Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम-अध्याय
महापरिमाण वाला और अमूर्त मानते हुये प्रसन्नता पूर्वक एकद्रव्य स्वीकार कर बैठे हैं, अतः उनके यहां अमूर्त होरहे सुख, ज्ञान, क्रिया प्रादि करके हुये व्यभिचार की निवृत्ति के लिये महापरिमाण यहां विशेषण देना सफल है, धर्म और अधर्म द्रव्य में अमूर्तपना हेतु ठहर रहा है, अतः स्वरूपासिद्ध नहीं है, देखिये धर्म और अधर्म (पक्ष ) अमूर्त हैं ( साध्य ) क्योंकि पुद्गल से भिन्न होते सन्ते द्रव्य हैं। ( हेतु ) आकाश के समान (अन्वयदृष्टान्त )। इस अनुमान से उस अमूर्तपन हेतु को साध दिया जाता है तथा हेतु का महत्त्व विशेषण भी प्रसिद्ध नहीं हैं, पक्ष में ठहर जाता है, कारण कि तीन जगत् में व्यापक हो रहे-पन करके धर्म और अधर्म में महापरिमाण को भविष्य में साध दिया जावेगा तिस कारण यह महापरिमाण वाले होते हुये अमूर्तपना हेतु निर्दोष है, इसमें कोई हेत्वामास दोष नहीं प्राता है।
खमुदाहरणमपि न साध्यसाधनधर्मविकलं तत्सिद्धिवादिनां, तदेकद्रव्यत्वस्य साध्यधर्मस्य च महत्वामूर्तत्वस्य तत्वतस्तत्र प्रसिद्धत्वात् । गगनासत्यवादिनां प्रति तस्य तथात्वेनाग्रे साधनाद्धर्माधर्मद्रव्यवत् । तत एव नाश्रय सिद्धो हेतुस्तदाश्रयस्य धर्मस्याधर्मस्य च प्रमाणेन सिद्धत्वात् ।
उक्त मनुमान में उस अाकाश की सिद्धि को स्पष्ट कहने वाले वादियों के यहां आकाश उदाहरण भी साध्यरूप धर्म और साधन स्वरूप धर्म से रीता नहीं है, क्योंकि उस आकाश में उसके एकद्रव्यपन स्वरूप साध्यधर्म की और तत्त्व रूप से महान् होते हुये अमूर्तपन स्वरूप साधन धर्म की प्रसिद्धि हो रही है। हां गगन का सद्भाव नहीं मानने-वाले चार्वाक आदि वादियों के प्रति उस आकाश को तिस प्रकार साध्य--सहितपन और हेतुसहितपन करके आगे ग्रन्थ में साध दिया जायगा जैसा कि यहां धर्म और अधम द्रव्य को, तैसा एक द्रव्यपना और महान होते हुये अमूर्तपना साध दिया जाता है। तिस ही कारण से यह हेतु प्राश्रयासिद्ध भी नहीं हैं। क्योंकि उस हेतु के आधारभूत धर्म और अधर्म की प्रमाण करके सिद्धि हो चुकी है, “प्रसिद्धो धर्मी" ऐसा सूत्र है । ' पक्षे पक्षतावच्छेदकाभाव आश्रयासिद्धिः" खर--विषाण आदि असत् पदार्थों में कोई भी वास्तविक स्वकीय धर्म नहीं रहता है यों पक्ष में पक्ष के धर्म का नहीं रहना पाश्रयासिद्धि दोष है।
नानाद्रव्यमसौ नानाप्रदेशत्वाद्धरादिवत् । इत्ययुक्तमनेकांतादाकाशेनैकता हृता॥४॥ तस्य नानाप्रदेशत्वसाधनादप्रतो नयात् ।
निरंशस्यास्य तत्सर्वमूर्तद्रव्यैरसंगतिः ॥ ५ ॥ यदि कोई पण्डित इस हेतु में सत्प्रतिपक्ष दोष उठाता हुआ यों दूसरा अनुमान बनावे कि वह धर्म या अधर्म (पक्ष ) अनेक अनेक द्रव्य हैं, ( साध्य ) अनेक प्रदेशवाले होने से ( हेतु ) पृथिवी, जल, आदि द्रव्यों के समान ( अन्वय दृष्टान्त ) । प्राचार्य कहते हैं कि यह कहना अयुक्त है क्योंकि एक