Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताङ्गसूत्रे शूलम्-एवं विपडिबन्नेगे अप्पणा उ अजायणा ।
तमाओ ते तमं जति मंदा मोहेण पाउंडा ॥११॥ छाया--एवं विप्रतिपन्ना एके आत्मना तु अज्ञाः ।
तमस्ते तमसो यान्ति मन्दा मोहेन मावृताः ॥११॥ अन्वयार्थः--(एवं) एवमनेन प्रकारेण (विप्पडिवन्ना) विपतिपन्नाः साधु सन्मार्गहें पिणः (एके) एके केचन-अनार्याः (अध्पणा उ) आत्मना तु (अजायणा) अज्ञाः विवेकाविज्ञा: (मोहेन पाउडा) मोहेन प्रावृताः मोहेन मियादर्शनरूपेण मावृता आच्छादितमतयः (ते) ते (माओ) तमस: अज्ञानरूपान्धकारात् (तमे) तमा उत्कृष्टमज्ञानान्धकार (जति) यान्ति गच्छन्तीति ॥११॥ ___ शब्दार्थ-एवं-एवम्' इस प्रकार विप्पडिबन्ना-विप्रतिपन्नाः साधु और लन्मार्ग के द्रोही 'एगे-एगे' कोई कोई 'अप्पणा उ-आत्मना तु' स्वयं 'अजायणा-अज्ञाः' अज्ञ जीव 'मोहेण पाउडा-मोहेन प्रवृताः' मोह से ढके हुए अर्थात् मिथ्यादर्शन से ढकी हुइ मनिघाले हैं 'ते-ते' वे 'तमाओ-तबला' अज्ञान रूप अंधकारसे तमं-तम.' उत्कृष्टः अज्ञान रूपी अन्धकार को 'जति-घान्ति' प्रवेश करते हैं ॥११॥ । ___ अन्वयार्थ-जो लोग इस प्रकार साधु ओं के विरोधी हैं, अनार्य है, विवेकविकल हैं, मोह से अच्छादितभति वाले हैं, ते वे अज्ञान से अज्ञान की ओर जाते हैं अर्थात् अज्ञानाधिकार से उत्कृष्ट अन्धकार की दिशा में अग्रसर होते है ।।११।।।
शार्थ - ‘एवं-एवम्' या प्रमाणे 'विप्पडियन्ना-विप्रतिपन्नाः साधु भने सभागना दाही 'एके-एके' | 'अपणा उ-आत्मना तु' पाते 'ज.. यणा-अज्ञाः' अज्ञ 94 'मोहेण पाउहा- मोहेन प्रवृताः' माथा ढiसा छ अर्थात् मिथ्या नथी ढासी मति छे 'ते-ते' तसा 'तमाओ-तमसे:' अज्ञान ३५ माथी 'तमं-तमः' उत्कृष्ट मझान ३५ी मारने 'जंति-यन्ति' प्राप्त ४२ छे. ॥११॥
સુત્રાર્થ–જે લેકે આ પ્રકારે સાધુઓના વિરોધી હોય છે, અનાર્ય અને વિવેકથી વિહીન હોય છે, અને મેડથી આચ્છાદિત મતિવાળા હોય છે, તેઓ એક અજ્ઞાનમાંથી બીજા અજ્ઞાન તરફ જાય છે એટલે કે અજ્ઞાન રૂપ અંધકારમાં ડૂબેલા તે લકે નરક અદિ રૂપ ઉત્કૃષ્ટ અંધકારની દિશામાં અસર થાય છે. ગાથા ૧૧