Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक- वार्तिक"
प्रकाश पर्यन्त एकत्व संख्या से विशिष्ट होरहे एक एक द्रव्य हैं, इस प्रकार सूत्र करते हुये उमास्वामी महाराज उन धर्मादिकों के द्रव्य - प्रपेक्षा केवल अनेकद्रव्यपन का ही निराकरण नहीं करते हैं किन्तु साथ ही जीव द्रव्य, पुद्गल द्रव्य और कालद्रव्यों के एकपन का भी खण्डन कर देते हैं । तिस कारण वार्तिक को बनाने वाले अकलंक देव आदि उत्कृष्ट विद्वान् इन जीव पुद्गल कालारणुनों, के अनेकत्व विशिष्ट द्रव्यपन को समीचीन जान रहे हैं, साथ ही सूत्र अनुसार धर्म, अधर्म, और आकाश का एक एक द्रव्यपना निर्णीत कर चुके हैं। यहां यदि कोई यों पूछे कि इस प्रकार कैसे निर्णीत कर चुके हैं ? यों कथन करने पर तो ग्रन्थकार करके यह युक्ति कही जा रही है कि
एकद्रव्यमयं धर्मः स्यादधर्मश्च तत्त्वतः ।
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महत्त्वे सत्यमूर्तत्वात्खवत्तत्सिद्धिवादिनाम् ॥ ३ ॥
यह धर्मं द्रव्य और अधर्म द्रव्य ( पक्ष ) एक द्रव्य हैं । ( साध्य ) तत्त्व स्वरूप से महान् यानी महापरिमाण वाले होते सन्ते अमूर्त होने से ( हेतु ) । प्रत्यन्त परोक्ष उस आकाश की सिद्धि को कहने वाले मीमांसक नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक ग्रादि वादियों के यहाँ ग्राकाश के समान ( श्रन्वय दृष्टान्त ) अर्थात् - वैशेषिकों के महत् परिमाण वाले आकाश को एक द्रव्य स्वीकार किया है, इसी प्रकार धर्म और अधर्म भी एक एक द्रव्य हैं ।
महच्वादिस्युध्यमाने पुद्गलस्कन्धैर्व्यभि चारो मा भूदिर मूर्तस्ववचनं अमूर्तस्वादित्युक्त कालाखुभिर्वादिनः सुखादिभिः प्रतिवादिनोऽनेकांतो मा भूदिति महच्चाविशेषणं । न चातत्वमसिद्धं धर्माधर्मयोः पुद्गलादन्यत्वे सति द्रव्यत्वादाकाशवदिति तत्साधनात् । नापि महत्त्वं त्रिजगद्व्यापित्वेन साधयिष्यमाणत्वात् । ततो निरद्यां हेतुः ।
हवे सति अमूर्तत्व हेतु यह निर्दोष है यदि महत्त्वात् इतना ही कह दिया जाता तो पुद्गलनिर्मित स्कन्धों के साथ व्यभिचार होजाता । वह व्यभिचार नहीं होय इस लिये अमूर्तपन का कथन किया है, अर्थात् - पुद्गल के नभोवर्गणा, महास्कन्धवर्गरणा, सुमेरु, स्वयंप्रभाचल पर्वत, स्वयंभूरमण समुद्र, श्रेणीबद्धविमान आदि स्कन्ध महान् हैं । किन्तु श्रमूर्त नहीं हैं, अतः पुद्गल की स्कन्ध-स्वरूप अनेक पर्यायों में एक द्रव्यपन नहीं ठहराया जा सकता है। यदि श्रमूर्तत्वात् इतना ही हेतु कह दिया जाता तो वादी विद्वान् जैनों के यहां कालपरमाणुओं या सिद्ध आत्मानों करके व्यभिचार हो जाता तथा इस समय प्रतिवादी बन रहे नैयायिक या मीमांसक के यहां अमूर्त माने गये सुख, इच्छा, आदि करके व्यभिचार होजाता । वह व्यभिचार नहीं होय इस लिये हेतु में महत्त्व नामक विशेषरण डाला गया है ।
भावार्थ - जैनों के काला और सिद्ध जीवों को अमूर्त माना गया है, किन्तु महा परिमाण वाले नहीं होने से ये एक द्रव्य नहीं हैं। कालाग्गयें तो प्रसंख्यात हैं, और सिद्ध अनन्तानन्त हैं । प्रतिवादियों की अपेक्षा काल करके व्यभिचार नहीं होगा क्योंकि वे वैशेषिक या नैयायिक काल द्रव्य को