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यह तो है नहीं कि विहायोगति कर्मके उदयसे तथा अन्यदेशवर्ती जीवोंके पुण्यविपाकके निमित्तसे जैसे उनके गमन होता है या वचनयोगके वशसे तथा भव्य जीवके पुण्य विपाकसे जैसे दिव्यध्वनि होती है। उसी प्रकार केवली भगवान के भोजन भी विना इच्छाके वेदनीय कर्मके उदयसे अपने आप हो जायगा; क्योंकि आकाशगमन और दिव्यध्वनिमें एक तो केवली भगवानका कोई निजी स्वार्थ नहीं जिससे उनके उस समय इच्छा अवश्य होवे । दूसरे वे दोनों कार्य कर्मके उदयसे परवश उन्हें करने पडते हैं, नामकर्म कराता है। परंतु वेदनीय कर्म तो ऐसा नहीं कर सकता ।
वेदनीय कर्म यदि आपके कहे अनुसार कार्य भी करे तो अधिकसे अधिक यही कर सकता है कि असा ( न सहने योग्य) भूख वेदना उत्पन्न कर दे किंतु वह भोजन करनेकी इच्छा तो किसी प्रकार भी उत्पन्न नहीं कर सकता; क्योंकि इच्छा वेदनीयका कार्य नहीं है। और न बलपूर्वक [ जबरदस्ती ] भोजन ही करा सकता है। क्योंकि वह तो [ असातावेदनीय ] केवल दुःख उत्पादक है । दुःख हटाने की चेष्टा मोहनीय कर्म कराता है । इस कारण केवली भगवान के भोजन करें तो मोह अवश्य मानना पडेगा ।
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तथा - एक बात यह भी है कि केवलज्ञानी यदि ओजन करें तो अपनी अपनी जठराभिके ( पेटकी भोजन पचानेवाली अमिके) अनुसार कोई केवली थोडा भोजन करेंगे और कोई बहुत करेंगे; क्योंकि ऐसा किये विना उनके पूर्ण तृप्ति नहीं होगी । पूर्ण तृप्ति हुए बिना उन्हें शान्ति, सुख नहीं मिलेगा । अतः यदि वे पेट पूरा भरकर भोजन करें तो भवती लोगों के समान भोगाभिलाषी हुए । यदि भूख से कुछ कम मोजन करें तो दो दोष आते हैं; एक तो यह कि उनका पेट खाली रह जानेसे पूरी तृप्ति नहीं होगी अतः सुखमें कभी रहेगी। दूसरा यह कि – जब वे यथाख्यात चारित्र पा चुके हैं तब उन्हें ऊनोदर ( भूख से कम खाना ) तप करनेकी आवश्यकता ही क्या रही ?
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