Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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पंचम अध्याय
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इस सूत्र में अभिविधि प्रर्थ में आङ् का प्रयोग किया गया है " तत्सहितोऽभिविधिः" यों प्रयुज्यमान आकाश का भी ग्रहण हो जाता है । यदि ग्राङ का अर्थ मर्यादा होता तो श्राकाश छूट जाता । यहां सूत्र में एक शब्द संख्या अर्थ को कह रहा है। इस पर किसी का प्रश्न है कि यह एक शब्द संख्या को कह रहा है तो उस संख्या वाचक एक शब्द के साथ सम्बन्ध हो जाने से द्रव्य शब्द के भी एक वचन हो जाने का प्रसंग आवेगा ? ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि धर्म आदिक कतिपय द्रव्यों की अपेक्षा करके द्रव्य शब्द के बहुवचनपना सिद्ध है, एक हो रहा और जो द्रव्य है, यों विग्रह कर कर्मधारय वृत्ति अनुसार " एक द्रव्य " शब्द को एक वचनान्त बनालो फिर एक द्रव्य (धर्मं ) और एक द्रव्य ( श्रधर्मं ) तथा तीसरा एक द्रव्य ( आकाश ) यों विग्रह कर एक-शेष-वृत्ति द्वारा “एक द्रव्यारिण" यह साधु शब्द बन जाता है, धर्मं प्रदिक तीन द्रव्यों की अपेक्षा बहुवचन का प्रयोग करना विरुद्ध नहीं पड़ता है ।
यहां कोई आक्षेप करता है कि "एक द्रव्यारिण" ऐसा नहीं कह कर 'एकैकं ' इतना ही विधेय दल रहो क्योंकि लाघव गुण है, द्रव्यों का प्रकरण चल रहा है, तथा लोक में श्राकाश श्रादिक द्रव्य रूप से प्रसिद्ध ही हैं । इस कारण द्रव्य की ज्ञप्ति विना कहे स्वयं हो ही जायगी, सूत्र में द्रव्य का ग्रहण करना व्यर्थ है ? ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना, द्रव्य शब्द व्यर्थ नहीं है क्योंकि द्रव्य की अपेक्षा करके एकपन की प्रसिद्धि कराने के लिये 'एक द्रव्याणि' ऐसा सूत्रकार का वचन है, हां पर्यायार्थिकनय अनुसार कथन करने से बहुपने की प्रतिपत्ति होजाती है अर्थात् - धर्म, ग्रधर्म, आकाश, द्रव्य तो एक ही एक हैं, किन्तु इनकी सहभावी या क्रमभावी पर्यायें बहुत हैं । एकसंख्या विशिष्टानीत्येकद्रव्याणि सूचयन् । अनेकद्रव्यतां हन्ति धर्मादीनामसंशयम् ॥ १ ॥ या श्राकाशादिति ख्यातेः पुद्गलानां नृणामपि । कालाणूनामनेकत्वविशिष्टद्रव्यतां विदुः ॥ २ ॥
" एकद्रव्याणि " यहां मध्यम पदलोपी समास करके या धर्म से विशिष्टपन का लक्ष्य कर एकत्व संख्या से विशिष्ट हो रहे ये एक एक द्रव्य हैं, इस प्रकार सूत्रद्वारा सूचन कर रहे श्री उमास्वामी महाराज तीन धर्मादि द्रव्यों के अनेक द्रव्यपन को संशयरहित नष्ट कर देते हैं । और प्रकाश पर्यंन्त इस प्रकार सूत्रकार द्वारा उत्कृष्ट कथन कर देने से तो पुद्गल और जीवों के भी तथा कालागुनों के अनेकत्वविशिष्ट द्रव्यपन को विद्वान् समझ लेते हैं ।
श्राकाशादेकत्वसंख्याविशिष्टान्येक द्रव्याणीति सूत्रयन्न केवलं द्रव्यापेक्षयानेकद्रव्यतामेषामपास्यति किं तर्हि ? जीवपुद् गलकालद्रव्याणामेकत्वं च ततोनेकत्वविशिष्टद्रव्यतामेषां वार्तिककारादयो विदुः । कथमिति चेत, उच्यते ।