंघ का भी पक्ष नहीं लिया गया है। क्योंकि यह धर्म वीतराग का है; निष्पक्ष पुरुषों का है। चाहे किसी भी वेष में कोई भी साधु-साध्वी (चाहे मुनि, भिक्षु, ऋषि कहलाते हों), जो सत्य अहिंसादि महाव्रतों की साधना करते हों, वे सब पूजनीय, वन्दनीय और आदरणीय हैं। उत्तरगुणों के पालन में क्रियाकाण्डों या धर्म साधनों में अन्तर हो सकता है, सो भले रहे, परन्तु उन्हें गुण को देखना है। क्योंकि कहा है
'गुणेहि साहू'
विनय के प्रकार
२३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org